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[[राहुल सांकृत्यायन]] का यह कथा-संग्रह भले ही [[हिंदी]] के कथा-साहित्य की धरोहर हो, किंतु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि ज्ञान-विज्ञान की अन्य शाखाओं में, [[इतिहास]]-[[भूगोल]] के अध्ययन में भी यह पुस्तक बहुत महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है। बहुत सरलता के साथ कथा-रस में डुबकियाँ लगाते हुए मानव-सभ्यता के इतिहास को जान लेने के लिए इस पुस्तक से अच्छा माध्यम दूसरा कोई नहीं हो सकता।<ref name="कही-अनकही-बतकही"/> | [[राहुल सांकृत्यायन]] का यह कथा-संग्रह भले ही [[हिंदी]] के कथा-साहित्य की धरोहर हो, किंतु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि ज्ञान-विज्ञान की अन्य शाखाओं में, [[इतिहास]]-[[भूगोल]] के अध्ययन में भी यह पुस्तक बहुत महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है। बहुत सरलता के साथ कथा-रस में डुबकियाँ लगाते हुए मानव-सभ्यता के इतिहास को जान लेने के लिए इस पुस्तक से अच्छा माध्यम दूसरा कोई नहीं हो सकता।<ref name="कही-अनकही-बतकही"/> | ||
==मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री का वर्चस्व== | ==मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री का वर्चस्व== | ||
राहुल सांकृत्यायन की कृति ‘वोल्गा से गंगा’ मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री वर्चस्व और स्त्री सम्मान को व्यक्त करने वाली बेजोड़ रचना है। इस रचना में यदि स्त्रियों के कुल प्रदर्शन और प्रकृति पर नज़र दौड़ाया जाए तो पता चलता है कि मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री कितनी उन्मुक्त, आत्मनिर्भर और स्वच्छंद थीं। स्त्री किसी की संपत्ति नहीं थी। स्त्रियों के स्व-निर्णय का उस वक्त बड़ा प्राधान्य था और इसे एक स्वाभाविक क्रिया के रुप में देखा जाता था। ‘वोल्गा से गंगा’ की सबसे पहली कहानी ‘निशा’ विशेष रुप से उल्लेखनीय है। कहानीकार के अनुसार उस वक्त हिन्द, [[ईरान]] और [[यूरोप]] की सारी जातियाँ एक कबीले के फॉर्म में थीं। शायद यकीन करने में दिक्कत हो लेकिन उस दौरान प्रत्येक साहसिक कार्यों में स्त्रियां पहलकदमी किया करती थीं और ये कोई आश्चर्य नहीं था बल्कि एक स्वाभाविक घटना थी। इस कहानी के अनुसार मातृसत्तात्मक समाज की स्त्रियां पशु-शिकार से लेकर पाषाण-परशु और बाण चलाना, चाकू चलाना, पहाड़ चढ़ना, तैराकी, नृत्य आदि विभिन्न कलाओं में पारंगत होती थीं। बल्कि कहा जाए तो वे पुरुषों की तुलना में ज़्यादा तेज़ और साहसी होती थीं। जंगल में रहते हुए जब जंगली पशु आक्रमण करते थे तो जुझारु स्त्रियां ही आगे बढ़कर एक योद्धा की तरह उनका सामना करती थीं। इस कहानी-संग्रह की ‘दिवा’ कहानी भी स्त्री के नए रुप को उद्घाटित करती है। स्त्रियों के आवरण-मुक्त स्वभाव का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्रेम के क्षेत्र में वे पहलकदमी करती हैं। राहुल सांकृत्यायन ने बड़े कौशल से इस कृति में मातृसत्तात्मक समाज को पितृसत्ताक समाज में बदलते दिखाया है जिसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाया है। वे दिखाते हैं कि स्त्री किस तरह धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता और मुक्तता से