"महाभारत उद्योग पर्व अध्याय 1 श्लोक 12-26": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 12-26 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">महाभारत: उद्योग पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 12-26 का हिन्दी अनुवाद </div>


इस तेरहवें वर्ष को पार करना बहुत ही कठिन था, परंतु इन महात्माओं ने आपके पास ही अज्ञात रूप से रहकर भांति-भाति के असहाय कलेश सहते हुए यह वर्ष बिताया है, इसके अतिरिक्त बारह वर्षों तक ये वन में भी रह चुके है। अपनी कुल परम्परा से प्राप्त हुए राज्य की अभिलाषा से ही इन वीरों ने अब तक अज्ञातवस्था में दूसरों की सेवा में संलग्न रहकर तेरहवाँ वर्ष पूरा किया है। ऐसी परिस्थिति में जिस उपाय से धर्मपुत्र युधिष्ठिर तथा राजा [[दुर्योधन]] का भी हित हो, उसका आप लोग विचार करें। आप कोई ऐसा मार्ग ढूँढ निकाले, जो इन कुरूक्षेत्र वीरों के लिए धर्मानुकूल, न्यायोचित तथा यश की वृद्धि करने वाला हो धर्मराज युधिष्ठिर यदि धर्म के विरूद्ध देवताओं का भी राज्य प्राप्त होता हो, तो से लेना नहीं चाहेंगे। अतः सभी सभासद् कौरवों के बढे़ हुए लोभ को, युधिष्ठिर की धर्मशाला को तथा इन दोनों पारस्परिक सम्बन्धों को देखते हुए अलग-अलग तथा एक राय से भी कुछ मिश्रण करें। ये पाण्डवगण सदा ही सत्यपरायण होने के कारण पहले की हुई प्रतिज्ञा यथावत् पालन करके हमारे सामने उपस्थित है। यदि अब भी धृतराष्ट्र पुत्र इनके साथ विपरीत व्यवहार ही करते रहेगे-इनका राज्य नही लौटा देगे, तो पाण्डव उन सबको मार डालेंगे। कौरव लोग पाण्डवो के कार्य में विघ्न डाल रहे है और उनकी बुराई पर ही तुले हुए है: यह बात निश्चित रूप से जान लेने पर मार गिरायेगे। सम्भव है सुहृदों और सबन्धियों को उचित है कि वे उन दुष्ट कौरवों को (इन प्रकार अत्याचार करने से ) रोकें। यदि धृतराष्ट्र के पुत्र इस प्रकार युद्ध छेडकर इन पाण्डवों को सतायेगे, तो उनके बाध्य करने पर ये डटकर उनका सामना करेंगे और उन्हे मार गिरायेगे। सम्भव है, आप लोग यह सोचते है हो कि ये पाण्डव अल्पसंख्यक होने कारण उन पर विजय पाने में समर्थ नही है। तथापि ये सब लोग अपने हितेषी सुहृदों के साथ मिलकर शत्रुओ के विनाश के लिए प्रयत्न तो करेगे ही। (अतः इन्हे आप लोग दुर्बल न समझे) युद्ध का भी निश्चय कैसे किया जाय ; क्योंकि, दुर्योधन के भी मत का अभी ठीक-ठाक पता नही वह क्या करेगा। शत्रु पक्ष का विचार जाने बिना आप लोग कोई ऐसा निश्चय कैसे कर सकते है जिसे अवश्य ही कार्यरूप में परिणित किया जा सके। अतः यह मेरा विचार है कि यहाँ से कोई धर्मशील, पवित्रात्मा कुलीन और सावधान पुरूष दूत बनकर वहाँ जाए। वह दूत ऐसा होना चाहिए, जो उनके जोश तथा रोष को शान्त करने में समर्थ हो और उन्हे युधिष्ठर को इनका आधा राज्य दे देने के लिये विवश कर सके। राजन् ! भगवान श्रीकृष्ण धर्म और अर्थ से युक्त, मधुर एवं उभयपक्ष के लिये समानरूप से हितकर वचन सुनकर उनके बडे भाई बलरामजी ने उस भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा कर के अपना वक्तव्य आरम्भ किया।
