"अमरनाथ": अवतरणों में अंतर

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==अमरनाथ==
{{सूचना बक्सा पर्यटन
[[चित्र:Amarnath cave.jpg|अमरनाथ गुफा|thumb|250px]]
|चित्र=Sheshnag-Lake-Amarnath.jpg
अमरनाथ हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यह जम्मू - कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर - पूर्व में 135 सहस्त्रमीटर दूर समुद्र तल से 3888 मीटर (13,500 फुट) की ऊंचाई पर स्थित है। इस गुफा की लंबाई ( भीतर की ओर गहराई ) 19 मीटर और चौड़ाई 16 मीटर है। यह गुफा लगभग 150 फीट क्षेत्र में फैली है और गुफा 11 मीटर ऊंची है तथा इसमें हजारों श्रध्दालु समा सकते हैं । प्रकृति का अद्भुत वैभव अमरनाथ गुफा भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। अमरनाथ को तीर्थो का तीर्थ कहा जाता है। एक पौराणिक गाथा के अनुसार भगवान शिव ने पार्वती को अमरत्व का रहस्य ( जीवन और मृत्यु के रहस्य ) बताने के लिए इस गुफा को चुना था। मृत्यु को जीतने वाले मृत्युंजय शिव अमर हैं, इसलिए अमरेश्वर भी कहलाते हैं। जनसाधारण अमरेश्वर को ही अमरनाथ कहकर पुकारते हैं।
|चित्र का नाम=शेषनाग झील, अमरनाथ
==शिवलिंग==
|विवरण=[[अमरनाथ]] [[शिव|भगवान शिव]] के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। अमरनाथ को तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है क्योंकि यहीं पर भगवान शिव ने माँ [[पार्वती]] को अमरत्व का रहस्य बताया था।
[[चित्र:Amarnath s ling.jpg|प्राकृतिक शिवलिंग|thumb|250px]]
|राज्य=[[जम्मू एवं कश्मीर]]
यहां की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफा में बर्फ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इस स्वयंभू हिमानी शिवलिंग भी कहते हैं।<ref>{{cite web |url=http://apnamat.blogspot.com/2008/06/blog-post_27.html |title=पवित्र अमरनाथ मन्दिर और और पौराणिक कहानियाँ |accessmonthday=21 दिसंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=चिंतन |language=हिन्दी }}</ref> आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षा बंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखों लोग यहां आते हैं। गुफा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ के पानी की बूंदे जगह - जगह टपकती रहती है। यही पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूंदों से लगभग 12 - 18 फुट लंबा शिवलिंब बनता है। यह बूंदे इतनी ठंडी होती है कि नीचे गिरते ही बर्फ का रुप लेकर ठोस हो जाती है। चन्द्रमा के घटने - बढ़ने के साथ - साथ इस बर्फ का आकार भी घटता - बढ़ता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे - धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ का बना होता है, जबकि गुफा में आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड है। गुफा में अमरकुंड का जल प्रसाद के रुप में ग्रहण किया जाता है। गुफा में टपकता बूंद - बूंद जल भक्तों के लिए शिव का आशीर्वाद होता है  
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|प्रसिद्धि=यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफ़ा में बर्फ़ से प्राकृतिक [[शिवलिंग]] का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इसे 'स्वयंभू हिमानी शिवलिंग' भी कहते हैं।
