"चाणक्य नीति- अध्याय 10": अवतरणों में अंतर
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हीन नहीं धन हीन है, धन थिर नाहिं प्रवीन । | हीन नहीं धन हीन है, धन थिर नाहिं प्रवीन । | ||
हीन न और बखानिये, एइद्याहीन सुदीन | हीन न और बखानिये, एइद्याहीन सुदीन ॥1॥ | ||
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धनहीन मनुष्य हीन नहीं कहा जा सकता वही वास्तव में धनी | '''अर्थ -- '''धनहीन मनुष्य हीन नहीं कहा जा सकता वही वास्तव में धनी है। किन्तु जो मनुष्य विद्यारूपी रत्न से हीन है, वह सभी वस्तुओं से हीन है। | ||
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दृष्टिसोधि पग धरिय मग, पीजिय जल पट रोधि । | दृष्टिसोधि पग धरिय मग, पीजिय जल पट रोधि । | ||
शास्त्रशोधि बोलिय बचन, करिय काज मन शोधि | शास्त्रशोधि बोलिय बचन, करिय काज मन शोधि ॥2॥ | ||
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आँख से अच्छी तरह देख-भाल कर पैर धरे, कपडे से छान कर जल पिये, शास्त्रसम्मत बात कहे और मन को हमेशा पवित्र | '''अर्थ -- '''आँख से अच्छी तरह देख-भाल कर पैर धरे, कपडे से छान कर जल पिये, शास्त्रसम्मत बात कहे और मन को हमेशा पवित्र रखे। | ||
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सुख चाहै विद्या तजै सुख तजि विद्या चाह । | सुख चाहै विद्या तजै, सुख तजि विद्या चाह । | ||
अर्थिहि को विद्या कहाँ, विद्यार्थिहिं सुख काह | अर्थिहि को विद्या कहाँ, विद्यार्थिहिं सुख काह ॥3॥ | ||
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जो मनुष्य विषय सुख चाहता हो, वह विद्या के पास न | '''अर्थ -- '''जो मनुष्य विषय सुख चाहता हो, वह विद्या के पास न जाय। जो विद्या का इच्छुक हो, वह सुख छोडे। सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख कहाँ मिल सकता है। | ||
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काह न जाने सुकवि जन, करै काह नहिं नारि । | काह न जाने सुकवि जन, करै काह नहिं नारि । | ||
मद्यप काह न बकि सकै, काग खाहिं केहि वारि | मद्यप काह न बकि सकै, काग खाहिं केहि वारि ॥4॥ | ||
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कवि क्या वस्तु नहीं देख पाते ? स्त्रियाँ क्या नहीं कर सकतीं ? शराबी क्या नहीं बक जाते ? और कौवे क्या नहीं खा जाते ? | '''अर्थ -- '''कवि क्या वस्तु नहीं देख पाते ? स्त्रियाँ क्या नहीं कर सकतीं ? शराबी क्या नहीं बक जाते ? और कौवे क्या नहीं खा जाते ? | ||
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बनवै अति रंकन भूमिपती अरु भूमिपतीनहुँ रंक अति । | बनवै अति रंकन भूमिपती, अरु भूमिपतीनहुँ रंक अति । | ||
धनिकै धनहीन फिरै करती अधनीन धनी विधिकेरि गती | धनिकै धनहीन फिरै करती, अधनीन धनी विधिकेरि गती ॥5॥ | ||
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विधाता कड्गाल को राजा, राजा को कड्गाल, धनी को निर्धन और निर्धन को धनी बनाता ही रहता | '''अर्थ -- '''विधाता कड्गाल को राजा, राजा को कड्गाल, धनी को निर्धन और निर्धन को धनी बनाता ही रहता है। | ||
