"स्वस्तिक": अवतरणों में अंतर

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[[चित्र:Hindu-Swastika.jpg|स्वस्तिक<br /> Swastika|250px|thumb]]
{{अस्वीकरण}}
अत्यन्त प्राचीन काल से ही [[भारत|भारतीय]] [[संस्कृति]] में स्वस्तिक को मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्व अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। गृहप्रवेश से पहले मुख्य द्वार के ऊपर स्वस्तिक चिह्व अंकित करके कल्याण की कामना की जाती है। देवपूजन, विवाह, व्यापार, बहीखाता पूजन, शिक्षारम्भ तथा मुण्डन-संस्कार आदि में भी स्वस्तिक-पूजन आवश्यक समझा जाता है। महिलाएँ अपने हाथों में [[मेहन्दी]] से स्वस्तिक चिह्व बनाती हैं। इसे दैविक आपत्ति या दुष्टात्माओं से मुक्ति दिलाने वाला माना जाता है।<ref name="आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक">{{cite web |url=http://www.lakesparadise.com/madhumati/show_artical.php?id=806 |title=आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक - स्वस्तिक |accessmonthday=[[8 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=लेक्स पेराडाइस |language=हिन्दी }}</ref>
{{स्वस्तिक विषय सूची}}
 
{{बहुविकल्प|बहुविकल्पी शब्द=स्वस्तिक|लेख का नाम=स्वस्तिक (बहुविकल्पी)}}
स्वस्तिक [[आर्य|आर्यत्व]] का चिन्ह माना जाता है। जब जर्मनी में नात्सियों ने इसे विशुद्ध आर्यत्व का प्रतीक घोषित किया तो इसका विश्वव्यापी महत्त्व हो गया। वैदिक साहित्य में स्वस्तिक की चर्चा नहीं हैं। यह शब्द ई॰ सन् की प्रारम्भिक शताब्दियों के ग्रंथों में मिलता है जबकि धार्मिक कला में इसका प्रयोग शुभ माना जाता है। किंतु ओरेल स्टाइन का मत है कि यह प्रतीक पहले पहल बलूचिस्तान स्थित शाही टुम्प की धूसर भांडवाली संस्कृति में मिलता है जिसे [[हड़प्पा सभ्यता|हड़प्पा]] से पहले का माना जाता है और जिसका सम्बन्ध दक्षिण ईरान की संस्कृति से स्थापित किया जाता है।<ref>एच॰ डी॰ साँकलिया, दि प्रीहिस्ट्री एंड प्रोटोहिस्ट्री ऑव इंडिया एंड पाकिस्तान, दक्कन कॉलेज पोस्टग्रैड्यूएट एंड रिसर्च इनस्टिट्यूट, पूना, 1974, पृ॰ 323-24</ref> स्टाइन की दृष्टि से स्वस्तिक का प्रतीक अनोखा है किंतु अरनेस्ट मैके के अनुसार यह सबसे पहले-पहल एलम अर्थात् आर्य पूर्व ईरान में प्रकट होता है।<ref>यद्यपि स्वस्तिक कुछ हड़प्पाई मुहरों पर मिलता है, मैके के अनुसार यह सिंधु घाटी की विशेषता नहीं है। उनके अनुसार यह बहुत पहले मिला। अर्ली इंडस सिविलाइज़ेशन, डोरथी मैके के द्वारा परिवर्द्धित एवं संशोधित द्वितीय संस्करण, इंडोलॉजिकल बुक कॉपोरेशन, दिल्ली, 1976, पृ॰ 71-72</ref> स्वस्तिक वाले ठप्पे हड़प्पाई में और अल्लीन-देपे में पाये गये हैं।<ref name="दानी एंड मैसन">दानी एंड मैसन, सं॰ उदधृत पुस्तक में वी॰ एम॰ मैसन "दि ब्रॉन्ज एज इन खोरासन एंड ट्रांसऑकसियाना", पृ॰ 242</ref> और उनका समय 2300-2000 ई॰ पू॰ है।<ref name="दानी एंड मैसन"/> शाही टुम्प में स्वस्तिक प्रतीक का प्रयोग [[श्राद्ध]] वाले बरतनों पर होता था, और 1200 ई॰ पू॰ के लगभग दक्षिण ताजिकिस्तान में जो क़ब्रगाह मिले हैं और उनमें क़ब्र की जगह पर इस प्रकार का चिन्ह मिलता है।<ref> दानी एंड मैसन, सं॰, उदधृत पुस्तक में लिटविंस्की एंड पयंकोव "पेस्ट्रॉरल ट्राइब्स ऑव दि ब्रॉन्ज एज इन दि आक्सस वैली (बैक्ट्रिया)", पृ॰ 394</ref>
