"बेनी बंदीजन": अवतरणों में अंतर
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'''बेनी बंदीजन''' बैंती, ज़िला [[रायबरेली]] के रहने वाले थे और [[अवध]] के प्रसिद्ध वज़ीर 'महाराज टिकैत राय' के आश्रय में रहते थे। उन्हीं के नाम पर इन्होंने 'टिकैतराय प्रकाश' नामक [[अलंकार]] ग्रंथ, संवत 1849 में लिखा था। अपने दूसरे ग्रंथ 'रसविलास' में इन्होंने [[रस]] निरूपण किया है। | |||
*इनका एक संग्रह 'भँड़ौवा संग्रह' के नाम से 'भारत जीवन प्रेस' द्वारा प्रकाशित हो चुका है। | *इनका एक संग्रह 'भँड़ौवा संग्रह' के नाम से 'भारत जीवन प्रेस' द्वारा प्रकाशित हो चुका है। | ||
*'भँड़ौवा' हास्यरस के की एक विधा है। इसमें किसी की उपहासपूर्ण निंदा रहती है। यह प्राय: साहित्य का अंग रहा है, जैसे [[फ़ारसी भाषा|फारसी]] और [[उर्दू भाषा|उर्दू]] की शायरी में 'हजो' का एक विशेष स्थान है वैसे ही [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] में 'सटायर' का अपना अलग स्थान है। पूरबी साहित्य में 'उपहास काव्य' के लक्ष्य अधिकतर कंजूस अमीर या आश्रयदाता ही रहे हैं और यूरोपीय साहित्य में समसामयिक कवि और लेखक। किसी कवि ने [[औरंगज़ेब]] की दी हुई हथिनी की निंदा इस प्रकार की है - | *'भँड़ौवा' हास्यरस के की एक विधा है। इसमें किसी की उपहासपूर्ण निंदा रहती है। यह प्राय: साहित्य का अंग रहा है, जैसे [[फ़ारसी भाषा|फारसी]] और [[उर्दू भाषा|उर्दू]] की शायरी में 'हजो' का एक विशेष स्थान है वैसे ही [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] में 'सटायर' का अपना अलग स्थान है। पूरबी साहित्य में 'उपहास काव्य' के लक्ष्य अधिकतर कंजूस अमीर या आश्रयदाता ही रहे हैं और यूरोपीय साहित्य में समसामयिक कवि और लेखक। किसी कवि ने [[औरंगज़ेब]] की दी हुई हथिनी की निंदा इस प्रकार की है - | ||
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*इस पद्धति के अनुयायी बेनीजी ने भी कहीं बुरी रजाई पाई तो उसकी निंदा की, कहीं छोटे आम पाए तो उसकी निंदा जी खोल कर की। | *इस पद्धति के अनुयायी बेनीजी ने भी कहीं बुरी रजाई पाई तो उसकी निंदा की, कहीं छोटे आम पाए तो उसकी निंदा जी खोल कर की। | ||
*जिस प्रकार उर्दू के शायर कभी कभी दूसरे कवियों पर भी छींटाकशी किया करते हैं, उसी प्रकार बेनी जी ने भी [[लखनऊ]] के 'ललकदास महंत' (इन्होंने 'सत्योपाख्यान' नामक एक ग्रंथ लिखा है, जिसमें रामकथा बड़े विस्तार से चौपाइयों में कही है) पर कुछ कृपा की है। जैसे - | *जिस प्रकार उर्दू के शायर कभी कभी दूसरे कवियों पर भी छींटाकशी किया करते हैं, उसी प्रकार बेनी जी ने भी [[लखनऊ]] के 'ललकदास महंत' (इन्होंने 'सत्योपाख्यान' नामक एक ग्रंथ लिखा है, जिसमें रामकथा बड़े विस्तार से चौपाइयों में कही है) पर कुछ कृपा की है। जैसे - | ||
'बाजे बाज ऐसे डलमऊ में बसंत जैसे मऊ के जुलाहे, लखनऊ के ललकदास'। | 'बाजे बाज ऐसे डलमऊ में बसंत जैसे [[मऊ]] के जुलाहे, लखनऊ के ललकदास'। | ||
