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'''आबिदा सुल्तान''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Abida Sultan'', जन्म: [[28 अगस्त]], [[1913]] - मृत्यु: [[11 मई]], [[2002]]) [[भोपाल]] रियासत की राजकुमारी थीं। आबिदा सुल्तान को [[भारत]] की पहली महिला पायलट होने का गौरव प्राप्त था। इन्हें [[25 जनवरी]], [[1942]] को उड़ान लाइसेंस मिला था।  
'''आबिदा सुल्तान''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Abida Sultan'', जन्म: [[28 अगस्त]], [[1913]] - मृत्यु: [[11 मई]], [[2002]]) [[भोपाल]] रियासत की राजकुमारी थीं। आबिदा सुल्तान को [[भारत]] की पहली महिला पायलट होने का गौरव प्राप्त था। इन्हें [[25 जनवरी]], [[1942]] को उड़ान लाइसेंस मिला था।  
==जीवन परिचय==
==जीवन परिचय==
आबिदा सुल्तान का जन्म [[28 अगस्त]] [[1913]] को हुआ था। इनके पिता हमीदुल्लाह ख़ान भोपाल रियासत के अंतिम [[नवाब]] थे। आबिदा अपने पिता की बड़ी संतान थी। उनकी परवरिश दादी सुल्तान जहां बेगम ने किया था। अपनी दादी के अनुशासन में रहकर बहुत कम उम्र में ही आबिदा सुल्तान कार ड्राइविंग के अलावा घोड़े, पालतू [[चीतल]] जैसे जानवरों की सवारी और शूटिंग कौशल में पारंगत हो चुकी थी। उस जमाने में वे बगैर नकाब के कार चलाती थीं। [[चित्र:Abida Sultan.jpg|thumb|left|आबिदा सुल्तान]] उपमहाद्वीप के मुस्लिम राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा करने वाली आबिदा सुल्तान ने अपने पिता हमीदुल्लाह ख़ान के कैबिनेट के अध्यक्ष और मुख्य सचिव की जिम्मेदारी भी संभाली थी। आबिदा पोलो और स्क्वेश जैसे खेलों में भी दिलचस्पी रखती थी। सन् [[1949]] में वे अखिल भारतीय महिला स्क्वैश की चैंपियन रहीं। आबिदा का निकाह [[18 जून]], [[1926]] को कुरवाई के नवाब सरवर अली ख़ान के साथ हुआ। दादी की प्रिय पोती आबिदा पहली बार पिता के उत्तराधिकारी का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए अपनी दादी नवाब सुल्तान जहां बेगम के साथ सन् 1926 में [[लंदन]] गईं थीं। [[भारत का विभाजन|देश के विभाजन]] की उथल-पुथल के बाद सन् [[1949]] में उन्होंने भारत छोड़ दिया और पाकिस्तान चली गई। आबिदा सुल्तान ने अपना आशियाना [[कराची]] में बनाया और अपनी गतिविधियां जारी रखीं। उन्होंने सन् 1954 में [[संयुक्त राष्ट्र]] में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व और सन् 1956 में [[चीन]] का दौरा किया। धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में विश्वास रखने वाली आबिदा सन् 1960 में मार्शल कानून के विरोध में फातिमा जिन्ना- जो [[मोहम्मद अली जिन्ना]] की बहन थीं, का साथ दिया था। वे महिला अधिकारों की पक्षधर थीं। [[जनवरी]] [[1954]] में पिता द्वारा भोपाल वापस लौटने की पेशकश को ठुकरा चुकी आबिदा 12 वर्षों तक अपने पिता से दूर रहीं, लेकिन उनकी मृत्यु के समय वे भोपाल आर्इं।<ref>{{cite web |url=http://tirumishi.blogspot.in/2011/07/28-1913-25-1942-1949-18-1926-1926-1949.html |title=उड़ान लाइसेंस पाने वाली भारत की पहली महिला ‘आबिदा सुल्तान’ |accessmonthday=25 जुलाई |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= तिरुमिशि ब्लॉग |language=हिंदी }}</ref>
आबिदा सुल्तान का जन्म [[28 अगस्त]] [[1913]] को हुआ था। इनके [[पिता]] हमीदुल्लाह ख़ान भोपाल रियासत के अंतिम [[नवाब]] थे। आबिदा अपने पिता की बड़ी संतान थी। उनकी परवरिश दादी सुल्तान जहां बेगम ने किया था। अपनी दादी के अनुशासन में रहकर बहुत कम उम्र में ही आबिदा सुल्तान कार ड्राइविंग के अलावा घोड़े, पालतू [[चीतल]] जैसे जानवरों की सवारी और शूटिंग कौशल में पारंगत हो चुकी थी। उस जमाने में वे बगैर नकाब के कार चलाती थीं। [[चित्र:Abida Sultan.jpg|thumb|left|आबिदा सुल्तान]] उपमहाद्वीप के मुस्लिम राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा करने वाली आबिदा सुल्तान ने अपने पिता हमीदुल्लाह ख़ान के कैबिनेट के अध्यक्ष और मुख्य सचिव की जिम्मेदारी भी संभाली थी। आबिदा पोलो और स्क्वेश जैसे खेलों में भी दिलचस्पी रखती थी। सन् [[1949]] में वे अखिल भारतीय महिला स्क्वैश की चैंपियन रहीं।
 