{{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय
{{tocright}}
|चित्र=swt red.jpg
|चित्र का नाम=स्वस्तिक
|विवरण=पुरातन [[वैदिक]] सनातन [[संस्कृति]] का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न 'स्वस्तिक' अपने आप में विलक्षण है। यह [[देवता|देवताओं]] की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है।  
|शीर्षक 1=स्वस्तिक का अर्थ
|पाठ 1=सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है- शुभ और "अस्ति" का- होना। [[संस्कृत]] व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"
|शीर्षक 2=आकृति
|पाठ 2= [[भारत]] में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं।
|शीर्षक 3=ऐतिहासिक उल्लेख
|पाठ 3=[[मोहन जोदड़ो|मोहन जोदड़ों]], [[हड़प्पा संस्कृति]], [[अशोक के शिलालेख|अशोक के शिलालेखों]], [[रामायण]], [[हरिवंश पुराण]], [[महाभारत]] आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है।
|शीर्षक 4=स्वस्ति मंत्र
|पाठ 4=ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥
|शीर्षक 5=
|पाठ 5=
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|अन्य जानकारी=भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्न को [[विष्णु]], [[सूर्य देव|सूर्य]], सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण [[ब्रह्माण्ड]] का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे [[गणेश]] का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है।
|बाहरी कड़ियाँ=
|अद्यतन=
}}
'''स्वस्तिक''' [[हिन्दू धर्म]] का पवित्र, पूजनीय चिह्न और प्राचीन [[धर्म]] प्रतीक है। यह [[देवता|देवताओं]] की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाओं का संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है। पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही [[भारतीय संस्कृति]] में स्वस्तिक को मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है।
==परिचय==
{{main|स्वस्तिक का परिचय}}
विघ्नहर्ता [[गणेश]] की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की [[लक्ष्मी|देवी लक्ष्मी]] के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की [[पूजा]] की परम्परा है। इसे [[भारतीय संस्कृति]] में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही स्वस्तिक को शुभ मंगल का प्रतीक माना जाता है। जब कोई भी शुभ काम करते हैं तो सबसे पहले स्वस्तिक चिन्ह अंकित करते हैं और उसकी पूजा करते हैं। स्वस्तिक का शाब्दिक अर्थ होता है- "अच्छा या मंगल करने वाला।"
==धार्मिक मान्यताएँ==
{{main|स्वस्तिक की धार्मिक मान्यताएँ}}
[[हिन्दू धर्म]] ग्रन्थों के अनुसार किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार [[गणेश|श्रीगणेश]] प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो। स्वस्तिक बनाने से हमारे कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाते हैं। किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या ज़मीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है।
