"श्रीमद्भागवत महापुराण एकादश स्कन्ध अध्याय 5 श्लोक 11-18": अवतरणों में अंतर

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(वेद विधि के रूप में ऐसे ही कर्मों के करने की आज्ञा देता है कि जिसमें मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती।) संसार में देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्द की ओर प्राणी की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है। तब उसे उसमें प्रवृत्त करने के लिये विधान तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में विवाह, यज्ञ और सूत्रामणि यज्ञ के द्वारा ही जो उनके सेवन की व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगों की उच्छ्रखल प्रवृत्ति का नियन्त्रण, उनका मर्यादा में स्थापन। वास्तव में उसकी ओर से लोगों को हटाना ही श्रुति को अभीष्ट है । धन का एकमात्र फल है धर्म; क्योंकि धर्म से ही परम-तत्व का ज्ञान और उसकी निष्ठा—अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है और निष्ठा में ही परम शान्ति है। परन्तु यह कितने खेद की बात है कि लोग उस धन का उपयोग घर-गृहस्थी के स्वार्थों में या कामभोग ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्यु का शिकार है और वह मृत्यु किसी प्रकार भी टाली नहीं जा सकती । सौत्रामणि यज्ञ में भी सूरा को सूँघने का ही विधान है, पीने का नहीं। यज्ञ में पशु का आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं। इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नी के स्थ मैथुन की आज्ञा भी विषयभोग के लिये नहीं, धार्मिक परम्परा की रक्षा के निमित्त सन्तान उत्पन्न करने के लिये ही दी गयी है। परन्तु जो लोग अर्थवाद के वचनों में फँसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्म को जानते ही नहीं ।
(वेद विधि के रूप में ऐसे ही कर्मों के करने की आज्ञा देता है कि जिसमें मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती।) संसार में देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्द की ओर प्राणी की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है। तब उसे उसमें प्रवृत्त करने के लिये विधान तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में विवाह, यज्ञ और सूत्रामणि यज्ञ के द्वारा ही जो उनके सेवन की व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगों की उच्छ्रखल प्रवृत्ति का नियन्त्रण, उनका मर्यादा में स्थापन। वास्तव में उसकी ओर से लोगों को हटाना ही श्रुति को अभीष्ट है । धन का एकमात्र फल है धर्म; क्योंकि धर्म से ही परम-तत्व का ज्ञान और उसकी निष्ठा—अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है और निष्ठा में ही परम शान्ति है। परन्तु यह कितने खेद की बात है कि लोग उस धन का उपयोग घर-गृहस्थी के स्वार्थों में या कामभोग ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्यु का शिकार है और वह मृत्यु किसी प्रकार भी टाली नहीं जा सकती । सौत्रामणि यज्ञ में भी सूरा को सूँघने का ही विधान है, पीने का नहीं। यज्ञ में पशु का आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं। इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नी के स्थ मैथुन की आज्ञा भी विषयभोग के लिये नहीं, धार्मिक परम्परा की रक्षा के निमित्त सन्तान उत्पन्न करने के लिये ही दी गयी है। परन्तु जो लोग अर्थवाद के वचनों में फँसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्म को जानते ही नहीं ।


जो इस विशुद्ध धर्म को नहीं जानते, वे घमंडी वास्तव में तो दुष्ट हैं, परन्तु समझते हैं अपने को श्रेष्ठ। वे धोखे में पड़े हुए लोग पशुओं की हिंसा करते हैं और मरने के बाद वे पशुओं की हिंसा करते हैं और मरने के बाद वे पशु ही उन मारने वालों को खाते हैं । यह शरीर मृतक-शरीर है। इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं। जो लोग इस शरीर से तो प्रेम की गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरों में रहने वाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान  से द्वेष करते हैं, उन मूर्खों का अधःपतन निश्चित है । जिन लोगों ने आत्मज्ञान सम्पादन करके कैवल्य-मोक्ष नहीं प्राप्त किया है और जो पूरे-पूरे मूढ़ भी नहीं हैं, वे अधूरे न इधर के हैं और न उधर के। वे अर्थ, धर्म, काम—इन तीनों पुरुषार्थों में फँसे रहते हैं, एक क्षण के लिये भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। वे अपने हाथों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। ऐसे ही लोगों को आत्मघाती कहते हैं । अज्ञान को ही ज्ञान मानने-वाले इन आत्मघातियों को कभी शान्ति नहीं मिलती, इनके कर्मों की परम्परा कभी शान्त नहीं होती। काल-भगवान  सदा-सर्वदा इनके मनोरथों पर पानी फेरते रहते हैं। इनके ह्रदय की जलन, विषाद कभी मिटने का नहीं । राजन्! जो लोग अन्तर्यामी भगवान  श्रीकृष्ण से विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन-सम्पत्ति इकट्ठी करते हैं; परन्तु उन्हें अन्त में सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर घोर नरक में जाना पड़ता है। (भगवान  का भजन न करने वाले विषयों पुरुषों की यही गति होती है) ।
जो इस विशुद्ध धर्म को नहीं जानते, वे घमंडी वास्तव में तो दुष्ट हैं, परन्तु समझते हैं अपने को श्रेष्ठ। वे धोखे में पड़े हुए लोग पशुओं की हिंसा करते हैं और मरने के बाद वे पशुओं की हिंसा करते हैं और मरने के बाद वे पशु ही उन मारने वालों को खाते हैं । यह शरीर मृतक-शरीर है। इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं। जो लोग इस शरीर से तो प्रेम की गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरों में रहने वाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान  से द्वेष करते हैं, उन मूर्खों का अधःपतन निश्चित है । जिन लोगों ने आत्मज्ञान सम्पादन करके कैवल्य-मोक्ष नहीं प्राप्त किया है और जो पूरे-पूरे मूढ़ भी नहीं हैं, वे अधूरे न इधर के हैं और न उधर के। वे अर्थ, धर्म, काम—इन तीनों पुरुषार्थों में फँसे रहते हैं, एक क्षण के लिये भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। वे अपने हाथों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। ऐसे ही लोगों को आत्मघाती कहते हैं । अज्ञान को ही ज्ञान मानने-वाले इन आत्मघातियों को कभी शान्ति नहीं मिलती, इनके कर्मों की परम्परा कभी शान्त नहीं होती। काल-भगवान  सदा-सर्वदा इनके मनोरथों पर पानी फेरते रहते हैं। इनके हृदय की जलन, विषाद कभी मिटने का नहीं । राजन्! जो लोग अन्तर्यामी भगवान  श्रीकृष्ण से विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन-सम्पत्ति इकट्ठी करते हैं; परन्तु उन्हें अन्त में सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर घोर नरक में जाना पड़ता है। (भगवान  का भजन न करने वाले विषयों पुरुषों की यही गति होती है) ।


