"गुरु भक्तसिंह 'भक्त'": अवतरणों में अंतर
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भक्तसिंह जी ने बी.ए तथा एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त की थी। कई रियासतों में दीवान रहने के बाद [[आजमगढ़]] नगरपालिका के कार्याधिकारी हुए। भक्तसिंह जी ने नगरपालिका के कार्याधिकारी के पद से अवकाश लेकर साहित्य-साधना करते हुए सन [[1983]] ई. को अपने प्राण त्यागे थे। | |||
== रचनाएँ == | == रचनाएँ == | ||
भक्तसिंह जी की सरस सुमन' <ref>रचना-काल 11920-25 ई., प्रकाशन-काल 1925 ई.</ref> | भक्तसिंह जी की सरस सुमन',<ref>रचना-काल 11920-25 ई., प्रकाशन-काल 1925 ई.</ref> 'कुसुम कुंज',<ref>प्रकाशन 1927</ref> 'वंशी-ध्वनि',<ref>रचना 1926-30, प्रका. 1932</ref> 'वन श्री',<ref>प्रकाशन 1940 ई.</ref> 'नूरजहाँ' <ref>रचना 1932-33, प्रकाशन 1935</ref> एवं 'विक्रमादित्य',<ref>रचना 1939-44, प्रकाशन 1944</ref> उनकी प्रकाशित रचनाएँ हैं। | ||
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'सरस सुमन', 'कुसुम कुंज', 'वंशी-ध्वनि' एवं 'वन श्री' स्फुर कविताओं के संग्रह हैं। ये कविताएँ ग्रामीण प्रकृति, ग्राम्य जीवन एवं वन, पुष्प और पक्षियों से सम्बद्ध अपने समय में काव्य के व्यापक वस्तु-विषय तथा शेष सृष्टि के प्रति नवीन राग-विस्तार का संकेत हैं। प्रकृति के प्रति आत्मीयता ग्राम्य-जीवन-रूपों के आत्म-स्पर्श और अपरिचित, उपेक्षित निसर्ग-पक्षों के सरस विवरणों से युक्त इन रचना के कारण इन्हें ' | 'सरस सुमन', 'कुसुम कुंज', 'वंशी-ध्वनि' एवं 'वन श्री' स्फुर कविताओं के संग्रह हैं। ये कविताएँ ग्रामीण प्रकृति, ग्राम्य जीवन एवं वन, पुष्प और पक्षियों से सम्बद्ध अपने समय में काव्य के व्यापक वस्तु-विषय तथा शेष सृष्टि के प्रति नवीन राग-विस्तार का संकेत हैं। प्रकृति के प्रति आत्मीयता ग्राम्य-जीवन-रूपों के आत्म-स्पर्श और अपरिचित, उपेक्षित निसर्ग-पक्षों के सरस विवरणों से युक्त इन रचना के कारण इन्हें 'हिन्दी का वर्ड्सवर्थ' कहा गया है। 'नूरजहाँ' इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति [[नूरजहाँ]] पर लिखित [[महाकाव्य]] के रूप में विख्यात ललित प्रबन्ध है। 'विक्रमादित्य' [[भारतीय इतिहास]] के स्वर्ण-काल से सम्बद्ध छठी शती के संस्कृत नाटककार विशाखदत्त के 'देवी चन्द्रगुप्त' [[नाटक]] के सुप्रसिद्ध अंश पर आधृत उनका द्वितीय [[महाकाव्य]] है। 'भक्त जी' ने शोध, अध्यवसाय एवं विधायक कल्पना द्वारा इस प्रबन्ध को 'नूरजहाँ' से ही आगे ले जाकर जीवन की गहनतर विशालता में फैला दिया है। तत्कालीन इतिहास इस प्रबन्ध में पुनरूज्जीवित होकर अंतर्बाह्य चित्रण की विविधता, जीवन प्रश्नों की गम्भीर सूक्ष्मता, चरित्राकन की यथार्थता एवं भाषा प्रांजलता की विशेषताओं के साथ नाटकीय संघर्ष की गति पाकर मूर्तिमान हो उठा है। | ||
== भाषा शैली == | == भाषा शैली == | ||
