"प्रियप्रवास चतुर्दश सर्ग": अवतरणों में अंतर
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जो बालायें व्यथित वह भी आज हैं उन्मना हो। | जो बालायें व्यथित वह भी आज हैं उन्मना हो। | ||
प्यारा-न्यारा-निज हृदय जो श्याम को दे चुकी है। | प्यारा-न्यारा-निज हृदय जो श्याम को दे चुकी है। | ||
हा! क्यों बाला न वह | हा! क्यों बाला न वह दु:ख से दग्ध हो रो मरेगी॥11॥ | ||
ज्यों ए बातें व्यथित-चित से गोपिका ने सुनाई। | ज्यों ए बातें व्यथित-चित से गोपिका ने सुनाई। | ||
पंक्ति 86: | पंक्ति 86: | ||
ज्यों पाते ही सम-तल धार वारि-उन्मुक्त-धारा। | ज्यों पाते ही सम-तल धार वारि-उन्मुक्त-धारा। | ||
पा जाती है प्रमित-थिरता त्याग तेजस्विता को। | पा जाती है प्रमित-थिरता त्याग तेजस्विता को। | ||
त्योंही होता प्रबल | त्योंही होता प्रबल दु:ख का वेग विभ्रान्तकारी। | ||
पा ऊधो को प्रशमित हुआ सर्व-गोपी-जनों का॥13॥ | पा ऊधो को प्रशमित हुआ सर्व-गोपी-जनों का॥13॥ | ||
पंक्ति 185: | पंक्ति 185: | ||
हाँ! भावी है परम-प्रबला दैव-इच्छा बली है। | हाँ! भावी है परम-प्रबला दैव-इच्छा बली है। | ||
होते-होते | होते-होते जगत् कितने काम ही हैं न होते। | ||
जो ऐसा ही कु-दिन ब्रज की मेदिनी मध्य आये। | जो ऐसा ही कु-दिन ब्रज की मेदिनी मध्य आये। | ||
तो थोड़ा भी हृदय-बल की गोपियो! खो न देना॥33॥ | तो थोड़ा भी हृदय-बल की गोपियो! खो न देना॥33॥ | ||
पंक्ति 217: | पंक्ति 217: | ||
स्वार्थों को भी जगत-हित के अर्थ सानन्द त्यागो। | स्वार्थों को भी जगत-हित के अर्थ सानन्द त्यागो। | ||
भूलो मोहो न तुम लख के वासना-मुर्तियों को। | भूलो मोहो न तुम लख के वासना-मुर्तियों को। | ||
यों होवेगा | यों होवेगा दु:ख शमन औ शान्ति न्यारी मिलेगी॥39॥ | ||
ऊधो बातें, हृदय-तल की वेधिनी गूढ़ प्यारी। | ऊधो बातें, हृदय-तल की वेधिनी गूढ़ प्यारी। | ||
पंक्ति 392: | पंक्ति 392: | ||
प्रेमोन्मत्ता विपुल व्यथिता बालिका को विलोको। | प्रेमोन्मत्ता विपुल व्यथिता बालिका को विलोको। | ||
गोपों को औ विकल लख के गोपियों को पसीजो। | गोपों को औ विकल लख के गोपियों को पसीजो। | ||
ऊधो होती मृतक ब्रज की मेदिनी को | ऊधो होती मृतक ब्रज की मेदिनी को ज़िला दो॥74॥ | ||
'''वसन्ततिलका छन्द''' | '''वसन्ततिलका छन्द''' |
10:47, 5 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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