"श्रीमद्भागवत महापुराण दशम स्कन्ध अध्याय 87 श्लोक 30-32": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (1 अवतरण)
छो (Text replacement - "स्वरुप" to "स्वरूप")
 
(इसी सदस्य द्वारा किया गया बीच का एक अवतरण नहीं दर्शाया गया)
पंक्ति 3: पंक्ति 3:
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  सप्ताशीतितमोऽध्यायः श्लोक 30-32 का हिन्दी अनुवाद </div>
<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध:  सप्ताशीतितमोऽध्यायः श्लोक 30-32 का हिन्दी अनुवाद </div>


भगवन्! आप नित्य एकरस हैं। यदि जीव असंख्य हों और सब-के-सब नित्य एवं सर्वव्यापक हों, तब तो वे आपके समान ही हो जायँगे; उस हालत में वे शासित हैं और आप शासक—यह बात बन ही नहीं सकती, और तब आप उनका नियन्त्रण कर ही नहीं सकते। उनका नियन्त्रण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी अपेक्षा न्यून हों। इसमें सन्देह नहीं है कि सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है। इसलिये आप उनमें कारणरुप से रहते हुए भी उनके नियामक हैं। वास्तव में आप उनमें समरूप से स्थित हैं। परन्तु यह जाना नहीं जा सकता कि आपका वह स्वरुप कैसा है। क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया, उन्होंने वास्तव में आपको नहीं जाना; उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धि के विषय को जाना है, जिससे आप परे हैं। और साथ ही मति के द्वारा जितनी वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे मतियों की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न होती है; इसलिए उनकी दुष्टता, एक मत के साथ दूसरे मत का विरोध प्रत्यक्ष ही है। अतएव आपका स्वरुप समस्त मतों के परे हैं<ref>श्रुति ने समस्त दृश्य प्रपंच के अन्तर्यामी के रूप में जिनका गान किया है, और युक्ति से भी वैसा ही निश्चय होता है। जो सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और [[नृसिंह]]—पुरुषोत्तम हैं, उन्हीं सर्वसौन्दर्य-माधुर्य निधि प्रभु का मैं मन-ही-मन आश्रय ग्रहण करता हूँ।</ref>।
भगवन्! आप नित्य एकरस हैं। यदि जीव असंख्य हों और सब-के-सब नित्य एवं सर्वव्यापक हों, तब तो वे आपके समान ही हो जायँगे; उस हालत में वे शासित हैं और आप शासक—यह बात बन ही नहीं सकती, और तब आप उनका नियन्त्रण कर ही नहीं सकते। उनका नियन्त्रण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी अपेक्षा न्यून हों। इसमें सन्देह नहीं है कि सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है। इसलिये आप उनमें कारणरुप से रहते हुए भी उनके नियामक हैं। वास्तव में आप उनमें समरूप से स्थित हैं। परन्तु यह जाना नहीं जा सकता कि आपका वह स्वरूप कैसा है। क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया, उन्होंने वास्तव में आपको नहीं जाना; उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धि के विषय को जाना है, जिससे आप परे हैं। और साथ ही मति के द्वारा जितनी वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे मतियों की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न होती है; इसलिए उनकी दुष्टता, एक मत के साथ दूसरे मत का विरोध प्रत्यक्ष ही है। अतएव आपका स्वरूप समस्त मतों के परे हैं<ref>श्रुति ने समस्त दृश्य प्रपंच के अन्तर्यामी के रूप में जिनका गान किया है, और युक्ति से भी वैसा ही निश्चय होता है। जो सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और [[नृसिंह]]—पुरुषोत्तम हैं, उन्हीं सर्वसौन्दर्य-माधुर्य निधि प्रभु का मैं मन-ही-मन आश्रय ग्रहण करता हूँ।</ref>।
स्वामिन! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहने का ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणाम के द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं। अर्थात् उनका वास्तविक स्वरुप—जो आप हैं—कभी वृत्तीयों के अन्दर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब प्राणियों का जन्म कैसे होता है ? अज्ञान के कारण प्रकृति को पुरुष और पुरुष को प्रकृति समझ लेने से, एक का दूसरे के साथ संयोग हो जाने से जैसे ‘बुलबुला’ नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादान-कारण [[जल]] और निमित्त-कारण वायु के संयोग से उसकी सृष्टि हो जाती हैं। प्रकृति में पुरुष और पुरुष में प्रकृति का अध्यास (एक दूसरे की कल्पना) हो जाने के कारण ही जीवों के विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अन्त में जैसे समुद्र में नदियाँ और मधु में समस्त पुष्पों के रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधिरहित आपमें समा जाते हैं। (इसलिये जीवों की भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है। उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्व-व्यापकता आदि वास्तविक सत्य को न जानने के कारण ही मानी जाती है)<ref>जीवों के सहित यह सम्पूर्ण विश्व जिनमें उदय होता है और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में विलय को प्राप्त होता है तथा भान होता है, गुरुदेव की करुणा प्राप्त होने पर जब शुद्ध आत्मा का ज्ञान होता है, तब समुद्र में नदी के समान सहसा यह जिनमें आत्यन्तिक प्रलय को प्राप्त हो जाता है, उन्हीं त्रिभुवन गुरु नृसिंह भगवान् की मैं अपने ह्रदय में भावना करता हूँ।</ref>।
स्वामिन! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहने का ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणाम के द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं। अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूप—जो आप हैं—कभी वृत्तीयों के अन्दर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब प्राणियों का जन्म कैसे होता है ? अज्ञान के कारण प्रकृति को पुरुष और पुरुष को प्रकृति समझ लेने से, एक का दूसरे के साथ संयोग हो जाने से जैसे ‘बुलबुला’ नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादान-कारण [[जल]] और निमित्त-कारण वायु के संयोग से उसकी सृष्टि हो जाती हैं। प्रकृति में पुरुष और पुरुष में प्रकृति का अध्यास (एक दूसरे की कल्पना) हो जाने के कारण ही जीवों के विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अन्त में जैसे समुद्र में नदियाँ और मधु में समस्त पुष्पों के रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधिरहित आपमें समा जाते हैं। (इसलिये जीवों की भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है। उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्व-व्यापकता आदि वास्तविक सत्य को न जानने के कारण ही मानी जाती है)<ref>जीवों के सहित यह सम्पूर्ण विश्व जिनमें उदय होता है और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में विलय को प्राप्त होता है तथा भान होता है, गुरुदेव की करुणा प्राप्त होने पर जब शुद्ध आत्मा का ज्ञान होता है, तब समुद्र में नदी के समान सहसा यह जिनमें आत्यन्तिक प्रलय को प्राप्त हो जाता है, उन्हीं त्रिभुवन गुरु नृसिंह भगवान् की मैं अपने हृदय में भावना करता हूँ।</ref>।
भगवन्! सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं, अपने को आपसे पृथक् मानकर जन्म-मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं। परन्तु बुद्धिमान पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने वाले हैं। यद्यपि शीत, ग्रीष्म और [[वर्षा]]—इन तीन भागों वाला काल चक्र आपका भ्रूविलास मात्र है, वह सभी को भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भक्त हैं, उन्हें भला, जन्म-मृत्यु रूप संसार का भय कैसे हो सकता है<ref>[[नृसिंह]]! यह जीव संसार-चक्र के ओर से टुकड़े-टुकड़े हो रहा है और नाना प्रकार के सांसारिक तापों की धधकती हुई लपटों से झलस रहा है। यह आपत्तिग्रस्त जीव किसी प्रकार आपकी कृपा से आपकी शरण में आया है। आप इसका उद्धार किजीये।</ref>?  
भगवन्! सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं, अपने को आपसे पृथक् मानकर जन्म-मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं। परन्तु बुद्धिमान पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने वाले हैं। यद्यपि शीत, ग्रीष्म और [[वर्षा]]—इन तीन भागों वाला काल चक्र आपका भ्रूविलास मात्र है, वह सभी को भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भक्त हैं, उन्हें भला, जन्म-मृत्यु रूप संसार का भय कैसे हो सकता है<ref>[[नृसिंह]]! यह जीव संसार-चक्र के ओर से टुकड़े-टुकड़े हो रहा है और नाना प्रकार के सांसारिक तापों की धधकती हुई लपटों से झलस रहा है। यह आपत्तिग्रस्त जीव किसी प्रकार आपकी कृपा से आपकी शरण में आया है। आप इसका उद्धार किजीये।</ref>?  