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याचक रिपु लोभीन के, मूढनि जो शिषदान । | याचक रिपु लोभीन के, मूढनि जो शिषदान । | ||
जार तियन निज पति कह्यो, चोरन शशि रिपु जान | जार तियन निज पति कह्यो, चोरन शशि रिपु जान ॥6॥ | ||
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लोभी का शत्रु है याचक, मूर्ख का शत्रु है उपदेश देनेवाला, कुलटा स्त्री का शत्रु है उसका पति और चोरों का शत्रु | '''अर्थ -- '''लोभी का शत्रु है याचक, मूर्ख का शत्रु है उपदेश देनेवाला, कुलटा स्त्री का शत्रु है उसका पति और चोरों का शत्रु चन्द्रमा। | ||
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धर्मशील गुण नाहिं जेहिं, नहिं विद्या तप दान । | धर्मशील गुण नाहिं जेहिं, नहिं विद्या तप दान । | ||
मनुज रूप भुवि भार ते, विचरत मृग कर जान | मनुज रूप भुवि भार ते, विचरत मृग कर जान ॥7॥ | ||
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जिस मनुष्य में न विद्या है, न तप है, न शील है और न गुण है ऎसे मनुष्य पृथ्वी के बोझ रूप होकर मनुष्य रूप में पशु सदृश जीवन-यापन करते | '''अर्थ -- '''जिस मनुष्य में न विद्या है, न तप है, न शील है और न गुण है ऎसे मनुष्य पृथ्वी के बोझ रूप होकर मनुष्य रूप में पशु सदृश जीवन-यापन करते हैं। | ||
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शून्य हृदय उपदेश, नाहिं लगै कैसो करिय । | शून्य हृदय उपदेश, नाहिं लगै कैसो करिय । | ||
बसै मलय गिरि देश, तऊ बांस में बास नहिं | बसै मलय गिरि देश, तऊ बांस में बास नहिं ॥8॥ | ||
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जिनकी अन्तरात्मा में कुछ भी असर नहीं | '''अर्थ -- '''जिनकी अन्तरात्मा में कुछ भी असर नहीं करता। मलयाचल को किसी का उपदेश कुछ असर नहीं करता। मलयाचल के संसर्ग से और वृक्ष चन्दन हो जाते हैं, पर बाँस चन्दन नहीं होता। | ||
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स्वाभाविक नहिं बुध्दि जेहि, ताहि शास्त्र करु काह । | स्वाभाविक नहिं बुध्दि जेहि, ताहि शास्त्र करु काह । | ||
जो नर नयनविहीन हैं, दर्पण से करु काह | जो नर नयनविहीन हैं, दर्पण से करु काह ॥9॥ | ||
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जिसके पास स्वयं बुध्दि नहीं है, उसे क्या शास्त्र सिखा | '''अर्थ -- '''जिसके पास स्वयं बुध्दि नहीं है, उसे क्या शास्त्र सिखा देगा। जिसकी दोनों आँखे फूट गई हों, क्या उसे शीशा दिखा देगा ? | ||
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दुर्जन को सज्जन करन, भूतल नहीं उपाय । | दुर्जन को सज्जन करन, भूतल नहीं उपाय । | ||
हो अपान इन्द्रिय न शचि, सौ सौ धोयो जाय | हो अपान इन्द्रिय न शचि, सौ सौ धोयो जाय ॥10॥ | ||
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इस पृथ्वीतल में दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई यत्न है ही | '''अर्थ -- '''इस पृथ्वीतल में दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई यत्न है ही नहीं। अपान प्रदेश को चाहे सैकडों बार क्यों न धोया जाय फिर भी वह श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं हो सकता। | ||