आबिदा का निकाह [[18 जून]], [[1926]] को कुरवाई के नवाब सरवर अली ख़ान के साथ हुआ। दादी की प्रिय पोती आबिदा पहली बार पिता के उत्तराधिकारी का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए अपनी दादी नवाब सुल्तान जहां बेगम के साथ सन् 1926 में [[लंदन]] गईं थीं। [[भारत का विभाजन|देश के विभाजन]] की उथल-पुथल के बाद सन् [[1949]] में उन्होंने [[भारत]] छोड़ दिया और पाकिस्तान चली गई। आबिदा सुल्तान ने अपना आशियाना [[कराची]] में बनाया और अपनी गतिविधियां जारी रखीं। उन्होंने सन् [[1954]] में [[संयुक्त राष्ट्र]] में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व और सन् 1956 में [[चीन]] का दौरा किया। धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में विश्वास रखने वाली आबिदा सन् [[1960]] में मार्शल कानून के विरोध में फातिमा जिन्ना- जो [[मोहम्मद अली जिन्ना]] की बहन थीं, का साथ दिया था। वे महिला अधिकारों की पक्षधर थीं। [[जनवरी]] [[1954]] में पिता द्वारा [[भोपाल]] वापस लौटने की पेशकश को ठुकरा चुकी आबिदा 12 वर्षों तक अपने पिता से दूर रहीं, लेकिन उनकी मृत्यु के समय वे भोपाल आर्इं।<ref>{{cite web |url=http://tirumishi.blogspot.in/2011/07/28-1913-25-1942-1949-18-1926-1926-1949.html |title=उड़ान लाइसेंस पाने वाली भारत की पहली महिला ‘आबिदा सुल्तान’ |accessmonthday=25 जुलाई |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher= तिरुमिशि ब्लॉग |language=हिंदी }}</ref>
==निधन==
==निधन==
आबिदा सुल्तान [[अक्टूबर]] [[2001]] तक अनेक रोगों से ग्रस्त हो गईं। [[27 अप्रैल]], [[2002]] को कार्डियक आॅपरेशन के लिए उन्हें शौकत उमर मेमोरियल अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ [[11 मई]], [[2002]] को उनका निधन हो गया। उनके पुत्र शहरयार मोहम्मद ख़ान [[पाकिस्तान]] में विदेश सचिव रहे हैं।
आबिदा सुल्तान [[अक्टूबर]] [[2001]] तक अनेक रोगों से ग्रस्त हो गईं। [[27 अप्रैल]], [[2002]] को कार्डियक आॅपरेशन के लिए उन्हें शौकत उमर मेमोरियल अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ [[11 मई]], [[2002]] को उनका निधन हो गया। उनके पुत्र शहरयार मोहम्मद ख़ान [[पाकिस्तान]] में विदेश सचिव रहे हैं।
==भोपाल रियासत की जायदाद पर विवाद==
==भोपाल रियासत की जायदाद पर विवाद==
[[1926]] में [[भोपाल]] के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह ख़ान ने रियासत संभाली थी। हमीदुल्लाह के चूंकि कोई बेटा नहीं था, इसलिए उन्होंने अपनी मंझली बेटी साजिदा सुल्तान को शासक नियुक्त कर दिया था। कायदे से यह जिम्मेदारी उन की बड़ी बेटी आबिदा सुल्तान को मिलती पर वे शादी करने के बाद अपने बेटे शहरयार के साथ पाकिस्तान जा कर बस गईं। छोटी बेटी राबिया सुल्तान भी अपनी ससुराल में चली गईं। साजिदा बेगम की शादी पटौदी राजघराने के नवाब इफ़्तिख़ार अली ख़ान के साथ हुई थी। इन दोनों के 3 संतानें हुईं जिन में सब से बड़े थे [[मंसूर अली ख़ान पटौदी]], जिन्हें टाइगर के नाम से भी जाना जाता है। वे अपने जमाने के मशहूर क्रिकेटर थे और सिने तारिका [[शर्मिला टैगोर]] से प्यार कर बैठे और शादी हुई तो शर्मिला ने धर्म के साथ नाम भी बदल कर आयशा सुल्तान रख लिया। साजिदा और इफ्तिखार की 2 बेटियों यानी मंसूर अली की दोनों बहनों सालेहा सुल्तान और सबीहा सुल्तान की शादी [[हैदराबाद]] में हुई थी। बेटा होने के कारण मंसूर अली ख़ान घोषित तौर पर नवाब मान लिए गए पर तब देश आजाद हो चुका था और राजे-रजवाड़ों के दिन लदने लगे थे। [[भारत सरकार]] ने दबाव बना कर रियासतों का विलीनीकरण करना शुरू कर दिया था जो उस वक्त के हालात को देखते ज़रूरी भी था। <br />
[[1926]] में [[भोपाल]] के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह ख़ान ने रियासत संभाली थी। हमीदुल्लाह के चूंकि कोई बेटा नहीं था, इसलिए उन्होंने अपनी मंझली बेटी साजिदा सुल्तान को शासक नियुक्त कर दिया था। कायदे से यह जिम्मेदारी उन की बड़ी बेटी आबिदा सुल्तान को मिलती पर वे शादी करने के बाद अपने बेटे शहरयार के साथ पाकिस्तान जा कर बस गईं। छोटी बेटी राबिया सुल्तान भी अपनी ससुराल में चली गईं। साजिदा बेगम की शादी पटौदी राजघराने के नवाब इफ़्तिख़ार अली ख़ान के साथ हुई थी। इन दोनों के 3 संतानें हुईं जिन में सब से बड़े थे [[मंसूर अली ख़ान पटौदी]], जिन्हें टाइगर के नाम से भी जाना जाता है। वे अपने जमाने के मशहूर क्रिकेटर थे और सिने तारिका [[शर्मिला टैगोर]] से प्यार कर बैठे और शादी हुई तो शर्मिला ने धर्म के साथ नाम भी बदल कर आयशा सुल्तान रख लिया। साजिदा और इफ्तिखार की 2 बेटियों यानी मंसूर अली की दोनों बहनों सालेहा सुल्तान और सबीहा सुल्तान की शादी [[हैदराबाद]] में हुई थी। बेटा होने के कारण मंसूर अली ख़ान घोषित तौर पर नवाब मान लिए गए पर तब देश आजाद हो चुका था और राजे-रजवाड़ों के दिन लदने लगे थे। [[भारत सरकार]] ने दबाव बना कर रियासतों का विलीनीकरण करना शुरू कर दिया था जो उस वक्त के हालात को देखते ज़रूरी भी था।
आमतौर पर बेटियां पैतृक संपत्ति में हिस्से के लिए कानून का सहारा कम ही लेती थीं। भोपाल रियासत के मामले में भी यही होता लेकिन विवाद की शुरुआत एक छोटे से अहं और असुरक्षा को ले कर हुई। मंसूर अली ख़ान की छोटी बहन सबीहा अपने पति मीर अर्जुमंद अली के साथ साल [[2002]] में रुकने के लिए भोपाल स्थित अपने घर यानी फ्लैग स्टाफ हाउस पहुंचीं तो उन्हें यह कह कर मुलाजिमों ने चलता कर दिया कि यह नवाब मंसूर अली ख़ान का घर है जो उन्हें उन की माँ साजिदा दे कर गई थीं। यह मालिकाना हक जता कर बहनों को टरकाने की नाकाम कोशिश थी। इस से पहले सबीहा ने कभी जायदाद को ले कर भाई से किसी तरह का विवाद या फसाद खड़ा नहीं किया था लेकिन सालेहा ज़रूर मंसूर अली ख़ान को जायदाद की बाबत नोटिस देती रही थीं। जाहिर है फ्लैग स्टाफ हाउस, जिसे अहमदाबाद पैलेस के नाम से भी जाना जाता है, से इस तरह चलता कर देने से सबीहा ने खुद को बेइज्जत महसूस किया और सीधे अदालत में मामला दायर कर दिया। इस पर मंसूर अली ने थोड़ी समझदारी दिखाते यह व्यवस्था कर दी कि अगर बहनों को फ्लैग स्टाफ हाउस में रुकना ही है तो वे अपने खाने पीने और मुलाजिमों का खर्च खुद उठाएं। यानी मंसूर अली उन भाइयों में से नहीं थे जो अपनी बहनों, बहनोइयों और भांजे, भांजियों के आने पर खुश होते हैं और उन का स्वागत सत्कार करते हैं। उलटे, वे तो बहनों को नसीहत दे रहे थे कि माँ के मकान में ठहरो तो खाने पीने के और दीगर खर्चे खुद उठाओ। यह बात सबीहा और सालेहा दोनों को नागवार गुजरी और उन्होंने अदालत से गुजारिश की कि उन्हें फ्लैग स्टाफ हाउस का संयुक्त स्वामी घोषित किया और माना जाए। <br />
 
