"रुद्र": अवतरणों में अंतर
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भगवान [[शिव]] का ही नाम रुद्र है। | {{सूचना बक्सा संक्षिप्त परिचय | ||
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|अन्य जानकारी='रुद्र' प्रकृति की उस शक्ति के [[देवता]] हैं, जिसका प्रतिनिधित्व झंझावत और उसका प्रचण्ड गर्जन-तर्जन करता है। रुद्र का एक अर्थ भयंकर भी होता है, परन्तु रुद्र की चिल्लाहट और भयंकरता के साथ उनका प्रशान्त और सौम्य रूप भी [[वेद|वेदों]] में वर्णित है। | |||
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'''रुद्र''' भगवान [[शिव]] का ही एक नाम। इन्हें उग्र [[देवता]] माना जाता था। उग्र रूप में 'रुद्र' तथा मंगलकारी रूप में [[शिव]]। [[अथर्ववेद]] में इसे 'भूपति' 'नीलोदर', 'लोहित पृष्ठ' तथा 'नीलकण्ठ' कहा गया है। रुद्र को 'कृतवास'<ref>खाल धारण करने वाला</ref> भी कहा गया है। [[ऐतरेय ब्राह्मण]] में कहा गया है कि 'रुद्र' की उत्पत्ति सभी देवताओं के उग्र अंशों से हुई है। [[यजुर्वेद]] के 'शतरुद्रिय प्रकरण' में इसे 'पशुपति', 'शम्भू', 'शंकर', 'शिव' कहा गया है। रुद्र अनैतिक आचरणों से सम्बद्ध माने जाते थे। | |||
==ग्यारह रुद्र== | |||
[[दैत्य|दैत्यों]] के सम्मुख देवता टिक नहीं पाते थे। वे अपने [[पिता]] [[कश्यप]] की शरण में गये। कश्यप ने भगवान शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके वरदान प्राप्त किया कि शिव उनकी पत्नी वसुधा के गर्भ से अवतरित होकर दैत्यों को त्रस्त करेंगे। कालान्तर में शिव ग्यारह रुद्रों के रूप में वसुधा के गर्भ से प्रकट हुए। उनके वे रूप 'कपाली', 'पिंगल', 'भीम', 'विलोहित', 'शस्त्रभृत', 'अभय', 'अजपाद', 'अहिबुध्न्य', 'शंभु', 'भव' तथा 'विरूपाक्ष' नाम से विख्यात हैं। उन्होंने दैत्यों को मार भगाया और देवताओं ने अपना राज्य पुन प्राप्त किया।<ref>शिवपुराण, 7|24; विष्णुपुराण, 1|8|1-15</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=भारतीय मिथक कोश|लेखक= डॉ. उषा पुरी विद्यावाचस्पति|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली|संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=|url=267}}</ref> | |||
==पुराण उल्लेख== | |||
पुराणों में रुद्र से सम्बन्धित कई प्रसंग प्राप्त होते हैं, जैसे- | |||
*सृष्टि के आरम्भ में [[ब्रह्मा]] की भौहों से उत्पन्न एक प्रकार के देवता, जो क्रोधरूप माने जाते हैं और जिनसे भूत, प्रेत, पिशाच उत्पन्न कहे जाते हैं। 'अज', 'एकपाद्', 'अहिर्बुध्न्य', 'पिनाकी', 'अपराजित', 'त्र्यम्बक', 'महेश्वर', 'वृषाकपि', 'शंभु', 'हरण' और 'ईश्वर', ये ही कुल ग्यारह रुद्र हैं। '[[गरुड़पुराण]]' में इनके जो नाम दिये हैं, वे कुछ भिन्न हैं, पर संख्या ग्यारह ही है। [[कूर्मपुराण|कूर्मपुराणानुसार]] जब ब्रह्मा सृष्टि उत्पन्न न कर सके, तब मारे क्रोध के उनकी आँखों से आँसू निकल पड़े, जिससे भूत प्रेतों की सृष्टि हुई और उनके मुख से ग्यारह रुद्र निकल आये। ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार ये उत्पन्न होते ही जोर-जोर से रोने लगे थे<ref>रुद्र अर्थात् रोना</ref> इसी से इनका नाम रुद्र पड़ा। वैदिक साहित्य में [[अग्नि देवता|अग्नि]] को ही रुद्र माना है, जिन्हें अग्नि-रूपी, वृष्टि करने वाला और गरजने वाला कहा गया है। इन्हें आपार्य भी कहते हैं।<ref>ब्रह्मांडपुराण 4-34.42; गरुड़पुराण; कूर्मपुराण; भाग 6.6.14</ref><ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पौराणिक कोश|लेखक=|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी|संकलन= |संपादन=राणा प्रसाद शर्मा|पृष्ठ संख्या=447|url=}}</ref> | |||
*भगवान शंकर का एक रूप रुद्र है, जो उन्होंने [[कामदेव]] को भस्म करने के समय और [[दक्ष]] का [[यज्ञ]] ध्वंस करते समय धारण किया था। [[शंकर]] की उपासना जब 'रुद्र' या 'महाकाल' के रूप में की जाती है, तब उन्हें महाप्रलय या सारी सृष्टि को ध्वंस करने वाला [[देवता]] समझा जाता है। लेकिन महाप्रलय के पीछे ही नयी सृष्टि का भाव छिपा रहता है। शायद इसी से भगवान शंकर की [[पूजा]] लिंग और योनि के रूप में की जाती है, क्योंकि ये अंग ही सृष्टि के द्योतक समझे जाते हैं। लिंग=पुरुष की शक्ति=शिव का पुल्लिंग रूप और योनि=शंकर की उत्पादन शक्ति का स्त्रीलिंग रूप समझना चाहिए। संहार के पश्चात् शंकर सृष्टि भी करते हैं। इनके दोनों कार्यों ने ही शंकर को महादेव बना दिया है, जिसे ईश्वर की संज्ञा से विभूषित कर दिया गया है।<ref>मत्स्यपुराण 4.5 पूरा; वायुपुराण 30 पूरा।</ref> | |||
*[[विश्वकर्मा]] के एक पुत्र का नाम भी रुद्र है। | |||
==त्रिदेवों में गणना== | |||
[[वैदिक काल]] में रुद्र साधारण [[देवता]] थे। उनकी स्तुति के केवल तीन सूक्त पाये जाते हैं। रुद्र की व्युत्पत्ति 'रुद्' धातु से है, जिसका अर्थ 'हल्ला करना' अथवा 'चिल्लाना' है। रुद्र का अर्थ लाल होना अथवा चमकना भी है। रुद्र प्रकृति की उस शक्ति के देवता हैं, जिसका प्रतिनिधित्व झंझावत और उसका प्रचण्ड गर्जन-तर्जन करता है। रुद्र का एक अर्थ भयंकर भी होता है। परन्तु रुद्र की चिल्लाहट और भयंकरता के साथ उनका प्रशान्त और सौम्य रूप भी [[वेद|वेदों]] में वर्णित है। वे केवल ध्वंस और विनाश के ही देवता नहीं हैं, स्वास्थ्य और कल्याण के भी देवता हैं। अत: रुद्र की कल्पना में [[शिव]] के तत्त्व निहित थे, इसलिए रुद्र को बहुत शीघ्र महत्त्व मिल गया और उनकी गणना त्रिदेवों (त्रिमूर्ति) में शिव अथवा महेश के रूप में होने लगी। | |||
==पारिवारिक समानता== | |||
