"हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का आत्म परिचय": अवतरणों में अंतर
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[[हज़ारी प्रसाद द्विवेदी]] ने [[1940]] में एक बार आत्म परिचय मांगे जाने पर [[तुलसीदास|तुलसी]] के जीवन का उल्लेख करते हुए, आत्म-उपहास की शैली में एक फक्कड़ाना | [[हज़ारी प्रसाद द्विवेदी]] ने [[1940]] में एक बार आत्म परिचय मांगे जाने पर [[तुलसीदास|तुलसी]] के जीवन का उल्लेख करते हुए, आत्म-उपहास की शैली में एक फक्कड़ाना अंदाज़में अपना परिचय दिया, जो न केवल उनके व्यक्तित्व को उद्घाटित करता है, बल्कि [[साहित्य]] और जीवन के प्रति उनके रवैये और उनकी [[हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की भाषा-शैली|भाषा-शैली]] का भी प्रतिनिधित्व करता है। उसे यहाँ उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा। | ||
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"[[विक्रम संवत|विक्रम]] की बीसवीं शताब्दी की दूसरी तिहाई खत्म भी नहीं होने पायी थी कि धराधाम में अवतीर्ण हो गया। जन्म उसी अभुक्तमूल नक्षत्र में हुआ था, जिसमें पैदा होने की सजा के रूप में कहते हैं, बाबा तुलसीदास के [[माता]]-[[पिता]] ने जनमते ही उन्हें कहीं फेंक दिया था। हज़ारी प्रसाद तुलसीदास से अधिक भाग्यशाली हैं। पहले जन्म के बाद माँ-बाप ने शांति स्वस्त्ययन के बाद उसे स्वीकार कर लिया, पर द्विजत्व की प्राप्ति के बाद अर्थात् विश्वविद्यालय के समावर्तन के पश्चात् मातृभूमि वाले प्रान्त ने, जो उठाकर बाहर फेंका सो अभी बंगाल में ही पड़ा है। अभी भी जीता चल रहा है और आदमी सब मिलाकर बुरा नहीं है। भाग्य का सांढ़ जन्म से ही है, क्योंकि बूढ़ों ने उसे जो नाम शुरू से दिया था, वह एक जबर्दस्त घटना के कारण हमेशा के लिए विस्मृति के अपार सागर में डूब गया। कहीं से घर वालों को हजार रुपये की आमदनी हो गयी और जनसाधारण ने इस अपरम्पार धनराशि के ऐतिहासिक महत्व को स्थायी बना रखने के लिए 'हजारी' नाम दे दिया। आदमी, जैसा कि शुरू में ही कहा गया है, बुरा नहीं है, थोड़ा कृतज्ञ भी है। इस डेमोक्रेसी के खतरे के युग में भी जन साधारण के दिए हुए नाम को 'प्रसाद' के रूप में अब भी ढोये जा रहा है। यद्यपि जन्म के बाद अब तक उसका यह नाम Contradiction in terms ही रहा है। इस युग में यह कम कृतज्ञता की बात नहीं कही जायेगी। सो ऐसा है, यह हजारी प्रसाद।"<ref>दूसरी परंपरा की खोज'- नामवर सिंह</ref> | "[[विक्रम संवत|विक्रम]] की बीसवीं शताब्दी की दूसरी तिहाई खत्म भी नहीं होने पायी थी कि धराधाम में अवतीर्ण हो गया। जन्म उसी अभुक्तमूल नक्षत्र में हुआ था, जिसमें पैदा होने की सजा के रूप में कहते हैं, बाबा तुलसीदास के [[माता]]-[[पिता]] ने जनमते ही उन्हें कहीं फेंक दिया था। हज़ारी प्रसाद तुलसीदास से अधिक भाग्यशाली हैं। पहले जन्म के बाद माँ-बाप ने शांति स्वस्त्ययन के बाद उसे स्वीकार कर लिया, पर द्विजत्व की प्राप्ति के बाद अर्थात् विश्वविद्यालय के समावर्तन के पश्चात् मातृभूमि वाले प्रान्त ने, जो उठाकर बाहर फेंका सो अभी बंगाल में ही पड़ा है। अभी भी जीता चल