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07:44, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
गोत्र भारतीय जाति विशेष के भीतर की वह वंश परंपरा, जिसमें पारस्परिक विवाह संबंध वर्जित माना जाता है; क्योंकि मान्यतानुसार इसके सारे सदस्य एक ही मिथकीय पूर्वज की संतान होते हैं। हिन्दुओं में वैवाहिक संबंध स्थापित करते समय 'गोत्र' एक महत्त्वपूर्ण तथ्य होता है।[1]
सात ब्राह्मण वंश
'गोत्र' शब्द[2] से उस समसामयिक वंश परंपरा का भी संकेत मिलता है, जो एक संयुक्त परिवार के रूप में रहती थी और जिनकी संपत्ति भी साझा होती थी। गोत्र मूल रूप से ब्राह्मणों के उन सात वंशों से संबंधित होता है, जो अपनी उत्पत्ति सात ऋषियों से मानते हैं। ये सात ऋषि निम्नलिखित थे-
आठवाँ गोत्र
इन गोत्रों में एक आठवाँ गोत्र बाद में अगस्त्य ऋषि के नाम से जोड़ा गया, क्योंकि दक्षिण भारत में वैदिक हिन्दू धर्म के प्रसार में उनका बहुत योगदान था। बाद के युग में गोत्रों की संख्या बढ़ती चली गई, क्योंकि अपने ब्राह्मण होने का औचित्य स्वयं के वैदिक ऋषि के वंशज होने का दावा करते हुए ठहराना पड़ता था।
वैवाहिक स्थिति
एक ही गोत्र के सदस्यों के बीच विवाह निषेध का उद्देश्य निहित दोषों को दूर रखने के अलावा यह भी था कि अन्य प्रभावशाली गोत्रों के साथ संबंध स्थापित कर अपना प्रभाव उत्तरोत्तर बढ़ाया जाए। बाद में ग़ैर ब्राह्मण समुदायों ने भी उनके ही जैसे प्रतिष्ठा प्राप्त करने के उद्देश्य से इस प्रथा को अपना लिया। मूलत: क्षत्रियों की भी अपनी वंशावलियां थीं, जिनमें से दो प्रमुख थीं- 'चंद्रवंश' तथा 'सूर्यवंश', जिनसे क्रमश: संस्कृत महाकाव्यों 'महाभारत' और 'रामायण' के नायक संबद्ध थे। इन वंश परंपराओं में 'बहिर्विवाह' की कोई स्पष्ट तस्वीर प्राप्त नहीं होती, क्योंकि वैवाहिक संबंध ज़्यादातर क्षेत्रीय आधारों पर तय होते थे। बाद में क्षत्रियों और वैश्यों ने भी गोत्र की अवधारणा को एक लोकाचार के रूप में अपनाया और इसके लिए उन्होंने अपने निकट के ब्राह्मणों या अपने गुरुओं के गोत्रों को भी अपना गोत्र बना लिया। किंतु यह नई प्रवृत्ति कभी प्रभावी नहीं हो पाई।[1]
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