"श्रीमद्भागवत माहात्म्य अध्याय 4 श्लोक 26-39": अवतरणों में अंतर
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जब वर्ष, महीना और दिनों के नियम का आग्रह छोड़कर सदा ही प्रेम और भक्ति के साथ श्रवण किया जाय, तब वह सेवन ‘निर्गुण’ माना गया है । | जब वर्ष, महीना और दिनों के नियम का आग्रह छोड़कर सदा ही प्रेम और भक्ति के साथ श्रवण किया जाय, तब वह सेवन ‘निर्गुण’ माना गया है । | ||
राजा परीक्षित् और शुकदेव के संवाद में भी जो भागवत का सेवन हुआ था, वह निर्गुण ही बताया गया है। उसमें जो सात दिनों की बात आती है, वह राजा की आयु के बचे हुए दिनों की संख्या के अनुसार है, सप्ताह-कथा का नियम करने के लिये नहीं । | राजा परीक्षित् और शुकदेव के संवाद में भी जो भागवत का सेवन हुआ था, वह निर्गुण ही बताया गया है। उसमें जो सात दिनों की बात आती है, वह राजा की आयु के बचे हुए दिनों की संख्या के अनुसार है, सप्ताह-कथा का नियम करने के लिये नहीं । | ||
भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य स्थानों में भी त्रिगुण (सात्विक, राजस और तामस) अथवा निर्गुण-सेवन अपनी | भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य स्थानों में भी त्रिगुण (सात्विक, राजस और तामस) अथवा निर्गुण-सेवन अपनी रुचि के अनुसार करना चाहिये। तात्पर्य यह कि जिस किसी प्रकार भी हो सके श्रीमद्भागवत का सेवन, उसका श्रवण करना ही चाहिये । | ||
जो केवल श्रीकृष्ण की लीलाओं के ही श्रवण, कीर्तन एवं रसास्वादन के लिये लालायित रहते और मोक्ष की भी इच्छा नहीं रखते, उनका तो श्रीमद्भागवत ही धन है । | जो केवल श्रीकृष्ण की लीलाओं के ही श्रवण, कीर्तन एवं रसास्वादन के लिये लालायित रहते और मोक्ष की भी इच्छा नहीं रखते, उनका तो श्रीमद्भागवत ही धन है । | ||
तथा जो संसार के दुःखों से घबराकर अपनी मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये भी यही इस भवरोग की ओषधि है। अतः इस कलिकाल में इसका प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये । | तथा जो संसार के दुःखों से घबराकर अपनी मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये भी यही इस भवरोग की ओषधि है। अतः इस कलिकाल में इसका प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये । |
07:50, 3 जनवरी 2016 के समय का अवतरण
चतुर्थ (4) अध्याय
एक या दो महीने में धीरे-धीरे कथा के रस का आस्वादन करते हुए बिना परिश्रम के जो श्रवण होता है, वह पूर्ण आनन्द को बढ़ाने वाला ‘सात्विक’ सेवन कहलाता है । तामस सेवन वह है जो कभी भूल से छोड़ दिया जाय और याद आने पर फिर आरम्भ कर दिया जाय, इस प्रकार एक वर्ष तक आलस्य और अश्रद्धा के साथ चलाया जाय। यह ‘तामस’ सेवन भी न करने की अपेक्षा अच्छा और सुख ही देने वाला है । जब वर्ष, महीना और दिनों के नियम का आग्रह छोड़कर सदा ही प्रेम और भक्ति के साथ श्रवण किया जाय, तब वह सेवन ‘निर्गुण’ माना गया है । राजा परीक्षित् और शुकदेव के संवाद में भी जो भागवत का सेवन हुआ था, वह निर्गुण ही बताया गया है। उसमें जो सात दिनों की बात आती है, वह राजा की आयु के बचे हुए दिनों की संख्या के अनुसार है, सप्ताह-कथा का नियम करने के लिये नहीं । भारतवर्ष के अतिरिक्त अन्य स्थानों में भी त्रिगुण (सात्विक, राजस और तामस) अथवा निर्गुण-सेवन अपनी रुचि के अनुसार करना चाहिये। तात्पर्य यह कि जिस किसी प्रकार भी हो सके श्रीमद्भागवत का सेवन, उसका श्रवण करना ही चाहिये । जो केवल श्रीकृष्ण की लीलाओं के ही श्रवण, कीर्तन एवं रसास्वादन के लिये लालायित रहते और मोक्ष की भी इच्छा नहीं रखते, उनका तो श्रीमद्भागवत ही धन है । तथा जो संसार के दुःखों से घबराकर अपनी मुक्ति चाहते हैं, उनके लिये भी यही इस भवरोग की ओषधि है। अतः इस कलिकाल में इसका प्रयत्नपूर्वक सेवन करना चाहिये । इनके अतिरिक्त जो लोग विषयों में ही रमण करने वाले हैं, सांसारिक सुखों की ही जिन्हें सदा चाह रहती है, उनके लिये भी अब इस कलियुग में सामर्थ्य, धन और विधि-विधान का ज्ञान न होने के कारण कर्ममार्ग (यज्ञादि) से मिलने वाली सिद्धि अत्यन्त दुर्लभ हो गयी है। ऐसी दशा में उन्हें भी सब प्रकार से अब इस भागवत कथा का ही सेवन करना चाहिये । यह श्रीमद्भागवत की कथा धन, पुत्र, स्त्री, हाथी-घोड़े आदि वाहन, यश, मकान और निष्कण्टक राज्य भी दे सकती है । सकाम भाव से भागवत का सहारा लेने वाले मनुष्य इस संसार में मनोवांछित उत्तम भोगों को भोगकर अन्त में श्रीमद्भागवत के ही संग से श्रीहरि के परम धाम को प्राप्त हो जाते हैं । जिनके यहाँ श्रीमद्भागवत की कथा-वार्ता होती हो तथा जो लोग उस कथा के श्रवण में लगे रहते हों, उनकी सेवा और सहायता अपने शरीर और धन से करनी चाहिये । उन्हीं के अनुग्रह से सहायता करने वाले पुरुष को भी भागवत-सेवन का पुण्य प्राप्त होता है। कामना दो वस्तुओं की होती है—श्रीकृष्ण और धन की। श्रीकृष्ण के सिवा जो कुछ चाहा जाय, यह सब धन के अन्तर्गत है; उसकी ‘धन’ संज्ञा है । श्रोता और वक्ता भी दो प्रकार के माने गये हैं, एक श्रीकृष्ण को चाहने वाले और दूसरे धन को। जैसा वक्ता, वैसा ही श्रोता भी हो तो वहाँ कथा में रस मिलता है, अतः सुख की वृद्धि होती है ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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