'रुद्र' रुद्रों (बहुवचन), रुद्रियों तथा मरुतों के [[पिता]] हैं। रुद्र तथा मरुतों में पारिवारिक समानता है, क्योंकि पिता और पुत्रगण दोनों [[सोना|सोने]] के [[आभूषण]] धारण करते हैं, [[धनुष अस्त्र|धनुष]]-[[बाण अस्त्र|बाण]] इनके आयुध हैं, रोग दूर करने में ये समर्थ हैं। रुद्र का वर्णन कभी-कभी [[इन्द्र]] के साथ भी हुआ है, किंतु दोनों में अन्तर है। रुद्र को केवल एक बार वज्रबाहु कहा गया है, जबकि इन्द्र सदा वज्रबाहु हैं। बिजली की कौंध और चमक, बादल का गर्जन एवं इसके पश्चात् [[जल]] वर्षण इन्द्र का कार्य है। परन्तु जब वज्रपात से मनुष्य अथवा पशु मरता है तो यह रुद्र का कार्य समझना चाहिए। इन्द्र का [[वज्र अस्त्र|वज्र]] सदा उपकारी है, रुद्र का आयुध विध्वंसक है। परंतु रुद्र के विध्वंस के पश्चात् गंभीर शान्ति का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। इसलिए उनका विध्वंसक रूप होते हुए भी उनके कल्याण कारी रूप (शिव) की प्रार्थना की जाती है। अन्य देवों द्वारा किये गए उपकार को दूर करने के लिए भी उनसे प्रार्थना की गयी है।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दू धर्मकोश|लेखक=डॉ. राजबली पाण्डेय|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |संकलन= |संपादन= |पृष्ठ संख्या=559|url=}}</ref> | |||
*[[पुराण|पुराणों]] में रुद्र के शिव रूप की महत्ता अधिक बढ़ी, यद्यपि उनका विध्वंसक रूप [[शिव]] के अंतर्गत समाविष्ट रहा। एकादश रुद्रों और उनके गणों की विशाल कल्पना पुराणों में पायी जाती है। | |||
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|+ भगवान शिव नाम | |||
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| [[ | | [[मारजित (शिव)|मारजित]] | ||
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07:30, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
रुद्र
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परिचय | भगवान शिव का ही एक अन्य नाम 'रुद्र' है। शिव ने यह रूप कामदेव को भस्म करने के समय और दक्ष का यज्ञ ध्वंस करते समय धारण किया था। |
अवतार | शिव |
अभिभावक | कश्यप और उनकी पत्नी वसुधा। |
ग्यारह रुद्र | 'कपाली', 'पिंगल', 'भीम', 'विलोहित', 'शस्त्रभृत', 'अभय', 'अजपाद', 'अहिबुध्न्य', 'शंभु', 'भव' तथा 'विरूपाक्ष'। |
आयुध | धनुष-बाण |
विशेष | 'रुद्र' का आयुध विध्वंसक है, परंतु रुद्र के विध्वंस के पश्चात् गंभीर शान्ति का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। इसलिए उनका विध्वंसक रूप होते हुए भी उनके कल्याण कारी रूप (शिव) की प्रार्थना की जाती है। |
अन्य जानकारी | 'रुद्र' प्रकृति की उस शक्ति के देवता हैं, जिसका प्रतिनिधित्व झंझावत और उसका प्रचण्ड गर्जन-तर्जन करता है। रुद्र का एक अर्थ भयंकर भी होता है, परन्तु रुद्र की चिल्लाहट और भयंकरता के साथ उनका प्रशान्त और सौम्य रूप भी वेदों में वर्णित है। |