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सन्त विरोध ते मृत्यु निज, धन क्षय करि पर द्वेष । | सन्त विरोध ते मृत्यु निज, धन क्षय करि पर द्वेष । | ||
राजद्वेष से नसत है, कुल क्षय कर द्विज द्वेष | राजद्वेष से नसत है, कुल क्षय कर द्विज द्वेष ॥11॥ | ||
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बडे बूढो से द्वेष करने पर मृत्यु होती | '''अर्थ -- '''बडे बूढो से द्वेष करने पर मृत्यु होती है। शत्रु से द्वेष करने पर धन का नाश होता है। राजा से द्वेष करने पर सर्वनाश हो जाता है और ब्राह्मण से द्वेष करने पर कुल का ही क्षय हो जाता है। | ||
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गज बाघ सेवित वृक्ष धन वन माहि बरु रहिबो करै । | गज बाघ सेवित वृक्ष धन वन माहि बरु रहिबो करै । | ||
अरु पत्र फल जल सेवनो तृण सेज वरु लहिबो करै ॥ | अरु पत्र फल जल सेवनो तृण सेज वरु लहिबो करै ॥ | ||
शतछिद्र वल्कल वस्त्र करिबहु चाल यह गहिबो करै । | शतछिद्र वल्कल वस्त्र करिबहु, चाल यह गहिबो करै । | ||
निज बन्धू महँ धनहीन ह्वैं नहिं जीवनो चहिबो करै | निज बन्धू महँ धनहीन ह्वैं, नहिं जीवनो चहिबो करै ॥12॥ | ||
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बाघ और बडॆ-बडॆ हाथियों के झुण्ड जिस वन में रहते हो उसमें रहना पडे, निवास करके पके फल तथा जल पर जीवनयापन करना पड जाय, घास फूस पर सोना पडे और सैकडो जगह फटे वस्त्र पहनना पडे तो अच्छा पर अपनी विरादरी में दरिद्र होकर जीवन बिताना अच्छा नहीं | '''अर्थ -- '''बाघ और बडॆ-बडॆ हाथियों के झुण्ड जिस वन में रहते हो उसमें रहना पडे, निवास करके पके फल तथा जल पर जीवनयापन करना पड जाय, घास फूस पर सोना पडे और सैकडो जगह फटे वस्त्र पहनना पडे तो अच्छा पर अपनी विरादरी में दरिद्र होकर जीवन बिताना अच्छा नहीं है। | ||
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विप्र वृक्ष हैं मूल सन्ध्या वेद शाखा जानिये । | विप्र वृक्ष हैं मूल सन्ध्या वेद शाखा जानिये । | ||
धर्म कर्म ह्वै पत्र दोऊ मूल को नहिं नाशिये ॥ | धर्म कर्म ह्वै पत्र दोऊ मूल को नहिं नाशिये ॥ | ||
जो नष्ट मूल ह्वै जाय तो कुल शाख पात न फूटिये । | जो नष्ट मूल ह्वै जाय तो कुल शाख पात न फूटिये । | ||
यही नीति सुनीति है की मल रक्षा कीजिये | यही नीति सुनीति है की मल रक्षा कीजिये ॥13॥ | ||
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ब्राह्मण वृक्ष के समान है, उसकी जड है संध्या, वेद है शाखा और कर्म पत्ते | '''अर्थ -- '''ब्राह्मण वृक्ष के समान है, उसकी जड है संध्या, वेद है शाखा और कर्म पत्ते हैं। इसलिए मूल (सन्ध्या) की यत्न पूर्वक रक्षा करो। क्योंकी जब जड ही कट जायगी तो न शाखा रहेगी और न पत्र ही रहेगा। | ||
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लक्ष्मी देवी मातु हैं, पिता विष्णु सर्वेश । | लक्ष्मी देवी मातु हैं, पिता विष्णु सर्वेश । | ||