वंचित हो रही है, उसे अपहरण किया जा रहा है, वह दासी बनाई जा रही है, उसका मोल हो रहा है, किस तरह एक से अधिक पत्नी रखने का विधान समाज में लागू होता है। स्त्री-तंत्र पुरुष-तंत्र में बदल जाता है। स्त्रियों का योद्धा रुप गायब हो जाता है और पुरुष असली योद्धा के रुप में शक्ति अर्जित करते हैं। स्त्रियां केवल सौंदर्यवती और कोमलांगी है। हालांकि नायिकाएं प्रतिभाशाली होती हैं। विद्या और बुद्धि में पुरुष के समकक्ष दिखती हैं, महत्वाकांक्षी हैं लेकिन बाकि स्त्रियां केवल सुंदर है। वे बंदिनी की तरह ज़िंदगी बसर करती हैं। कृति के अंत तक आते-आते राहुल सांकृत्यायन एक ऐसे समाज की छवि सामने लाते हैं जो छोटी मानसिकता के तहत स्त्री को भोग्या के रुप में देखता है, स्त्री का बलात्कार करता है। अब नायिका का | राहुल सांकृत्यायन की कृति ‘वोल्गा से गंगा’ मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री वर्चस्व और स्त्री सम्मान को व्यक्त करने वाली बेजोड़ रचना है। इस रचना में यदि स्त्रियों के कुल प्रदर्शन और प्रकृति पर नज़र दौड़ाया जाए तो पता चलता है कि मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री कितनी उन्मुक्त, आत्मनिर्भर और स्वच्छंद थीं। स्त्री किसी की संपत्ति नहीं थी। स्त्रियों के स्व-निर्णय का उस वक्त बड़ा प्राधान्य था और इसे एक स्वाभाविक क्रिया के रुप में देखा जाता था। ‘वोल्गा से गंगा’ की सबसे पहली कहानी ‘निशा’ विशेष रुप से उल्लेखनीय है। कहानीकार के अनुसार उस वक्त हिन्द, [[ईरान]] और [[यूरोप]] की सारी जातियाँ एक कबीले के फॉर्म में थीं। शायद यकीन करने में दिक्कत हो लेकिन उस दौरान प्रत्येक साहसिक कार्यों में स्त्रियां पहलकदमी किया करती थीं और ये कोई आश्चर्य नहीं था बल्कि एक स्वाभाविक घटना थी। इस कहानी के अनुसार मातृसत्तात्मक समाज की स्त्रियां पशु-शिकार से लेकर पाषाण-परशु और बाण चलाना, चाकू चलाना, पहाड़ चढ़ना, तैराकी, नृत्य आदि विभिन्न कलाओं में पारंगत होती थीं। बल्कि कहा जाए तो वे पुरुषों की तुलना में ज़्यादा तेज़ और साहसी होती थीं। जंगल में रहते हुए जब जंगली पशु आक्रमण करते थे तो जुझारु स्त्रियां ही आगे बढ़कर एक योद्धा की तरह उनका सामना करती थीं। इस कहानी-संग्रह की ‘दिवा’ कहानी भी स्त्री के नए रुप को उद्घाटित करती है। स्त्रियों के आवरण-मुक्त स्वभाव का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्रेम के क्षेत्र में वे पहलकदमी करती हैं। राहुल सांकृत्यायन ने बड़े कौशल से इस कृति में मातृसत्तात्मक समाज को पितृसत्ताक समाज में बदलते दिखाया है जिसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाया है। वे दिखाते हैं कि स्त्री किस तरह धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता और मुक्तता से वंचित हो रही है, उसे अपहरण किया जा रहा है, वह दासी बनाई जा रही है, उसका मोल हो रहा है, किस तरह एक से अधिक पत्नी रखने का विधान समाज में लागू होता है। स्त्री-तंत्र पुरुष-तंत्र में बदल जाता है। स्त्रियों का योद्धा रुप गायब हो जाता है और पुरुष असली योद्धा के रुप में शक्ति अर्जित करते हैं। स्त्रियां केवल सौंदर्यवती और कोमलांगी है। हालांकि नायिकाएं प्रतिभाशाली होती हैं। विद्या और बुद्धि में पुरुष के समकक्ष दिखती हैं, महत्वाकांक्षी हैं लेकिन बाकि स्त्रियां केवल सुंदर है। वे बंदिनी की तरह ज़िंदगी बसर करती हैं। कृति के अंत तक आते-आते राहुल सांकृत्यायन एक ऐसे समाज की छवि सामने लाते हैं जो छोटी मानसिकता के तहत स्त्री को भोग्या के रुप में देखता है, स्त्री का बलात्कार करता है। अब नायिका का फ़र्क़ नहीं रह जाता, सभी स्त्रियां अंतत: पुंस-शोषण से पीड़ित रहती हैं और अपने अस्तित्व के लिए छटपटा रही होती हैं।