यह वाद हालांकि सबीहा ने दायर किया था लेकिन इस का फायदा सालेहा को भी मिला। [[अक्तूबर]] [[2005]] में ज़िला अदालत ने सबीहा के पक्ष में फैसला दिया जिस का फायदा सालेहा को भी मिला। जल्द ही उन का बेटा फैज बिन जंग सामान ले कर फ्लैग स्टाफ हाउस में जा कर रहने लगा। हैरत की बात यह रही कि अपने स्वभाव के विपरीत जाते मंसूर अली ख़ान ने भांजे का स्वागत किया और बहनों समेत उन के बच्चों के लिए भी कमरे आरक्षित कर दिए। एक दफा ऐसा लगा कि भाई व बहनों के बीच अब कड़वाहट खत्म हो रही है पर मामला उलट निकला। हुआ यह था कि मंसूर अली ख़ान ने गुपचुप तरीक़े से फ्लैग स्टाफ हाउस का सौदा 64 करोड़ रुपए में कर दिया था।  सौदे की भनक लगते ही सबीहा फिर भड़क उठीं और इस दफा उन्होंने भाई के साथ-साथ सालेहा को भी पक्षकार बना डाला। तकरीबन 1 हजार करोड़ रुपए की जायदाद के बंटवारे को लेकर मामला फिर अधर में लटक गया है। इस दफा तीसरी पीढ़ी के वारिसों के अहं, महत्त्वाकांक्षाएं, पूर्वाग्रह, जिद और लालच आड़े आ रहे हैं। मौजूदा जायदाद के 7 वारिसों में से कोई भी समझौता करने के मूड में नहीं दिख रहा। सो, गेंद अब अदालत और सरकार के पाले में है।<ref>{{cite web |url=http://www.sarita.in/social/bhopal-ke-nawab-ki-jaydad-saif-ne-uljhaya-vivaad |title=भोपाल के नवाब की जायदाद सैफ ने उलझाया विवाद |accessmonthday=25 जुलाई |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=सरिता डॉट इन |language=हिंदी}}</ref>