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'''अमरनाथ''' [[हिन्दु|हिन्दुओं]] का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यह [[जम्मू और कश्मीर|जम्मू - कश्मीर]] राज्य के [[श्रीनगर]] शहर के उत्तर-पूर्व में 141 किलोमीटर दूर समुद्र तल से 3,888 मीटर (12756 फुट) की ऊंचाई पर स्थित है। इस गुफ़ा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई) 19 मीटर और चौड़ाई 16 मीटर है। यह गुफ़ा लगभग 150 फीट क्षेत्र में फैली है और गुफ़ा 11 मीटर ऊंची है तथा इसमें हज़ारों श्रद्धालु समा सकते हैं। प्रकृति का अद्भुत वैभव अमरनाथ गुफ़ा, भगवान [[शिव]] के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। अमरनाथ को तीर्थों का [[तीर्थ]] कहा जाता है। एक पौराणिक गाथा के अनुसार भगवान शिव ने [[पार्वती]] को अमरत्व का रहस्य (जीवन और मृत्यु के रहस्य) बताने के लिए इस गुफ़ा को चुना था। मृत्यु को जीतने वाले मृत्युंजय शिव अमर हैं, इसलिए 'अमरेश्वर' भी कहलाते हैं। जनसाधारण 'अमरेश्वर' को ही अमरनाथ कहकर पुकारते हैं।<ref name="amr">{{cite web |url=http://www.ghamasan.com/newsdetail.aspx?typ=2&sno=25876 |title=अमरनाथ यात्रा |accessmonthday=28 दिसंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=घमासान |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
==इतिहास==
अमरनाथ यात्रा के उद्गम के बारे में इतिहासकारों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ लोगों का विचार है कि यह ऐतिहासिक समय से संक्षिप्त व्यवधान के साथ चली आ रही है जबकि अन्य लोगों का कहना है कि यह 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में मलिकों या मुस्लिम गडरियों द्वारा पवित्र गुफ़ा का पता लगाने के बाद शुरू हुई। आज भी चौथाई चढ़ावा उस [[मुसलमान]] गडरिए के वंशजों को मिलता है। इतिहासकारों का विचार है कि अमरनाथ यात्रा हज़ारों वर्षों से विद्यमान है। तथा बाबा अमरनाथ दर्शन का महत्त्व पुराणों में भी मिलता है। [[पुराण]] अनुसार [[काशी]] में लिंग दर्शन और पूजन से दस गुना, [[प्रयाग]] से सौ गुना और [[नैमिषारण्य]] से हज़ार गुना पुण्य देने वाले श्री अमरनाथ के दर्शन है। बृंगेश सहिंता, नीलमत पुराण, [[कल्हण]] की राजतरंगिनी आदि में इस का बराबर उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानों का उल्लेख है जहाँ तीर्थयात्रियों को श्री अमरनाथ गुफ़ा की ओर जाते समय धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे। उनमें अनन्तनया (अनन्तनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी (2,811 मीटर), सुशरामनगर (शेषनाग) 3454 मीटर, पंचतरंगिनी (पंचतरणी) 3845 मीटर और अमरावती शामिल हैं।<br />
[[कल्हण]] की 'राजतरंगिनी तरंग द्वितीय' में [[कश्मीर]] के शासक सामदीमत (34 ईपू-17वीं ईस्वी) का एक आख्यान है। वह शिव का एक बड़ा भक्त था जो वनों में बर्फ़ के [[शिवलिंग]] की पूजा किया करता था। बर्फ़ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं मिलता। कश्मीर में भी यह आनन्दमय ग्रीष्म काल में प्रकट होता है। कल्हण ने यह भी उल्लेख किया है कि अरेश्वरा (अमरनाथ) आने वाले तीर्थयात्रियों को सुषराम नाग (शेषनाग) आज तक दिखाई देता है। नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गए उल्लेख से पता चलता है कि इस तीर्थ के बारे में छठी-सातवीं शताब्दी में भी जानकारी थी।