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09:52, 24 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण

एकादश स्कन्ध: पञ्चमोऽध्यायः (5)

श्रीमद्भागवत महापुराण: एकादश स्कन्ध: पञ्चमोऽध्यायः श्लोक 11-18 का हिन्दी अनुवाद


(वेद विधि के रूप में ऐसे ही कर्मों के करने की आज्ञा देता है कि जिसमें मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति नहीं होती।) संसार में देखा जाता है कि मैथुन, मांस और मद्द की ओर प्राणी की स्वाभाविक प्रवृत्ति हो जाती है। तब उसे उसमें प्रवृत्त करने के लिये विधान तो हो ही नहीं सकता। ऐसी स्थिति में विवाह, यज्ञ और सूत्रामणि यज्ञ के द्वारा ही जो उनके सेवन की व्यवस्था दी गयी है, उसका अर्थ है लोगों की उच्छ्रखल प्रवृत्ति का नियन्त्रण, उनका मर्यादा में स्थापन। वास्तव में उसकी ओर से लोगों को हटाना ही श्रुति को अभीष्ट है । धन का एकमात्र फल है धर्म; क्योंकि धर्म से ही परम-तत्व का ज्ञान और उसकी निष्ठा—अपरोक्ष अनुभूति सिद्ध होती है और निष्ठा में ही परम शान्ति है। परन्तु यह कितने खेद की बात है कि लोग उस धन का उपयोग घर-गृहस्थी के स्वार्थों में या कामभोग ही करते हैं और यह नहीं देखते कि हमारा यह शरीर मृत्यु का शिकार है और वह मृत्यु किसी प्रकार भी टाली नहीं जा सकती । सौत्रामणि यज्ञ में भी सूरा को सूँघने का ही विधान है, पीने का नहीं। यज्ञ में पशु का आलभन (स्पर्शमात्र) ही विहित है, हिंसा नहीं। इसी प्रकार अपनी धर्मपत्नी के स्थ मैथुन की आज्ञा भी विषयभोग के लिये नहीं, धार्मिक परम्परा की रक्षा के निमित्त सन्तान उत्पन्न करने के लिये ही दी गयी है। परन्तु जो लोग अर्थवाद के वचनों में फँसे हैं, विषयी हैं, वे अपने इस विशुद्ध धर्म को जानते ही नहीं ।

जो इस विशुद्ध धर्म को नहीं जानते, वे घमंडी वास्तव में तो दुष्ट हैं, परन्तु समझते हैं अपने को श्रेष्ठ। वे धोखे में पड़े हुए लोग पशुओं की हिंसा करते हैं और मरने के बाद वे पशुओं की हिंसा करते हैं और मरने के बाद वे पशु ही उन मारने वालों को खाते हैं । यह शरीर मृतक-शरीर है। इसके सम्बन्धी भी इसके साथ ही छूट जाते हैं। जो लोग इस शरीर से तो प्रेम की गाँठ बाँध लेते हैं और दूसरे शरीरों में रहने वाले अपने ही आत्मा एवं सर्वशक्तिमान् भगवान से द्वेष करते हैं, उन मूर्खों का अधःपतन निश्चित है । जिन लोगों ने आत्मज्ञान सम्पादन करके कैवल्य-मोक्ष नहीं प्राप्त किया है और जो पूरे-पूरे मूढ़ भी नहीं हैं, वे अधूरे न इधर के हैं और न उधर के। वे अर्थ, धर्म, काम—इन तीनों पुरुषार्थों में फँसे रहते हैं, एक क्षण के लिये भी उन्हें शान्ति नहीं मिलती। वे अपने हाथों अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हैं। ऐसे ही लोगों को आत्मघाती कहते हैं । अज्ञान को ही ज्ञान मानने-वाले इन आत्मघातियों को कभी शान्ति नहीं मिलती, इनके कर्मों की परम्परा कभी शान्त नहीं होती। काल-भगवान सदा-सर्वदा इनके मनोरथों पर पानी फेरते रहते हैं। इनके हृदय की जलन, विषाद कभी मिटने का नहीं । राजन्! जो लोग अन्तर्यामी भगवान श्रीकृष्ण से विमुख हैं, वे अत्यन्त परिश्रम करके गृह, पुत्र, मित्र और धन-सम्पत्ति इकट्ठी करते हैं; परन्तु उन्हें अन्त में सब कुछ छोड़ देना पड़ता है और न चाहने पर भी विवश होकर घोर नरक में जाना पड़ता है। (भगवान का भजन न करने वाले विषयों पुरुषों की यही गति होती है) ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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