*इनका 'टिकैतप्रकाश' संवत 1849 में और 'रसविलास' संवत 1874 में बना। अत: इनका कविता काल संवत 1849 से 1880 तक माना जा सकता है। | *इनका 'टिकैतप्रकाश' संवत 1849 में और 'रसविलास' संवत 1874 में बना। अत: इनका कविता काल संवत 1849 से 1880 तक माना जा सकता है। | ||
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14:03, 2 जून 2017 के समय का अवतरण
बेनी बंदीजन बैंती, ज़िला रायबरेली के रहने वाले थे और अवध के प्रसिद्ध वज़ीर 'महाराज टिकैत राय' के आश्रय में रहते थे। उन्हीं के नाम पर इन्होंने 'टिकैतराय प्रकाश' नामक अलंकार ग्रंथ, संवत 1849 में लिखा था। अपने दूसरे ग्रंथ 'रसविलास' में इन्होंने रस निरूपण किया है।
- इनका एक संग्रह 'भँड़ौवा संग्रह' के नाम से 'भारत जीवन प्रेस' द्वारा प्रकाशित हो चुका है।
- 'भँड़ौवा' हास्यरस के की एक विधा है। इसमें किसी की उपहासपूर्ण निंदा रहती है। यह प्राय: साहित्य का अंग रहा है, जैसे फारसी और उर्दू की शायरी में 'हजो' का एक विशेष स्थान है वैसे ही अंग्रेज़ी में 'सटायर' का अपना अलग स्थान है। पूरबी साहित्य में 'उपहास काव्य' के लक्ष्य अधिकतर कंजूस अमीर या आश्रयदाता ही रहे हैं और यूरोपीय साहित्य में समसामयिक कवि और लेखक। किसी कवि ने औरंगज़ेब की दी हुई हथिनी की निंदा इस प्रकार की है -
तिमिरलंग लइ मोल, चली बाबर के हलके।
रही हुमायूँ संग फेरि अकबर के दल के
जहाँगीर जस लियो पीठि को भार हटाय
साहजहाँ करि न्याव ताहि पुनि माँड़ि चटायो
बलरहित भई पौरुष थक्यो, भगी फिरत बन स्यार डर।
औरंगजेब करिनी सोई लै दीन्हीं कविराज कर
- इस पद्धति के अनुयायी बेनीजी ने भी कहीं बुरी रजाई पाई तो उसकी निंदा की, कहीं छोटे आम पाए तो उसकी निंदा जी खोल कर की।
- जिस प्रकार उर्दू के शायर कभी कभी दूसरे कवियों पर भी छींटाकशी किया करते हैं, उसी प्रकार बेनी जी ने भी लखनऊ के 'ललकदास महंत' (इन्होंने 'सत्योपाख्यान' नामक एक ग्रंथ लिखा है, जिसमें रामकथा बड़े विस्तार से चौपाइयों में कही है) पर कुछ कृपा की है। जैसे -
'बाजे बाज ऐसे डलमऊ में बसंत जैसे मऊ के जुलाहे, लखनऊ के ललकदास'।
- इनका 'टिकैतप्रकाश' संवत 1849 में और 'रसविलास' संवत 1874 में बना। अत: इनका कविता काल संवत 1849 से 1880 तक माना जा सकता है।
अलि डसे अधार सुगंधा पाय आनन को,
कानन में ऐसे चारु चरन चलाए हैं।
फटि गई कंचुकी लगे तें कंट कुंजन के,
बेनी बरहीन खोली, बार छबि छाए हैं
बेग तें गवन कीनी, धाक धाक होत सीनो,
ऊरधा उसासैं तन सेद सरसाए हैं।
भली प्रीति पाली बनमाली के बुलाइबे को,
मेरे हेत आली बहुतेरे दु:ख पाए हैं
घर घर घाट घाट बाट बाट ठाट ठटे,
बेला औ कुबेला फिरै चेला लिए आस पास।
कविन सौ बाद करैं, भेद बिन नाद करैं,
महा उनमाद करैं, धरम करम नास
बेनी कवि कहैं बिभिचारिन को बादसाह,
अतन प्रकासत न सतन सरम तास।
ललना ललक, नैन मैन की झलक,
हँसि हेरत अलक रद खलक ललकदास
चींटी को चलावै को? मसा के मुख आपु जाय,
स्वास की पवन लागे कोसन भगत है।
ऐनक लगाए मरु मरु के निहारे जात,
अनु परमानु की समानता खगत है
बेनी कवि कहै हाल कहाँ लौं बखान करौं
मेरी जान ब्रह्म को बिचारिबो सुगत है।
ऐसे आम दीन्हें दयाराम मन मोद करि,
जाके आगे सरसों सुमेरु सी लगत है
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