इस तेरहवें वर्ष को पार करना बहुत ही कठिन था, परंतु इन महात्माओं ने आपके पास ही अज्ञात रूप से रहकर भांति-भाति के असहाय कलेश सहते हुए यह वर्ष बिताया है, इसके अतिरिक्त बारह वर्षों तक ये वन में भी रह चुके है। अपनी कुल परम्परा से प्राप्त हुए राज्य की अभिलाषा से ही इन वीरों ने अब तक अज्ञातवस्था में दूसरों की सेवा में संलग्न रहकर तेरहवाँ वर्ष पूरा किया है। ऐसी परिस्थिति में जिस उपाय से धर्मपुत्र युधिष्ठिर तथा राजा [[दुर्योधन]] का भी हित हो, उसका आप लोग विचार करें। आप कोई ऐसा मार्ग ढूँढ निकाले, जो इन कुरूक्षेत्र वीरों के लिए धर्मानुकूल, न्यायोचित तथा यश की वृद्धि करने वाला हो धर्मराज युधिष्ठिर यदि धर्म के विरुद्ध देवताओं का भी राज्य प्राप्त होता हो, तो से लेना नहीं चाहेंगे। अतः सभी सभासद् कौरवों के बढे़ हुए लोभ को, युधिष्ठिर की धर्मशाला को तथा इन दोनों पारस्परिक सम्बन्धों को देखते हुए अलग-अलग तथा एक राय से भी कुछ मिश्रण करें। ये पाण्डवगण सदा ही सत्यपरायण होने के कारण पहले की हुई प्रतिज्ञा यथावत् पालन करके हमारे सामने उपस्थित है। यदि अब भी धृतराष्ट्र पुत्र इनके साथ विपरीत व्यवहार ही करते रहेगे-इनका राज्य नही लौटा देगे, तो पाण्डव उन सबको मार डालेंगे। कौरव लोग पाण्डवो के कार्य में विघ्न डाल रहे है और उनकी बुराई पर ही तुले हुए है: यह बात निश्चित रूप से जान लेने पर मार गिरायेगे। सम्भव है सुहृदों और सबन्धियों को उचित है कि वे उन दुष्ट कौरवों को (इन प्रकार अत्याचार करने से ) रोकें। यदि धृतराष्ट्र के पुत्र इस प्रकार युद्ध छेडकर इन पाण्डवों को सतायेगे, तो उनके बाध्य करने पर ये डटकर उनका सामना करेंगे और उन्हे मार गिरायेगे। सम्भव है, आप लोग यह सोचते है हो कि ये पाण्डव अल्पसंख्यक होने कारण उन पर विजय पाने में समर्थ नही है। तथापि ये सब लोग अपने हितेषी सुहृदों के साथ मिलकर शत्रुओ के विनाश के लिए प्रयत्न तो करेगे ही। (अतः इन्हे आप लोग दुर्बल न समझे) युद्ध का भी निश्चय कैसे किया जाय ; क्योंकि, दुर्योधन के भी मत का अभी ठीक-ठाक पता नही वह क्या करेगा। शत्रु पक्ष का विचार जाने बिना आप लोग कोई ऐसा निश्चय कैसे कर सकते है जिसे अवश्य ही कार्यरूप में परिणित किया जा सके। अतः यह मेरा विचार है कि यहाँ से कोई धर्मशील, पवित्रात्मा कुलीन और सावधान पुरुष दूत बनकर वहाँ जाए। वह दूत ऐसा होना चाहिए, जो उनके जोश तथा रोष को शान्त करने में समर्थ हो और उन्हे युधिष्ठर को इनका आधा राज्य दे देने के लिये विवश कर सके। राजन् ! भगवान श्रीकृष्ण धर्म और अर्थ से युक्त, मधुर एवं उभयपक्ष के लिये समानरूप से हितकर वचन सुनकर उनके बडे भाई बलरामजी ने उस भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा कर के अपना वक्तव्य आरम्भ किया।


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07:37, 3 जनवरी 2016 के समय का अवतरण

प्रथम (1) अध्‍याय: उद्योग पर्व (सेनोद्योग पर्व)

