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*पुनर्जन्म के किये हुए कर्मों के अनुसार शरीर उत्पन्न होता है। पंचभूतों से पाँचों इन्द्रियों की उत्पत्ति कही गई है।  
'''पुनर्जन्म''' के किये हुए कर्मों के अनुसार शरीर उत्पन्न होता है। इद्रियों के अभाव में हम विषयों का ज्ञान किसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए तर्कभाषा के अनुसार इंद्रिय वह प्रमेय है जो शरीर से संयुक्त, अतींद्रिय (इंद्रियों से ग्रहीत न होने वाला) तथा ज्ञान का करण हो (शरीरसंयुक्तं ज्ञानं करणमतींद्रियम्‌)।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1|लेखक= |अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक= नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी|संकलन= भारत डिस्कवरी पुस्तकालय|संपादन= |पृष्ठ संख्या=503 |url=}}</ref> पंचभूतों से पाँचों इन्द्रियों की उत्पत्ति कही गई है।  
#घ्राणेन्द्रिय से गंध का ग्रहण होता है, इससे वह पृथ्वी से बनी है।  
#घ्राणेन्द्रिय से गंध का ग्रहण होता है, इससे वह पृथ्वी से बनी है।  
#रसना [[जल]] से बनी है, क्योंकि रस जल का गुण है।  
#रसना [[जल]] से बनी है, क्योंकि रस जल का गुण है।  
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#त्वक् वायु से बनी है, क्योंकि स्पर्श वायु का गुण है।  
#त्वक् वायु से बनी है, क्योंकि स्पर्श वायु का गुण है।  
#श्रोत्र इन्द्रिय [[आकाश तत्त्व|आकाश]] से बनी है, क्योंकि शब्द आकाश का गुण है।
#श्रोत्र इन्द्रिय [[आकाश तत्त्व|आकाश]] से बनी है, क्योंकि शब्द आकाश का गुण है।
 
[[न्याय दर्शन|न्याय]] के अनुसार इंद्रियाँ दो प्रकार की होती हैं : (1) बहिरिंद्रिय-घ्राण, रसना, चक्षु, त्वक्‌ तथा श्रोत्र (पाँच) और (2) अंतरिंद्रिय-केवल मन (एक)। इनमें बाह्य इंद्रियाँ क्रमश: गंध, रस, रूप स्पर्श तथा शब्द की उपलब्धि मन के द्वारा होती हैं। सुख दु:ख आदि भीतरी विषय हैं। इनकी उपलब्धि मन के द्वारा होती है। मन हृदय के भीतर रहनेवाला तथा अणु परमाणु से युक्त माना जाता है। इंद्रियों की सत्ता का बोध प्रमाण, अनुमान से होता है, प्रत्यक्ष से नहीं सांख्य के अनुसार इंद्रियाँ संख्या में एकादश मानी जाती हैं जिनमें [[ज्ञानेन्द्रियाँ|ज्ञानेंद्रियाँ]] तथा कर्मेंद्रियाँ पाँच-पाँच मानी जाती हैं। [[ज्ञानेन्द्रियाँ|ज्ञानेंद्रियाँ]] पूर्वोक्त पाँच हैं, कर्मेंद्रियाँ [[मुख]], हाथ, [[पैर]], मलद्वार तथा जननेंद्रिय हैं जो क्रमश: बोलने, ग्रहण करने, चलने, मल त्यागने तथा संतानोत्पादन का कार्य करती है। संकल्पविकल्पात्मक मन ग्यारहवीं इंद्रिय माना जाता है।
[[बौद्ध|बौद्धों]] के मत से शरीर में गोलक देखे जाते हैं, उन्हीं को इन्द्रियाँ कहते हैं, (जैसे [[आँख]] की पुतली, [[जीभ]] इत्यादि)। परन्तु नैयायिकों के मत से जो अंग दिखाई पड़ते हैं, वे इंन्द्रियों के अधिष्ठान मात्र हैं, इन्द्रियाँ नहीं हैं। इन्द्रियों का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। कुछ लोग एक ही त्वक् इन्द्रिय मानते हैं। [[न्याय दर्शन|न्याय]] में उनके मत का खण्डन करके इन्द्रियों का नानात्व स्थापित किया गया है। [[सांख्य दर्शन|सांख्य]] में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन को लेकर ग्यारह इन्द्रियाँ मानी गई हैं। पर मन एक आन्तरिक करण और अणुरूप माना गया है। यदि मन सूक्ष्म न होकर व्यापक होता तो युगपत कई प्रकार का ज्ञान सम्भव होता, अर्थात् अनेक इन्द्रियों का एक क्षण में एक साथ संयोग होते हुए भी उन सब के विषयों का एक साथ ज्ञान हो जाता। पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते हैं। गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये पाँचों गुण इन्द्रियों के अर्थ या विषय हैं।  
*[[बौद्ध|बौद्धों]] के मत से शरीर में गोलक देखे जाते हैं, उन्हीं को इन्द्रियाँ कहते हैं, (जैसे [[आँख]] की पुतली, [[जीभ]] इत्यादि)। परन्तु नैयायिकों के मत से जो अंग दिखाई पड़ते हैं, वे इंन्द्रियों के अधिष्ठान मात्र हैं, इन्द्रियाँ नहीं हैं।  
*इन्द्रियों का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। कुछ लोग एक ही त्वक् इन्द्रिय मानते हैं।  
*[[न्याय दर्शन|न्याय]] में उनके मत का खण्डन करके इन्द्रियों का नानात्व स्थापित किया गया है।  
*[[सांख्य दर्शन|सांख्य]] में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन को लेकर ग्यारह इन्द्रियाँ मानी गई हैं। पर मन एक आन्तरिक करण और अणुरूप माना गया है।  
*यदि मन सूक्ष्म न होकर व्यापक होता तो युगपत कई प्रकार का ज्ञान सम्भव होता, अर्थात् अनेक इन्द्रियों का एक क्षण में एक साथ संयोग होते हुए भी उन सब के विषयों का एक साथ ज्ञान हो जाता। पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते हैं।  
*गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये पाँचों गुण इन्द्रियों के अर्थ या विषय हैं।  




