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'''राइट टू रिजेक्ट''' अर्थात नकारात्मक मतदान का मतलब है अगर कोई व्यक्ति वोट देते समय मौजूदा उम्‍मीदवारों में से किसी को नहीं चुनना चाहता है तो वह 'नन ऑफ दीज' बटन का प्रयोग कर सकता है। इस अधिकार का अर्थ मतदाताओं को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में वह सुविधा और अधिकार देना जिसका इस्तेमाल करते हुए वे उम्मीदवारों को नापसंद कर सकें। यदि मतदाता को चुनाव में खड़ा कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं हो तो वह इस विकल्प को चुन सकता है।<ref name="wdh">{{cite web |url=http://hindi.webdunia.com/news-national/%E0%A4%95%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE-%E0%A4%B9%E0%A5%88-%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%87%E0%A4%9F-%E0%A4%9F%E0%A5%82-%E0%A4%B0%E0%A4%BF%E0%A4%9C%E0%A5%87%E0%A4%95%E0%A5%8D%E2%80%8D%E0%A4%9F-1130927046_1.htm |title=क्‍या है राइट टू रिजेक्‍ट..? |accessmonthday= 21 मई|accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=वेबदुनिया हिंदी |language=हिन्दी}}</ref>
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राइट टू रिजेक्ट
राइट टू रिजेक्ट
राइट टू रिजेक्ट
विवरण भारत में चुनावों का आयोजन भारतीय संविधान के तहत बनाये गये 'भारतीय निर्वाचन आयोग' द्वारा किया जाता है।
स्थापना 25 जनवरी, 1950
अधिकार क्षेत्र भारत
मुख्यालय नई दिल्ली
विशेष नकारात्मक मतदान की अवधारणा 13 देशों में प्रचलित है और भारत में भी सांसदों को संसद भवन में मतदान के दौरान ‘अलग रहने’ के लिए बटन दबाने का विकल्प मिलता है।
अन्य जानकारी भारत में राइट टू रिकॉल (चुने हुए जन-प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार) की बात सबसे पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 4 नवंबर 1974 को संपूर्ण क्रांति के दौरान कही थी।

राइट टू रिजेक्ट अर्थात नकारात्मक मतदान का मतलब है अगर कोई व्यक्ति वोट देते समय मौजूदा उम्‍मीदवारों में से किसी को नहीं चुनना चाहता है तो वह 'नन ऑफ दीज' बटन का प्रयोग कर सकता है। इस अधिकार का अर्थ मतदाताओं को इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन में वह सुविधा और अधिकार देना जिसका इस्तेमाल करते हुए वे उम्मीदवारों को नापसंद कर सकें। यदि मतदाता को चुनाव में खड़ा कोई भी उम्मीदवार पसंद नहीं हो तो वह इस विकल्प को चुन सकता है।[1]

आंदोलन

2009 में अण्णा हज़ारे की टीम ने दिल्ली में भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ आंदोलन करते समय सरकार से राइट टू रिजेक्‍ट और राइट टू रिकॉल जैसे विषय पर संसद में प्रस्‍ताव पारित कर इन्हें लागू करने की मांग की थी, जिसका सरकार को छोड़ सभी दलों ने समर्थन किया था। 2009 में ही भारतीय चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट से चुनाव में राइट टू रिजेक्‍ट विकल्प को लागू करने की मांग की थी, जिसका सरकार ने काफ़ी विरोध किया था।

भारतीय संविधान

भारतीय चुनाव अधिनियम 1961 की धारा 49-ओ के तहत संविधान में बताया गया है कि यदि कोई व्‍यक्ति वोट देते समय मौजूद उम्‍मीदवारों में से किसी को भी नहीं चुनना चाहता है, तो वह ऐसा कर सकता है। यह उसका वोट देने या ना देने का अधिकार है। हालांकि यह धारा किसी प्रत्याशी को रिजेक्ट करने की अनु‍मति नहीं देती है। उल्लेखनीय है कि नकारात्मक मतदान की अवधारणा 13 देशों में प्रचलित है और भारत में भी सांसदों को संसद भवन में मतदान के दौरान ‘अलग रहने’ के लिए बटन दबाने का विकल्प मिलता है। अत: चुनावों में प्रत्याशियों को खारिज करने का अधिकार संविधान द्वारा भारतीय नागरिकों को दिए गए बोलने एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का हिस्सा है।

राइट टू रिकॉल

भारत में राइट टू रिकॉल (चुने हुए जन-प्रतिनिधि को वापस बुलाने का अधिकार) की बात सबसे पहले लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने 4 नवंबर 1974 को संपूर्ण क्रांति के दौरान कही थी। ऐसा माना जाता है कि पुरातन समय में यूनान में एंथेनियन लोकतंत्र में राइट टू रिकॉल कानून लागू था। स्विट्‍जरलैंड, अमेरिका, वेनेजुएला और कनाडा में भी राइट टू रिकॉल कानून लागू है। अमेरिका में इस कानून की बदौलत ही कुछ गर्वनरों और मेयरों को हटाया जा चुका है। सबसे पहले स्विट्‍जरलैंड ने इसे अपनाया। स्विट्‍जरलैंड की संघीय व्यवस्था में छह प्रांतों ने इस कानून को मान्यता दे रखी है। 1903 में अमेरिका के लॉस एंजिल्स, 1908 में मिशिगन और ओरेगान में पहली बार राइट टू रिकॉल प्रांत के अधिकारियों के लिए लागू किया गया। हालांकि अमेरिका में 1631 में ही मैसाचुसेट्स बे कॉलोनी की अदालत में इस कानून को मान्यता मिल गई थी, लेकिन इसे पहली बार मिशिगन और ओरेगान में लागू किया गया। कनाडा ने 1995 में इस कानून को लागू किया।[1]



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 क्‍या है राइट टू रिजेक्‍ट..? (हिन्दी) वेबदुनिया हिंदी। अभिगमन तिथि: 21 मई, 2014।

बाहरी कड़ियाँ

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