"अहमद फ़राज़": अवतरणों में अंतर

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'''अहमद फ़राज़''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ahmad Faraz'', जन्म: 12 जनवरी 1931 - मृत्यु: 25 अगस्त 2008) पैदाइश से हिन्दुस्तानी और विभाजन की त्रासदी की वजह से पाकिस्तानी के उन उर्दू कवियों में थे जिन्हें [[फ़ैज़ी|फ़ैज़ अहमद फ़ैज़]] के बाद सब से अधिक लोकप्रियता मिली। अहमद फ़राज़ का असली नाम 'सैयद अहमद शाह अली' था। भारतीय जनमानस ने उन्हें अपूर्व सम्मान दिया, पलकों पर बिठाया और उनकी ग़ज़लों के जादुई प्रभाव से झूम-झूम उठा।  
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'''अहमद फ़राज़''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Ahmad Faraz'', जन्म: [[12 जनवरी]], [[1931]]; मृत्यु: [[25 अगस्त]], [[2008]]) पैदाइश से हिन्दुस्तानी और विभाजन की त्रासदी की वजह से पाकिस्तान के उन [[उर्दू]] कवियों में थे, जिन्हें [[फ़ैज़ अहमद फ़ैज़]] के बाद सब से अधिक लोकप्रियता मिली। अहमद फ़राज़ का असली नाम 'सैयद अहमद शाह अली' था। भारतीय जनमानस ने उन्हें अपूर्व सम्मान दिया, पलकों पर बिठाया और उनकी [[ग़ज़ल|ग़ज़लों]] के जादुई प्रभाव से झूम-झूम उठा।  
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
अहमद फ़राज़ की पैदाइश [[12 जनवरी]] [[1931]] (कुछ लोगों ने इनकी पैदाइश का साल 1934 भी बताया है) को नौशेरा ([[पाकिस्तान]]) में हुई। पेशावर विश्वविद्यालय से [[उर्दू]] तथा [[फ़ारसी भाषा|फ़ारसी]] में एम. ए. करने के बाद पाकिस्तान रेडियो से लेकर पाकिस्तान नैशनल सेन्टर के डाइरेक्टर, पाकिस्तान नैशनल बुक फ़ाउन्डेशन के चेयरमैन और फ़ोक हेरिटेज ऑफ़ पाकिस्तान तथा अकादमी आफ़ लेटर्स के भी चेयरमैन रहे।  शायरी का शौक बचपन से था। बेतबाजी के मुकाबलों में हिस्सा लिया करते थे। इब्तिदाई दौर में इक़बाल के कलाम से मुतास्सिर रहे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता तरक्की पसंद तेहरीक को पसंद करने लगे। अली सरदार जाफरी और [[फ़ैज़ी|फ़ैज़ अहमद फै़ज़]] के नक्शे-कदम पर चलते हुए जियाउल हक की हुकूमत के वक्त कुछ गज़लें ऐसी कहीं और मुशायरों में उन्हें पढ़ीं कि इन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। कई साल पाकिस्तान से दूर बरतानिया, कनाडा मुल्कों में गुजारने पड़े। 
अहमद फ़राज़ का जन्म [[12 जनवरी]], [[1931]] (कुछ लोगों ने इनकी पैदाइश का साल [[1934]] भी बताया है) को [[पाकिस्तान]] के सरहदी इलाक़े में हुआ था। उनके वालिद ([[पिता]]) एक मामूली शिक्षक थे। वे अहमद फ़राज़ को प्यार तो बहुत करते थे, लेकिन यह मुमकिन नहीं था कि उनकी हर जिद वे पूरी कर पाते। बचपन का वाक़या है कि एक बार अहमद फ़राज़ के पिता कुछ कपड़े लाए। कपड़े अहमद फ़राज़ को पसन्द नहीं आए। उन्होंने ख़ूब शोर मचाया कि ‘हम कम्बल के बने कपड़े नहीं पहनेंगे’। बात यहाँ तक बढ़ी कि ‘फ़राज़’ घर छोड़कर फ़रार हो गए। वह फ़रारी तबियत में जज़्ब हो गई। आज तक अहमद फ़राज़ फ़रारी जी रहे हैं। कभी [[लन्दन]], कभी [[न्यूयॉर्क नगर|न्यूयॉर्क]], कभी रियाद तो कभी [[मुम्बई]] और [[हैदराबाद]]।<ref name="BSS">{{cite web |url=http://pustak.org/bs/home.php?bookid=1534 |title=आज के प्रसिद्ध शायर - अहमद फ़राज़ |accessmonthday=22 अगस्त |accessyear=2013 |last=नंदन |first= कन्हैयालाल|authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी }}</ref>