<ref>{{cite web |url=http://www.pravakta.com/matrisattak-society-and-the-river-volga-sarda-banerjee |title=मातृसत्तात्मक समाज और ‘वोल्गा से गंगा’– सारदा बनर्जी |accessmonthday=24 मार्च |accessyear=2013 |last=|first= |authorlink= |format= |publisher=प्रवक्ता डॉट कॉम) |language=हिंदी }}</ref> | ||
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20 वीं सदी के | 20 वीं सदी के महान् घुमक्कड़ लेखक-चिंतक [[राहुल सांकृत्यायन]] की वोल्गा से गंगा नामक प्रसिद्ध कृति जेल की काली कोठरी में सृजित हुई थी। जेल था हजारीबाग केंद्रीय कारागार। जेल रिकार्ड के अनुसार वे यहां स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अलग-अलग समय में लगभग 5 वर्षो तक कैद रहे। इस अवधि को उन्होंने अपने सृजन के माध्यम से अमिट बना दिया। इसके अलावा -सिंह सेनापति और दर्शन दिग्दर्शन की रचना भी यहीं हुई थी। अपने संपूर्ण जीवन में कुल 157 कृतियों के रचनाकार राहुल सांकृत्यायन एक अप्रैल 1923 को पहली बार हजारीबाग सेंट्रल जेल के बंदी बने। इसके बाद से लगातार उनका यहां आने-जाने का सिलसिला जारी रहा। [[27 मार्च]] [[1940]] को दूसरी बार तथा [[30 दिसंबर]] [[1941]] को तीसरी बार यहां बंदी रहे। राहुल के सृजन का मूक गवाह हजारीबाग का सेंट्रल जेल है जिसके परिसर में इस महाभिक्षुक ने अपनी विचारधारा को लिपिबद्ध किया था। एक अजीब संयोग है कि उनका जन्म और महाप्रयाण का महीना [[अप्रैल]] ही रहा है। विचारों को मूर्त रूप देकर उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि आदमी जंगल में रहे या पहाड़ पर, नदी में या घाटी में, अपने रह क्षण का सदुपयोग कर सकता है। सेंट्रल जेल के राहुल स्मृति कक्ष में उनकी स्मृतियां सुरक्षित हैं। उनके सृजन स्थल का महत्त्वपूर्ण पड़ाव था हजारीबाग। उन्होंने शारदा पीठ के शंकराचार्य से गणित पढ़ना सीखा था। इसके साथ ही [[इस्लाम धर्म]] का गहन अध्ययन किया था। फ्रेंच समेत कई विदेशी भाषाएं सीखी। स्वतंत्रता आंदोलन के सूत्रधार रहे राहुल के प्रगतिशील विचार वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के पथ प्रदर्शक हैं। उनकी स्मृति में शहर में किसी प्रतिमा की स्थापना अब तक नहीं की गई है। बौद्धिक समाज के समक्ष यह प्रश्न अनुत्तरित है।<ref>{{cite web |url=http://www.jagran.com/jharkhand/hazaribagh-9112589.html |title=हजारीबाग जेल की कोठरी से निकली थी वोल्गा से गंगा |accessmonthday=24 मार्च |accessyear=2013 |last=|first= |authorlink= |format= |publisher=जागरण डॉट कॉम) |language=हिंदी }}</ref> | ||
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वोल्गा से गंगा -राहुल सांकृत्यायन
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लेखक | राहुल सांकृत्यायन |
मूल शीर्षक | वोल्गा से गंगा |
प्रकाशक | किताब महल |