==अर्थ==  
==अर्थ==  
स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ सत्ता 'या' अस्तित्व और 'क' का अर्थ है कर्ता या करने वाला। इस प्रकार स्वस्तिक शब्द का अर्थ हुआ अच्छा या मंगल करने वाला।
{{main|स्वस्तिक का अर्थ}}
[[भारतीय संस्कृति]] में [[वैदिक काल]] से ही स्वस्तिक को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। यूँ तो बहुत से लोग इसे [[हिन्दू धर्म]] का एक प्रतीक चिह्न ही मानते हैं किन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि इसके पीछे कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ है। सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है- शुभ और "अस्ति" का- होना। [[संस्कृत]] व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"। स्वस्तिक शब्द '''सु+अस+क''' से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ सत्ता 'या' अस्तित्व और 'क' का अर्थ है कर्ता या करने वाला।
==आकृति==
{{main|स्वस्तिक की आकृति}}
स्वस्तिक का आकृति हमारे [[ऋषि]]-[[मुनि|मुनियों]] ने हज़ारों वर्ष पूर्व निर्मित की है। [[भारत]] में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं।<ref>या स्वस्तिक बनाने के लिए धन चिह्न बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से स्वस्तिक बन जाता है।</ref> रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है। मानक दर्शन अनुसार स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती (दक्षिणोन्मुख) हैं। इसे '''दक्षिणावर्त स्वस्तिक'''<ref>घडी की सूई चलने की दिशा</ref> कहते हैं। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर (वामोन्मुख) मुडती हैं। इसे '''वामावर्त स्वस्तिक''' (उसके विपरीत) कहते हैं। दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप दो प्रकार के स्वस्तिक स्त्री एवं पुरुष के प्रतीक के रूप में भी मान्य हैं । किन्तु जहाँ दाईं ओर मुडी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं, वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक, हानिकारक माना गया है ।
==रंग व ऊर्जा==
{{main|स्वस्तिक का रंग व ऊर्जा}}
स्वस्तिक की आकृति सदैव कुमकुम (कुंकुम), [[सिन्दूर]] व अष्टगंध से ही अंकित करनी चाहिए। यदि आधुनिक दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब तो विज्ञान भी स्वस्तिक, इत्यादि माँगलिक चिह्नों की महता स्वीकार करने लगा है। आधुनिक विज्ञान ने वातावरण तथा किसी भी जीवित वस्तु, [[पदार्थ]] इत्यादि के [[ऊर्जा]] को मापने के लिए विभिन्न उपकरणों का आविष्कार किया है और इस ऊर्जा मापने की इकाई को नाम दिया है- '''बोविस'''। इस यंत्र का आविष्कार [[जर्मनी]] और [[फ़्राँस]] ने किया है। मृत मानव शरीर का बोविस शून्य माना गया है और मानव में औसत ऊर्जा क्षेत्र 6,500 बोविस पाया गया है। वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा 'विधिवत पूर्ण लाल कुंकुम से अंकित स्वस्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को 100000 बोविस यूनिट' में नापा है। यदि इसे उल्टा बना दिया जाए तो यह प्रतिकूल ऊर्जा को इसी अनुपात में बढ़ाता है।


