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'''गधा रहा गधा ही''' [[पंचतंत्र]] की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता [[विष्णु शर्मा|आचार्य विष्णु शर्मा]] हैं।
;गधा रहा गधा ही
==कहानी==
 
<poem style="background:#fbf8df; padding:15px; font-size:16px; border:1px solid #003333; border-radius:5px">
एक जंगल में एक शेर रहता था। गीदड उसका सेवक था। जोडी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग-थलग रहता था। उसे गीदड जैसे चमचे की सख्त जरुरत थी जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड को बस खाने का जुगाड चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फूलकर दुगना चौडा हो जाता।
          एक जंगल में एक [[शेर]] रहता था। [[गीदड़]] उसका सेवक था। जोड़ी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग-थलग रहता था। उसे गीदड़ जैसे चमचे की सख्त जरुरत थी जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड़ को बस खाने का जुगाड़ चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड़ उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फूलकर दुगना चौड़ा हो जाता।
 
एक दिन शेर ने एक बिगडैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां-फां करते हुए शेर को सीगों से एक पेड के साथ रगड़ दिया।
एक दिन शेर ने एक बिगडैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां-फां करते हुए शेर को सीगों से एक पेड के साथ रगड दिया।
किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगो की मार से काफ़ी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, परन्तु शेर के जख्म ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था। स्वयं शिकार करना गीदड़ के बस का नहीं था। दोनों के भूखों मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड़ समाप्त होने के कारण गीदड़ उसका साथ न छोड जाए।
 
शेर ने एक दिन उसे सुझाया 'देख, जख्मों के कारण मैं दौड़ नहीं सकता। शिकार कैसे करुं? तू जाकर किसी बेवकूफ-से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाड़ी में छिपा रहूंगा।'
किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगो की मार से काफी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, परन्तु शेर के जख्म टीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था। स्वयं शिकार करना गीदड के बस का नहीं था। दोनों के भूखों मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड समाप्त होने के कारण गीदड उसका साथ न छोड जाए।
गीदड़ को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता-घूमता एक कस्बे के बाहर नदी-घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल-सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था।
 
गीदड़ गधे के निकट जाकर बोला 'पांय लागूं चाचा। बहुत कमज़ोर हो गए हो, क्या बात हैं?'
शेर ने एक दिन उसे सुझाया 'देख, जख्मों के कारण मैं दौड नहीं सकता। शिकार कैसे करुं? तु जाकर किसी बेवकूफ-से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाडी में छिपा रहूंगा।'
गधे ने अपना दुखड़ा रोया 'क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर हैं। दिन भर ढुलाई करवाता हैं और चारा कुछ देता नहीं।'
 
गीदड़ ने उसे न्यौता दिया 'चाचा, मेरे साथ जंगल चलो न, वहां बहुत हरी-हरी घास हैं। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।'
गीदड को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता-घूमता एक कस्बे के बाहर नदी-घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल-सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था।
 
गीदड गधे के निकट जाकर बोला 'पांय लागूं चाचा। बहुत कमजोर हो अए हो, क्या बात हैं?'
 
गधे ने अपना दुखडा रोया 'क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर हैं। दिन भर ढुलाई करवाता हैं और चारा कुछ देता नहीं।'
 
गीदड ने उसे न्यौता दिया 'चाचा, मेरे साथ जंगल चलो न, वहां बहुत हरी-हरी घास हैं। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।'
 
गधे ने कान फडफडाए 'राम राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।'
गधे ने कान फडफडाए 'राम राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।'
'चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं। अब कोई किसी को नहीं खाता।' गीदड़ बोला और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका 'चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी। वहां हरी-हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई है तुम उसके साथ घर बसा लेना।'
गधे के दिमाग पर हरी-हरी घास और घर बसाने के सुनहरे सपने छाने लगे। वह गीदड़ के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गीदड़ गधे को उसी झाडी के पास ले गया, जिसमें शेर छिपा बैठा था। इससे पहले कि शेर पंजा मारता, गधे को झाड़ी में शेर की नीली बत्तियों की तरह चमकती आँखें नजर आ गईं। वह डरकर उछला, गधा भागा और भागता ही गया। शेर बुझे स्वर में गीदड़ से बोला 'भई, इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम उसे दोबारा लाओ इस बार ग़लती नहीं होगी।'
गीदड़ दोबारा उस गधे की तलाश में कस्बे में पहुंचा। उसे देखते ही बोला 'चाचा, तुमने तो मेरी नाक कटवा दी। तुम अपनी दुल्हन से डरकर भाग गए?'
'उस झाड़ी में मुझे दो चमकती आँखें दिखाई दी थी, जैसे शेर की होती हैं। मैं भागता न तो क्या करता?' गधे ने शिकायत की।
गीदड़ झूठमूठ माथा पीटकर बोला 'चाचा ओ चाचा! तुम भी निरे मूर्ख हो। उस झाड़ी में तुम्हारी दुल्हन थी। जाने कितने जन्मों से वह तुम्हारी राह देख रही थी। तुम्हें देखकर उसकी आँखें चमक उठी तो तुमने उसे शेर समझ लिया?'
गधा बहुत लज्जित हुआ, गीदड़ की चाल-भरी बातें ही ऐसी थी। गधा फिर उसके साथ चल पडा। जंगल में झाड़ी के पास पहुंचते ही शेर ने नुकीले पंजों से उसे मार गिराया। इस प्रकार शेर व गीदड़ का भोजन जुटा।


'चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं। अब कोई किसी को नहीं खाता।' गीदड बोला और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका 'चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी। वहां हरी=हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई हैं तुम उसके साथ घर बसा लेना।'
;सीख- दूसरों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आने की मूर्खता कभी नहीं करनी चाहिए।  
 
गधे के दिमाग पर हरी-हरी घास और घर बसाने के सुनहरे सपने छाने लगे। वह गीदड के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गीदड गधे को उसी झाडी के पास ले गया, जिसमें शेर छिपा बैठा था।इससे पहले कि शेर पंजा मारता, गधे को झाडी में शेर की नीली बत्तियों की टरह चमकती आंखे नजर आ गईं। वह डरकर उछला गधा भागा और भागताही गया। शेर बुझे स्वर में गीदड से बोला 'भई, इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम उसे दोबारा लाओ इस बार गलती नहीं होगी।'
 
गीदड दोबारा उस गधे की तलाश में कस्बे में पहुंचा। उसे देखते ही बोला 'चाचा, तुमने तो मेरी नाक कटवा दी। तुम अपनी दुल्हन से डरकर भाग गए?'
 
'उस झाडी में मुझे दो चमकती आंखे दिखाई दी थी, जैसे शेर की होती हैं। मैं भागता न तो क्या करता?' गधे ने शिकायत की।
 
गीदड झूठमूठ माथा पीटकर बोला 'चाचा ओ चाचा! तुम भी निरे मूर्ख हो। उस झाडी में तुम्हारी दुल्हन थी। जाने कितने जन्मों से वह तुम्हारी राह देख रही थी। तुम्हें देखकर उसकी आंखे चमक उठी तो तुमने उसे शेर समझ लिया?'
 
गधा बहुत लज्जित हुआ, गीदड की चाल-भरी बातें ही ऐसी थी। गधा फिर उसके साथ चल पडा। जंगल में झाडी के पास पहुंचते ही शेर ने नुकीले पंजो से उसे मार गिराया। इस प्रकार शेर व गीदड का भोजन जुटा।
 
'''सीखः''' -- दूसरों की चिकनी-चुपडी बातों में आने की मूर्खता कभी नहीं करनी चाहिए।  
 




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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
 
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05:49, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

गधा रहा गधा ही पंचतंत्र की प्रसिद्ध कहानियों में से एक है जिसके रचयिता आचार्य विष्णु शर्मा हैं।

