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'''व्यावहारिक जीवन में एकेश्वरवाद''' की प्रधानता होते हुए भी पारमार्थिक और आध्यात्मिक अनुभूति की दृष्टि से इसका पर्यवसान अद्वैतवाद में होता है-अद्वैतवाद अर्थात् मानव के व्यक्तित्व का विश्वात्मा में पूर्ण विलय। जागतिक सम्बन्ध से एकेश्वरवाद के कई रूप हैं, जो निम्न हैं- | '''व्यावहारिक जीवन में एकेश्वरवाद''' की प्रधानता होते हुए भी पारमार्थिक और आध्यात्मिक अनुभूति की दृष्टि से इसका पर्यवसान अद्वैतवाद में होता है-अद्वैतवाद अर्थात् मानव के व्यक्तित्व का विश्वात्मा में पूर्ण विलय। जागतिक सम्बन्ध से एकेश्वरवाद के कई रूप हैं, जो निम्न हैं- | ||
#'''सर्वेश्वरवाद''' - इसका अर्थ यह है कि | #'''सर्वेश्वरवाद''' - इसका अर्थ यह है कि जगत् में जो कुछ भी है, वह ईश्वर ही है और ईश्वर सम्पूर्ण जगत् में ओत-प्रोत है। [[ऋग्वेद]] के पुरुषसूक्त में सर्वेश्वरवाद का एक रूपक के माध्यम से विशद वर्णन है। उपनिषदों में '''सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन''', भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन है। परन्तु भारतीय सर्वेश्वरवाद पाश्चाम्य ‘पैनथिइज्म’ नहीं है। पैनथिइज्म में ईश्वर अपने को जगत् में समाप्त कर देता है। भारतीय सर्वेश्वर जगत् को अपने एक अंश से व्याप्त कर अनन्त विस्तार में उसका अतिरेक कर जाता है। वह अन्तर्यामी और अतिरेकी दोनों है। | ||
#'''ईश्वर कारणतावाद''' - इसके अनुसार ईश्वर | #'''ईश्वर कारणतावाद''' - इसके अनुसार ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है। जगत् का उपादान कारण प्रकृति है। ईश्वर जगत् की सृष्टि करके उससे अलग हो जाता है और जगत् अपनी कर्मश्रृंखला से चलता रहता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन इसी बात को मानते हैं। | ||
#'''शुद्ध ईश्वरवाद''' - इसके अनुसार ईश्वर सर्वेश्वर और [[ब्रह्मा]] के स्वरूप को भी अपने में आत्मसात कर लेता है। वह सर्वत्र व्याप्त, अन्तर्यामी तथा अतिरेकी और | #'''शुद्ध ईश्वरवाद''' - इसके अनुसार ईश्वर सर्वेश्वर और [[ब्रह्मा]] के स्वरूप को भी अपने में आत्मसात कर लेता है। वह सर्वत्र व्याप्त, अन्तर्यामी तथा अतिरेकी और जगत् का कर्ता-धर्ता, संहर्ता, जगत् का सर्वस्व और आराध्य है। इसी को [[श्रीमद्भागवदगीता|श्रीमदभागवत]] [[वैष्णव]] तथा [[शैव]] भक्त इसी ईश्वरवाद में विश्वास करते हैं। सगुणोपासक वैष्णव तथा शैव भक्त इसी ईश्वरवाद में विश्वास करते हैं। | ||