प्रकाशन तिथि | सन् 1944 |
देश | भारत |
भाषा | हिन्दी |
विषय | ऐतिहासिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक |
प्रकार | कहानी संग्रह |
वोल्गा से गंगा हिंदी साहित्य के महापण्डित राहुल सांकृत्यायन की प्रकाशित पुस्तक है जिसमें 6000 ई. पू. से 1942 तक मानव समाज के ऐतिहासिक, आर्थिक, राजनीतिक आधारों का 20 कहानियों के रूप में पूर्ण चित्रण किया गया है।
राहुल सांकृत्यायन की कालजयी कृति
वोल्गा से गंगा पुस्तक महापंडित राहुल सांकृत्यायन द्वारा लिखी गई बीस कहानियों का संग्रह है। इस कहानी-संग्रह की बीस कहानियाँ आठ हजार वर्षों तथा दस हजार किलोमीटर की परिधि में बँधी हुई हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि यह कहानियाँ भारोपीय मानवों की सभ्यता के विकास की पूरी कड़ी को सामने रखने में सक्षम हैं। 6000 ई.पू. से 1942 ई. तक के कालखंड में मानव समाज के ऐतिहासिक, आर्थिक एवं राजनीतिक अध्ययन को राहुल सांकृत्यायन ने इस कहानी-संग्रह में बाँधने का प्रयास किया है। वे अपने कहानी संग्रह के विषय में खुद ही लिखते हैं कि-
“लेखक की एक-एक कहानी के पीछे उस युग के संबंध की वह भारी सामग्री है, जो दुनिया की कितनी ही भाषाओं, तुलनात्मक भाषाविज्ञान, मिट्टी, पत्थर, ताँबे, पीतल, लोहे पर सांकेतिक वा लिखित साहित्य अथवा अलिखित गीतों, कहानियों, रीति-रिवाजों, टोटके-टोनों में पाई जाती है।”
इस तरह यह किताब अपनी भूमिका में ही अपनी ऐतिहासिक महत्ता और विशेषता को प्रकट कर देती है।[1]
6000 ई. पू. से लेकर 2500 ई. पू. तक
राहुल सांकृत्यायन द्वारा रचित वोल्गा से गंगा की पहली चार कहानियाँ 6000 ई. पू. से लेकर 2500 ई. पू. तक के समाज का चित्रण करती हैं। निशा, दिवा, अमृताश्व और पूरुहुत, यह चारों कहानियाँ उस काल की हैं, जब मनुष्य अपनी आदम अवस्था में था, कबीलों के रुप में रहता था और शिकार करके अपना पेट भरता था। उस युग के समाज का और हालातों का चित्रण करने में राहुल जी ने भले ही कल्पना का सहारा लिया हो, किंतु इन कहानियों में उस समय को देखा जा सकता है।
2000 ई. पू. से 700 ई. पू. तक
संग्रह की अगली चार कहानियाँ— पुरुधान, अंगिरा, सुदास और प्रवाहण हैं। इन कहानियों में 2000 ई. पू. से 700 ई. पू. तक के सामाजिक उतार-चढ़ावों और मानव सभ्यता के विकास को प्रकट करती हैं। इन कहानियों में वेद, पुराण, महाभारत, ब्राह्मण ग्रंथों, उपनिषदों आदि को आधार बनाया गया है।
490 ई. पू. से 335 ई. पू. तक
490 ई. पू. को प्रकट करती कहानी बंधुल मल्ल में बौद्धकालीन जीवन प्रकट हुआ है। इसी कहानी की प्रेरणा से राहुल जी ने ‘सिंह सेनापति’ उपन्यास लिखा था। 335 ई. पू. के काल को प्रकट करती कहानी ‘नागदत्त’ में आचार्य चाणक्य के समय की, यवन यात्रियों के भारत आगमन की यादें झलक उठती हैं।
मध्य युग से वर्तमान युग