आमतौर पर बेटियां पैतृक संपत्ति में हिस्से के लिए कानून का सहारा कम ही लेती थीं। भोपाल रियासत के मामले में भी यही होता लेकिन विवाद की शुरुआत एक छोटे से अहं और असुरक्षा को ले कर हुई। मंसूर अली ख़ान की छोटी बहन सबीहा अपने पति मीर अर्जुमंद अली के साथ साल [[2002]] में रुकने के लिए भोपाल स्थित अपने घर यानी फ्लैग स्टाफ हाउस पहुंचीं तो उन्हें यह कह कर मुलाजिमों ने चलता कर दिया कि यह नवाब मंसूर अली ख़ान का घर है जो उन्हें उन की माँ साजिदा दे कर गई थीं। यह मालिकाना हक जता कर बहनों को टरकाने की नाकाम कोशिश थी। इस से पहले सबीहा ने कभी जायदाद को ले कर भाई से किसी तरह का विवाद या फसाद खड़ा नहीं किया था लेकिन सालेहा ज़रूर मंसूर अली ख़ान को जायदाद की बाबत नोटिस देती रही थीं। जाहिर है फ्लैग स्टाफ हाउस, जिसे अहमदाबाद पैलेस के नाम से भी जाना जाता है, से इस तरह चलता कर देने से सबीहा ने खुद को बेइज्जत महसूस किया और सीधे अदालत में मामला दायर कर दिया। इस पर मंसूर अली ने थोड़ी समझदारी दिखाते यह व्यवस्था कर दी कि अगर बहनों को फ्लैग स्टाफ हाउस में रुकना ही है तो वे अपने खाने पीने और मुलाजिमों का खर्च खुद उठाएं। यानी मंसूर अली उन भाइयों में से नहीं थे जो अपनी बहनों, बहनोइयों और भांजे, भांजियों के आने पर खुश होते हैं और उन का स्वागत सत्कार करते हैं। उलटे, वे तो बहनों को नसीहत दे रहे थे कि माँ के मकान में ठहरो तो खाने पीने के और दीगर खर्चे खुद उठाओ। यह बात सबीहा और सालेहा दोनों को नागवार गुजरी और उन्होंने अदालत से गुजारिश की कि उन्हें फ्लैग स्टाफ हाउस का संयुक्त स्वामी घोषित किया और माना जाए।