कहानी

          एक जंगल में एक शेर रहता था। गीदड़ उसका सेवक था। जोड़ी अच्छी थी। शेरों के समाज में तो उस शेर की कोई इज्जत नहीं थी, क्योंकि वह जवानी में सभी दूसरे शेरों से युद्ध हार चुका था, इसलिए वह अलग-थलग रहता था। उसे गीदड़ जैसे चमचे की सख्त जरुरत थी जो चौबीस घंटे उसकी चमचागिरी करता रहे। गीदड़ को बस खाने का जुगाड़ चाहिए था। पेट भर जाने पर गीदड़ उस शेर की वीरता के ऐसे गुण गाता कि शेर का सीना फूलकर दुगना चौड़ा हो जाता।
एक दिन शेर ने एक बिगडैल जंगली सांड का शिकार करने का साहस कर डाला। सांड बहुत शक्तिशाली था। उसने लात मारकर शेर को दूर फेंक दिया, जब वह उठने को हुआ तो सांड ने फां-फां करते हुए शेर को सीगों से एक पेड के साथ रगड़ दिया।
किसी तरह शेर जान बचाकर भागा। शेर सींगो की मार से काफ़ी जख्मी हो गया था। कई दिन बीते, परन्तु शेर के जख्म ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। ऐसी हालत में वह शिकार नहीं कर सकता था। स्वयं शिकार करना गीदड़ के बस का नहीं था। दोनों के भूखों मरने की नौबत आ गई। शेर को यह भी भय था कि खाने का जुगाड़ समाप्त होने के कारण गीदड़ उसका साथ न छोड जाए।
शेर ने एक दिन उसे सुझाया 'देख, जख्मों के कारण मैं दौड़ नहीं सकता। शिकार कैसे करुं? तू जाकर किसी बेवकूफ-से जानवर को बातों में फंसाकर यहां ला। मैं उस झाड़ी में छिपा रहूंगा।'
गीदड़ को भी शेर की बात जंच गई। वह किसी मूर्ख जानवर की तलाश में घूमता-घूमता एक कस्बे के बाहर नदी-घाट पर पहुंचा। वहां उसे एक मरियल-सा गधा घास पर मुंह मारता नजर आया। वह शक्ल से ही बेवकूफ लग रहा था।
गीदड़ गधे के निकट जाकर बोला 'पांय लागूं चाचा। बहुत कमज़ोर हो गए हो, क्या बात हैं?'
गधे ने अपना दुखड़ा रोया 'क्या बताऊं भाई, जिस धोबी का मैं गधा हूं, वह बहुत क्रूर हैं। दिन भर ढुलाई करवाता हैं और चारा कुछ देता नहीं।'
गीदड़ ने उसे न्यौता दिया 'चाचा, मेरे साथ जंगल चलो न, वहां बहुत हरी-हरी घास हैं। खूब चरना तुम्हारी सेहत बन जाएगी।'
गधे ने कान फडफडाए 'राम राम। मैं जंगल में कैसे रहूंगा? जंगली जानवर मुझे खा जाएंगे।'
'चाचा, तुम्हें शायद पता नहीं कि जंगल में एक बगुला भगतजी का सत्संग हुआ था। उसके बाद सारे जानवर शाकाहारी बन गए हैं। अब कोई किसी को नहीं खाता।' गीदड़ बोला और कान के पास मुंह ले जाकर दाना फेंका 'चाचू, पास के कस्बे से बेचारी गधी भी अपने धोबी मालिक के अत्याचारों से तंग आकर जंगल में आ गई थी। वहां हरी-हरी घास खाकर वह खूब लहरा गई है तुम उसके साथ घर बसा लेना।'
गधे के दिमाग पर हरी-हरी घास और घर बसाने के सुनहरे सपने छाने लगे। वह गीदड़ के साथ जंगल की ओर चल दिया। जंगल में गीदड़ गधे को उसी झाडी के पास ले गया, जिसमें शेर छिपा बैठा था। इससे पहले कि शेर पंजा मारता, गधे को झाड़ी में शेर की नीली बत्तियों की तरह चमकती आँखें नजर आ गईं। वह डरकर उछला, गधा भागा और भागता ही गया। शेर बुझे स्वर में गीदड़ से बोला 'भई, इस बार मैं तैयार नहीं था। तुम उसे दोबारा लाओ इस बार ग़लती नहीं होगी।'
गीदड़ दोबारा उस गधे की तलाश में कस्बे में पहुंचा। उसे देखते ही बोला 'चाचा, तुमने तो मेरी नाक कटवा दी। तुम अपनी दुल्हन से डरकर भाग गए?'
'उस झाड़ी में मुझे दो चमकती आँखें दिखाई दी थी, जैसे शेर की होती हैं। मैं भागता न तो क्या करता?' गधे ने शिकायत की।
गीदड़ झूठमूठ माथा पीटकर बोला 'चाचा ओ चाचा! तुम भी निरे मूर्ख हो। उस झाड़ी में तुम्हारी दुल्हन थी। जाने कितने जन्मों से वह तुम्हारी राह देख रही थी। तुम्हें देखकर उसकी आँखें चमक उठी तो तुमने उसे शेर समझ लिया?'
गधा बहुत लज्जित हुआ, गीदड़ की चाल-भरी बातें ही ऐसी थी। गधा फिर उसके साथ चल पडा। जंगल में झाड़ी के पास पहुंचते ही शेर ने नुकीले पंजों से उसे मार गिराया। इस प्रकार शेर व गीदड़ का भोजन जुटा।

सीख- दूसरों की चिकनी-चुपड़ी बातों में आने की मूर्खता कभी नहीं करनी चाहिए।


टीका टिप्पणी और संदर्भ

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