इसी तरह 50 ई.पू के समय को प्रकट करती कहानी ‘प्रभा’ में अश्वघोष के बुद्धचरित और सौंदरानंद को महसूस किया जा सकता है। सुपर्ण यौधेय, भारत में गुप्तकाल अर्थात् 420 ई. पू. को, रघुवंश को, अभिज्ञान शाकुंतलम् और पाणिनी के समय को प्रकट करती कहानी है। इसी तरह दुर्मुख कहानी है, जिसमें 630 ई. का समय प्रकट होता है, हर्षचरित, कादम्बरी, ह्वेनसांग और ईत्सिंग के साथ हमें भी ले जाकर जोड देती है। चौदहवीं कहानी, जिसका शीर्षक चक्रपाणि है, 1200 ई. के नैषधचरित का तथा उस युग का खाका हमारे सामने खींचकर रख देती है। पंद्रहवीं कहानी बाबा नूरदीन से लेकर अंतिम कहानी सुमेर तक के बीच में लगभग 650 वर्षों का अंतराल है। मध्य युग से वर्तमान युग तक की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियों को अपने माध्यम से व्यक्त करती यह छह कहानियाँ— बाबा नूरदीन, सुरैया, रेखा भगत, मंगल सिंह, सफ़दर और सुमेर अतीत से उतारकर हमें वर्तमान तक इस तरह ला देती हैं कि हमें एक सफर के पूरे हो जाने का अहसास होने लगता है। इन कहानियों में भी कथा-रस के साथ ही ऐतिहासिक प्रामाणिकता इस हद तक शामिल है कि कथा और इतिहास में अंतर कर पाना असंभव हो जाता है।[1]
प्रासंगिकता
राहुल सांकृत्यायन का यह कथा-संग्रह भले ही हिंदी के कथा-साहित्य की धरोहर हो, किंतु इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता कि ज्ञान-विज्ञान की अन्य शाखाओं में, इतिहास-भूगोल के अध्ययन में भी यह पुस्तक बहुत महत्त्वपूर्ण और प्रासंगिक है। बहुत सरलता के साथ कथा-रस में डुबकियाँ लगाते हुए मानव-सभ्यता के इतिहास को जान लेने के लिए इस पुस्तक से अच्छा माध्यम दूसरा कोई नहीं हो सकता।[1]
मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री का वर्चस्व
राहुल सांकृत्यायन की कृति ‘वोल्गा से गंगा’ मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री वर्चस्व और स्त्री सम्मान को व्यक्त करने वाली बेजोड़ रचना है। इस रचना में यदि स्त्रियों के कुल प्रदर्शन और प्रकृति पर नज़र दौड़ाया जाए तो पता चलता है कि मातृसत्तात्मक समाज में स्त्री कितनी उन्मुक्त, आत्मनिर्भर और स्वच्छंद थीं। स्त्री किसी की संपत्ति नहीं थी। स्त्रियों के स्व-निर्णय का उस वक्त बड़ा प्राधान्य था और इसे एक स्वाभाविक क्रिया के रुप में देखा जाता था। ‘वोल्गा से गंगा’ की सबसे पहली कहानी ‘निशा’ विशेष रुप से उल्लेखनीय है। कहानीकार के अनुसार उस वक्त हिन्द, ईरान और यूरोप की सारी जातियाँ एक कबीले के फॉर्म में थीं। शायद यकीन करने में दिक्कत हो लेकिन उस दौरान प्रत्येक साहसिक कार्यों में स्त्रियां पहलकदमी किया करती थीं और ये कोई आश्चर्य नहीं था बल्कि एक स्वाभाविक घटना थी। इस कहानी के अनुसार मातृसत्तात्मक समाज की स्त्रियां पशु-शिकार से लेकर पाषाण-परशु और बाण चलाना, चाकू चलाना, पहाड़ चढ़ना, तैराकी, नृत्य आदि विभिन्न कलाओं में पारंगत होती थीं। बल्कि कहा जाए तो वे पुरुषों की तुलना में ज़्यादा तेज़ और साहसी होती थीं। जंगल में रहते हुए जब जंगली पशु आक्रमण करते थे तो जुझारु स्त्रियां ही आगे बढ़कर एक योद्धा की तरह उनका सामना करती थीं। इस कहानी-संग्रह की ‘दिवा’ कहानी भी स्त्री के नए रुप को उद्घाटित करती है। स्त्रियों के आवरण-मुक्त स्वभाव का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि प्रेम के क्षेत्र में वे पहलकदमी करती हैं। राहुल सांकृत्यायन ने बड़े कौशल से इस कृति में मातृसत्तात्मक समाज को पितृसत्ताक समाज में बदलते दिखाया है जिसके लिए उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं को आधार बनाया है। वे दिखाते हैं कि स्त्री किस तरह धीरे-धीरे अपनी स्वतंत्रता और मुक्तता से वंचित हो रही है, उसे अपहरण किया जा रहा है, वह दासी बनाई जा रही है, उसका मोल हो रहा है, किस