"रहस्यवाद": अवतरणों में अंतर
(''''रहस्यवाद''' हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम [[मध्य का...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - " जगत " to " जगत् ") |
||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
'''रहस्यवाद''' [[हिन्दी साहित्य]] में सर्वप्रथम [[मध्य काल]] से दिखाई पड़ता है। 'रहस्त्यवाद' से तात्पर्य है, "वह भावनात्मक अभिव्यक्ति जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकर उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है; वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है और जब वह व्यक्ति इस चरम आनंद की अनुभूति करता है तो उसको वाह्य | '''रहस्यवाद''' [[हिन्दी साहित्य]] में सर्वप्रथम [[मध्य काल]] से दिखाई पड़ता है। 'रहस्त्यवाद' से तात्पर्य है, "वह भावनात्मक अभिव्यक्ति जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकर उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है; वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है और जब वह व्यक्ति इस चरम आनंद की अनुभूति करता है तो उसको वाह्य जगत् में व्यक्त करने में उसे अत्यंत कठिनाई होती है। लौकिक भाषा, वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकतीं। इसलिए उसे उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है, जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते है"। | ||
{{tocright}} | {{tocright}} | ||
==प्रयोग काल== | ==प्रयोग काल== | ||
हिन्दी साहित्य पर यदि ध्यान दिया जाए तो 'रहस्यवाद' सर्वप्रथम [[मध्य काल]] में दिखाई पड़ता है। [[संत]] या निर्गुण काव्यधारा में [[कबीर]] के यहाँ, तो प्रेममार्गी या सूफ़ी काव्यधारा में [[जायसी]] के यहाँ रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है। दोनों परम सत्ता से जुड़ना चाहते हैं और उसमे लीन होना चाहते हैं। कबीर योग के माध्यम से तो जायसी प्रेम के माध्यम से; सलिए कबीर का रहस्यवाद अंतर्मुखी व साधनात्मक रहस्यवाद है, जबकि जायसी का बहिर्मुखी व भावनात्मक। | हिन्दी साहित्य पर यदि ध्यान दिया जाए तो 'रहस्यवाद' सर्वप्रथम [[मध्य काल]] में दिखाई पड़ता है। [[संत]] या निर्गुण काव्यधारा में [[कबीर]] के यहाँ, तो प्रेममार्गी या सूफ़ी काव्यधारा में [[जायसी]] के यहाँ रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है। दोनों परम सत्ता से जुड़ना चाहते हैं और उसमे लीन होना चाहते हैं। कबीर योग के माध्यम से तो जायसी प्रेम के माध्यम से; सलिए कबीर का रहस्यवाद अंतर्मुखी व साधनात्मक रहस्यवाद है, जबकि जायसी का बहिर्मुखी व भावनात्मक। | ||
====वाद-विवाद==== | ====वाद-विवाद==== | ||
आधुनिक [[हिन्दी]] काव्य | आधुनिक [[हिन्दी]] काव्य जगत् में जितनी विभिन्न व्याख्याओं और वाद-विवादों को 'रहस्यवाद' शब्द ने जन्म दिया है, उतनी विभिन्न व्याख्याओं और वाद-विवादों का आधार शायद ही कोई और शब्द बना हो। एक पक्ष के विचारक रहस्यवाद के अस्तित्व में विश्वास रखने के साथ ही उसे [[काव्य]] जगत् की श्रेष्ठतम सम्पत्ति मानते हैं। दूसरे पक्ष के विचारक रहस्यवाद के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते और रहस्यवाद की रचनाओं को अनुभूति जन्य न मानकर ढोंग-जनित और कृत्रिम मानते हैं। वाद-विवाद दोनों विभिन्न पक्ष वालों को एक ही राह का राही बना देने में प्रायः सफल नहीं होता, किन्तु फिर भी वाद-विवाद से, अगर हठधर्मी उसमें नहीं है, इतना लाभ अवश्य होता है कि दोनों राहों की जटिलताओं की रूप रेखा कुछ-कुछ स्पष्ट हो जाती है।<ref name="aa">{{cite web |url=http://unn-hp.org/www/feature/feature7.html|title=हिन्दी साहित्य और रहस्यवाद|accessmonthday= 04 मई|accessyear= 2014|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | ||
==व्याख्या== | ==व्याख्या== | ||