फ़राज़ को [[क्रिकेट]] खेलने का भी शौक था। लेकिन शायरी का शौक उन पर ऐसा ग़ालिब हुआ कि वो दौरे हाज़िर के [[ग़ालिब]] बन गए। उनकी शायरी की कई किताबें क्षय हो चुकी हैं। ग़ज़लों के साथ ही फ़राज़ ने नज़्में भी लिखी हैं। लेकिन लोग उनकी ग़ज़लों के दीवाने हैं। इन ग़ज़लों के अशआर न सिर्फ पसंद करते हैं बल्कि वो उन्हें याद हैं और महफिलों में उन्हें सुनाकर, उन्हें गुनगुनाकर फ़राज़ को अपनी दाद से नवाजते रहते हैं। [[25 अगस्त]] [[2008]] को आसमाने-ग़ज़ल का ये रोशन सितारा हमेशा-हमेशा के लिए बुझ गया। साथ ही ग़ज़लों, मुशायरों और महफिलों को भी बेनूर कर गया।<ref>{{cite web |url=http://hindi.webduniya.com/miscellaneous/urdu/majmoon/0808/26/1080826077_1.htm |title= सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते|accessmonthday=3 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेब दुनिया हिंदी |language=हिंदी  }}</ref> फ़राज़ की ही ग़ज़ल का मिसरा है - 
====शिक्षा====
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<blockquote>सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते</blockquote>
<blockquote>सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते</blockquote>
==लोकप्रियता==
==लोकप्रियता==
जब बात उर्दू ग़ज़ल की परम्परा की हो रही होती है तो हमें [[मीर तक़ी मीर]], [[ग़ालिब]] आदि की चर्चा जरूर करनी होती है। मगर बीसवीं शताब्दी में ग़ज़ल की चर्चा हो और विशेष रूप से 1947 के बाद की उर्दू ग़ज़ल का ज़िक्र हो तो उसके गेसू सँवारने वालों में जो नाम लिए जाएँगे उनमें अहमद फ़राज़ का नाम कई पहलुओं से महत्त्वपूर्ण है। अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल [[फ़ैज़ी|फ़ैज]] और [[फ़िराक़ गोरखपुरी|फ़िराक]] का नाम आता है जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फ़राज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया। उसकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रखरखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=1534 |title= आज के प्रसिद्ध शायर - अहमद फ़राज़|accessmonthday=3 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी  }}</ref>
जब बात उर्दू ग़ज़ल की परम्परा की हो रही होती है तो हमें [[मीर तक़ी मीर]], [[ग़ालिब]] आदि की चर्चा ज़रूर करनी होती है। मगर बीसवीं शताब्दी में [[ग़ज़ल]] की चर्चा हो और विशेष रूप से [[1947]] के बाद की उर्दू ग़ज़ल का ज़िक्र हो तो उसके गेसू सँवारने वालों में जो नाम लिए जाएँगे उनमें अहमद फ़राज़ का नाम कई पहलुओं से महत्त्वपूर्ण है। अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल [[फ़ैज]] और [[फ़िराक़ गोरखपुरी|फ़िराक]] का नाम आता है जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फ़राज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया। उसकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रखरखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा।<ref>{{cite web |url=http://pustak.org/home.php?bookid=1534 |title= आज के प्रसिद्ध शायर - अहमद फ़राज़|accessmonthday=3 दिसम्बर |accessyear=2012 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=भारतीय साहित्य संग्रह |language=हिंदी  }}</ref>
==लोकप्रिय शेर==
==आलोचना==
<poem style=" width:400px;  background:#fbf8df; padding:15px; font-size:16px; border:1px solid #003333; border-radius:5px">
अहमद फ़राज़ की शायरी के आलोचकों का यह भी मानना है कि अहमद फ़राज़ की शायरी की शोहरत आम होने की वजह उनकी शायरी की बाहरी सजावट और अहमद फ़राज़ का अपना सजीला व्यक्तित्व है। लेकिन पाठक को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उनकी शोहरत में उनके व्यक्तित्व का कितना हाथ है, क्योंकि शायरी की दुनिया में बाहरी चमक-दमक अधिक समय तक नहीं टिकती, जबकि अहमद फ़राज़ की शायरी दशकों बाद आज भी अपनी महत्ता बरक़रार रखे हुए है। यह सही हो सकता है कि अहमद फ़राज़ को ख्याति मुशायरों से मिली, पर मुशायरों पर छाए रहने वाले कितनी ही शायर अपनी लहक और चमक खोने के बाद अतीत का हिस्सा बन गए हैं, जबकि अहमद फ़राज़ का पहले से ज़्यादा आज मौजूद होना उनकी शायरी के दमख़म का पता देता है।<ref name="BSS"/>
इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं


दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
हिजरत यानी देश से दूर रहने की पीड़ा और अपने देश की यादें अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साथ उनके यहाँ मिलती हैं। कुछ शेर देंखें :
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला 
<poem>वो पास नहीं अहसास तो है, इक याद तो है, इक आस तो है
दरिया-ए-जुदाई में देखो तिनके का सहारा कैसा है।


वक़्त ने वो ख़ाक उड़ाई है के दिल के दश्त से
मुल्कों मुल्कों घूमे हैं बहुत, जागे हैं बहुत, रोए हैं बहुत
क़ाफ़िले गुज़रे हैं फिर भी नक़्श-ए-पा कोई नहीं
अब तुमको बताएँ क्या यारो दुनिया का नज़ारा कैसा है।


करूँ याद अगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ऐ देश से आने वाले मगर तुमने तो इतना भी पूछा
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे 
वो कवि कि जिसे बनवास मिला वो दर्द का मारा कैसा है।<ref name="BSS"/></poem>


तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो
फ़राज़ की शायरी पर हिन्दुस्तान अनेक समकालीन रचनाकारों ने अपनी राय ज़ाहिर की है। [[मजरूह सुल्तानपुरी]] ने एक बार लिखा कि-<br />
अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो
<blockquote>‘‘फ़राज़ अपने वतन के मज़लूमों के साथी हैं। उन्हीं की तरह तड़पते हैं, मगर रोते नहीं। बल्कि उन जंजीरों को तोड़ते और बिखेरते नजर आते हैं जो उनके माशरे (समाज) के जिस्म (शरीर) को जकड़े हुए हैं। उनका कलाम न केवल ऊँचे दर्जे का है बल्कि एक शोला है, जो दिल से ज़बान तक लपकता हुआ मालूम होता है।’’<ref name="BSS"/></blockquote>
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
==लोकप्रिय शेर==
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो 
<poem style="padding:5px; font-size:16px;">
 
1. अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूँढ उजड़े हु्ए लोगों में वफ़ा के मोती
ढूँढ उजड़े हु्ए लोगों में वफ़ा के मोती
पंक्ति 31: पंक्ति 63:
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें
2.  इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं
3. दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला
4. करूँ न याद अगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
5. तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो
अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो
</poem>
</poem>


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
<references/>
==बाहरी कड़ियाँ==
==बाहरी कड़ियाँ==
 
*[http://www.samaa.tv/urdu/urdu-news-1-12-2012-4876-4.html अहमद फ़राज़ के बारे में पढ़ें (उर्दू में)]
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
 