'भक्तसिंह' ने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता को सरस वर्णन सौन्दर्य, आर्शनवाद को मानवीय यथार्थ की मनोदृष्टि, प्रकृति संकोच को नूतन विस्तार एवं भाषा की गद्यात्मक रुक्षता को तरल प्रवाह एवं मुहाविरों को जीवंत मधुरिता प्रदान की है। ये छायावादी अमूर्तता एवं वैयक्तिकता से परे अपरोध अनुभूनितों के सहज प्रसारक एवं तत्कालीन काव्य-विषय को नूतन अर्थभूमि प्रदान करने वाले प्रकृत स्वच्छन्दतावादी [[कवि]] थे। इनके प्रयास से छायावादी काव्य एक नवीन मोड़ लेता है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश भाग-2|लेखक=डॉ. धीरेन्द्र वर्मा|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन=भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन=|पृष्ठ संख्या=141|url=}}</ref> | 'भक्तसिंह' ने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता को सरस वर्णन सौन्दर्य, आर्शनवाद को मानवीय यथार्थ की मनोदृष्टि, प्रकृति संकोच को नूतन विस्तार एवं भाषा की गद्यात्मक रुक्षता को तरल प्रवाह एवं मुहाविरों को जीवंत मधुरिता प्रदान की है। ये छायावादी अमूर्तता एवं वैयक्तिकता से परे अपरोध अनुभूनितों के सहज प्रसारक एवं तत्कालीन काव्य-विषय को नूतन अर्थभूमि प्रदान करने वाले प्रकृत स्वच्छन्दतावादी [[कवि]] थे। इनके प्रयास से छायावादी काव्य एक नवीन मोड़ लेता है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी साहित्य कोश भाग-2|लेखक=डॉ. धीरेन्द्र वर्मा|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन=भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन=|पृष्ठ संख्या=141|url=}}</ref> | ||
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12:40, 6 जून 2017 के समय का अवतरण
गुरु भक्तसिंह 'भक्त'
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पूरा नाम | गुरु भक्तसिंह 'भक्त' |
अन्य नाम | 'भक्त' |
जन्म | 7 अगस्त, 1893 ई. |
जन्म भूमि | गाजीपुर |
मृत्यु | 17 मई, 1983 |
अभिभावक | ठाकुर कालिका प्रसाद सिंह |
कर्म-क्षेत्र | कवि, लेखक |
मुख्य रचनाएँ | 'कुसुम कुंज', 'रधिया', 'वंशी-ध्वनि' आदि। |
भाषा | हिंदी |
शिक्षा | बी.ए तथा एल. एल.बी. |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | गुरु भक्तसिंह छायावादी अमूर्तता एवं वैयक्तिकता से परे अपरोध अनुभूनितों के सहज प्रसारक एवं तत्कालीन काव्य-विषय को नूतन अर्थभूमि प्रदान करने वाले प्रकृत स्वच्छन्दतावादी कवि थे। |
अद्यतन | 04:47, 06 जून 2017 (IST) |
गुरु भक्तसिंह 'भक्त' (अंग्रेज़ी: Guru BhaktSingh Bhakt; जन्म- 7 अगस्त, 1893, गाजीपुर; मृत्यु- 17 मई, 1983) प्रसिद्ध साहित्यकार थे। भक्तसिंह ने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता को सरस वर्णन सौन्दर्य, आर्दशवाद को मानवीय यथार्थ की मनोदृष्टि, प्रकृति संकोच को नूतन विस्तार एवं भाषा की गद्यात्मक रुक्षता को तरल प्रवाह एवं मुहाविरों को जीवंत मधुरिता प्रदान की है। भक्तसिंह कई रियासतों में दीवान रहने के बाद आजमगढ़ नगरपालिका के कार्याधिकारी हुए।
परिचय
गुरु भक्तसिंह 'भक्त' का जन्म 7 अगस्त, 1893 को गाजीपुर जमानियाँ तहसील के शासकीय औषधालय में हुआ। पिता ठाकुर कालिका प्रसाद सिंह पृथ्वीराज चौहान के वंशज, सहायक सर्जन एवं सुशिक्षित अरबी-फारसी-प्रेमी परिवार के काव्यानुरागी सहृदय व्यक्ति थे। ये बलिया में ही बस गये थे। भक्तसिंह जी ने बी.ए तथा एल. एल.बी. की शिक्षा प्राप्त की थी। कई रियासतों में दीवान रहने के बाद आजमगढ़ नगरपालिका के कार्याधिकारी हुए। भक्तसिंह जी ने नगरपालिका के कार्याधिकारी के पद से अवकाश लेकर साहित्य-साधना करते हुए सन 1983 ई. को अपने प्राण त्यागे थे।