13:19, 29 अक्टूबर 2017 के समय का अवतरण

दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः(87) (उत्तरार्ध)

श्रीमद्भागवत महापुराण: दशम स्कन्ध: सप्ताशीतितमोऽध्यायः श्लोक 30-32 का हिन्दी अनुवाद

भगवन्! आप नित्य एकरस हैं। यदि जीव असंख्य हों और सब-के-सब नित्य एवं सर्वव्यापक हों, तब तो वे आपके समान ही हो जायँगे; उस हालत में वे शासित हैं और आप शासक—यह बात बन ही नहीं सकती, और तब आप उनका नियन्त्रण कर ही नहीं सकते। उनका नियन्त्रण आप तभी कर सकते हैं, जब वे आपसे उत्पन्न एवं आपकी अपेक्षा न्यून हों। इसमें सन्देह नहीं है कि सब-के-सब जीव तथा इनकी एकता या विभिन्नता आपसे ही उत्पन्न हुई है। इसलिये आप उनमें कारणरुप से रहते हुए भी उनके नियामक हैं। वास्तव में आप उनमें समरूप से स्थित हैं। परन्तु यह जाना नहीं जा सकता कि आपका वह स्वरूप कैसा है। क्योंकि जो लोग ऐसा समझते हैं कि हमने जान लिया, उन्होंने वास्तव में आपको नहीं जाना; उन्होंने तो केवल अपनी बुद्धि के विषय को जाना है, जिससे आप परे हैं। और साथ ही मति के द्वारा जितनी वस्तुएँ जानी जाती हैं, वे मतियों की भिन्नता के कारण भिन्न-भिन्न होती है; इसलिए उनकी दुष्टता, एक मत के साथ दूसरे मत का विरोध प्रत्यक्ष ही है। अतएव आपका स्वरूप समस्त मतों के परे हैं[1]। स्वामिन! जीव आपसे उत्पन्न होता है, यह कहने का ऐसा अर्थ नहीं है कि आप परिणाम के द्वारा जीव बनते हैं। सिद्धान्त तो यह है कि प्रकृति और पुरुष दोनों ही अजन्मा हैं। अर्थात् उनका वास्तविक स्वरूप—जो आप हैं—कभी वृत्तीयों के अन्दर उतरता नहीं, जन्म नहीं लेता। तब प्राणियों का जन्म कैसे होता है ? अज्ञान के कारण प्रकृति को पुरुष और पुरुष को प्रकृति समझ लेने से, एक का दूसरे के साथ संयोग हो जाने से जैसे ‘बुलबुला’ नाम की कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं है, परन्तु उपादान-कारण जल और निमित्त-कारण वायु के संयोग से उसकी सृष्टि हो जाती हैं। प्रकृति में पुरुष और पुरुष में प्रकृति का अध्यास (एक दूसरे की कल्पना) हो जाने के कारण ही जीवों के विविध नाम और गुण रख लिये जाते हैं। अन्त में जैसे समुद्र में नदियाँ और मधु में समस्त पुष्पों के रस समा जाते हैं, वैसे ही वे सब-के-सब उपाधिरहित आपमें समा जाते हैं। (इसलिये जीवों की भिन्नता और उनका पृथक् अस्तित्व आपके द्वारा नियन्त्रित है। उनकी पृथक् स्वतन्त्रता और सर्व-व्यापकता आदि वास्तविक सत्य को न जानने के कारण ही मानी जाती है)[2]। भगवन्! सभी जीव आपकी माया से भ्रम में भटक रहे हैं, अपने को आपसे पृथक् मानकर जन्म-मृत्यु का चक्कर काट रहे हैं। परन्तु बुद्धिमान पुरुष इस भ्रम को समझ लेते हैं और सम्पूर्ण भक्तिभाव से आपकी शरण ग्रहण करते हैं, क्योंकि आप जन्म-मृत्यु के चक्कर से छुड़ाने वाले हैं। यद्यपि शीत, ग्रीष्म और वर्षा—इन तीन भागों वाला काल चक्र आपका भ्रूविलास मात्र है, वह सभी को भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, परन्तु वह उन्हीं को बार-बार भयभीत करता है, जो आपकी शरण नहीं लेते। जो आपके शरणागत भक्त हैं, उन्हें भला, जन्म-मृत्यु रूप संसार का भय कैसे हो सकता है[3]?





« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. श्रुति ने समस्त दृश्य प्रपंच के अन्तर्यामी के रूप में जिनका गान किया है, और युक्ति से भी वैसा ही निश्चय होता है। जो सर्वज्ञ, सर्वशक्ति और नृसिंह—पुरुषोत्तम हैं, उन्हीं सर्वसौन्दर्य-माधुर्य निधि प्रभु का मैं मन-ही-मन आश्रय ग्रहण करता हूँ।
  2. जीवों के सहित यह सम्पूर्ण विश्व जिनमें उदय होता है और सुषुप्ति आदि अवस्थाओं में विलय को प्राप्त होता है तथा भान होता है, गुरुदेव की करुणा प्राप्त होने पर जब शुद्ध आत्मा का ज्ञान होता है, तब समुद्र में नदी के समान सहसा यह जिनमें आत्यन्तिक प्रलय को प्राप्त हो जाता है, उन्हीं त्रिभुवन गुरु नृसिंह भगवान् की मैं अपने हृदय में भावना करता हूँ।
  3. नृसिंह! यह जीव संसार-चक्र के ओर से टुकड़े-टुकड़े हो रहा है और नाना प्रकार के सांसारिक तापों की धधकती हुई लपटों से झलस रहा है। यह आपत्तिग्रस्त जीव किसी प्रकार आपकी कृपा से आपकी शरण में आया है। आप इसका उद्धार किजीये।

संबंधित लेख

-