"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 21 श्लोक 9-13": अवतरणों में अंतर

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अरी गोपियों! यह वेणु पुरुष जाति का होने पर भी पूर्वजन्म में न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियों की अपनी सम्पत्ति—दामोदार के अधरों की सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगों के लिये थोडा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा। इस वेणु को अपने रस से सींचने वाली ह्रदिनियाँ आज कमलों के मिस रोमाँचित हो रही हैं और अपने वंश में भगवत्प्रेमी सन्तानों को देखकर श्रेष्ठ पुरुषों के समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर आँखों से आनन्दाश्रु बहा रहे हैं ।
अरी गोपियों! यह वेणु पुरुष जाति का होने पर भी पूर्वजन्म में न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियों की अपनी सम्पत्ति—दामोदार के अधरों की सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगों के लिये थोडा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा। इस वेणु को अपने रस से सींचने वाली ह्रदिनियाँ आज कमलों के मिस रोमाँचित हो रही हैं और अपने वंश में भगवत्प्रेमी सन्तानों को देखकर श्रेष्ठ पुरुषों के समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर आँखों से आनन्दाश्रु बहा रहे हैं ।


अरी सखी! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिन्हों से यह चिन्हित हो रहा है! सखि! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी मुरली बजाते हैं तब मोर मतवाले होकर उसकी तालपर नाचने लगते हैं। यह देखकर पर्वत की चोटियों पर विचरने वाले सभी पशु-पक्षी चुपचाप—शान्त होकर खड़े रह जाते हैं। अरी सखी! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, जब मूढ़ बुद्धिवाली ये हरिनियाँ भी वंशी की तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगों के साथ नन्दनन्दन के पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें निरखने लगती हैं। निरखती क्या हैं, अपनी कमल के समान बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्ण के चरणों पर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्ण की प्रेमभरी चितवन के द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।’ वास्तव में उनका जीवन धन्य है! (हम वृन्दावन की गोपी होने पर भी इस प्रकार उन पर अपने को निछावर नहीं कर पातीं, हमारे घर वाले कुढ़ने लगते हैं। कितनी विड़म्बना हैं!) । अरी सखी! हरिनियों की तो बात ही क्या है—स्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनन्दित करने वाले सौन्दर्य और शील के खजाने श्रीकृष्ण को देखती हैं और बाँसुरी पर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनतीं हैं, तब उनके चित्र-विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमान पर ही सुध-बुध खो बैठती हैं—मुर्छित हो जाती हैं। यह कैसे मालूम हुआ सखी? सुनो तो, जब उनके ह्रदय में श्रीकृष्ण से मिलने की तीव्र आकांक्षा जग जाती है तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं। उन्हें इस बात का भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियों में गुँथे हुए फूल पृथ्वी पर गिर रहे हैं। यहाँ तक कि उन्हें अपनी साड़ी का भी पता नहीं रहता, वह कमर से खिसककर जमीन पर गिर जाती है । अरी सखी! तुम देवियों की बात क्या-क्या कह रही हो, इन गौओं को नहीं देखती ? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुख से बाँसुरी में स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानों के दोने सम्हाल लेती हैं—खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीत का रस लेने लगती हैं ? ऐसा क्यों होता है सखी ? अपने नेत्रों के द्वार से श्यामसुन्दर को ह्रदय में जाकर वे उन्हें वहीँ विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिंगन करती हैं। देखती नहीं हो, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसू छलकने लगते हैं! और उनके बछड़े, बछड़ों की तो दशा ही निराली हो जाती है। यद्यपि गायों के थनों से अपने-आप दूध झरता रहता है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशीध्वनि सुनते हैं तब मुँह में लिया हुआ दूध का घूँट न उगले पाते हैं और न निगल पाए हैं। उनके ह्रदय में भी होता है भगवान  का संस्पर्श और नेत्रों में छलकते होते हैं आनन्द के आँसू। वे ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं ।
अरी सखी! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिन्हों से यह चिन्हित हो रहा है! सखि! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी मुरली बजाते हैं तब मोर मतवाले होकर उसकी तालपर नाचने लगते हैं। यह देखकर पर्वत की चोटियों पर विचरने वाले सभी पशु-पक्षी चुपचाप—शान्त होकर खड़े रह जाते हैं। अरी सखी! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, जब मूढ़ बुद्धिवाली ये हरिनियाँ भी वंशी की तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगों के साथ नन्दनन्दन के पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें निरखने लगती हैं। निरखती क्या हैं, अपनी कमल के समान बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्ण के चरणों पर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्ण की प्रेमभरी चितवन के द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।’ वास्तव में उनका जीवन धन्य है! (हम वृन्दावन की गोपी होने पर भी इस प्रकार उन पर अपने को निछावर नहीं कर पातीं, हमारे घर वाले कुढ़ने लगते हैं। कितनी विड़म्बना हैं!) । अरी सखी! हरिनियों की तो बात ही क्या है—स्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनन्दित करने वाले सौन्दर्य और शील के खजाने श्रीकृष्ण को देखती हैं और बाँसुरी पर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनतीं हैं, तब उनके चित्र-विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमान पर ही सुध-बुध खो बैठती हैं—मुर्छित हो जाती हैं। यह कैसे मालूम हुआ सखी? सुनो तो, जब उनके हृदय में श्रीकृष्ण से मिलने की तीव्र आकांक्षा जग जाती है तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं। उन्हें इस बात का भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियों में गुँथे हुए फूल पृथ्वी पर गिर रहे हैं। यहाँ तक कि उन्हें अपनी साड़ी का भी पता नहीं रहता, वह कमर से खिसककर जमीन पर गिर जाती है । अरी सखी! तुम देवियों की बात क्या-क्या कह रही हो, इन गौओं को नहीं देखती ? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुख से बाँसुरी में स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानों के दोने सम्हाल लेती हैं—खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीत का रस लेने लगती हैं ? ऐसा क्यों होता है सखी ? अपने नेत्रों के द्वार से श्यामसुन्दर को हृदय में जाकर वे उन्हें वहीँ विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिंगन करती हैं। देखती नहीं हो, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसू छलकने लगते हैं! और उनके बछड़े, बछड़ों की तो दशा ही निराली हो जाती है। यद्यपि गायों के थनों से अपने-आप दूध झरता रहता है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशीध्वनि सुनते हैं तब मुँह में लिया हुआ दूध का घूँट न उगले पाते हैं और न निगल पाए हैं। उनके हृदय में भी होता है भगवान  का संस्पर्श और नेत्रों में छलकते होते हैं आनन्द के आँसू। वे ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं ।