कृष्णभक्त बन्धू सभी, तीन भुवन निज देश | कृष्णभक्त बन्धू सभी, तीन भुवन निज देश ॥14॥ | ||
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भक्त मनुष्य की माता हैं लक्ष्मीजी, विष्णु भगवान पिता हैं , विष्णु के भक्त भाई बन्धु हैं और तीनों भुवन उसका देश | '''अर्थ -- '''भक्त मनुष्य की माता हैं लक्ष्मीजी, विष्णु भगवान पिता हैं, विष्णु के भक्त भाई बन्धु हैं और तीनों भुवन उसका देश है। | ||
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बहु विधि पक्षी एक तरु, जो बैठे निशि आय । | बहु विधि पक्षी एक तरु, जो बैठे निशि आय । | ||
भोर दशो दिशि उडि चले, कह कोही पछिताय | भोर दशो दिशि उडि चले, कह कोही पछिताय ॥15॥ | ||
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विविध वर्ण (रंग) के पक्षी एक ही वृक्ष पर रात भर बसेरा करते हैं और दशों दिशाओं में उड जाते | '''अर्थ -- '''विविध वर्ण (रंग) के पक्षी एक ही वृक्ष पर रात भर बसेरा करते हैं और दशों दिशाओं में उड जाते हैं। यही दशा मनुष्यॊं की भी है, फिर इसके लिये सन्ताप करने की क्या ज़रूरत ? | ||
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बुध्दि जासु है सो बली, निर्बुध्दिहि बल नाहिं । | बुध्दि जासु है सो बली, निर्बुध्दिहि बल नाहिं । | ||
अति बल हाथीहिं स्यारलघु, चतुर हतेसि बन माहिं | अति बल हाथीहिं स्यारलघु, चतुर हतेसि बन माहिं ॥16॥ | ||
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जिसके पास बुध्दि है उसी के पास बल है, जिसके बुध्दि ही नहीं उसके बल कहाँ से | '''अर्थ -- '''जिसके पास बुध्दि है उसी के पास बल है, जिसके बुध्दि ही नहीं उसके बल कहाँ से होगा। एक जंगल में एक बुध्दिमान् खरगोश ने एक मतवाले हाथी को मार डाला था। | ||
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है नाम हरिको पालक मन जीवन शंका क्यों करनी । | है नाम हरिको पालक मन जीवन शंका क्यों करनी । | ||
नहिं तो बालक जीवन कोथन से पय निरस तक्यों जननी ॥ | नहिं तो बालक जीवन कोथन से पय निरस तक्यों जननी ॥ | ||
यही जानकर बार है यदुपति लक्ष्मीपते तेरे । | यही जानकर बार है यदुपति लक्ष्मीपते तेरे । | ||
चरण कमल के सेवन से दिन बीते जायँ सदा मेरे | चरण कमल के सेवन से दिन बीते जायँ सदा मेरे ॥17॥ | ||
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यदि भगवान् विश्वंभर कहलाते हैं तो हमें अपने जीवन सम्बन्धी झंझटो (अन्न-वस्त्र आदि) की क्या चिन्ता ? यदि वे विश्वंभर न होते तो जन्म के पहले ही बच्चे को पीने के लिए माता के स्तन में दूध कैसे उतर | '''अर्थ -- '''यदि भगवान् विश्वंभर कहलाते हैं तो हमें अपने जीवन सम्बन्धी झंझटो (अन्न-वस्त्र आदि) की क्या चिन्ता ? यदि वे विश्वंभर न होते तो जन्म के पहले ही बच्चे को पीने के लिए माता के स्तन में दूध कैसे उतर आता। बार-बार इसी बात को सोचकर हे यदुपते! हे लक्ष्मीपते! मैं केवल आप के चरणकमलों की सेवा करके अपना समय बिताता हूँ। | ||
