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'''आनंदरघुनंदन''' [[रीवा]] नरेश [[महाराज विश्वनाथ सिंह]] कृत एक [[नाटक]] है जो [[हिन्दी]] नाट्य साहित्य की एक विशेष | '''आनंदरघुनंदन''' [[रीवा]] नरेश [[महाराज विश्वनाथ सिंह]] कृत एक [[नाटक]] है जो [[हिन्दी]] नाट्य साहित्य की एक विशेष श्रृंखला है और हिन्दी जगत् में इसे मान भी बहुत मिला है। अनेक विद्वानों ने इसे हिन्दी का प्रथम नाटक माना है।<ref>हिन्दी साहित्य का इतिहास, [[रामचन्द्र शुक्ल|पं. रामचन्द्र शुक्ल]], 2009 वि.पृ. 345; हिन्दी नाटक साहित्य, वेदपाल खन्ना, पृ.सं. 22; हिन्दी नाटक साहित्य का इतिहास, डॉ. सोमनाथ गुप्त, पृ. सं. 6)</ref> इसका कारण यह है कि इस नाटक में नान्दी, विष्कम्भक, भरत-वाक्य के साथ-साथ रंग-निर्देश भी प्रयुक्त हुए हैं जो [[संस्कृत]] में दिये गये हैं। साथ ही [[ब्रजभाषा]] गद्य का प्रयोग हुआ है और भाषा वैभिन्य भी है। इन्हीं कारणों से इसे हिन्दी का प्रथम नाटक माना गया है। | ||
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* इस नाटक का ऐतिहासिक मूल्य है, अन्यथा नाटक की दृष्टि से यह उत्कृष्ट रचना नहीं है और इसमें अनेक दोष है। इस नाटक का सबसे बड़ा दोष है इसकी दुर्बोधता। इस दुर्बोधता का प्रधान कारण है, इसके पात्रों के नाम, जो अर्थानुसार रखे गए हैं। कुछ पात्रों के प्रयुक्त नाम नीचे दिए जा रहे हैं- | * इस नाटक का ऐतिहासिक मूल्य है, अन्यथा नाटक की दृष्टि से यह उत्कृष्ट रचना नहीं है और इसमें अनेक दोष है। इस नाटक का सबसे बड़ा दोष है इसकी दुर्बोधता। इस दुर्बोधता का प्रधान कारण है, इसके पात्रों के नाम, जो अर्थानुसार रखे गए हैं। कुछ पात्रों के प्रयुक्त नाम नीचे दिए जा रहे हैं- | ||
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10:27, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
आनंदरघुनंदन रीवा नरेश महाराज विश्वनाथ सिंह कृत एक नाटक है जो हिन्दी नाट्य साहित्य की एक विशेष श्रृंखला है और हिन्दी जगत् में इसे मान भी बहुत मिला है। अनेक विद्वानों ने इसे हिन्दी का प्रथम नाटक माना है।[1] इसका कारण यह है कि इस नाटक में नान्दी, विष्कम्भक, भरत-वाक्य के साथ-साथ रंग-निर्देश भी प्रयुक्त हुए हैं जो संस्कृत में दिये गये हैं। साथ ही ब्रजभाषा गद्य का प्रयोग हुआ है और भाषा वैभिन्य भी है। इन्हीं कारणों से इसे हिन्दी का प्रथम नाटक माना गया है।
गुण-दोष
- इस नाटक का ऐतिहासिक मूल्य है, अन्यथा नाटक की दृष्टि से यह उत्कृष्ट रचना नहीं है और इसमें अनेक दोष है। इस नाटक का सबसे बड़ा दोष है इसकी दुर्बोधता। इस दुर्बोधता का प्रधान कारण है, इसके पात्रों के नाम, जो अर्थानुसार रखे गए हैं। कुछ पात्रों के प्रयुक्त नाम नीचे दिए जा रहे हैं-
रामायण के पात्र | नाटक में प्रयुक्त नाम |
---|---|
दशरथ | दिग्वान |
राम | हितकारी |
भरत | डहडह-जगकारी |
लक्ष्मण | डीन धराधर |
शत्रुघ्न | डित्रींदर |
वसिष्ठ | जगधोनिज |
विश्वामित्र | भुवनहित |
जनक | शीलकेतु |
सीता | महिबा |
बाणासुर | सुरासुर |
रावण | दिग्शिर |
दुर्बोधता का दूसरा कारण है संस्कृत का अत्यधिक प्रयोग तथा कई भाषाओं का प्रयोग।
- नाटक का कथानक शिथिल एवं विश्रृंखल है। इसका कारण है नाटककार का यह प्रयास कि राम की पूरी कथा को समेट बिना जाय। फलत: पात्रों के चरित्र पूर्णत: स्पष्ट नहीं हो पाये हैं।
- नाटककार ने देश-काल का ध्यान नहीं रखा है। संस्कृत, प्राकृत, भोजपुरी, मैथिली, बांग्ला, कर्नाटकी एवं पैशाची के साथ-साथ अंग्रेज़ी और फ़ारसी भाषाओं का भी प्रयोग किया है।
- नाटक में सरलता, सरसता और प्राञ्जलता नहीं है। ब्रजभाषा के अन्य अनेक नाटकों की (करुणा भरण, हनुमान् नाटक, शकुंतला नाटक) कविता सरस है। इस नाटक की कविता या इसके गीतों में वह सरसता नहीं मिलती। इसका कारण हैं कि नाटककार कथा को दौड़ा रहा है, काव्य-कल्पना का प्रयोग करने का उसे अवसर नहीं है।
- नाटककार ने इसकी रचना पढ़ने और सुनने के लिए की थी, यथा- "सो नाटक आनन्द रघुनन्दन भाषा रचि है आउ पढ़ाऊँ" (प्रस्तावना)।
सूत्रधार- "अब होनहार आनंद रघुनन्दन नाम नाटक प्रकार पढ़िवे को मेरी मति त्वरा करे है।" गुरु- "वत्स भली कही, पढ़ि ही लेहु" (प्रस्तावना)। भले ही यह पढ़ने के लिए ही रचा गया हो, फिर भी इसमें काव्यत्व भरा जा सकता था।
- नाटककार ने औचित्य का भी ध्यान नहीं रखा है और राम के राज्य-तिलक के समय राम-सीता के सम्मुख अप्सराएँ, नाच-नाचकर स्वकीया, मुग्धा, ज्ञात यौवना, अज्ञात यौवना, धीरा, अधीरा, नवोढ़ा, प्रौढ़ा गुप्ता, क्रियाविदग्या, कुलटा मुदिता, लक्षिता, अनुगमना, गणिका इत्यादि 35 नायिकाओं के लक्षण बताती हैं।[2]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी साहित्य का इतिहास, पं. रामचन्द्र शुक्ल, 2009 वि.पृ. 345; हिन्दी नाटक साहित्य, वेदपाल खन्ना, पृ.सं. 22; हिन्दी नाटक साहित्य का इतिहास, डॉ. सोमनाथ गुप्त, पृ. सं. 6)
- ↑ पुस्तक- हिन्दी साहित्य कोश भाग-2 | सम्पादक- धीरेंद्र वर्मा (प्रधान) | प्रकाशन- ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी | पृष्ठ संख्या- 34
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