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09:53, 24 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: एकविंशोऽध्यायः (21) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकविंशोऽध्यायः श्लोक 9-13 का हिन्दी अनुवाद

अरी गोपियों! यह वेणु पुरुष जाति का होने पर भी पूर्वजन्म में न जाने ऐसा कौन-सा साधन-भजन कर चुका है कि हम गोपियों की अपनी सम्पत्ति—दामोदार के अधरों की सुधा स्वयं ही इस प्रकार पिये जा रहा है कि हमलोगों के लिये थोडा-सा भी रस शेष नहीं रहेगा। इस वेणु को अपने रस से सींचने वाली ह्रदिनियाँ आज कमलों के मिस रोमाँचित हो रही हैं और अपने वंश में भगवत्प्रेमी सन्तानों को देखकर श्रेष्ठ पुरुषों के समान वृक्ष भी इसके साथ अपना सम्बन्ध जोड़कर आँखों से आनन्दाश्रु बहा रहे हैं ।

अरी सखी! यह वृन्दावन वैकुण्ठलोक तक पृथ्वी की कीर्ति का विस्तार कर रहा है। क्योंकि यशोदानन्दन श्रीकृष्ण के चरणकमलों के चिन्हों से यह चिन्हित हो रहा है! सखि! जब श्रीकृष्ण अपनी मुनिजनमोहिनी मुरली बजाते हैं तब मोर मतवाले होकर उसकी तालपर नाचने लगते हैं। यह देखकर पर्वत की चोटियों पर विचरने वाले सभी पशु-पक्षी चुपचाप—शान्त होकर खड़े रह जाते हैं। अरी सखी! जब प्राणवल्लभ श्रीकृष्ण विचित्र वेष धारण करके बाँसुरी बजाते हैं, जब मूढ़ बुद्धिवाली ये हरिनियाँ भी वंशी की तान सुनकर अपने पति कृष्णसार मृगों के साथ नन्दनन्दन के पास चली आती हैं और अपनी प्रेमभरी बड़ी-बड़ी आँखों से उन्हें निरखने लगती हैं। निरखती क्या हैं, अपनी कमल के समान बड़ी-बड़ी आँखें श्रीकृष्ण के चरणों पर निछावर कर देती हैं और श्रीकृष्ण की प्रेमभरी चितवन के द्वारा किया हुआ अपना सत्कार स्वीकार करती हैं।’ वास्तव में उनका जीवन धन्य है! (हम वृन्दावन की गोपी होने पर भी इस प्रकार उन पर अपने को निछावर नहीं कर पातीं, हमारे घर वाले कुढ़ने लगते हैं। कितनी विड़म्बना हैं!) । अरी सखी! हरिनियों की तो बात ही क्या है—स्वर्ग की देवियाँ जब युवतियों को आनन्दित करने वाले सौन्दर्य और शील के खजाने श्रीकृष्ण को देखती हैं और बाँसुरी पर उनके द्वारा गाया हुआ मधुर संगीत सुनतीं हैं, तब उनके चित्र-विचित्र आलाप सुनकर वे अपने विमान पर ही सुध-बुध खो बैठती हैं—मुर्छित हो जाती हैं। यह कैसे मालूम हुआ सखी? सुनो तो, जब उनके हृदय में श्रीकृष्ण से मिलने की तीव्र आकांक्षा जग जाती है तब वे अपना धीरज खो बैठती हैं, बेहोश हो जाती हैं। उन्हें इस बात का भी पता नहीं चलता कि उनकी चोटियों में गुँथे हुए फूल पृथ्वी पर गिर रहे हैं। यहाँ तक कि उन्हें अपनी साड़ी का भी पता नहीं रहता, वह कमर से खिसककर जमीन पर गिर जाती है । अरी सखी! तुम देवियों की बात क्या-क्या कह रही हो, इन गौओं को नहीं देखती ? जब हमारे कृष्ण-प्यारे अपने मुख से बाँसुरी में स्वर भरते हैं और गौएँ उनका मधुर संगीत सुनती हैं, तब ये अपने दोनों कानों के दोने सम्हाल लेती हैं—खड़े कर लेती हैं और मानो उनसे अमृत पी रही हों, इस प्रकार उस संगीत का रस लेने लगती हैं ? ऐसा क्यों होता है सखी ? अपने नेत्रों के द्वार से श्यामसुन्दर को हृदय में जाकर वे उन्हें वहीँ विराजमान कर देती हैं और मन-ही-मन उनका आलिंगन करती हैं। देखती नहीं हो, उनके नेत्रों से आनन्द के आँसू छलकने लगते हैं! और उनके बछड़े, बछड़ों की तो दशा ही निराली हो जाती है। यद्यपि गायों के थनों से अपने-आप दूध झरता रहता है, वे जब दूध पीते-पीते अचानक ही वंशीध्वनि सुनते हैं तब मुँह में लिया हुआ दूध का घूँट न उगले पाते हैं और न निगल पाए हैं। उनके हृदय में भी होता है भगवान का संस्पर्श और नेत्रों में छलकते होते हैं आनन्द के आँसू। वे ज्यों-के-त्यों ठिठके रह जाते हैं ।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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