'रहस्यवाद' की रूपरेखा को समझने के लिये एक बात ध्यान में रखनी आवश्यक है। हमारी अनुभूतियों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने का साधन [[भाषा]], सामाजिक वस्तु है। लौकिक चिंतन प्रणाली और अनुभूतियों के आधार पर ही भाषा का विकास हुआ है। जिस तल की अनुभूतियों का अभिव्यक्ति करण रहस्यवाद को जन्म देता है, वह साधारण लौकिक तल से नितान्त भिन्न है। अगर एक व्यक्ति को ऐसे टापू में ले जाकर छोड़ दिया जाए, जहां अधिकांश ऐसी वस्तुएं हैं, जो हमारे | 'रहस्यवाद' की रूपरेखा को समझने के लिये एक बात ध्यान में रखनी आवश्यक है। हमारी अनुभूतियों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने का साधन [[भाषा]], सामाजिक वस्तु है। लौकिक चिंतन प्रणाली और अनुभूतियों के आधार पर ही भाषा का विकास हुआ है। जिस तल की अनुभूतियों का अभिव्यक्ति करण रहस्यवाद को जन्म देता है, वह साधारण लौकिक तल से नितान्त भिन्न है। अगर एक व्यक्ति को ऐसे टापू में ले जाकर छोड़ दिया जाए, जहां अधिकांश ऐसी वस्तुएं हैं, जो हमारे जगत् में नहीं हैं, तो वहां से लौटकर वह व्यक्ति अपने वहां के अनुभवों को बिना प्रतीकों की सहायता के अभिव्यक्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार रहस्यवादी [[कवि]] को भी प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है। उसकी अलौकिक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की क्षमता रखने वाले शब्द प्रचलित लौकिक भाषा में नहीं होते। | ||
====रामकुमार वर्मा की व्याख्या==== | ====रामकुमार वर्मा की व्याख्या==== | ||
हिन्दी [[कविता]] में जिसे 'रहस्यवाद' का नाम दिया जाता है, मध्यकालीन रहस्यवाद उससे बहुत भिन्न है। [[कबीर]] का रहस्यवाद समझाते समय [[रामकुमार वर्मा|प्रोफ़ेसर रामकुमार वर्मा]] ने रहस्यवाद की व्याख्या इस प्रकार की है- | हिन्दी [[कविता]] में जिसे 'रहस्यवाद' का नाम दिया जाता है, मध्यकालीन रहस्यवाद उससे बहुत भिन्न है। [[कबीर]] का रहस्यवाद समझाते समय [[रामकुमार वर्मा|प्रोफ़ेसर रामकुमार वर्मा]] ने रहस्यवाद की व्याख्या इस प्रकार की है- |
13:58, 30 जून 2017 के समय का अवतरण
रहस्यवाद हिन्दी साहित्य में सर्वप्रथम मध्य काल से दिखाई पड़ता है। 'रहस्त्यवाद' से तात्पर्य है, "वह भावनात्मक अभिव्यक्ति जिसमें कोई व्यक्ति या रचनाकर उस अलौकिक, परम, अव्यक्त सत्ता से अपने प्रेम को प्रकट करता है; वह उस अलौकिक तत्व में डूब जाना चाहता है और जब वह व्यक्ति इस चरम आनंद की अनुभूति करता है तो उसको वाह्य जगत् में व्यक्त करने में उसे अत्यंत कठिनाई होती है। लौकिक भाषा, वस्तुएं उस आनंद को व्यक्त नहीं कर सकतीं। इसलिए उसे उस पारलौकिक आनंद को व्यक्त करने के लिए प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है, जो आम जनता के लिए रहस्य बन जाते है"।
प्रयोग काल
हिन्दी साहित्य पर यदि ध्यान दिया जाए तो 'रहस्यवाद' सर्वप्रथम मध्य काल में दिखाई पड़ता है। संत या निर्गुण काव्यधारा में कबीर के यहाँ, तो प्रेममार्गी या सूफ़ी काव्यधारा में जायसी के यहाँ रहस्यवाद का प्रयोग हुआ है। दोनों परम सत्ता से जुड़ना चाहते हैं और उसमे लीन होना चाहते हैं। कबीर योग के माध्यम से तो जायसी प्रेम के माध्यम से; सलिए कबीर का रहस्यवाद अंतर्मुखी व साधनात्मक रहस्यवाद है, जबकि जायसी का बहिर्मुखी व भावनात्मक।
वाद-विवाद
आधुनिक हिन्दी काव्य जगत् में जितनी विभिन्न व्याख्याओं और वाद-विवादों को 'रहस्यवाद' शब्द ने जन्म दिया है, उतनी विभिन्न व्याख्याओं और वाद-विवादों का आधार शायद ही कोई और शब्द बना हो। एक पक्ष के विचारक रहस्यवाद के अस्तित्व में विश्वास रखने के साथ ही उसे काव्य जगत् की श्रेष्ठतम सम्पत्ति मानते हैं। दूसरे पक्ष के विचारक रहस्यवाद के अस्तित्व में विश्वास नहीं रखते और रहस्यवाद की रचनाओं को अनुभूति जन्य न मानकर ढोंग-जनित और कृत्रिम मानते हैं। वाद-विवाद दोनों विभिन्न पक्ष वालों को एक ही राह का राही बना देने में प्रायः सफल नहीं होता, किन्तु फिर भी वाद-विवाद से, अगर हठधर्मी उसमें नहीं है, इतना लाभ अवश्य होता है कि दोनों राहों की जटिलताओं की रूप रेखा कुछ-कुछ स्पष्ट हो जाती है।[1]