[[अमरकोश]] में स्वस्तिक का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है, अर्थात सभी [[दिशा|दिशाओं]] में सबका कल्याण हो। इस प्रकार स्वस्तिक में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या '''वसुधैव कुटुम्बकम्''' की भावना निहित है। प्राचीनकाल में हमारे यहाँ कोई भी श्रेष्ठ कार्य करने से पूर्व मंगलाचरण लिखने की परंपरा थी, लेकिन लेकिन आम आदमी के लिए मंगलाचरण लिखना सम्भव नहीं था, इसलिए ऋषियों ने स्वस्तिक चिन्ह का परिकल्पना की, ताकि सभी के कार्य सानन्द सम्पन्न हों।<ref>{{cite web |url=http://navbharattimes.indiatimes.com/articleshow/2058038.cms?prtpage=1 |title=आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक- स्वस्तिक |accessmonthday=[[8 अक्टूबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=नवभारत टाइम्स |language=हिन्दी}}</ref>


==आकृति==
<div align="center">'''[[स्वस्तिक का परिचय|आगे जाएँ »]]'''</div>
स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोडी और आगे की तरफ मुडी होती हैं। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुडती हैं। इसे '''दक्षिणावर्त स्वस्तिक''' कहते हैं। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुडती हैं। इसे '''वामावर्त स्वस्तिक''' कहते हैं। स्वस्तिक की दो रेखाएँ पुरुष और प्रकृति की प्रतीक हैं।
====<u>पौराणिक महत्व</u>====
भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्व को [[विष्णु]], [[सूर्य देव|सूर्य]], सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण [[ब्रह्माण्ड]] का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे [[गणेश]] का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है। [[पुराण|पुराणों]] में इसे सुदर्शन चक्र का प्रतीक माना गया है। वायवीय संहिता में स्वस्तिक को आठ यौगिक आसनों में एक बतलाया गया है। [[यास्काचार्य]] ने इसे ब्रह्म का ही एक स्वरूप माना है। कुछ विद्वान इसकी चार भुजाओं को [[हिन्दू धर्म|हिन्दुओं]] के चार वर्णों की [[एकता]] का प्रतीक मानते हैं। इन भुजाओं को [[ब्रह्मा]] के चार मुख, चार हाथ और चार [[वेद|वेदों]] के रूप में भी स्वीकार किया गया है। स्वस्तिक की खडी रेखा को स्वयं [[ज्योतिर्लिंग]] का तथा आडी रेखा को विश्व के विस्तार का भी संकेत माना जाता है। इन चारों भुजाओं को चारों दिशाओं के कल्याण की कामना के प्रतीक के रूप में भी स्वीकार किया जाता है, जिन्हें बाद में इसी भावना के साथ रेडक्रॉस सोसायटी ने भी अपनाया।
====<u>धार्मिक महत्व</u>====
हमारे मांगलिक प्रतीकों में स्वस्तिक एक ऐसा चिह्व है, जो अत्यन्त प्राचीन काल से लगभग सभी धर्मों और सम्प्रदायों में प्रचलित रहा है। भारत में तो इसकी जडें गहरायी से पैठी हुई हैं ही, विदेशों में भी इसका काफी अधिक प्रचार प्रसार हुआ है। अनुमान है कि व्यापारी और पर्यटकों के माध्यम से ही हमारा यह मांगलिक प्रतीक विदेशों में पहुँचा। [[भारत]] के समान विदेशों में भी स्वस्तिक को शुभ और विजय का प्रतीक चिह्व माना गया। इसके नाम अवश्य ही अलग-अलग स्थानों में, समय-समय पर अलग-अलग रहे।