#'''योगेश्वरवाद''' - इसके अनुसार ईश्वर वह पुरुष है, जो कर्म, कर्मफल तथा कर्माशय (कर्मफल के [[संस्कार]]) से मुक्त रहता है। उसमें ऐश्वर्य और ज्ञान की पराकाष्ठा होती है, जो मानव का आदि गुरु और गुरुओं का भी गुरु है। योगसूत्र की भोजवृत्ति के अनुसार ईश्वर योगियों का सहायक है। उनकी साधना के मार्ग में जो बिघ्न बाधा उपस्थित होती हैं, उन्हें वह दूर करता है और उनकी समाधि सिद्धि में सहायता करता है। तारक ज्ञान का वही दाता है। परन्तु इस वाद में ईश्वर | #'''योगेश्वरवाद''' - इसके अनुसार ईश्वर वह पुरुष है, जो कर्म, कर्मफल तथा कर्माशय (कर्मफल के [[संस्कार]]) से मुक्त रहता है। उसमें ऐश्वर्य और ज्ञान की पराकाष्ठा होती है, जो मानव का आदि गुरु और गुरुओं का भी गुरु है। योगसूत्र की भोजवृत्ति के अनुसार ईश्वर योगियों का सहायक है। उनकी साधना के मार्ग में जो बिघ्न बाधा उपस्थित होती हैं, उन्हें वह दूर करता है और उनकी समाधि सिद्धि में सहायता करता है। तारक ज्ञान का वही दाता है। परन्तु इस वाद में ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं और न प्रकृति और पुरुषों में सर्वत्र व्याप्त, वह केवल उपदेष्टा और गुरु है। | ||
==उदयनाचार्य के प्रमाण== | ==उदयनाचार्य के प्रमाण== | ||
'''एकेश्वरवाद में ईश्वरकारणतावाद''' (ईश्वर | '''एकेश्वरवाद में ईश्वरकारणतावाद''' (ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है) के समर्थन में नैयायिकों ने बहुत से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। उदयनाचार्य ने जो प्रमाण दिए हैं, उनमें तीन मुख्य हैं- | ||
*प्रथम है, ‘जगत की कार्यता’। इसका अर्थ यह है कि | *प्रथम है, ‘जगत की कार्यता’। इसका अर्थ यह है कि जगत् कार्य है, अत: इसका कोई न कोई कारण होना चाहिए और उसे कार्य-कारण-श्रृंखला से परे होना चाहिए। वह है ईश्वर। | ||
*दूसरा प्रमाण है ‘जगत का आयोजनत्व’, | *दूसरा प्रमाण है ‘जगत का आयोजनत्व’, अर्थात् जगत् के सम्पूर्ण कार्यों में एक क्रम अथवा योजना दिखाई पड़ती है। यह योजना जड़ से नहीं उत्पन्न हो सकती। इसकी संयोजक कोई चेतन सत्ता होनी चाहिए। वह सत्ता ईश्वर के अतिरिक्त दूसरी नहीं हो सकती। | ||
*तीसरा प्रमाण है ‘कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध’, अर्थात् दोनों में एक प्रकार का नैतिक सम्बन्ध। इस नैतिक सम्बन्ध का कोई विधायक होना चाहिए। एक स्थायी नियन्ता की कल्पना के बिना इस व्यवस्था का निर्वाह नहीं हो सकता। यह नियन्ता ईश्वर ही हो सकता है। | *तीसरा प्रमाण है ‘कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध’, अर्थात् दोनों में एक प्रकार का नैतिक सम्बन्ध। इस नैतिक सम्बन्ध का कोई विधायक होना चाहिए। एक स्थायी नियन्ता की कल्पना के बिना इस व्यवस्था का निर्वाह नहीं हो सकता। यह नियन्ता ईश्वर ही हो सकता है। | ||
==ईश्वर की सिद्धि== | ==ईश्वर की सिद्धि== |
11:33, 9 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
- शाब्दिक अर्थ
वह सिद्धांत जिसमें एक ईश्वर को ही संसार का सृजन और नियमन करने वाली सर्वोच्च शक्ति माना जाता है, यह सिद्धांत कि इस जगत् का कर्ता-धर्ता और सबका उपास्य एक ही ईश्वर है। एकेश्वरवाद से अभिप्राय: है कि, बहुत-से देवताओं की अपेक्षा एक ही ईश्वर को मानना। इस धार्मिक अथवा दार्शनिक वाद के अनुसार कोई एक सत्ता है, जो विश्व का सर्जन और नियंत्रण करती है, जो नित्य ज्ञान और आनन्द का आश्रय है, जो पूर्ण और सभी गुणों का आगार है और जो सबका ध्यानकेन्द्र और आराध्य है।