इस हिम शिवलिंग को लेकर हर एक के मन में जिज्ञासावश प्रश्र उठता है कि आखिर इतनी ऊंचाई पर स्थित गुफा में इतना ऊंचा बर्फ का शिवलिंग कैसे बनता है। जिन प्राकृतिक स्थितियों में इस शिवलिंग का निर्माण होता है वह विज्ञान के तथ्यों से विपरीत है। यही बात सबसे ज्यादा अचंभित करती है। विज्ञान के अनुसार बर्फ को जमने के लिए करीब शून्य डिग्री तापमान जरुरी है। किंतु अमरनाथ यात्रा हर साल जून - जुलाई में शुरु होती है। तब इतना कम तापमान संभव नहीं होता।
कश्मीर के महान् शासकों में से एक था 'जैनुलबुद्दीन' (1420-70 ईस्वी), जिसे कश्मीरी लोग प्यार से बादशाह कहते थे, उसने अमरनाथ गुफ़ा की यात्रा की थी। इस बारे में उसके इतिहासकार [[जोनराज]] ने उल्लेख किया है। [[अकबर]] के इतिहासकार [[अबुल फ़जल]] (16वीं शताब्दी) ने [[आइना-ए-अकबरी]] में उल्लेख किया है कि अमरनाथ एक पवित्र तीर्थस्थल है। गुफ़ा में बर्फ़ का एक बुलबुला बनता है। जो थोड़ा-थोड़ा करके 15 दिन तक रोजाना बढता रहता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है। [[चन्द्रमा]] के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू कर देता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है।


इस बारे में विज्ञान के तर्क है कि अमरनाथ गुफा के आसपास और उसकी दीवारों में मौजूद दरारे या छोटे-छोटे छिद्रों में से शीतल हवा की आवाजाही होती है। इससे गुफा में और उसके आस-पास बर्फ जमकर लिंग का आकार ले लेती है। किंतु इस तथ्य की कोई पुष्टि नहीं हुई है।
ऑक्सफ़ोर्ड में [[भारत का इतिहास|भारतीय इतिहास]] के लेखक विसेंट ए स्मिथ ने बरनियर की पुस्तक के दूसरे संस्करण का सम्पादन करते समय टिप्पणी की थी कि अमरनाथ गुफ़ा आश्चर्यजनक जमाव से परिपूर्ण है जहां छत से पानी बूंद-बूंद करके गिरता रहता है और जमकर बर्फ़ के खंड का रूप ले लेता है। इसी की हिन्दू शिव की प्रतिमा के रूप में पूजा करते हैं। [[स्वामी विवेकानन्द]] ने [[1898]] में [[8 अगस्त]] को अमरनाथ गुफ़ा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि मैंने सोचा कि बर्फ़ का लिंग स्वयं शिव हैं। मैंने ऐसी सुन्दर, इतनी प्रेरणादायक कोई चीज़ नहीं देखी और न ही किसी धार्मिक स्थल का इतना आनन्द लिया है।<ref>{{cite web |url=http://www.starnewsagency.in/2010/07/blog-post_960.html |title=अमरनाथ यात्रा - एकता की अद्भुत मिसाल |accessmonthday=28 दिसंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=स्टार न्युज़ ऐजेंसी |language=[[हिन्दी]] }}</ref>
धर्म में आस्था रखने वाले मानते हैं कि ऐसा होने पर बहुत से शिवलिंग इस प्रकार बनने चाहिए। साथ ही इस गुफा में और शिवलिंग के आस-पास कच्ची बर्फ पाई जाती है, जो छूने पर बिखर जाती है। जबकि हिम शिवलिंग का निर्माण पक्की बर्फ से होता है। धर्म को मानने वालों के लिए यही अद्भूत बातें आस्था पैदा करती है। बर्फ से बनी शिवलिंग को लेकर एक मान्यता यह भी है कि इसकी ऊंचाई चंद्रमा की कलाओं के साथ घटती - बढ़ती है।
लारेंस अपनी पुस्तक 'वैली ऑफ़ कश्मीर' में कहते हैं कि मट्टन के ब्राह्मण अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों में शामिल हो गए और बाद में बटकुट में मलिकों ने ज़िम्मेदारी संभाल ली क्योंकि मार्ग को बनाए रखना उनकी ज़िम्मेदारी है, वे ही गाइड के रूप में कार्य करते हैं और बीमारों, वृद्धों की सहायता करते हैं। साथ ही वे तीर्थ यात्रियों की जान व माल की सुरक्षा भी सुनिश्चित करते हैं। इसके लिए उन्हें धर्मस्थल के चढावे का एक तिहाई हिस्सा मिलता है। जम्मू कश्मीर में हिन्दुओं के विभिन्न मंदिरों का रख-रखाव करने वाले धमार्थ न्यास की ज़िम्मेदारी संभालने वाले मट्टन के [[ब्राह्मण]] और [[अमृतसर]] के गिरि महंत जो कश्मीर में [[सिक्ख|सिक्खों]] की सत्ता शुरू होने के समय से आज तक मुख्यतीर्थ यात्रा के अग्रणी के रूप में 'छड़ी मुबारक' ले जाते हैं, चढावे का शेष हिस्सा लेते हैं।
 