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देववानि बस बुध्दि, तऊ और भाषा चहौं । | देववानि बस बुध्दि, तऊ और भाषा चहौं । | ||
यदपि सुधा सुर देश, चहैं अवस सुर अधर रस | यदपि सुधा सुर देश, चहैं अवस सुर अधर रस ॥18॥ | ||
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यद्यपि मैं देववाणी में विशेष योग्यता रखता हूँ, फिर भी भाषान्तर का लोभ है | '''अर्थ -- '''यद्यपि मैं देववाणी में विशेष योग्यता रखता हूँ, फिर भी भाषान्तर का लोभ है ही। जैसे स्वर्ग में अमृत जैसी उत्तम वस्तु विद्यमान है फिर भी देवताओं को देवांगनाओं के अधरामृत पान करने की रुचि रहती ही है। | ||
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चूर्ण दश गुणो अन्न ते, ता दश गुण पय जान । | चूर्ण दश गुणो अन्न ते, ता दश गुण पय जान । | ||
पय से अठगुण मांस ते तेहि दशगुण घृत मान | पय से अठगुण मांस ते तेहि दशगुण घृत मान ॥19॥ | ||
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खडे अन्न की अपेक्षा दसगुना बल रहता है पिसान | '''अर्थ -- '''खडे अन्न की अपेक्षा दसगुना बल रहता है पिसान में। पिसान से दसगुना बल रहता है दूध में। दूध से अठगुना बल रहता है मांस से भी दसगुना बल है घी में। | ||
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राग बढत है शाकते, पय से बढत शरीर । | राग बढत है शाकते, पय से बढत शरीर । | ||
घृत खाये बीरज बढे, मांस मांस गम्भीर | घृत खाये बीरज बढे, मांस मांस गम्भीर ॥20॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
शाक से रोग, दूध से शरीर, घी से वीर्य और मांस से मांस की वृध्दि होती | '''अर्थ -- '''शाक से रोग, दूध से शरीर, घी से वीर्य और मांस से मांस की वृध्दि होती है। | ||
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;इति चाणक्ये दशमिऽध्यायः | ;इति चाणक्ये दशमिऽध्यायः ॥10॥ | ||
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08:21, 4 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण
अध्याय 10
- दोहा --
हीन नहीं धन हीन है, धन थिर नाहिं प्रवीन ।
हीन न और बखानिये, एइद्याहीन सुदीन ॥1॥
अर्थ -- धनहीन मनुष्य हीन नहीं कहा जा सकता वही वास्तव में धनी है। किन्तु जो मनुष्य विद्यारूपी रत्न से हीन है, वह सभी वस्तुओं से हीन है।
- दोहा --
दृष्टिसोधि पग धरिय मग, पीजिय जल पट रोधि ।
शास्त्रशोधि बोलिय बचन, करिय काज मन शोधि ॥2॥
अर्थ -- आँख से अच्छी तरह देख-भाल कर पैर धरे, कपडे से छान कर जल पिये, शास्त्रसम्मत बात कहे और मन को हमेशा पवित्र रखे।
- दोहा --
सुख चाहै विद्या तजै, सुख तजि विद्या चाह ।
अर्थिहि को विद्या कहाँ, विद्यार्थिहिं सुख काह ॥3॥
अर्थ -- जो मनुष्य विषय सुख चाहता हो, वह विद्या के पास न जाय। जो विद्या का इच्छुक हो, वह सुख छोडे। सुखार्थी को विद्या और विद्यार्थी को सुख कहाँ मिल सकता है।
- दोहा --
काह न जाने सुकवि जन, करै काह नहिं नारि ।
मद्यप काह न बकि सकै, काग खाहिं केहि वारि ॥4॥
अर्थ -- कवि क्या वस्तु नहीं देख पाते ? स्त्रियाँ क्या नहीं कर सकतीं ? शराबी क्या नहीं बक जाते ? और कौवे क्या नहीं खा जाते ?