यह वाद हालांकि सबीहा ने दायर किया था लेकिन इस का फायदा सालेहा को भी मिला। [[अक्तूबर]] [[2005]] में ज़िला अदालत ने सबीहा के पक्ष में फैसला दिया जिस का फायदा सालेहा को भी मिला। जल्द ही उन का बेटा फैज बिन जंग सामान ले कर फ्लैग स्टाफ हाउस में जा कर रहने लगा। हैरत की बात यह रही कि अपने स्वभाव के विपरीत जाते मंसूर अली ख़ान ने भांजे का स्वागत किया और बहनों समेत उन के बच्चों के लिए भी कमरे आरक्षित कर दिए। एक दफा ऐसा लगा कि भाई व बहनों के बीच अब कड़वाहट खत्म हो रही है पर मामला उलट निकला। हुआ यह था कि मंसूर अली ख़ान ने गुपचुप तरीक़े से फ्लैग स्टाफ हाउस का सौदा 64 करोड़ रुपए में कर दिया था।  सौदे की भनक लगते ही सबीहा फिर भड़क उठीं और इस दफा उन्होंने भाई के साथ-साथ सालेहा को भी पक्षकार बना डाला। तकरीबन 1 हजार करोड़ रुपए की जायदाद के बंटवारे को लेकर मामला फिर अधर में लटक गया है। इस दफा तीसरी पीढ़ी के वारिसों के अहं, महत्त्वाकांक्षाएं, पूर्वाग्रह, जिद और लालच आड़े आ रहे हैं। मौजूदा जायदाद के 7 वारिसों में से कोई भी समझौता करने के मूड में नहीं दिख रहा। सो, गेंद अब अदालत और सरकार के पाले में है।<ref>{{cite web |url=http://www.sarita.in/social/bhopal-ke-nawab-ki-jaydad-saif-ne-uljhaya-vivaad |title=भोपाल के नवाब की जायदाद सैफ ने उलझाया विवाद |accessmonthday=25 जुलाई |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=सरिता डॉट इन |language=हिंदी}}</ref>