महाभारत: उद्योग पर्व: प्रथम अध्याय: श्लोक 12-26 का हिन्दी अनुवाद

इस तेरहवें वर्ष को पार करना बहुत ही कठिन था, परंतु इन महात्माओं ने आपके पास ही अज्ञात रूप से रहकर भांति-भाति के असहाय कलेश सहते हुए यह वर्ष बिताया है, इसके अतिरिक्त बारह वर्षों तक ये वन में भी रह चुके है। अपनी कुल परम्परा से प्राप्त हुए राज्य की अभिलाषा से ही इन वीरों ने अब तक अज्ञातवस्था में दूसरों की सेवा में संलग्न रहकर तेरहवाँ वर्ष पूरा किया है। ऐसी परिस्थिति में जिस उपाय से धर्मपुत्र युधिष्ठिर तथा राजा दुर्योधन का भी हित हो, उसका आप लोग विचार करें। आप कोई ऐसा मार्ग ढूँढ निकाले, जो इन कुरूक्षेत्र वीरों के लिए धर्मानुकूल, न्यायोचित तथा यश की वृद्धि करने वाला हो धर्मराज युधिष्ठिर यदि धर्म के विरुद्ध देवताओं का भी राज्य प्राप्त होता हो, तो से लेना नहीं चाहेंगे। अतः सभी सभासद् कौरवों के बढे़ हुए लोभ को, युधिष्ठिर की धर्मशाला को तथा इन दोनों पारस्परिक सम्बन्धों को देखते हुए अलग-अलग तथा एक राय से भी कुछ मिश्रण करें। ये पाण्डवगण सदा ही सत्यपरायण होने के कारण पहले की हुई प्रतिज्ञा यथावत् पालन करके हमारे सामने उपस्थित है। यदि अब भी धृतराष्ट्र पुत्र इनके साथ विपरीत व्यवहार ही करते रहेगे-इनका राज्य नही लौटा देगे, तो पाण्डव उन सबको मार डालेंगे। कौरव लोग पाण्डवो के कार्य में विघ्न डाल रहे है और उनकी बुराई पर ही तुले हुए है: यह बात निश्चित रूप से जान लेने पर मार गिरायेगे। सम्भव है सुहृदों और सबन्धियों को उचित है कि वे उन दुष्ट कौरवों को (इन प्रकार अत्याचार करने से ) रोकें। यदि धृतराष्ट्र के पुत्र इस प्रकार युद्ध छेडकर इन पाण्डवों को सतायेगे, तो उनके बाध्य करने पर ये डटकर उनका सामना करेंगे और उन्हे मार गिरायेगे। सम्भव है, आप लोग यह सोचते है हो कि ये पाण्डव अल्पसंख्यक होने कारण उन पर विजय पाने में समर्थ नही है। तथापि ये सब लोग अपने हितेषी सुहृदों के साथ मिलकर शत्रुओ के विनाश के लिए प्रयत्न तो करेगे ही। (अतः इन्हे आप लोग दुर्बल न समझे) युद्ध का भी निश्चय कैसे किया जाय ; क्योंकि, दुर्योधन के भी मत का अभी ठीक-ठाक पता नही वह क्या करेगा। शत्रु पक्ष का विचार जाने बिना आप लोग कोई ऐसा निश्चय कैसे कर सकते है जिसे अवश्य ही कार्यरूप में परिणित किया जा सके। अतः यह मेरा विचार है कि यहाँ से कोई धर्मशील, पवित्रात्मा कुलीन और सावधान पुरुष दूत बनकर वहाँ जाए। वह दूत ऐसा होना चाहिए, जो उनके जोश तथा रोष को शान्त करने में समर्थ हो और उन्हे युधिष्ठर को इनका आधा राज्य दे देने के लिये विवश कर सके। राजन् ! भगवान श्रीकृष्ण धर्म और अर्थ से युक्त, मधुर एवं उभयपक्ष के लिये समानरूप से हितकर वचन सुनकर उनके बडे भाई बलरामजी ने उस भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा कर के अपना वक्तव्य आरम्भ किया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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