रहा है और आदमी सब मिलाकर बुरा नहीं है। भाग्य का सांढ़ जन्म से ही है, क्योंकि बूढ़ों ने उसे जो नाम शुरू से दिया था, वह एक जबर्दस्त घटना के कारण हमेशा के लिए विस्मृति के अपार सागर में डूब गया। कहीं से घर वालों को हजार रुपये की आमदनी हो गयी और जनसाधारण ने इस अपरम्पार धनराशि के ऐतिहासिक महत्व को स्थायी बना रखने के लिए 'हजारी' नाम दे दिया। आदमी, जैसा कि शुरू में ही कहा गया है, बुरा नहीं है, थोड़ा कृतज्ञ भी है। इस डेमोक्रेसी के खतरे के युग में भी जन साधारण के दिए हुए नाम को 'प्रसाद' के रूप में अब भी ढोये जा रहा है। यद्यपि जन्म के बाद अब तक उसका यह नाम Contradiction in terms ही रहा है। इस युग में यह कम कृतज्ञता की बात नहीं कही जायेगी। सो ऐसा है, यह हजारी प्रसाद।"<ref>दूसरी परंपरा की खोज'- नामवर सिंह</ref> |
06:39, 10 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का आत्म परिचय
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पूरा नाम | डॉ. हज़ारी प्रसाद द्विवेदी |
जन्म | 19 अगस्त, 1907 ई. |
जन्म भूमि | गाँव 'आरत दुबे का छपरा', बलिया ज़िला, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 19 मई, 1979 |
कर्म भूमि | वाराणसी |
कर्म-क्षेत्र | निबन्धकार, उपन्यासकार, अध्यापक, सम्पादक |
मुख्य रचनाएँ | सूर साहित्य, बाणभट्ट, कबीर, अशोक के फूल, हिन्दी साहित्य की भूमिका, हिन्दी साहित्य का आदिकाल, नाथ सम्प्रदाय, पृथ्वीराज रासो |
विषय | निबन्ध, कहानी, उपन्यास, आलोचना |
भाषा | हिन्दी |
विद्यालय | काशी हिन्दू विश्वविद्यालय |
शिक्षा | बारहवीं |
पुरस्कार-उपाधि | पद्म भूषण |
नागरिकता | भारतीय |
अन्य जानकारी | द्विवेदी जी कई वर्षों तक काशी नागरी प्रचारिणी सभा के उपसभापति, 'खोज विभाग' के निर्देशक तथा 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के सम्पादक रहे हैं। |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी ने 1940 में एक बार आत्म परिचय मांगे जाने पर तुलसी के जीवन का उल्लेख करते हुए, आत्म-उपहास की शैली में एक फक्कड़ाना अंदाज़में अपना परिचय दिया, जो न केवल उनके व्यक्तित्व को उद्घाटित करता है, बल्कि साहित्य और जीवन के प्रति उनके रवैये और उनकी भाषा-शैली का भी प्रतिनिधित्व करता है। उसे यहाँ उद्धृत करना अप्रासंगिक नहीं होगा।
आत्म परिचय
"विक्रम की बीसवीं शताब्दी की दूसरी तिहाई खत्म भी नहीं होने पायी थी कि धराधाम में अवतीर्ण हो गया। जन्म उसी अभुक्तमूल नक्षत्र में हुआ था, जिसमें पैदा होने की सजा के रूप में कहते हैं, बाबा तुलसीदास के माता-पिता ने जनमते ही उन्हें कहीं फेंक दिया था। हज़ारी प्रसाद तुलसीदास से अधिक भाग्यशाली हैं। पहले जन्म के बाद माँ-बाप ने शांति स्वस्त्ययन के बाद उसे स्वीकार कर लिया, पर द्विजत्व की प्राप्ति के बाद अर्थात् विश्वविद्यालय के समावर्तन के पश्चात् मातृभूमि वाले प्रान्त ने, जो उठाकर बाहर फेंका सो अभी बंगाल में ही पड़ा है। अभी भी जीता चल रहा है और आदमी सब मिलाकर बुरा नहीं है। भाग्य का सांढ़ जन्म से ही है, क्योंकि बूढ़ों ने उसे जो नाम शुरू से दिया था, वह एक जबर्दस्त घटना