{{उर्दू शायर}}
[[Category:नया पन्ना दिसम्बर-2012]]
[[Category:उर्दू शायर]][[Category:कवि]][[Category:साहित्य कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व कोश]][[Category:प्रसिद्ध व्यक्तित्व]] [[Category:चरित कोश]] [[Category:जीवनी साहित्य]]
 
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__NOTOC__

05:21, 25 अगस्त 2018 के समय का अवतरण

अहमद फ़राज़
अहमद फ़राज़
अहमद फ़राज़
पूरा नाम सैयद अहमद शाह अली
अन्य नाम फ़राज़
जन्म 12 जनवरी, 1931
जन्म भूमि कोहट, पाकिस्तान
मृत्यु 25 अगस्त 2008
मृत्यु स्थान इस्लामाबाद, पाकिस्तान
संतान सादी, शिबली, सरमद फ़राज़
कर्म भूमि पाकिस्तान
कर्म-क्षेत्र उर्दू कवि, शिक्षक
विषय प्रेम और प्रतिरोधात्मक
भाषा उर्दू और फ़ारसी
विद्यालय पेशावर मॉडल स्कूल, पेशावर विश्वविद्यालय
शिक्षा एम. ए.
पुरस्कार-उपाधि 'हिलाल-ए-इम्तियाज़', 'सितारा-ए-इम्तियाज़', 'निगार पुरस्कार'
नागरिकता पाकिस्तानी
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

अहमद फ़राज़ (अंग्रेज़ी: Ahmad Faraz, जन्म: 12 जनवरी, 1931; मृत्यु: 25 अगस्त, 2008) पैदाइश से हिन्दुस्तानी और विभाजन की त्रासदी की वजह से पाकिस्तान के उन उर्दू कवियों में थे, जिन्हें फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ के बाद सब से अधिक लोकप्रियता मिली। अहमद फ़राज़ का असली नाम 'सैयद अहमद शाह अली' था। भारतीय जनमानस ने उन्हें अपूर्व सम्मान दिया, पलकों पर बिठाया और उनकी ग़ज़लों के जादुई प्रभाव से झूम-झूम उठा।

जीवन परिचय

अहमद फ़राज़ का जन्म 12 जनवरी, 1931 (कुछ लोगों ने इनकी पैदाइश का साल 1934 भी बताया है) को पाकिस्तान के सरहदी इलाक़े में हुआ था। उनके वालिद (पिता) एक मामूली शिक्षक थे। वे अहमद फ़राज़ को प्यार तो बहुत करते थे, लेकिन यह मुमकिन नहीं था कि उनकी हर जिद वे पूरी कर पाते। बचपन का वाक़या है कि एक बार अहमद फ़राज़ के पिता कुछ कपड़े लाए। कपड़े अहमद फ़राज़ को पसन्द नहीं आए। उन्होंने ख़ूब शोर मचाया कि ‘हम कम्बल के बने कपड़े नहीं पहनेंगे’। बात यहाँ तक बढ़ी कि ‘फ़राज़’ घर छोड़कर फ़रार हो गए। वह फ़रारी तबियत में जज़्ब हो गई। आज तक अहमद फ़राज़ फ़रारी जी रहे हैं। कभी लन्दन, कभी न्यूयॉर्क, कभी रियाद तो कभी मुम्बई और हैदराबाद[1]