रचनाएँ
भक्तसिंह जी की सरस सुमन',[1] 'कुसुम कुंज',[2] 'वंशी-ध्वनि',[3] 'वन श्री',[4] 'नूरजहाँ' [5] एवं 'विक्रमादित्य',[6] उनकी प्रकाशित रचनाएँ हैं।
- उपन्यास
'प्रेम पाश'[7], 'रधिया',[8] 'वे दोनों' [9], 'नूरजहाँ',[10] 'प्रसद वन',[11] एवं 'आत्मकथा',[12] 'जीवन की झाँकियाँ',[13] 'कुसुमाकर'[14] अप्रकाशित रचनाएँ हैं।
- काव्य संग्रह
'सरस सुमन', 'कुसुम कुंज', 'वंशी-ध्वनि' एवं 'वन श्री' स्फुर कविताओं के संग्रह हैं। ये कविताएँ ग्रामीण प्रकृति, ग्राम्य जीवन एवं वन, पुष्प और पक्षियों से सम्बद्ध अपने समय में काव्य के व्यापक वस्तु-विषय तथा शेष सृष्टि के प्रति नवीन राग-विस्तार का संकेत हैं। प्रकृति के प्रति आत्मीयता ग्राम्य-जीवन-रूपों के आत्म-स्पर्श और अपरिचित, उपेक्षित निसर्ग-पक्षों के सरस विवरणों से युक्त इन रचना के कारण इन्हें 'हिन्दी का वर्ड्सवर्थ' कहा गया है। 'नूरजहाँ' इतिहास प्रसिद्ध व्यक्ति नूरजहाँ पर लिखित महाकाव्य के रूप में विख्यात ललित प्रबन्ध है। 'विक्रमादित्य' भारतीय इतिहास के स्वर्ण-काल से सम्बद्ध छठी शती के संस्कृत नाटककार विशाखदत्त के 'देवी चन्द्रगुप्त' नाटक के सुप्रसिद्ध अंश पर आधृत उनका द्वितीय महाकाव्य है। 'भक्त जी' ने शोध, अध्यवसाय एवं विधायक कल्पना द्वारा इस प्रबन्ध को 'नूरजहाँ' से ही आगे ले जाकर जीवन की गहनतर विशालता में फैला दिया है। तत्कालीन इतिहास इस प्रबन्ध में पुनरूज्जीवित होकर अंतर्बाह्य चित्रण की विविधता, जीवन प्रश्नों की गम्भीर सूक्ष्मता, चरित्राकन की यथार्थता एवं भाषा प्रांजलता की विशेषताओं के साथ नाटकीय संघर्ष की गति पाकर मूर्तिमान हो उठा है।
भाषा शैली
'भक्तसिंह' ने द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता को सरस वर्णन सौन्दर्य, आर्शनवाद को मानवीय यथार्थ की मनोदृष्टि, प्रकृति संकोच को नूतन विस्तार एवं भाषा की गद्यात्मक रुक्षता को तरल प्रवाह एवं मुहाविरों को जीवंत मधुरिता प्रदान की है। ये छायावादी अमूर्तता एवं वैयक्तिकता से परे अपरोध अनुभूनितों के सहज प्रसारक एवं तत्कालीन काव्य-विषय को नूतन अर्थभूमि प्रदान करने वाले प्रकृत स्वच्छन्दतावादी कवि थे। इनके प्रयास से छायावादी काव्य एक नवीन मोड़ लेता है।[15]
निधन
गुरु भक्तसिंह जी ने सन 1983 ई. को अपने प्राण त्यागे थे।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ रचना-काल 11920-25 ई., प्रकाशन-काल 1925 ई.
- ↑ प्रकाशन 1927
- ↑ रचना 1926-30, प्रका. 1932
- ↑ प्रकाशन 1940 ई.
- ↑ रचना 1932-33, प्रकाशन 1935
- ↑ रचना 1939-44, प्रकाशन 1944
- ↑ नाटक, रचना सन् 1919 ई.
- ↑ उपन्यास, रचना 1922
- ↑ उपन्यास, रच. 1924
- ↑ अंग्रेजी काव्यानुवाद, रच. 1948-60
- ↑ गीत, मुक्तक, हिन्दी-गजल, चतुष्पदियों का नवीन संग्रह, रच. 1944-60
- ↑ अद्यतन जीवनी
- ↑ रचना सन 1945 ई.
- ↑ रचना सन 1968 से 1972 तक रचनाएँ
- ↑ हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 |लेखक: डॉ. धीरेन्द्र वर्मा |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 141 |
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