एकेश्वरवाद का उदय
यद्यपि विश्व के मूल में रहने वाली सत्ता के विषय में कई भारतीयवाद हैं, जिनमें एकत्ववाद और अद्वैतवाद बहुत प्रसिद्ध हैं। तथापि एकेश्वरवाद का उदय भारत में, ऋग्वैदिक काल से ही पाया जाता है। अधिकांश यूरोपवासी प्राच्यविद, जो भारतीय दैवततत्त्व को समझने में असमर्थ हैं और जिनको एक-अनेक में बराबर विरोध ही दिखाई पड़ता है, ऋग्वेद के सिद्धान्त को बहुदेववादी मानते हैं। भारतीय विचारधारा के अनुसार विविध देवता एक ही देव के विविध रूप हैं। अत: चाहे जिस देव की उपासना की जाए वह अन्त में जाकर एक ही देव को अर्पित होती है। ऋग्वेद में वरुण, इन्द्र, विष्णु, विराट् पुरुष, प्रजापति आदि का यही रहस्य बतलाया गया है।
प्रमाण
उपनिषदों में अद्वैतवाद के रूप में एकेश्वरवाद का वर्णन पाया जाता है। उपनिषदों का सगुण ब्रह्मा ही ईश्वर है, यद्यपि उसकी सत्ता व्यावहारिक मानी गई है, पारमार्थिक नहीं। महाभारत में (विशेष कर भगवदगीता में) ईश्वरवाद का सुन्दर विवेचन पाया जाता है। षड्दर्शनों में न्याय, वैशेषिक, योग और वेदान्त एकेश्वरसिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं। पुराणों में तो ईश्वर के अस्तित्व का ही नहीं, किन्तु उसकी भक्ति, साधना और पूजा का अपरिमित विकास हुआ। विशेषकर विष्णुपुराण और श्रीमदभागवत ईश्वरवाद के प्रबल पुरस्कर्ता हैं। वैष्णव, शैव तथा शाक्त सम्प्रदायों में भी एकेश्वरवाद की प्रधानता रही है। इस प्रकार ऋग्वेदकाल से लेकर आज तक भारत में एकेश्वरवाद प्रतिष्ठित है।
एकेश्वरवाद के रूप
व्यावहारिक जीवन में एकेश्वरवाद की प्रधानता होते हुए भी पारमार्थिक और आध्यात्मिक अनुभूति की दृष्टि से इसका पर्यवसान अद्वैतवाद में होता है-अद्वैतवाद अर्थात् मानव के व्यक्तित्व का विश्वात्मा में पूर्ण विलय। जागतिक सम्बन्ध से एकेश्वरवाद के कई रूप हैं, जो निम्न हैं-
- सर्वेश्वरवाद - इसका अर्थ यह है कि जगत् में जो कुछ भी है, वह ईश्वर ही है और ईश्वर सम्पूर्ण जगत् में ओत-प्रोत है। ऋग्वेद के पुरुषसूक्त में सर्वेश्वरवाद का एक रूपक के माध्यम से विशद वर्णन है। उपनिषदों में सर्व खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन, भी इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन है। परन्तु भारतीय सर्वेश्वरवाद पाश्चाम्य ‘पैनथिइज्म’ नहीं है। पैनथिइज्म में ईश्वर अपने को जगत् में समाप्त कर देता है। भारतीय सर्वेश्वर जगत् को अपने एक अंश से व्याप्त कर अनन्त विस्तार में उसका अतिरेक कर जाता है। वह अन्तर्यामी और अतिरेकी दोनों है।