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*[http://www.bhaskar.com/article/MP-BPL-abida-sultan-fight-with-husband-for-her-son-2715655.html?OF1= 77 साल पहले घटी इस घटना को सुन हैरान रह जाएंगे आप]
*[http://www.bhaskar.com/article/MP-BPL-abida-sultan-fight-with-husband-for-her-son-2715655.html?OF1= 77 साल पहले घटी इस घटना को सुन हैरान रह जाएंगे आप]
*[http://shabddeep.com/show-detail.php?id=266&type=home किसने भोपाल के आखिरी ताजदार का तोड़ा सपना?]
*[http://shabddeep.com/show-detail.php?id=266&type=home किसने भोपाल के आखिरी ताजदार का तोड़ा सपना?]
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आबिदा सुल्तान
आबिदा सुल्तान
आबिदा सुल्तान
पूरा नाम आबिदा सुल्तान
जन्म 28 अगस्त, 1913
मृत्यु 11 मई, 2002
अभिभावक पिता- हमीदुल्लाह ख़ान (भोपाल रियासत के अंतिम नवाब )
पति/पत्नी नवाब सरवर अली ख़ान
कर्म भूमि भारत
प्रसिद्धि भारत की पहली महिला पायलट
अन्य जानकारी आबिदा सुल्तान के पुत्र शहरयार मोहम्मद ख़ान पाकिस्तान में विदेश सचिव रहे हैं।

आबिदा सुल्तान (अंग्रेज़ी: Abida Sultan, जन्म: 28 अगस्त, 1913 - मृत्यु: 11 मई, 2002) भोपाल रियासत की राजकुमारी थीं। आबिदा सुल्तान को भारत की पहली महिला पायलट होने का गौरव प्राप्त था। इन्हें 25 जनवरी, 1942 को उड़ान लाइसेंस मिला था।

जीवन परिचय

आबिदा सुल्तान का जन्म 28 अगस्त 1913 को हुआ था। इनके पिता हमीदुल्लाह ख़ान भोपाल रियासत के अंतिम नवाब थे। आबिदा अपने पिता की बड़ी संतान थी। उनकी परवरिश दादी सुल्तान जहां बेगम ने किया था। अपनी दादी के अनुशासन में रहकर बहुत कम उम्र में ही आबिदा सुल्तान कार ड्राइविंग के अलावा घोड़े, पालतू चीतल जैसे जानवरों की सवारी और शूटिंग कौशल में पारंगत हो चुकी थी। उस जमाने में वे बगैर नकाब के कार चलाती थीं।

आबिदा सुल्तान

उपमहाद्वीप के मुस्लिम राजनीति में सक्रिय भूमिका अदा करने वाली आबिदा सुल्तान ने अपने पिता हमीदुल्लाह ख़ान के कैबिनेट के अध्यक्ष और मुख्य सचिव की जिम्मेदारी भी संभाली थी। आबिदा पोलो और स्क्वेश जैसे खेलों में भी दिलचस्पी रखती थी। सन् 1949 में वे अखिल भारतीय महिला स्क्वैश की चैंपियन रहीं।