रुद्र भगवान शिव का ही एक नाम। इन्हें उग्र देवता माना जाता था। उग्र रूप में 'रुद्र' तथा मंगलकारी रूप में शिव। अथर्ववेद में इसे 'भूपति' 'नीलोदर', 'लोहित पृष्ठ' तथा 'नीलकण्ठ' कहा गया है। रुद्र को 'कृतवास'[1] भी कहा गया है। ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि 'रुद्र' की उत्पत्ति सभी देवताओं के उग्र अंशों से हुई है। यजुर्वेद के 'शतरुद्रिय प्रकरण' में इसे 'पशुपति', 'शम्भू', 'शंकर', 'शिव' कहा गया है। रुद्र अनैतिक आचरणों से सम्बद्ध माने जाते थे।
ग्यारह रुद्र
दैत्यों के सम्मुख देवता टिक नहीं पाते थे। वे अपने पिता कश्यप की शरण में गये। कश्यप ने भगवान शिव को अपनी तपस्या से प्रसन्न करके वरदान प्राप्त किया कि शिव उनकी पत्नी वसुधा के गर्भ से अवतरित होकर दैत्यों को त्रस्त करेंगे। कालान्तर में शिव ग्यारह रुद्रों के रूप में वसुधा के गर्भ से प्रकट हुए। उनके वे रूप 'कपाली', 'पिंगल', 'भीम', 'विलोहित', 'शस्त्रभृत', 'अभय', 'अजपाद', 'अहिबुध्न्य', 'शंभु', 'भव' तथा 'विरूपाक्ष' नाम से विख्यात हैं। उन्होंने दैत्यों को मार भगाया और देवताओं ने अपना राज्य पुन प्राप्त किया।[2][3]
पुराण उल्लेख
पुराणों में रुद्र से सम्बन्धित कई प्रसंग प्राप्त होते हैं, जैसे-
- सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा की भौहों से उत्पन्न एक प्रकार के देवता, जो क्रोधरूप माने जाते हैं और जिनसे भूत, प्रेत, पिशाच उत्पन्न कहे जाते हैं। 'अज', 'एकपाद्', 'अहिर्बुध्न्य', 'पिनाकी', 'अपराजित', 'त्र्यम्बक', 'महेश्वर', 'वृषाकपि', 'शंभु', 'हरण' और 'ईश्वर', ये ही कुल ग्यारह रुद्र हैं। 'गरुड़पुराण' में इनके जो नाम दिये हैं, वे कुछ भिन्न हैं, पर संख्या ग्यारह ही है। कूर्मपुराणानुसार जब ब्रह्मा सृष्टि उत्पन्न न कर सके, तब मारे क्रोध के उनकी आँखों से आँसू निकल पड़े, जिससे भूत प्रेतों की सृष्टि हुई और उनके मुख से ग्यारह रुद्र निकल आये। ब्राह्मण ग्रंथों के अनुसार ये उत्पन्न होते ही जोर-जोर से रोने लगे थे[4] इसी से इनका नाम रुद्र पड़ा। वैदिक साहित्य में अग्नि को ही रुद्र माना है, जिन्हें अग्नि-रूपी, वृष्टि करने वाला और गरजने वाला कहा गया है। इन्हें आपार्य भी कहते हैं।[5][6]
- भगवान शंकर का एक रूप रुद्र है, जो उन्होंने कामदेव को भस्म करने के समय और दक्ष का यज्ञ ध्वंस करते समय धारण किया था। शंकर की उपासना जब 'रुद्र' या 'महाकाल' के रूप में की जाती है, तब उन्हें महाप्रलय या सारी सृष्टि को ध्वंस करने वाला देवता समझा जाता है। लेकिन महाप्रलय के पीछे ही नयी सृष्टि का भाव छिपा रहता है। शायद इसी से भगवान शंकर की पूजा लिंग और योनि के रूप में की जाती है, क्योंकि ये अंग ही सृष्टि के द्योतक समझे जाते हैं। लिंग=पुरुष की शक्ति=शिव का पुल्लिंग रूप और योनि=शंकर की उत्पादन शक्ति का स्त्रीलिंग रूप समझना चाहिए। संहार के पश्चात् शंकर सृष्टि भी करते हैं। इनके दोनों कार्यों ने ही शंकर को महादेव बना दिया है, जिसे ईश्वर की संज्ञा से विभूषित कर दिया गया है।[7]
- विश्वकर्मा के एक पुत्र का नाम भी रुद्र है।