[[सिन्धु घाटी]] से प्राप्त बर्तन और [[मुद्रा|मुद्राओं]] पर हमें स्वस्तिक की आकृतियाँ खुदी मिली हैं, जो इसकी प्राचीनता का ज्वलन्त प्रमाण है। सिन्धु-घाटी सभ्यता के लोग सूर्यपूजक थे और स्वस्तिक चिह्व, सूर्य का भी प्रतीक माना जाता रहा है। ईसा से पूर्व प्रथम शताब्दी की खण्डगिरि, [[उदयगिरि गुफ़ाएँ|उदयगिरि]] की रानी की गुफा में भी स्वस्तिक चिह्व मिले हैं। [[मत्स्य पुराण]] में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वस्तिक की चर्चा की गयी है। [[पाणिनी]] की [[व्याकरण]] में भी स्वस्तिक का उल्लेख है। [[पाली भाषा]] में स्वस्तिक को साक्षियों के नाम से पुकारा गया, जो बाद में साखी या साकी कहलाये जाने लगे। जैन परम्परा में मांगलिक प्रतीक के रूप में स्वीकृत अष्टमंगल द्रव्यों में स्वस्तिक का स्थान सर्वोपरि है।
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक3|माध्यमिक=|पूर्णता=|शोध=}}
====<u>मंगल प्रतीक</u>====
स्वस्तिक चिह्व की चार रेखाओं को चार प्रकार के मंगल की प्रतीक माना जाता है। वे हैं - अरहन्त-मंगल, सिद्ध-मंगल, साहू-मंगल और केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगल। महात्मा [[बुद्ध]] की मूर्तियों पर और उनके चित्रों पर भी प्रायः स्वस्तिक चिह्व मिलते हैं। अमरावती के स्तूप पर स्वस्तिक चिह्व हैं। विदेशों में इस मंगल-प्रतीक के प्रचार-प्रसार में [[बौद्ध धर्म]] के प्रचारकों का भी काफी योगदान रहा है।
====<u>विश्वव्यापी प्रभाव</u>====
बौद्ध धर्म के प्रभाव के कारण ही [[जापान]] में प्राप्त महात्मा बुद्ध की प्राचीन मूर्तियों पर स्वस्तिक चिह्व अंकित हुए मिले हैं। ईरान, यूनान, मैक्सिको और साइप्रस में की गई खुदाइयों में जो मिट्टी के प्राचीन बर्तन मिले हैं, उनमें से अनेक पर स्वस्तिक चिह्व हैं। ऑस्ट्रिया के राष्ट्रीय संग्रहालय में अपोलो [[देवता]] की एक प्रतिमा है, जिस पर स्वस्तिक चिह्व बना हुआ है। टर्की में ईसा से 2200 वर्ष पूर्व के ध्वज-दण्डों में अंकित स्वस्तिक चिह्व मिले हैं। [[इटली]] के अनेक प्राचीन अस्थि कलशों पर भी स्वस्तिक चिह्व हैं। एथेन्स में शत्रागार के सामने यह चिह्व बना हुआ है। स्कॉटलैण्ड और आयरलैण्ड में अनेक ऐसे प्राचीन पत्थर मिले हैं, जिन पर स्वस्तिक चिह्व अंकित हैं। प्रारम्भिक ईसाई स्मारकों पर भी स्वस्तिक चिह्व देखे गये हैं। कुछ ईसाई पुरातत्त्ववेत्ताओं का विचार है कि [[ईसाई धर्म]] के प्रतीक क्रॉस का भी प्राचीनतम रूप स्वस्तिक ही है। छठी शताब्दी में चीनी राजा वू ने स्वस्तिक को सूर्य के प्रतीक के रूप में मानने की घोषणा की थी।<ref name="आर्य संस्कृति का मंगल प्रतीक"/>
 
बेल्जियम में नामूर संग्रहालय में एक ऐसा उपकरण है जो हड्डी से बना हुआ है। उस पर क्रॉस के कई चिन्ह बने हुए हैं तथा उन चिन्हों के बीच में एक स्वस्तिक चिन्ह भी है। इटली के संग्रहालय में रखे एक भाले पर भी स्वस्तिक का चिन्ह हैं। वहाँ के अनेक प्राचीन अस्थिकलशों पर भी स्वस्तिक चिन्ह मिलते हैं। स्वस्तिक को सुख और सौभाग्य का प्रतीक मानते हैं। वे आज भी इसे अपने आभूषणों में धारण करते हैं।
{{लेख प्रगति
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
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[[Category:नया पन्ना]]
==बाहरी कड़ियाँ==
 
*[http://prachinsabyata.blogspot.in/2013/06/mystery-of-swastika-pyramids-and.html स्वस्तिक , पिरामिड और पुनर्जन्म के रहस्य]
*[http://www.panditastro.com/2009/12/symbol-of-life-and-preservation.html भारतीय संस्कृ्ति का महान् प्रतीक चिन्ह- स्वस्तिक]
*[http://www.livehindustan.com/news/astronews/vastushastra/article1-vastu-117-120-294761.html स्वास्थ्य व सौभाग्य घर लाते हैं, स्वस्तिक और मंगल कलश]
==संबंधित लेख==
{{स्वस्तिक}}{{भारतीय संस्कृति के प्रतीक}}
[[Category:भारतीय संस्कृति के प्रतीक]][[Category:हिन्दू धर्म]][[Category:धार्मिक चिह्न]][[Category:वैदिक धर्म]]
[[Category:पौराणिक कोश]][[Category:हिन्दू धर्म कोश]]
__INDEX__
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[[Category:पौराणिक_कोश]][[Category:हिन्दू_धर्म_कोश]][[Category:धार्मिक चिन्ह]][[Category:वैदिक_धर्म]][[Category:हिन्दू_धर्म]]