आबिदा का निकाह 18 जून, 1926 को कुरवाई के नवाब सरवर अली ख़ान के साथ हुआ। दादी की प्रिय पोती आबिदा पहली बार पिता के उत्तराधिकारी का अनुमोदन प्राप्त करने के लिए अपनी दादी नवाब सुल्तान जहां बेगम के साथ सन् 1926 में लंदन गईं थीं। देश के विभाजन की उथल-पुथल के बाद सन् 1949 में उन्होंने भारत छोड़ दिया और पाकिस्तान चली गई। आबिदा सुल्तान ने अपना आशियाना कराची में बनाया और अपनी गतिविधियां जारी रखीं। उन्होंने सन् 1954 में संयुक्त राष्ट्र में पाकिस्तान का प्रतिनिधित्व और सन् 1956 में चीन का दौरा किया। धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में विश्वास रखने वाली आबिदा सन् 1960 में मार्शल कानून के विरोध में फातिमा जिन्ना- जो मोहम्मद अली जिन्ना की बहन थीं, का साथ दिया था। वे महिला अधिकारों की पक्षधर थीं। जनवरी 1954 में पिता द्वारा भोपाल वापस लौटने की पेशकश को ठुकरा चुकी आबिदा 12 वर्षों तक अपने पिता से दूर रहीं, लेकिन उनकी मृत्यु के समय वे भोपाल आर्इं।[1]

निधन

आबिदा सुल्तान अक्टूबर 2001 तक अनेक रोगों से ग्रस्त हो गईं। 27 अप्रैल, 2002 को कार्डियक आॅपरेशन के लिए उन्हें शौकत उमर मेमोरियल अस्पताल में भर्ती कराया गया, जहाँ 11 मई, 2002 को उनका निधन हो गया। उनके पुत्र शहरयार मोहम्मद ख़ान पाकिस्तान में विदेश सचिव रहे हैं।

भोपाल रियासत की जायदाद पर विवाद

1926 में भोपाल के आखिरी नवाब हमीदुल्लाह ख़ान ने रियासत संभाली थी। हमीदुल्लाह के चूंकि कोई बेटा नहीं था, इसलिए उन्होंने अपनी मंझली बेटी साजिदा सुल्तान को शासक नियुक्त कर दिया था। कायदे से यह जिम्मेदारी उन की बड़ी बेटी आबिदा सुल्तान को मिलती पर वे शादी करने के बाद अपने बेटे शहरयार के साथ पाकिस्तान जा कर बस गईं। छोटी बेटी राबिया सुल्तान भी अपनी ससुराल में चली गईं। साजिदा बेगम की शादी पटौदी राजघराने के नवाब इफ़्तिख़ार अली ख़ान के साथ हुई थी। इन दोनों के 3 संतानें हुईं जिन में सब से बड़े थे मंसूर अली ख़ान पटौदी, जिन्हें टाइगर के नाम से भी जाना जाता है। वे अपने जमाने के मशहूर क्रिकेटर थे और सिने तारिका शर्मिला टैगोर से प्यार कर बैठे और शादी हुई तो शर्मिला ने धर्म के साथ नाम भी बदल कर आयशा सुल्तान रख लिया। साजिदा और इफ्तिखार की 2 बेटियों यानी मंसूर अली की दोनों बहनों सालेहा सुल्तान और सबीहा सुल्तान की शादी हैदराबाद में हुई थी। बेटा होने के कारण मंसूर अली ख़ान घोषित तौर पर नवाब मान लिए गए पर तब देश आजाद हो चुका था और राजे-रजवाड़ों के दिन लदने लगे थे। भारत सरकार ने दबाव बना कर रियासतों का विलीनीकरण करना शुरू कर दिया था जो उस वक्त के हालात को देखते ज़रूरी भी था।