व्याख्या
'रहस्यवाद' की रूपरेखा को समझने के लिये एक बात ध्यान में रखनी आवश्यक है। हमारी अनुभूतियों और भावनाओं को अभिव्यक्त करने का साधन भाषा, सामाजिक वस्तु है। लौकिक चिंतन प्रणाली और अनुभूतियों के आधार पर ही भाषा का विकास हुआ है। जिस तल की अनुभूतियों का अभिव्यक्ति करण रहस्यवाद को जन्म देता है, वह साधारण लौकिक तल से नितान्त भिन्न है। अगर एक व्यक्ति को ऐसे टापू में ले जाकर छोड़ दिया जाए, जहां अधिकांश ऐसी वस्तुएं हैं, जो हमारे जगत् में नहीं हैं, तो वहां से लौटकर वह व्यक्ति अपने वहां के अनुभवों को बिना प्रतीकों की सहायता के अभिव्यक्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार रहस्यवादी कवि को भी प्रतीकों का सहारा लेना पड़ता है। उसकी अलौकिक अनुभूतियों को अभिव्यक्त करने की क्षमता रखने वाले शब्द प्रचलित लौकिक भाषा में नहीं होते।
रामकुमार वर्मा की व्याख्या
हिन्दी कविता में जिसे 'रहस्यवाद' का नाम दिया जाता है, मध्यकालीन रहस्यवाद उससे बहुत भिन्न है। कबीर का रहस्यवाद समझाते समय प्रोफ़ेसर रामकुमार वर्मा ने रहस्यवाद की व्याख्या इस प्रकार की है-
"रहस्यवाद आत्मा की उस अन्तर्हित प्रवृत्ति का प्रकाशन है, जिसमें वह दिव्य और अलौकिक शक्ति से अपना शांत और निश्छल सम्बंध जोड़ना चाहती है और यह सम्बंध यहाँ तक बढ़ जाता है कि दोनों में कुछ भी अन्तर नहीं रह जाता।"[1]
कबीर तथा जायसी का रहस्यवाद
- कबीर पहले यम नियम द्वारा मन तथा शरीर को पवित्र करते हैं। फिर आसन और प्राणायाम द्वारा शरीर तथा प्राणवायु को साधकर पूर्णतया अपने वश में करते हैं। फिर प्रत्याहार और धारणा द्वारा सब स्थूल तथा सूक्ष्म इंद्रियों को उनके कार्यों से अलग हटाकर चित्त के अनुकूल करते हैं और एकाग्र चित्त द्वारा सुषुम्ना नाड़ी के मूलाधार कमल में अवस्थित कुण्डलिनी को जागृत करके ऊपर उठाने का प्रयत्न करते हैं। और फिर जब ध्यान और समाधि की अवस्था में कुण्डलिनी जागृत होकर ब्रह्मरन्ध्र में पहुंच जाती है, तब वे ईश्वरानुभूति प्राप्त करते हैं और अमृत वर्षा, बिजली की चमक, सैकड़ों सूर्य के प्रकाश और अलौकिक स्वर्गीय संगीत आदि प्रतीकों द्वारा उसे अभिव्यक्त करते हैं। उस अनुभूति के अभिव्यक्तिकरण में ही उनकी रहस्यवादी रचनाओं की सृष्टि होती है।
- जायसी अपने हृदय के प्रेम को तीव्र, व्यापक और घनीभूत बनाने का प्रयत्न करते हैं। इसी साधना में एक समय आता है, जब उनके लिये चराचर सृष्टि का सौन्दर्य उसी अमित चिरन्तन सौन्दर्य की प्रतिच्छाया हो उठता है और उनके हृदय की सम्पूर्ण रागात्मक प्रवृत्तियां उसी एक तत्व का आधार लेकर नाना रंगों सुगंधों के कलि-कुसुमों में प्रस्फुटित हो उठती हैं। वही अनुभूति उनके रहस्यवाद का मूल है।
भक्ति काल के साधक कवियों के इस प्रकार के रहस्यवाद को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने अपने 'काव्य में रहस्यवाद' तथा 'पद्मावत' की भूमिका स्वीकार किया है।[1]
साधना की आवश्यकता
'रहस्यवाद' किसी भी प्रकार का हो, उसकी सीमा तक पहुंचने के लिये सृष्टि के अनेकत्व में एकत्व की अनुभूति प्राप्त करने के लिये जीवन में जबरदस्त साधना की आवश्यकता होती है। जिन साधना पथों पर भक्ति कालीन रहस्यवादी कवि चले थे, उन पर आज अग्रसर होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य है। आधुनिक कवि साधना जन्य अनुभूति की अपेक्षा अध्ययन द्वारा विकसित मस्तिष्क के चिंतन और कल्पना का सहारा अधिक लेकर चलता है। कबीर और जायसी की जिन मानसिक स्थितियों का अभिव्यक्तिकरण उनकी रहस्यवादी रचनाओं को जन्म देता था, वे उनकी क्षणिक मानसिक स्थिति नहीं थी। उनका रहस्यवाद ऐसे अनुभवों का फल था, जिन्हें वे सदा के लिये आत्मसात कर चुके थे। वह रहस्यवाद का तल उनके दैनिक जीवन में विचरण का तल था।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 हिन्दी साहित्य और रहस्यवाद (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 04 मई, 2014।
संबंधित लेख