"जब दुपहरी ज़िंदगी पर -गजानन माधव मुक्तिबोध": अवतरणों में अंतर
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फटकारता-सा काम दिन का बांटता-सा है | फटकारता-सा काम दिन का बांटता-सा है | ||
अचानक ही हमें बेखौफ करती तब | अचानक ही हमें बेखौफ करती तब | ||
हमारी भूख की मुस्तैद | हमारी भूख की मुस्तैद आँखेंं ही | ||
थका-सा दिल बहादुर रहनुमाई | थका-सा दिल बहादुर रहनुमाई | ||
पास पा के भी | पास पा के भी | ||
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चले जाते मिलों में मदरसों में | चले जाते मिलों में मदरसों में | ||
फ़तह पाने के लिए | फ़तह पाने के लिए | ||
क्या | क्या फ़तह के ये खयाल खयाल हैं | ||
क्या सिर्फ धोखा है ?.... | क्या सिर्फ धोखा है ?.... | ||
सवाल है। | सवाल है। | ||
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05:44, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
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जब दुपहरी ज़िंदगी पर गजानन माधव मुक्तिबोध की अप्रकाशित कविता है जिसका रचनाकाल लगभग 1948-50 है।
जब दुपहरी ज़िन्दगी पर रोज सूरज |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
बाहरी कड़ियाँ
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