- ईश्वर कारणतावाद - इसके अनुसार ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है। जगत् का उपादान कारण प्रकृति है। ईश्वर जगत् की सृष्टि करके उससे अलग हो जाता है और जगत् अपनी कर्मश्रृंखला से चलता रहता है। न्याय और वैशेषिक दर्शन इसी बात को मानते हैं।
- शुद्ध ईश्वरवाद - इसके अनुसार ईश्वर सर्वेश्वर और ब्रह्मा के स्वरूप को भी अपने में आत्मसात कर लेता है। वह सर्वत्र व्याप्त, अन्तर्यामी तथा अतिरेकी और जगत् का कर्ता-धर्ता, संहर्ता, जगत् का सर्वस्व और आराध्य है। इसी को श्रीमदभागवत वैष्णव तथा शैव भक्त इसी ईश्वरवाद में विश्वास करते हैं। सगुणोपासक वैष्णव तथा शैव भक्त इसी ईश्वरवाद में विश्वास करते हैं।
- योगेश्वरवाद - इसके अनुसार ईश्वर वह पुरुष है, जो कर्म, कर्मफल तथा कर्माशय (कर्मफल के संस्कार) से मुक्त रहता है। उसमें ऐश्वर्य और ज्ञान की पराकाष्ठा होती है, जो मानव का आदि गुरु और गुरुओं का भी गुरु है। योगसूत्र की भोजवृत्ति के अनुसार ईश्वर योगियों का सहायक है। उनकी साधना के मार्ग में जो बिघ्न बाधा उपस्थित होती हैं, उन्हें वह दूर करता है और उनकी समाधि सिद्धि में सहायता करता है। तारक ज्ञान का वही दाता है। परन्तु इस वाद में ईश्वर जगत् का कर्ता नहीं और न प्रकृति और पुरुषों में सर्वत्र व्याप्त, वह केवल उपदेष्टा और गुरु है।
उदयनाचार्य के प्रमाण
एकेश्वरवाद में ईश्वरकारणतावाद (ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है) के समर्थन में नैयायिकों ने बहुत से प्रमाण प्रस्तुत किए हैं। उदयनाचार्य ने जो प्रमाण दिए हैं, उनमें तीन मुख्य हैं-
- प्रथम है, ‘जगत की कार्यता’। इसका अर्थ यह है कि जगत् कार्य है, अत: इसका कोई न कोई कारण होना चाहिए और उसे कार्य-कारण-श्रृंखला से परे होना चाहिए। वह है ईश्वर।
- दूसरा प्रमाण है ‘जगत का आयोजनत्व’, अर्थात् जगत् के सम्पूर्ण कार्यों में एक क्रम अथवा योजना दिखाई पड़ती है। यह योजना जड़ से नहीं उत्पन्न हो सकती। इसकी संयोजक कोई चेतन सत्ता होनी चाहिए। वह सत्ता ईश्वर के अतिरिक्त दूसरी नहीं हो सकती।
- तीसरा प्रमाण है ‘कर्म और कर्मफल का सम्बन्ध’, अर्थात् दोनों में एक प्रकार का नैतिक सम्बन्ध। इस नैतिक सम्बन्ध का कोई विधायक होना चाहिए। एक स्थायी नियन्ता की कल्पना के बिना इस व्यवस्था का निर्वाह नहीं हो सकता। यह नियन्ता ईश्वर ही हो सकता है।
ईश्वर की सिद्धि
योगसूत्र में ईश्वर की सिद्धि के लिए एक और प्रमाण मिलता है, वह है सृष्टि में ज्ञान का तारतम्य (अनेक प्राणियों में ज्ञान की न्यूनाधिक मात्रा)। इस ज्ञान की कहीं न कहीं पराकाष्ठा होनी चाहिए। वह ईश्वर में ही सम्भव है। सबसे बड़ा प्रमाण है, सन्त और महात्माओं, ऋषि-मुनियों का साक्षात् अनुभव, जिन्होंने स्वत: ईश्वरानुभूति की है। ही आत्मनिष्ठ होना है।
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तिरछा पाठ
टीका टिप्पणी और संदर्भ
पाण्डेय, डॉ. राजबली हिन्दू धर्मकोश (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, लखनऊ, पृष्ठ सं 142।