शिक्षा

पेशावर विश्वविद्यालय से उर्दू तथा फ़ारसी में एम. ए. करने के बाद पाकिस्तान रेडियो से लेकर पाकिस्तान नैशनल सेन्टर के डाइरेक्टर, पाकिस्तान नैशनल बुक फ़ाउन्डेशन के चेयरमैन और फ़ोक हेरिटेज ऑफ़ पाकिस्तान तथा अकादमी आफ़ लेटर्स के भी चेयरमैन रहे। शायरी का शौक़ बचपन से था। बेतबाजी के मुकाबलों में हिस्सा लिया करते थे। इब्तिदाई दौर में इक़बाल के कलाम से मुतास्सिर रहे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता तरक़्क़ी पसंद तेहरीक को पसंद करने लगे। अली सरदार जाफ़री और फ़ैज़ अहमद फै़ज़ के नक्शे-कदम पर चलते हुए जियाउल हक की हुकूमत के वक्त कुछ गज़लें ऐसी कहीं और मुशायरों में उन्हें पढ़ीं कि इन्हें जेल की हवा खानी पड़ी। कई साल पाकिस्तान से दूर बरतानिया, कनाडा मुल्कों में गुजारने पड़े। फ़राज़ को क्रिकेट खेलने का भी शौक़ था। लेकिन शायरी का शौक़ उन पर ऐसा ग़ालिब हुआ कि वो दौरे हाज़िर के ग़ालिब बन गए। उनकी शायरी की कई किताबें क्षय हो चुकी हैं। ग़ज़लों के साथ ही फ़राज़ ने नज़्में भी लिखी हैं। लेकिन लोग उनकी ग़ज़लों के दीवाने हैं। इन ग़ज़लों के अशआर न सिर्फ पसंद करते हैं बल्कि वो उन्हें याद हैं और महफिलों में उन्हें सुनाकर, उन्हें गुनगुनाकर फ़राज़ को अपनी दाद से नवाजते रहते हैं। 25 अगस्त 2008 को आसमाने-ग़ज़ल का ये रोशन सितारा हमेशा-हमेशा के लिए बुझ गया। साथ ही ग़ज़लों, मुशायरों और महफिलों को भी बेनूर कर गया।[2] फ़राज़ की ही ग़ज़ल का मिसरा है - 

सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते

लोकप्रियता

जब बात उर्दू ग़ज़ल की परम्परा की हो रही होती है तो हमें मीर तक़ी मीर, ग़ालिब आदि की चर्चा ज़रूर करनी होती है। मगर बीसवीं शताब्दी में ग़ज़ल की चर्चा हो और विशेष रूप से 1947 के बाद की उर्दू ग़ज़ल का ज़िक्र हो तो उसके गेसू सँवारने वालों में जो नाम लिए जाएँगे उनमें अहमद फ़राज़ का नाम कई पहलुओं से महत्त्वपूर्ण है। अहमद ‘फ़राज़’ ग़ज़ल के ऐसे शायर हैं जिन्होंने ग़ज़ल को जनता में लोकप्रिय बनाने का क़ाबिले-तारीफ़ काम किया। ग़ज़ल यों तो अपने कई सौ सालों के इतिहास में अधिकतर जनता में रुचि का माध्यम बनी रही है, मगर अहमद फ़राज़ तक आते-आते उर्दू ग़ज़ल ने बहुत से उतार-चढ़ाव देखे और जब फ़राज़ ने अपने कलाम के साथ सामने आए, तो लोगों को उनसे उम्मीदें बढ़ीं। ख़ुशी यह कि ‘फ़राज़’ ने मायूस नहीं किया। अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साँचे में ढाल कर जो ग़ज़ल उन्होंने पेश की वह जनता की धड़कन बन गई और ज़माने का हाल बताने के लिए आईना बन गई। मुशायरों ने अपने कलाम और अपने संग्रहों के माध्यम से अहमद फ़राज़ ने कम समय में वह ख्याति अर्जित कर ली जो बहुत कम शायरों को नसीब होती है। बल्कि अगर ये कहा जाए तो गलत न होगा कि इक़बाल के बाद पूरी बीसवीं शताब्दी में केवल फ़ैज और फ़िराक का नाम आता है जिन्हें शोहरत की बुलन्दियाँ नसीब रहीं, बाकी कोई शायर अहमद फ़राज़ जैसी शोहरत हासिल करने में कामयाब नहीं हो पाया। उसकी शायरी जितनी ख़ूबसूरत है, उनके व्यक्तित्व का रखरखाव उससे कम ख़ूबसूरत नहीं रहा।[3]