आमतौर पर बेटियां पैतृक संपत्ति में हिस्से के लिए कानून का सहारा कम ही लेती थीं। भोपाल रियासत के मामले में भी यही होता लेकिन विवाद की शुरुआत एक छोटे से अहं और असुरक्षा को ले कर हुई। मंसूर अली ख़ान की छोटी बहन सबीहा अपने पति मीर अर्जुमंद अली के साथ साल 2002 में रुकने के लिए भोपाल स्थित अपने घर यानी फ्लैग स्टाफ हाउस पहुंचीं तो उन्हें यह कह कर मुलाजिमों ने चलता कर दिया कि यह नवाब मंसूर अली ख़ान का घर है जो उन्हें उन की माँ साजिदा दे कर गई थीं। यह मालिकाना हक जता कर बहनों को टरकाने की नाकाम कोशिश थी। इस से पहले सबीहा ने कभी जायदाद को ले कर भाई से किसी तरह का विवाद या फसाद खड़ा नहीं किया था लेकिन सालेहा ज़रूर मंसूर अली ख़ान को जायदाद की बाबत नोटिस देती रही थीं। जाहिर है फ्लैग स्टाफ हाउस, जिसे अहमदाबाद पैलेस के नाम से भी जाना जाता है, से इस तरह चलता कर देने से सबीहा ने खुद को बेइज्जत महसूस किया और सीधे अदालत में मामला दायर कर दिया। इस पर मंसूर अली ने थोड़ी समझदारी दिखाते यह व्यवस्था कर दी कि अगर बहनों को फ्लैग स्टाफ हाउस में रुकना ही है तो वे अपने खाने पीने और मुलाजिमों का खर्च खुद उठाएं। यानी मंसूर अली उन भाइयों में से नहीं थे जो अपनी बहनों, बहनोइयों और भांजे, भांजियों के आने पर खुश होते हैं और उन का स्वागत सत्कार करते हैं। उलटे, वे तो बहनों को नसीहत दे रहे थे कि माँ के मकान में ठहरो तो खाने पीने के और दीगर खर्चे खुद उठाओ। यह बात सबीहा और सालेहा दोनों को नागवार गुजरी और उन्होंने अदालत से गुजारिश की कि उन्हें फ्लैग स्टाफ हाउस का संयुक्त स्वामी घोषित किया और माना जाए।


यह वाद हालांकि सबीहा ने दायर किया था लेकिन इस का फायदा सालेहा को भी मिला। अक्तूबर 2005 में ज़िला अदालत ने सबीहा के पक्ष में फैसला दिया जिस का फायदा सालेहा को भी मिला। जल्द ही उन का बेटा फैज बिन जंग सामान ले कर फ्लैग स्टाफ हाउस में जा कर रहने लगा। हैरत की बात यह रही कि अपने स्वभाव के विपरीत जाते मंसूर अली ख़ान ने भांजे का स्वागत किया और बहनों समेत उन के बच्चों के लिए भी कमरे आरक्षित कर दिए। एक दफा ऐसा लगा कि भाई व बहनों के बीच अब कड़वाहट खत्म हो रही है पर मामला उलट निकला। हुआ यह था कि मंसूर अली ख़ान ने गुपचुप तरीक़े से फ्लैग स्टाफ हाउस का सौदा 64 करोड़ रुपए में कर दिया था। सौदे की भनक लगते ही सबीहा फिर भड़क उठीं और इस दफा उन्होंने भाई के साथ-साथ सालेहा को भी पक्षकार बना डाला। तकरीबन 1 हजार करोड़ रुपए की जायदाद के बंटवारे को लेकर मामला फिर अधर में लटक गया है। इस दफा तीसरी पीढ़ी के वारिसों के अहं, महत्त्वाकांक्षाएं, पूर्वाग्रह, जिद और लालच आड़े आ रहे हैं। मौजूदा जायदाद के 7 वारिसों में से कोई भी समझौता करने के मूड में नहीं दिख रहा। सो, गेंद अब अदालत और सरकार के पाले में है।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. उड़ान लाइसेंस पाने वाली भारत की पहली महिला ‘आबिदा सुल्तान’ (हिंदी) तिरुमिशि ब्लॉग। अभिगमन तिथि: 25 जुलाई, 2014।
  2. भोपाल के नवाब की जायदाद सैफ ने उलझाया विवाद (हिंदी) सरिता डॉट इन। अभिगमन तिथि: 25 जुलाई, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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