- छन्द --
बनवै अति रंकन भूमिपती, अरु भूमिपतीनहुँ रंक अति ।
धनिकै धनहीन फिरै करती, अधनीन धनी विधिकेरि गती ॥5॥
अर्थ -- विधाता कड्गाल को राजा, राजा को कड्गाल, धनी को निर्धन और निर्धन को धनी बनाता ही रहता है।
- दोहा --
याचक रिपु लोभीन के, मूढनि जो शिषदान ।
जार तियन निज पति कह्यो, चोरन शशि रिपु जान ॥6॥
अर्थ -- लोभी का शत्रु है याचक, मूर्ख का शत्रु है उपदेश देनेवाला, कुलटा स्त्री का शत्रु है उसका पति और चोरों का शत्रु चन्द्रमा।
- दोहा --
धर्मशील गुण नाहिं जेहिं, नहिं विद्या तप दान ।
मनुज रूप भुवि भार ते, विचरत मृग कर जान ॥7॥
अर्थ -- जिस मनुष्य में न विद्या है, न तप है, न शील है और न गुण है ऎसे मनुष्य पृथ्वी के बोझ रूप होकर मनुष्य रूप में पशु सदृश जीवन-यापन करते हैं।
- सोरठा --
शून्य हृदय उपदेश, नाहिं लगै कैसो करिय ।
बसै मलय गिरि देश, तऊ बांस में बास नहिं ॥8॥
अर्थ -- जिनकी अन्तरात्मा में कुछ भी असर नहीं करता। मलयाचल को किसी का उपदेश कुछ असर नहीं करता। मलयाचल के संसर्ग से और वृक्ष चन्दन हो जाते हैं, पर बाँस चन्दन नहीं होता।
- दोहा --
स्वाभाविक नहिं बुध्दि जेहि, ताहि शास्त्र करु काह ।
जो नर नयनविहीन हैं, दर्पण से करु काह ॥9॥
अर्थ -- जिसके पास स्वयं बुध्दि नहीं है, उसे क्या शास्त्र सिखा देगा। जिसकी दोनों आँखे फूट गई हों, क्या उसे शीशा दिखा देगा ?
- दोहा --
दुर्जन को सज्जन करन, भूतल नहीं उपाय ।
हो अपान इन्द्रिय न शचि, सौ सौ धोयो जाय ॥10॥
अर्थ -- इस पृथ्वीतल में दुर्जन को सज्जन बनाने का कोई यत्न है ही नहीं। अपान प्रदेश को चाहे सैकडों बार क्यों न धोया जाय फिर भी वह श्रेष्ठ इन्द्रिय नहीं हो सकता।
- दोहा --
सन्त विरोध ते मृत्यु निज, धन क्षय करि पर द्वेष ।
राजद्वेष से नसत है, कुल क्षय कर द्विज द्वेष ॥11॥
अर्थ -- बडे बूढो से द्वेष करने पर मृत्यु होती है। शत्रु से द्वेष करने पर धन का नाश होता है। राजा से द्वेष करने पर सर्वनाश हो जाता है और ब्राह्मण से द्वेष करने पर कुल का ही क्षय हो जाता है।
- छन्द --
गज बाघ सेवित वृक्ष धन वन माहि बरु रहिबो करै ।
अरु पत्र फल जल सेवनो तृण सेज वरु लहिबो करै ॥
शतछिद्र वल्कल वस्त्र करिबहु, चाल यह गहिबो करै ।
निज बन्धू महँ धनहीन ह्वैं, नहिं जीवनो चहिबो करै ॥12॥
अर्थ -- बाघ और बडॆ-बडॆ हाथियों के झुण्ड जिस वन में रहते हो उसमें रहना पडे, निवास करके पके फल तथा जल पर जीवनयापन करना पड जाय, घास फूस पर सोना पडे और सैकडो जगह फटे वस्त्र पहनना पडे तो अच्छा पर अपनी विरादरी में दरिद्र होकर जीवन बिताना अच्छा नहीं है।
- छ्न्द --
विप्र वृक्ष हैं मूल सन्ध्या वेद शाखा जानिये ।
धर्म कर्म ह्वै पत्र दोऊ मूल को नहिं नाशिये ॥
जो नष्ट मूल ह्वै जाय तो कुल शाख पात न फूटिये ।