[[चित्र:Sheshnag-Camp-Amarnath.jpg|thumb|250px|left|शेषनाग कैम्प अमरनाथ]]
हालांकि पिछले कुछ वर्षों में बाबा अमरनाथ गुफा के दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की आस्थावश की गई भूल से शिवलिंग पूरा आकार न ले सका। क्योंकि हर श्रद्धालु बाबा के दर्शन पाकर भाव-विभोर हो जाता है। जिससे वह शिवलिंग को छू कर, धूप, दीपक जलाकर अपनी श्रद्धा प्रगट करता है। संभवत: अधिक श्रद्धालुओं के गुफा में प्रवेश के कारण और उनके द्वारा दीपक या अगरबत्ती आदि जलाने से तापमान के बढऩे को ही शिवलिंग के पूर्ण स्वरुप नहीं लेने का कारण माना गया। इसलिए अब अमरनाथ श्राईन बोर्ड द्वारा भी भक्तों की आस्था को ध्यान में रखते हुए शिवलिंग के दूर से दर्शन और उपासना संबंधी सावधानियों के सख्त नियमों का पालन कराया जाता है। इस प्रकार बाबा अमरनाथ का यह दिव्य शिवलिंग जहां भक्तों की धर्म में आस्था को ऊंचाईयां देता है, वहीं विज्ञान को अचंभित करता है।
अमरनाथ तीर्थयात्रियों की ऐतिहासिकता का समर्थन करने वाले इतिहासकारों का कहना है कि [[कश्मीर घाटी]] पर विदेशी आक्रमणों और [[हिन्दू|हिन्दुओं]] के वहां से चले जाने से उत्पन्न अशांति के कारण 14वीं शताब्दी के मध्य से लगभग तीन सौ वर्ष की अवधि के लिए यात्रा बाधित रही। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि [[1869]] के ग्रीष्म काल में गुफ़ा की फिर से खोज की गई और पवित्र गुफ़ा की पहली औपचारिक तीर्थ यात्रा तीन साल बाद 1872 में आयोजित की गई थी। इस तीर्थयात्रा में मलिक भी साथ थे।


==शिवलिंग==
यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफ़ा में बर्फ़ से प्राकृतिक [[शिवलिंग]] का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इस 'स्वयंभू हिमानी शिवलिंग' भी कहते हैं। [[आषाढ़]] पूर्णिमा से शुरू होकर [[रक्षाबंधन]] तक पूरे [[सावन]] महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखों लोग यहाँ आते हैं। गुफ़ा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ़ के पानी की बूंदे जगह - जगह टपकती रहती है। यही पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूंदों से लगभग 12-18 फुट लंबा शिवलिंग बनता है। यह बूंदे इतनी ठंडी होती है कि नीचे गिरते ही बर्फ़ का रूप लेकर ठोस हो जाती है। [[चन्द्रमा]] के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस बर्फ़ का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। [[श्रावण पूर्णिमा]] को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और [[अमावस्या]] तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ़ का बना होता है, जबकि गुफ़ा में आमतौर पर कच्ची बर्फ़ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर [[गणेश]], [[भैरव]] और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड है।