आलोचना

अहमद फ़राज़ की शायरी के आलोचकों का यह भी मानना है कि अहमद फ़राज़ की शायरी की शोहरत आम होने की वजह उनकी शायरी की बाहरी सजावट और अहमद फ़राज़ का अपना सजीला व्यक्तित्व है। लेकिन पाठक को इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता कि उनकी शोहरत में उनके व्यक्तित्व का कितना हाथ है, क्योंकि शायरी की दुनिया में बाहरी चमक-दमक अधिक समय तक नहीं टिकती, जबकि अहमद फ़राज़ की शायरी दशकों बाद आज भी अपनी महत्ता बरक़रार रखे हुए है। यह सही हो सकता है कि अहमद फ़राज़ को ख्याति मुशायरों से मिली, पर मुशायरों पर छाए रहने वाले कितनी ही शायर अपनी लहक और चमक खोने के बाद अतीत का हिस्सा बन गए हैं, जबकि अहमद फ़राज़ का पहले से ज़्यादा आज मौजूद होना उनकी शायरी के दमख़म का पता देता है।[1]

हिजरत यानी देश से दूर रहने की पीड़ा और अपने देश की यादें अपनी विशेष शैली और शब्दावली के साथ उनके यहाँ मिलती हैं। कुछ शेर देंखें :

वो पास नहीं अहसास तो है, इक याद तो है, इक आस तो है
दरिया-ए-जुदाई में देखो तिनके का सहारा कैसा है।

मुल्कों मुल्कों घूमे हैं बहुत, जागे हैं बहुत, रोए हैं बहुत
अब तुमको बताएँ क्या यारो दुनिया का नज़ारा कैसा है।

ऐ देश से आने वाले मगर तुमने तो न इतना भी पूछा
वो कवि कि जिसे बनवास मिला वो दर्द का मारा कैसा है।[1]

फ़राज़ की शायरी पर हिन्दुस्तान अनेक समकालीन रचनाकारों ने अपनी राय ज़ाहिर की है। मजरूह सुल्तानपुरी ने एक बार लिखा कि-

‘‘फ़राज़ अपने वतन के मज़लूमों के साथी हैं। उन्हीं की तरह तड़पते हैं, मगर रोते नहीं। बल्कि उन जंजीरों को तोड़ते और बिखेरते नजर आते हैं जो उनके माशरे (समाज) के जिस्म (शरीर) को जकड़े हुए हैं। उनका कलाम न केवल ऊँचे दर्जे का है बल्कि एक शोला है, जो दिल से ज़बान तक लपकता हुआ मालूम होता है।’’[1]

लोकप्रिय शेर

1. अब के हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूँढ उजड़े हु्ए लोगों में वफ़ा के मोती
ये ख़ज़ाने तुझे मुमकिन है ख़राबों में मिलें
तू ख़ुदा है न मेरा इश्क़ फ़रिश्तों जैसा
दोनों इंसाँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें
2. इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं
3. दोस्त बन कर भी नहीं साथ निभानेवाला
वही अंदाज़ है ज़ालिम का ज़मानेवाला
4. करूँ न याद अगर किस तरह भुलाऊँ उसे
ग़ज़ल बहाना करूँ और गुनगुनाऊँ उसे
5. तुम भी ख़फ़ा हो लोग भी बरहम हैं दोस्तो
अब हो चला यक़ीं के बुरे हम हैं दोस्तो
कुछ आज शाम ही से है दिल भी बुझा-बुझा
कुछ शहर के चिराग़ भी मद्धम हैं दोस्तो


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 नंदन, कन्हैयालाल। आज के प्रसिद्ध शायर - अहमद फ़राज़ (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 22 अगस्त, 2013।
  2. सिलसिले तोड़ गया वो सभी जाते-जाते (हिंदी) वेब दुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 3 दिसम्बर, 2012।
  3. आज के प्रसिद्ध शायर - अहमद फ़राज़ (हिंदी) भारतीय साहित्य संग्रह। अभिगमन तिथि: 3 दिसम्बर, 2012।

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