यही नीति सुनीति है की मल रक्षा कीजिये ॥13॥
अर्थ -- ब्राह्मण वृक्ष के समान है, उसकी जड है संध्या, वेद है शाखा और कर्म पत्ते हैं। इसलिए मूल (सन्ध्या) की यत्न पूर्वक रक्षा करो। क्योंकी जब जड ही कट जायगी तो न शाखा रहेगी और न पत्र ही रहेगा।
- दोहा --
लक्ष्मी देवी मातु हैं, पिता विष्णु सर्वेश ।
कृष्णभक्त बन्धू सभी, तीन भुवन निज देश ॥14॥
अर्थ -- भक्त मनुष्य की माता हैं लक्ष्मीजी, विष्णु भगवान पिता हैं, विष्णु के भक्त भाई बन्धु हैं और तीनों भुवन उसका देश है।
- दोहा --
बहु विधि पक्षी एक तरु, जो बैठे निशि आय ।
भोर दशो दिशि उडि चले, कह कोही पछिताय ॥15॥
अर्थ -- विविध वर्ण (रंग) के पक्षी एक ही वृक्ष पर रात भर बसेरा करते हैं और दशों दिशाओं में उड जाते हैं। यही दशा मनुष्यॊं की भी है, फिर इसके लिये सन्ताप करने की क्या ज़रूरत ?
- दोहा --
बुध्दि जासु है सो बली, निर्बुध्दिहि बल नाहिं ।
अति बल हाथीहिं स्यारलघु, चतुर हतेसि बन माहिं ॥16॥
अर्थ -- जिसके पास बुध्दि है उसी के पास बल है, जिसके बुध्दि ही नहीं उसके बल कहाँ से होगा। एक जंगल में एक बुध्दिमान् खरगोश ने एक मतवाले हाथी को मार डाला था।
- छन्द --
है नाम हरिको पालक मन जीवन शंका क्यों करनी ।
नहिं तो बालक जीवन कोथन से पय निरस तक्यों जननी ॥
यही जानकर बार है यदुपति लक्ष्मीपते तेरे ।
चरण कमल के सेवन से दिन बीते जायँ सदा मेरे ॥17॥
अर्थ -- यदि भगवान् विश्वंभर कहलाते हैं तो हमें अपने जीवन सम्बन्धी झंझटो (अन्न-वस्त्र आदि) की क्या चिन्ता ? यदि वे विश्वंभर न होते तो जन्म के पहले ही बच्चे को पीने के लिए माता के स्तन में दूध कैसे उतर आता। बार-बार इसी बात को सोचकर हे यदुपते! हे लक्ष्मीपते! मैं केवल आप के चरणकमलों की सेवा करके अपना समय बिताता हूँ।
- सोरठा --
देववानि बस बुध्दि, तऊ और भाषा चहौं ।
यदपि सुधा सुर देश, चहैं अवस सुर अधर रस ॥18॥
अर्थ -- यद्यपि मैं देववाणी में विशेष योग्यता रखता हूँ, फिर भी भाषान्तर का लोभ है ही। जैसे स्वर्ग में अमृत जैसी उत्तम वस्तु विद्यमान है फिर भी देवताओं को देवांगनाओं के अधरामृत पान करने की रुचि रहती ही है।
- दोहा --
चूर्ण दश गुणो अन्न ते, ता दश गुण पय जान ।
पय से अठगुण मांस ते तेहि दशगुण घृत मान ॥19॥
अर्थ -- खडे अन्न की अपेक्षा दसगुना बल रहता है पिसान में। पिसान से दसगुना बल रहता है दूध में। दूध से अठगुना बल रहता है मांस से भी दसगुना बल है घी में।
- दोहा --
राग बढत है शाकते, पय से बढत शरीर ।
घृत खाये बीरज बढे, मांस मांस गम्भीर ॥20॥
अर्थ -- शाक से रोग, दूध से शरीर, घी से वीर्य और मांस से मांस की वृध्दि होती है।
- इति चाणक्ये दशमिऽध्यायः ॥10॥
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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