के कारण हमेशा के लिए विस्मृति के अपार सागर में डूब गया। कहीं से घर वालों को हजार रुपये की आमदनी हो गयी और जनसाधारण ने इस अपरम्पार धनराशि के ऐतिहासिक महत्व को स्थायी बना रखने के लिए 'हजारी' नाम दे दिया। आदमी, जैसा कि शुरू में ही कहा गया है, बुरा नहीं है, थोड़ा कृतज्ञ भी है। इस डेमोक्रेसी के खतरे के युग में भी जन साधारण के दिए हुए नाम को 'प्रसाद' के रूप में अब भी ढोये जा रहा है। यद्यपि जन्म के बाद अब तक उसका यह नाम Contradiction in terms ही रहा है। इस युग में यह कम कृतज्ञता की बात नहीं कही जायेगी। सो ऐसा है, यह हजारी प्रसाद।"[1]
द्विवेदी जी के सरोकार
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का संस्कृति-चिन्तन
संस्कृति का स्वरूप- आगे देखो। जीवन आगे बढ़ने का नाम है। जो अवान्तर है, अनावश्यक है, रूढ़ है, उसे छोड़ो। जो नवीन है, जीवन्त है, उसे ग्रहण करो।
हज़ारी प्रसाद द्विवेदी का यह संदेश उनके जीवन और उनकी साहित्य साधना का सबसे बड़ा सच था। इसीलिए वे संस्कृति और पंरपरा का ढोल नहीं पीटते और न ही प्रगतिशील के नाम पर उसे एक सिरे से नकारते हैं। बल्कि वे परंपरा को उसकी निरन्तरता में स्वीकार करते हैं। इसीलिए उनका संस्कृति-चिन्तन आधुनिक भावबोध से जुड़ जाता है। उनके व्यक्तित्व और साहित्य के भूगोल में परंपरा और आधुनिकता नदी के दो छोर नहीं; बल्कि दो पाट हैं, जो समानान्तर चलते हैं। किंतु ये पाट कब एक-दूसरे को स्पर्श कर अपनी भूमिका एवं दिशा को नये सिरे से परिभाषित कर लेते हैं, पता ही नहीं चलता। उनके बीच ही संस्कृति की अंतर्धारा प्रवाहित होती है।
यह बात बार-बार दोहराई जाती है कि भारतीय संस्कृति में उनकी असीम निष्ठा थी। लेकिन यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि संस्कृति का अर्थ उनके लिए अत्यंत व्यापक है। परंपरा और आधुनिकता के संतुलन के साथ ही लोकतत्व का सोंधापन उनकी संस्कृति और साहित्य को पुख्ता जमीन प्रदान करता है। वस्तुतः द्विवेदी जी एक युगान्तकारी रचनाकार हैं, जिन्होंने अपने लेखन की हर विधा में परंपरा के उज्ज्वल पक्ष को उद्घाटित किया है, परंतु वे उसके जड़ पक्ष पर निर्मम प्रहार भी करते हैं। संस्कृति की अविच्छिन्न धारा के सिरे परंपरा, इतिहास, आधुनिकता और लोकत्व से जुड़े हैं। इसलिए इन सबके साथ द्विवेदी जी संस्कृति के बहाव को स्वीकार करते हैं। उनका यह संस्कृति-चिन्तन मनुष्य के सरोकारों को केन्द्र में रखकर विस्तार पाता है। संस्कृति का सीधा संबंध मनुष्य से हैं। मनुष्य के आपसी संबंध के स्वरूप के आधार पर ही संस्कृति का स्वरूप निर्धारित होता है, इसलिए समाज में बदलाव के साथ ही मानव संबंध और तत्परिणाम संस्कृति का स्वरूप भी बदलता रहता है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दूसरी परंपरा की खोज'- नामवर सिंह
बाहरी कड़ियाँ
- हज़ारी प्रसाद द्विवेदी (विषय परिचय)
- आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जीवन परिचय
- आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी की जीवनी
- हज़ारीप्रसाद द्विवेदी संकलित निबंध
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