तरह एक से अधिक पत्नी रखने का विधान समाज में लागू होता है। स्त्री-तंत्र पुरुष-तंत्र में बदल जाता है। स्त्रियों का योद्धा रुप गायब हो जाता है और पुरुष असली योद्धा के रुप में शक्ति अर्जित करते हैं। स्त्रियां केवल सौंदर्यवती और कोमलांगी है। हालांकि नायिकाएं प्रतिभाशाली होती हैं। विद्या और बुद्धि में पुरुष के समकक्ष दिखती हैं, महत्वाकांक्षी हैं लेकिन बाकि स्त्रियां केवल सुंदर है। वे बंदिनी की तरह ज़िंदगी बसर करती हैं। कृति के अंत तक आते-आते राहुल सांकृत्यायन एक ऐसे समाज की छवि सामने लाते हैं जो छोटी मानसिकता के तहत स्त्री को भोग्या के रुप में देखता है, स्त्री का बलात्कार करता है। अब नायिका का फ़र्क़ नहीं रह जाता, सभी स्त्रियां अंतत: पुंस-शोषण से पीड़ित रहती हैं और अपने अस्तित्व के लिए छटपटा रही होती हैं।[2]
काल की कोठरी से निकली 'वोल्गा से गंगा'
20 वीं सदी के महान् घुमक्कड़ लेखक-चिंतक राहुल सांकृत्यायन की वोल्गा से गंगा नामक प्रसिद्ध कृति जेल की काली कोठरी में सृजित हुई थी। जेल था हजारीबाग केंद्रीय कारागार। जेल रिकार्ड के अनुसार वे यहां स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लेने के कारण अलग-अलग समय में लगभग 5 वर्षो तक कैद रहे। इस अवधि को उन्होंने अपने सृजन के माध्यम से अमिट बना दिया। इसके अलावा -सिंह सेनापति और दर्शन दिग्दर्शन की रचना भी यहीं हुई थी। अपने संपूर्ण जीवन में कुल 157 कृतियों के रचनाकार राहुल सांकृत्यायन एक अप्रैल 1923 को पहली बार हजारीबाग सेंट्रल जेल के बंदी बने। इसके बाद से लगातार उनका यहां आने-जाने का सिलसिला जारी रहा। 27 मार्च 1940 को दूसरी बार तथा 30 दिसंबर 1941 को तीसरी बार यहां बंदी रहे। राहुल के सृजन का मूक गवाह हजारीबाग का सेंट्रल जेल है जिसके परिसर में इस महाभिक्षुक ने अपनी विचारधारा को लिपिबद्ध किया था। एक अजीब संयोग है कि उनका जन्म और महाप्रयाण का महीना अप्रैल ही रहा है। विचारों को मूर्त रूप देकर उन्होंने सिद्ध कर दिया था कि आदमी जंगल में रहे या पहाड़ पर, नदी में या घाटी में, अपने रह क्षण का सदुपयोग कर सकता है। सेंट्रल जेल के राहुल स्मृति कक्ष में उनकी स्मृतियां सुरक्षित हैं। उनके सृजन स्थल का महत्त्वपूर्ण पड़ाव था हजारीबाग। उन्होंने शारदा पीठ के शंकराचार्य से गणित पढ़ना सीखा था। इसके साथ ही इस्लाम धर्म का गहन अध्ययन किया था। फ्रेंच समेत कई विदेशी भाषाएं सीखी। स्वतंत्रता आंदोलन के सूत्रधार रहे राहुल के प्रगतिशील विचार वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के पथ प्रदर्शक हैं। उनकी स्मृति में शहर में किसी प्रतिमा की स्थापना अब तक नहीं की गई है। बौद्धिक समाज के समक्ष यह प्रश्न अनुत्तरित है।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 मिश्र, डॉ. राहुल। वोल्गा से गंगा : शाश्वत प्रवाह का शालीन दर्शन (हिंदी) कही-अनकही-बतकही (ब्लॉग)। अभिगमन तिथि: 24 मार्च, 2013।
- ↑ मातृसत्तात्मक समाज और ‘वोल्गा से गंगा’– सारदा बनर्जी (हिंदी) प्रवक्ता डॉट कॉम)। अभिगमन तिथि: 24 मार्च, 2013।
- ↑ हजारीबाग जेल की कोठरी से निकली थी वोल्गा से गंगा (हिंदी) जागरण डॉट कॉम)। अभिगमन तिथि: 24 मार्च, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
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