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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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09:27, 27 जून 2018 के समय का अवतरण

पुनर्जन्म के किये हुए कर्मों के अनुसार शरीर उत्पन्न होता है। इद्रियों के अभाव में हम विषयों का ज्ञान किसी प्रकार प्राप्त नहीं कर सकते। इसलिए तर्कभाषा के अनुसार इंद्रिय वह प्रमेय है जो शरीर से संयुक्त, अतींद्रिय (इंद्रियों से ग्रहीत न होने वाला) तथा ज्ञान का करण हो (शरीरसंयुक्तं ज्ञानं करणमतींद्रियम्‌)।[1] पंचभूतों से पाँचों इन्द्रियों की उत्पत्ति कही गई है।

  1. घ्राणेन्द्रिय से गंध का ग्रहण होता है, इससे वह पृथ्वी से बनी है।
  2. रसना जल से बनी है, क्योंकि रस जल का गुण है।
  3. चक्षु इन्द्रिय तेज़ से बनी है, क्योंकि रूप तेज़ का गुण है।
  4. त्वक् वायु से बनी है, क्योंकि स्पर्श वायु का गुण है।
  5. श्रोत्र इन्द्रिय आकाश से बनी है, क्योंकि शब्द आकाश का गुण है।

न्याय के अनुसार इंद्रियाँ दो प्रकार की होती हैं : (1) बहिरिंद्रिय-घ्राण, रसना, चक्षु, त्वक्‌ तथा श्रोत्र (पाँच) और (2) अंतरिंद्रिय-केवल मन (एक)। इनमें बाह्य इंद्रियाँ क्रमश: गंध, रस, रूप स्पर्श तथा शब्द की उपलब्धि मन के द्वारा होती हैं। सुख दु:ख आदि भीतरी विषय हैं। इनकी उपलब्धि मन के द्वारा होती है। मन हृदय के भीतर रहनेवाला तथा अणु परमाणु से युक्त माना जाता है। इंद्रियों की सत्ता का बोध प्रमाण, अनुमान से होता है, प्रत्यक्ष से नहीं सांख्य के अनुसार इंद्रियाँ संख्या में एकादश मानी जाती हैं जिनमें ज्ञानेंद्रियाँ तथा कर्मेंद्रियाँ पाँच-पाँच मानी जाती हैं। ज्ञानेंद्रियाँ पूर्वोक्त पाँच हैं, कर्मेंद्रियाँ मुख, हाथ, पैर, मलद्वार तथा जननेंद्रिय हैं जो क्रमश: बोलने, ग्रहण करने, चलने, मल त्यागने तथा संतानोत्पादन का कार्य करती है। संकल्पविकल्पात्मक मन ग्यारहवीं इंद्रिय माना जाता है।

  • बौद्धों के मत से शरीर में गोलक देखे जाते हैं, उन्हीं को इन्द्रियाँ कहते हैं, (जैसे आँख की पुतली, जीभ इत्यादि)। परन्तु नैयायिकों के मत से जो अंग दिखाई पड़ते हैं, वे इंन्द्रियों के अधिष्ठान मात्र हैं, इन्द्रियाँ नहीं हैं।
  • इन्द्रियों का ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा नहीं हो सकता। कुछ लोग एक ही त्वक् इन्द्रिय मानते हैं।
  • न्याय में उनके मत का खण्डन करके इन्द्रियों का नानात्व स्थापित किया गया है।
  • सांख्य में पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और मन को लेकर ग्यारह इन्द्रियाँ मानी गई हैं। पर मन एक आन्तरिक करण और अणुरूप माना गया है।
  • यदि मन सूक्ष्म न होकर व्यापक होता तो युगपत कई प्रकार का ज्ञान सम्भव होता, अर्थात् अनेक इन्द्रियों का एक क्षण में एक साथ संयोग होते हुए भी उन सब के विषयों का एक साथ ज्ञान हो जाता। पर नैयायिक ऐसा नहीं मानते हैं।
  • गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द ये पाँचों गुण इन्द्रियों के अर्थ या विषय हैं।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. हिन्दी विश्वकोश, खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 503 |