07:32, 6 अगस्त 2017 के समय का अवतरण

यह लेख पौराणिक ग्रंथों अथवा मान्यताओं पर आधारित है अत: इसमें वर्णित सामग्री के वैज्ञानिक प्रमाण होने का आश्वासन नहीं दिया जा सकता। विस्तार में देखें अस्वीकरण
स्वस्तिक विषय सूची
स्वस्तिक एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- स्वस्तिक (बहुविकल्पी)
स्वस्तिक
स्वस्तिक
स्वस्तिक
विवरण पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न 'स्वस्तिक' अपने आप में विलक्षण है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाएँ इन दोनों के संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है।
स्वस्तिक का अर्थ सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है- शुभ और "अस्ति" का- होना। संस्कृत व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"।
आकृति भारत में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं।
ऐतिहासिक उल्लेख मोहन जोदड़ों, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिलालेखों, रामायण, हरिवंश पुराण, महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है।
स्वस्ति मंत्र ॐ स्वस्ति न इंद्रो वृद्ध-श्रवा-हा स्वस्ति न-ह पूषा विश्व-वेदा-हा । स्वस्ति न-ह ताक्षर्‌यो अरिष्ट-नेमि-हि स्वस्ति नो बृहस्पति-हि-दधातु ॥
अन्य जानकारी भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक चिह्न को विष्णु, सूर्य, सृष्टिचक्र तथा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है। कुछ विद्वानों ने इसे गणेश का प्रतीक मानकर इसे प्रथम वन्दनीय भी माना है।

स्वस्तिक हिन्दू धर्म का पवित्र, पूजनीय चिह्न और प्राचीन धर्म प्रतीक है। यह देवताओं की शक्ति और मनुष्य की मंगलमय कामनाओं का संयुक्त सामर्थ्य का प्रतीक है। पुरातन वैदिक सनातन संस्कृति का परम मंगलकारी प्रतीक चिह्न स्वस्तिक अपने आप में विलक्षण है। यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है।

परिचय

विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है। भारतीय संस्कृति में प्राचीन काल से ही स्वस्तिक को शुभ मंगल का प्रतीक माना जाता है। जब कोई भी शुभ काम करते हैं तो सबसे पहले स्वस्तिक चिन्ह अंकित करते हैं और उसकी पूजा करते हैं। स्वस्तिक का शाब्दिक अर्थ होता है- "अच्छा या मंगल करने वाला।"

धार्मिक मान्यताएँ

हिन्दू धर्म ग्रन्थों के अनुसार किसी भी पूजन कार्य का शुभारंभ बिना स्वस्तिक के नहीं किया जा सकता। चूंकि शास्त्रों के अनुसार श्रीगणेश प्रथम पूजनीय हैं, अत: स्वस्तिक का पूजन करने का अर्थ यही है कि हम श्रीगणेश का पूजन कर उनसे विनती करते हैं कि हमारा पूजन कार्य सफल हो। स्वस्तिक बनाने से हमारे कार्य निर्विघ्न पूर्ण हो जाते हैं। किसी भी धार्मिक कार्यक्रम में या सामान्यत: किसी भी पूजा-अर्चना में हम दीवार, थाली या ज़मीन पर स्वस्तिक का निशान बनाकर स्वस्ति वाचन करते हैं। साथ ही स्वस्तिक धनात्मक ऊर्जा का भी प्रतीक है, इसे बनाने से हमारे आसपास से नकारात्मक ऊर्जा दूर हो जाती है।