<ref name="amr">{{cite web |url=http://www.ghamasan.com/newsdetail.aspx?typ=2&sno=25876 |title=अमरनाथ यात्रा |accessmonthday=28 दिसंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=घमासान |language=[[हिन्दी]]}}</ref> गुफ़ा में अमरकुंड का जल प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। गुफ़ा में टपकता बूंद-बूंद जल भक्तों के लिए शिव का आशीर्वाद होता है। इस हिम शिवलिंग को लेकर हर एक के मन में जिज्ञासावश प्रश्र उठता है कि आखिर इतनी ऊंचाई पर स्थित गुफ़ा में इतना ऊंचा बर्फ़ का शिवलिंग कैसे बनता है। जिन प्राकृतिक स्थितियों में इस शिवलिंग का निर्माण होता है वह [[विज्ञान]] के तथ्यों से विपरीत है। यही बात सबसे ज़्यादा अचंभित करती है। विज्ञान के अनुसार बर्फ़ को जमने के लिए क़रीब शून्य डिग्री तापमान ज़रूरी है। किंतु अमरनाथ यात्रा हर साल [[जून]]-[[जुलाई]] में शुरू होती है। तब इतना कम [[तापमान]] संभव नहीं होता। इस बारे में विज्ञान के तर्क है कि अमरनाथ गुफ़ा के आसपास और उसकी दीवारों में मौजूद दरारे या छोटे-छोटे छिद्रों में से शीतल हवा की आवाज़ाही होती है। इससे गुफ़ा में और उसके आस-पास बर्फ़ जमकर लिंग का आकार ले लेती है। किंतु इस तथ्य की कोई पुष्टि नहीं हुई है। <br />
[[धर्म]] में आस्था रखने वाले मानते हैं कि ऐसा होने पर बहुत से शिवलिंग इस प्रकार बनने चाहिए। साथ ही इस गुफ़ा में और शिवलिंग के आस-पास कच्ची बर्फ़ पाई जाती है, जो छूने पर बिखर जाती है। जबकि हिम शिवलिंग का निर्माण पक्की बर्फ़ से होता है। धर्म को मानने वालों के लिए यही अद्भूत बातें आस्था पैदा करती है। बर्फ़ से बनी शिवलिंग को लेकर एक मान्यता यह भी है कि इसकी ऊंचाई चंद्रमा की कलाओं के साथ घटती-बढ़ती है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में बाबा अमरनाथ गुफ़ा के दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की आस्थावश की गई भूलों से शिवलिंग पूरा आकार न ले सका, क्योंकि हर श्रद्धालु बाबा के दर्शन पाकर भाव-विभोर हो जाता है, जिससे वह शिवलिंग को छू कर, धूप, [[दीपक]] जलाकर अपनी श्रद्धा प्रगट करता है। संभवत: अधिक श्रद्धालुओं के गुफ़ा में प्रवेश के कारण और उनके द्वारा दीपक या अगरबत्ती आदि जलाने से, तापमान के बढने को ही शिवलिंग के पूर्ण स्वरूप नहीं लेने का कारण माना गया। इसलिए अब अमरनाथ बोर्ड द्वारा भी भक्तों की आस्था को ध्यान में रखते हुए शिवलिंग के दूर से दर्शन और उपासना संबंधी सावधानियों के सख्त नियमों का पालन कराया जाता है। इस प्रकार बाबा अमरनाथ का यह दिव्य शिवलिंग जहां भक्तों की धर्म में आस्था को ऊंचाईयां देता है, वहीं विज्ञान को अचंभित करता है।
[[चित्र:Amarnath-Yatra-Camp.jpg|thumb|अमरनाथ यात्रा शिविर|250px|left]]
==जनश्रुतियां==
==जनश्रुतियां==
[[चित्र:amarnath 4.jpg|अमरनाथ|thumb|250px]]
जनश्रुति प्रचलित है कि '''इसी गुफ़ा में माता पार्वती को भगवान शिव ने अमरकथा सुनाई थी''', जिसे सुनकर सद्योजात '''शुक – शिशु शुकदेव ऋषि''' के रूप में अमर हो गए।