"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 29 श्लोक 34-39": अवतरणों में अंतर

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<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 34-39 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 34-39 का हिन्दी अनुवाद </div>


मनमोहन! अब तक हमारा चित्त घर के काम-धंधों में लगता था। इसी से हमारे हाथ भी उसमें रमे हुए थे। परन्तु तुमने हमारे देखते-देखते हमारा वह चित्त लूट लिया। इसमें तुम्हें कोई कठिनाई भी नहीं उठानी पड़ी, तुम तो सुखस्वरूप हो न! परन्तु अब तो हमारी गति-मति निराली ही हो गयी है। हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलों को छोड़कर एक पग भी हटने के लिये तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं। फिर हम व्रज में कैसे जायँ ? और यदि वहाँ जायँ भी तो करें क्या ?  प्राणवल्लभ! हमारे प्यारे सखा! तुम्हारी मन्द-मन्द मधुर मुसकान, प्रेम भरी चितवन और मनोहर संगीत ने हमारे ह्रदय में तुम्हारे प्रेम और मिलन की आग धधका दी है। उसे तुम अपने अधरों की रसधार से बुझा दो। नहीं तो प्रियतम! हम सच कहतीं हैं, तुम्हारी विरहव्यथा की आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी ।  
मनमोहन! अब तक हमारा चित्त घर के काम-धंधों में लगता था। इसी से हमारे हाथ भी उसमें रमे हुए थे। परन्तु तुमने हमारे देखते-देखते हमारा वह चित्त लूट लिया। इसमें तुम्हें कोई कठिनाई भी नहीं उठानी पड़ी, तुम तो सुखस्वरूप हो न! परन्तु अब तो हमारी गति-मति निराली ही हो गयी है। हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलों को छोड़कर एक पग भी हटने के लिये तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं। फिर हम व्रज में कैसे जायँ ? और यदि वहाँ जायँ भी तो करें क्या ?  प्राणवल्लभ! हमारे प्यारे सखा! तुम्हारी मन्द-मन्द मधुर मुसकान, प्रेम भरी चितवन और मनोहर संगीत ने हमारे हृदय में तुम्हारे प्रेम और मिलन की आग धधका दी है। उसे तुम अपने अधरों की रसधार से बुझा दो। नहीं तो प्रियतम! हम सच कहतीं हैं, तुम्हारी विरहव्यथा की आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी ।  
प्यारे कमलनयन! तुम वनवासियों के प्यारे और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं। इससे प्रायः तुम उन्हीं के पास रहते हो। यहाँ तक कि तुम्हारे जिन चरणकालों की सेवा का अवसर स्वयं लक्ष्मीजी को कभी-कभी ही मिलता है, उन्हीं चरणों का स्पर्श हमें प्राप्त हुआ। जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला और तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित दिया, उसी दिन से हम और किसी के सामने एक क्षण के लिये भी ठहरने में असमर्थ हो गयी हैं—पति-पुत्रादि को की सेवा तो दूर रही । हमारे स्वामी! जिन लक्ष्मीजी का कृपाकटाक्ष प्राप्त करने के लिये बड़े-बड़े देवता तपस्या करते रहते हैं, वही लक्ष्मीजी तुम्हारे वक्षःस्थल में बिना किसी की प्रतिद्वंद्विता के स्थान प्राप्त कर लेने पर भी अपनी सौत तुलसी के साथ तुम्हारे चरणों की रज पाने की अभिलाषा किया करती हैं। अब तक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का सेवन किया है। उन्हीं के समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरज की शरण में आयी हैं । भगवन्! अब तक जिसने भी तुम्हारे चरणों की शरण की, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिये। अब तुम हम पर कृपा करो। हमें भी अपने प्रसाद का भाजन बनाओ। हम तुम्हारी सेवा करने की आशा-अभिलाषा से घर, गाँव, कुटुम्ब—सब कुछ छोड़कर तुम्हारे युगल चरणों की शरण में आयी हैं। प्रियतम! वहाँ तो तुम्हारी आराधना के लिये अवकाश ही नहीं है। पुरुषभूषण! पुरुषोत्तम! तुम्हारी मधुर मुसकान और चारू चितवन ने हमारे ह्रदय में प्रेम की—मिलन की आकांक्षा की आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उससे जल रहा है। तुम हमें अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लो। हमें अपनी सेवा का अवसर दो । प्रियतम! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल, जिस पर घुँघराली अलकें झलक रही हैं; तुम्हारे ये कमनीये कपोल, जिन पर सुन्दर-सुन्दर कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य बिखेर रहे हैं; तुम्हारे ये मधुर अधर, जिनकी सुधा सुधा को भी लजाने वाली है; तुम्हारी यह नयनमनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द मुसकान से उल्लसित हो रही है; तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ, जो शरणागतों को अभयदान देने में अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्षःस्थल, जो लक्ष्मीजी का—सौन्दर्य की एकमात्र देवी का नित्य क्रीडास्थल है, देखकर हम सब तुम्हारी दासी हो गयी हैं ।
प्यारे कमलनयन! तुम वनवासियों के प्यारे और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं। इससे प्रायः तुम उन्हीं के पास रहते हो। यहाँ तक कि तुम्हारे जिन चरणकालों की सेवा का अवसर स्वयं लक्ष्मीजी को कभी-कभी ही मिलता है, उन्हीं चरणों का स्पर्श हमें प्राप्त हुआ। जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला और तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित दिया, उसी दिन से हम और किसी के सामने एक क्षण के लिये भी ठहरने में असमर्थ हो गयी हैं—पति-पुत्रादि को की सेवा तो दूर रही । हमारे स्वामी! जिन लक्ष्मीजी का कृपाकटाक्ष प्राप्त करने के लिये बड़े-बड़े देवता तपस्या करते रहते हैं, वही लक्ष्मीजी तुम्हारे वक्षःस्थल में बिना किसी की प्रतिद्वंद्विता के स्थान प्राप्त कर लेने पर भी अपनी सौत तुलसी के साथ तुम्हारे चरणों की रज पाने की अभिलाषा किया करती हैं। अब तक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का सेवन किया है। उन्हीं के समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरज की शरण में आयी हैं । भगवन्! अब तक जिसने भी तुम्हारे चरणों की शरण की, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिये। अब तुम हम पर कृपा करो। हमें भी अपने प्रसाद का भाजन बनाओ। हम तुम्हारी सेवा करने की आशा-अभिलाषा से घर, गाँव, कुटुम्ब—सब कुछ छोड़कर तुम्हारे युगल चरणों की शरण में आयी हैं। प्रियतम! वहाँ तो तुम्हारी आराधना के लिये अवकाश ही नहीं है। पुरुषभूषण! पुरुषोत्तम! तुम्हारी मधुर मुसकान और चारू चितवन ने हमारे हृदय में प्रेम की—मिलन की आकांक्षा की आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उससे जल रहा है। तुम हमें अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लो। हमें अपनी सेवा का अवसर दो । प्रियतम! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल, जिस पर घुँघराली अलकें झलक रही हैं; तुम्हारे ये कमनीये कपोल, जिन पर सुन्दर-सुन्दर कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य बिखेर रहे हैं; तुम्हारे ये मधुर अधर, जिनकी सुधा सुधा को भी लजाने वाली है; तुम्हारी यह नयनमनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द मुसकान से उल्लसित हो रही है; तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ, जो शरणागतों को अभयदान देने में अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्षःस्थल, जो लक्ष्मीजी का—सौन्दर्य की एकमात्र देवी का नित्य क्रीडास्थल है, देखकर हम सब तुम्हारी दासी हो गयी हैं ।