अर्थ

भारतीय संस्कृति में वैदिक काल से ही स्वस्तिक को विशेष महत्त्व प्रदान किया गया है। यूँ तो बहुत से लोग इसे हिन्दू धर्म का एक प्रतीक चिह्न ही मानते हैं किन्तु वे लोग ये नहीं जानते कि इसके पीछे कितना गहरा अर्थ छिपा हुआ है। सामान्यतय: स्वस्तिक शब्द को "सु" एवं "अस्ति" का मिश्रण योग माना जाता है । यहाँ "सु" का अर्थ है- शुभ और "अस्ति" का- होना। संस्कृत व्याकरण अनुसार "सु" एवं "अस्ति" को जब संयुक्त किया जाता है तो जो नया शब्द बनता है- वो है "स्वस्ति" अर्थात "शुभ हो", "कल्याण हो"। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ सत्ता 'या' अस्तित्व और 'क' का अर्थ है कर्ता या करने वाला।

आकृति

स्वस्तिक का आकृति हमारे ऋषि-मुनियों ने हज़ारों वर्ष पूर्व निर्मित की है। भारत में स्वस्तिक का रूपांकन छह रेखाओं के प्रयोग से होता है। स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं।[1] रेखा खींचने का कार्य ऊपरी भुजा से प्रारम्भ करना चाहिए। इसमें दक्षिणवर्त्ती गति होती है। मानक दर्शन अनुसार स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती (दक्षिणोन्मुख) हैं। इसे दक्षिणावर्त स्वस्तिक[2] कहते हैं। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर (वामोन्मुख) मुडती हैं। इसे वामावर्त स्वस्तिक (उसके विपरीत) कहते हैं। दोनों दिशाओं के संकेत स्वरूप दो प्रकार के स्वस्तिक स्त्री एवं पुरुष के प्रतीक के रूप में भी मान्य हैं । किन्तु जहाँ दाईं ओर मुडी भुजा वाला स्वस्तिक शुभ एवं सौभाग्यवर्द्धक हैं, वहीं उल्टा (वामावर्त) स्वस्तिक को अमांगलिक, हानिकारक माना गया है ।

रंग व ऊर्जा

स्वस्तिक की आकृति सदैव कुमकुम (कुंकुम), सिन्दूर व अष्टगंध से ही अंकित करनी चाहिए। यदि आधुनिक दृ्ष्टिकोण से देखा जाए तो अब तो विज्ञान भी स्वस्तिक, इत्यादि माँगलिक चिह्नों की महता स्वीकार करने लगा है। आधुनिक विज्ञान ने वातावरण तथा किसी भी जीवित वस्तु, पदार्थ इत्यादि के ऊर्जा को मापने के लिए विभिन्न उपकरणों का आविष्कार किया है और इस ऊर्जा मापने की इकाई को नाम दिया है- बोविस। इस यंत्र का आविष्कार जर्मनी और फ़्राँस ने किया है। मृत मानव शरीर का बोविस शून्य माना गया है और मानव में औसत ऊर्जा क्षेत्र 6,500 बोविस पाया गया है। वैज्ञानिक हार्टमेण्ट अनसर्ट ने आवेएंटिना नामक यन्त्र द्वारा 'विधिवत पूर्ण लाल कुंकुम से अंकित स्वस्तिक की सकारात्मक ऊर्जा को 100000 बोविस यूनिट' में नापा है। यदि इसे उल्टा बना दिया जाए तो यह प्रतिकूल ऊर्जा को इसी अनुपात में बढ़ाता है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. या स्वस्तिक बनाने के लिए धन चिह्न बनाकर उसकी चारों भुजाओं के कोने से समकोण बनाने वाली एक रेखा दाहिनी ओर खींचने से स्वस्तिक बन जाता है।
  2. घडी की सूई चलने की दिशा

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