"परदेशी -रामधारी सिंह दिनकर": अवतरणों में अंतर

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|चित्र का नाम=रामधारी सिंह दिनकर
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|कवि=[[रामधारी सिंह दिनकर]]
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|जन्म=[[23 सितंबर]], सन 1908
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|जन्म स्थान=सिमरिया, ज़िला मुंगेर ([[बिहार]])  
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|मृत्यु= [[24 अप्रैल]], सन 1974
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मैत्री के शीतल कानन में छिपा कपट का शूल यहाँ,
मैत्री के शीतल कानन में छिपा कपट का शूल यहाँ,
कितने कीटों से सेवित है मानवता का मूल यहाँ?
कितने कीटों से सेवित है मानवता का मूल यहाँ?
इस उपवन की पगडण्डी पर बचकर जाना परदेशी।  
इस उपवन की पगडण्डी पर बचकर जाना परदेशी।  
यहाँ मेनका की चितवन पर मत ललचाना परदेशी!
यहाँ मेनका की चितवन पर मत ललचाना परदेशी!
जगती में मादकता देखी, लेकिन अक्षय तत्त्व नहीं,
जगती में मादकता देखी, लेकिन अक्षय तत्त्व नहीं,
आकर्षण में तृप्ति उर सुन्दरता में अमरत्व नहीं।  
आकर्षण में तृप्ति उर सुन्दरता में अमरत्व नहीं।  
यहाँ प्रेम में मिली विकलता, जीवन में परितोष नहीं,
यहाँ प्रेम में मिली विकलता, जीवन में परितोष नहीं,
बाल-युवतियों के आलिंगन में पाया संतोष नहीं।  
बाल-युवतियों के आलिंगन में पाया संतोष नहीं।  
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महाप्रलय की ओर सभी को इस मरू में चलते देखा ,
महाप्रलय की ओर सभी को इस मरू में चलते देखा ,
किस से लिपट जुडाता? सबको ज्वाला में जलते देखा
किस से लिपट जुडता? सबको ज्वाला में जलते देखा
अंतिम बार चिता-दीपक में जीवन को बलते देखा;
अंतिम बार चिता-दीपक में जीवन को बलते देखा;
चलत समय सिकंदर -से विजयी को कर मलते देखा।  
चलत समय सिकंदर-से विजयी को कर मलते देखा।  
 


सबने देकर प्राण मौत की कीमत जानी परदेशी।  
सबने देकर प्राण मौत की कीमत जानी परदेशी।  
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी ?
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी ?
रोते जग की अनित्यता पर सभी विश्व को छोड़ चले,
रोते जग की अनित्यता पर सभी विश्व को छोड़ चले,
कुछ तो चढ़े चिता के रथ पर , कुछ क़ब्रों की ओर चले।  
कुछ तो चढ़े चिता के रथ पर, कुछ क़ब्रों की ओर चले।  


रुके न पल-भर मित्र , पुत्र माता से नाता तोड़ चले,
रुके न पल-भर मित्र , पुत्र माता से नाता तोड़ चले,
लैला रोती रही किन्तु, कितने मजनू मुँह मोड़ चले।  
लैला रोती रही किन्तु, कितने मजनूं मुँह मोड़ चले।  
जीवन का मधुमय उल्लास, औ' यौवन का हास विलास,
रूप-राशि का यह अभिमान, एक स्वप्न है, स्वप्न अजान।


जीवन का मधुमय उल्लास ,
मिटता लोचन -राग यहाँ पर, मुरझाती सुन्दरता प्यारी,
औ' यौवन का हास विलास,
एक-एक कर उजड़ रही है हरी-भरी कुसुमों की क्यारी
रूप-राशि का यह अभिमान,
मैं ना रुकूंगा इस भूतल पर जीवन, यौवन, प्रेम गंवाकर ;
एक स्वप्न है, स्वप्न अजान।
वायु, उड़ाकर ले चल मुझको जहाँ-कहीं इस जग से बाहर
मिटता लोचन -राग यहाँ पर,
मुरझाती सुन्दरता प्यारी,
एक-एक कर उजड़ रही है
हरी-भरी कुसुमों की क्यारी
मैं ना रुकूंगा इस भूतल पर
जीवन, यौवन, प्रेम गंवाकर ;
वायु, उड़ाकर ले चल मुझको
जहाँ-कहीं इस जग से बाहर


मरते कोमल वत्स यहाँ, बचती ना जवानी परदेशी!
मरते कोमल वत्स यहाँ, बचती ना जवानी परदेशी!

09:01, 28 जून 2016 के समय का अवतरण

परदेशी -रामधारी सिंह दिनकर
रामधारी सिंह दिनकर
रामधारी सिंह दिनकर
कवि रामधारी सिंह दिनकर
जन्म 23 सितंबर, सन् 1908
जन्म स्थान सिमरिया, ज़िला मुंगेर (बिहार)
मृत्यु 24 अप्रैल, सन् 1974
मृत्यु स्थान चेन्नई, तमिलनाडु
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ

माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?
भय है, सुन कर हँस दोगे मेरी नादानी परदेशी!
सृजन-बीच संहार छिपा, कैसे बतलाऊं परदेशी?
सरल कंठ से विषम राग मैं कैसे गाऊँ परदेशी?

एक बात है सत्य कि झर जाते हैं खिलकर फूल यहाँ,
जो अनुकूल वही बन जता दुर्दिन में प्रतिकूल यहाँ।
मैत्री के शीतल कानन में छिपा कपट का शूल यहाँ,
कितने कीटों से सेवित है मानवता का मूल यहाँ?

इस उपवन की पगडण्डी पर बचकर जाना परदेशी।
यहाँ मेनका की चितवन पर मत ललचाना परदेशी!
जगती में मादकता देखी, लेकिन अक्षय तत्त्व नहीं,
आकर्षण में तृप्ति उर सुन्दरता में अमरत्व नहीं।

यहाँ प्रेम में मिली विकलता, जीवन में परितोष नहीं,
बाल-युवतियों के आलिंगन में पाया संतोष नहीं।
हमें प्रतीक्षा में न तृप्ति की मिली निशानी परदेशी!
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?

महाप्रलय की ओर सभी को इस मरू में चलते देखा ,
किस से लिपट जुडता? सबको ज्वाला में जलते देखा
अंतिम बार चिता-दीपक में जीवन को बलते देखा;
चलत समय सिकंदर-से विजयी को कर मलते देखा।

सबने देकर प्राण मौत की कीमत जानी परदेशी।
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी ?
रोते जग की अनित्यता पर सभी विश्व को छोड़ चले,
कुछ तो चढ़े चिता के रथ पर, कुछ क़ब्रों की ओर चले।

रुके न पल-भर मित्र , पुत्र माता से नाता तोड़ चले,
लैला रोती रही किन्तु, कितने मजनूं मुँह मोड़ चले।
जीवन का मधुमय उल्लास, औ' यौवन का हास विलास,
रूप-राशि का यह अभिमान, एक स्वप्न है, स्वप्न अजान।

मिटता लोचन -राग यहाँ पर, मुरझाती सुन्दरता प्यारी,
एक-एक कर उजड़ रही है हरी-भरी कुसुमों की क्यारी
मैं ना रुकूंगा इस भूतल पर जीवन, यौवन, प्रेम गंवाकर ;
वायु, उड़ाकर ले चल मुझको जहाँ-कहीं इस जग से बाहर

मरते कोमल वत्स यहाँ, बचती ना जवानी परदेशी!
माया के मोहक वन की क्या कहूँ कहानी परदेशी?

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