09:57, 24 फ़रवरी 2017 के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः (29) (पूर्वार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: एकोनत्रिंशोऽध्यायः श्लोक 34-39 का हिन्दी अनुवाद

मनमोहन! अब तक हमारा चित्त घर के काम-धंधों में लगता था। इसी से हमारे हाथ भी उसमें रमे हुए थे। परन्तु तुमने हमारे देखते-देखते हमारा वह चित्त लूट लिया। इसमें तुम्हें कोई कठिनाई भी नहीं उठानी पड़ी, तुम तो सुखस्वरूप हो न! परन्तु अब तो हमारी गति-मति निराली ही हो गयी है। हमारे ये पैर तुम्हारे चरणकमलों को छोड़कर एक पग भी हटने के लिये तैयार नहीं हैं, नहीं हट रहे हैं। फिर हम व्रज में कैसे जायँ ? और यदि वहाँ जायँ भी तो करें क्या ? प्राणवल्लभ! हमारे प्यारे सखा! तुम्हारी मन्द-मन्द मधुर मुसकान, प्रेम भरी चितवन और मनोहर संगीत ने हमारे हृदय में तुम्हारे प्रेम और मिलन की आग धधका दी है। उसे तुम अपने अधरों की रसधार से बुझा दो। नहीं तो प्रियतम! हम सच कहतीं हैं, तुम्हारी विरहव्यथा की आग से हम अपने-अपने शरीर जला देंगी और ध्यान के द्वारा तुम्हारे चरणकमलों को प्राप्त करेंगी । प्यारे कमलनयन! तुम वनवासियों के प्यारे और वे भी तुमसे बहुत प्रेम करते हैं। इससे प्रायः तुम उन्हीं के पास रहते हो। यहाँ तक कि तुम्हारे जिन चरणकालों की सेवा का अवसर स्वयं लक्ष्मीजी को कभी-कभी ही मिलता है, उन्हीं चरणों का स्पर्श हमें प्राप्त हुआ। जिस दिन यह सौभाग्य हमें मिला और तुमने हमें स्वीकार करके आनन्दित दिया, उसी दिन से हम और किसी के सामने एक क्षण के लिये भी ठहरने में असमर्थ हो गयी हैं—पति-पुत्रादि को की सेवा तो दूर रही । हमारे स्वामी! जिन लक्ष्मीजी का कृपाकटाक्ष प्राप्त करने के लिये बड़े-बड़े देवता तपस्या करते रहते हैं, वही लक्ष्मीजी तुम्हारे वक्षःस्थल में बिना किसी की प्रतिद्वंद्विता के स्थान प्राप्त कर लेने पर भी अपनी सौत तुलसी के साथ तुम्हारे चरणों की रज पाने की अभिलाषा किया करती हैं। अब तक के सभी भक्तों ने उस चरणरज का सेवन किया है। उन्हीं के समान हम भी तुम्हारी उसी चरणरज की शरण में आयी हैं । भगवन्! अब तक जिसने भी तुम्हारे चरणों की शरण की, उसके सारे कष्ट तुमने मिटा दिये। अब तुम हम पर कृपा करो। हमें भी अपने प्रसाद का भाजन बनाओ। हम तुम्हारी सेवा करने की आशा-अभिलाषा से घर, गाँव, कुटुम्ब—सब कुछ छोड़कर तुम्हारे युगल चरणों की शरण में आयी हैं। प्रियतम! वहाँ तो तुम्हारी आराधना के लिये अवकाश ही नहीं है। पुरुषभूषण! पुरुषोत्तम! तुम्हारी मधुर मुसकान और चारू चितवन ने हमारे हृदय में प्रेम की—मिलन की आकांक्षा की आग धधका दी है; हमारा रोम-रोम उससे जल रहा है। तुम हमें अपनी दासी के रूप में स्वीकार कर लो। हमें अपनी सेवा का अवसर दो । प्रियतम! तुम्हारा सुन्दर मुखकमल, जिस पर घुँघराली अलकें झलक रही हैं; तुम्हारे ये कमनीये कपोल, जिन पर सुन्दर-सुन्दर कुण्डल अपना अनन्त सौन्दर्य बिखेर रहे हैं; तुम्हारे ये मधुर अधर, जिनकी सुधा सुधा को भी लजाने वाली है; तुम्हारी यह नयनमनोहारी चितवन, जो मन्द-मन्द मुसकान से उल्लसित हो रही है; तुम्हारी ये दोनों भुजाएँ, जो शरणागतों को अभयदान देने में अत्यन्त उदार हैं और तुम्हारा यह वक्षःस्थल, जो लक्ष्मीजी का—सौन्दर्य की एकमात्र देवी का नित्य क्रीडास्थल है, देखकर हम सब तुम्हारी दासी हो गयी हैं ।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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