त्रिदेवों में गणना
वैदिक काल में रुद्र साधारण देवता थे। उनकी स्तुति के केवल तीन सूक्त पाये जाते हैं। रुद्र की व्युत्पत्ति 'रुद्' धातु से है, जिसका अर्थ 'हल्ला करना' अथवा 'चिल्लाना' है। रुद्र का अर्थ लाल होना अथवा चमकना भी है। रुद्र प्रकृति की उस शक्ति के देवता हैं, जिसका प्रतिनिधित्व झंझावत और उसका प्रचण्ड गर्जन-तर्जन करता है। रुद्र का एक अर्थ भयंकर भी होता है। परन्तु रुद्र की चिल्लाहट और भयंकरता के साथ उनका प्रशान्त और सौम्य रूप भी वेदों में वर्णित है। वे केवल ध्वंस और विनाश के ही देवता नहीं हैं, स्वास्थ्य और कल्याण के भी देवता हैं। अत: रुद्र की कल्पना में शिव के तत्त्व निहित थे, इसलिए रुद्र को बहुत शीघ्र महत्त्व मिल गया और उनकी गणना त्रिदेवों (त्रिमूर्ति) में शिव अथवा महेश के रूप में होने लगी।
पारिवारिक समानता
'रुद्र' रुद्रों (बहुवचन), रुद्रियों तथा मरुतों के पिता हैं। रुद्र तथा मरुतों में पारिवारिक समानता है, क्योंकि पिता और पुत्रगण दोनों सोने के आभूषण धारण करते हैं, धनुष-बाण इनके आयुध हैं, रोग दूर करने में ये समर्थ हैं। रुद्र का वर्णन कभी-कभी इन्द्र के साथ भी हुआ है, किंतु दोनों में अन्तर है। रुद्र को केवल एक बार वज्रबाहु कहा गया है, जबकि इन्द्र सदा वज्रबाहु हैं। बिजली की कौंध और चमक, बादल का गर्जन एवं इसके पश्चात् जल वर्षण इन्द्र का कार्य है। परन्तु जब वज्रपात से मनुष्य अथवा पशु मरता है तो यह रुद्र का कार्य समझना चाहिए। इन्द्र का वज्र सदा उपकारी है, रुद्र का आयुध विध्वंसक है। परंतु रुद्र के विध्वंस के पश्चात् गंभीर शान्ति का वातावरण उत्पन्न हो जाता है। इसलिए उनका विध्वंसक रूप होते हुए भी उनके कल्याण कारी रूप (शिव) की प्रार्थना की जाती है। अन्य देवों द्वारा किये गए उपकार को दूर करने के लिए भी उनसे प्रार्थना की गयी है।[8]
- पुराणों में रुद्र के शिव रूप की महत्ता अधिक बढ़ी, यद्यपि उनका विध्वंसक रूप शिव के अंतर्गत समाविष्ट रहा। एकादश रुद्रों और उनके गणों की विशाल कल्पना पुराणों में पायी जाती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ खाल धारण करने वाला
- ↑ शिवपुराण, 7|24; विष्णुपुराण, 1|8|1-15
- ↑ भारतीय मिथक कोश |लेखक: डॉ. उषा पुरी विद्यावाचस्पति |प्रकाशक: नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली |लिंक:- [267]
- ↑ रुद्र अर्थात् रोना
- ↑ ब्रह्मांडपुराण 4-34.42; गरुड़पुराण; कूर्मपुराण; भाग 6.6.14
- ↑ पौराणिक कोश |प्रकाशक: ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी |संपादन: राणा प्रसाद शर्मा |पृष्ठ संख्या: 447 |
- ↑ मत्स्यपुराण 4.5 पूरा; वायुपुराण 30 पूरा।
- ↑ हिन्दू धर्मकोश |लेखक: डॉ. राजबली पाण्डेय |प्रकाशक: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान |पृष्ठ संख्या: 559 |
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