<ref>{{cite web |url=http://apnamat.blogspot.com/2008/06/blog-post_27.html |title=पवित्र अमरनाथ मन्दिर और और पौराणिक कहानियाँ |accessmonthday=21 दिसंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=चिंतन |language=[[हिन्दी]] }}</ref> कथा अमरनाथ की मान्यता है कि [[सतयुग]] में एक बार [[पार्वती|देवी पार्वती]] ने शिव से प्रश्न किया कि आपके अमर होने की क्या कथा है? तथा अनुरोध किया कि वह मानव को अमरता प्रदान बनाने वाला मंत्र उन्हें सिखाएं। [[महादेव]] नहीं चाहते थे कि उस ज्ञान को कोई पार्वती के सिवा नश्वर प्राणी सुने, पर वह पार्वती का अनुरोध भी टाल नहीं सकते थे। इसके लिए उन्होंने अमरनाथ की गुफ़ा को चुना, जहां कोई प्राणी न पहुंच सके। वहां उन्होंने पार्वती जी को सारी कथा सुनाई। पर [[कबूतर]] के दो अंडे, जो वहां पहले से विद्यमान थे, उस अमर मंत्र को सुनते सुनते वयस्क होकर अमरत्व पा गए। यह भी कहा जाता है कि ये महादेव के ही दो सेवक थे, जो वहां कुरु - कुरु कह कर शोर कर रहे थे, इसलिए शिव ने उन्हें कबूतर बन जाने का शाप दिया, किंतु [[मंत्र]] सुन लेने के कारण वे अमर भी हो गए। शिव भक्त मानते हैं कि आज भी गुफ़ा में वे दोनों [[कबूतर]] दिखाई पडते हैं, जिन्हें श्रद्धालु अमर पक्षी बताते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जिन श्रद्धालुओं को '''कबूतरों का जोड़ा''' दिखाई देता है, उन्हें शिव पार्वती अपने प्रत्यक्ष दर्शनों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं। यह भी माना जाता है कि भगवान शिव ने अर्द्धांगिनी पार्वती को इस गुफ़ा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमें अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में '''अमरकथा''' नाम से विख्यात हुई। कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान शंकर जब पार्वती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने सर्वप्रथम बैल को छोड़ा वह स्थान बैलगाम, जो कालांतर में '[[पहलगाम]]' बन गया, छोटे – छोटे अनंत नागों को 'अनंतनाग' में छोड़ा, माथे के [[चंदन]] को चंदनबाड़ी में उतारा, गंगाजी को पंचतरणी का नाम मिला, अन्य पिस्सुओं को 'पिस्सू टॉप' पर और गले के [[शेषनाग]] को शेषनाग नामक स्थल पर छोड़ा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अमरनाथ गुफ़ा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी - बड़ी गुफ़ाएं दिखती हैं। वे सभी बर्फ़ से ढकी हैं।
जनश्रुति प्रचलित है कि '''इसी गुफा में माता पार्वती को भगवान शिव ने अमरकथा सुनवाई थी''', जिसे सुनकर सद्योजात '''शुक – शिशु शुकदेव ऋषि''' के रूप में अमर हो गए। कथा अमरनाथ की मान्यता है कि सतयुग में एक बार देवी पार्वती ने शिव से प्रश्न किया कि आपके अमर होने की क्या कथा है? तथा अनुरोध किया कि वह मानव को अमरता प्रदान बनाने वाला मंत्र उन्हें सिखाएं। महादेव नहीं चाहते थे कि उस ज्ञान को कोई पार्वती के सिवा नश्वर प्राणी सुने, पर वह पार्वती का अनुरोध भी टाल नहीं सकते थे। इसके लिए उन्होंने अमरनाथ की गुफा को चुना, जहां कोई प्राणी न पहुंच सके। वहां उन्होंने पार्वती जी को सारी कथा सुनाई। पर कबूतर के दो अंडे, जो वहां पहले से विद्यमान थे, उस अमर मंत्र को सुनते सुनते वयस्क होकर अमरत्व पा गए। यह भी कहा जाता है कि ये महादेव के ही दो सेवक थे, जो वहां कुरु - कुरु कह कर शोर कर रहे थे, इसलिए शिव ने उन्हें कबूतर बन जाने का शाप दिया, किंतु मंत्र सुन लेने के कारण वे अमर भी हो गए। शिव भक्त मानते हैं कि आज भी गुफा में वे दोनों कबूतर दिखाई पडते हैं, जिन्हें श्रद्धालु अमर पक्षी बताते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जिन श्रद्धालुओं को '''कबूतरों का जोड़ा''' दिखाई देता है, उन्हें शिव पार्वती अपने प्रत्यक्ष दर्शनों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं।  
 
यह भी माना जाता है कि भगवान शिव ने अर्द्धागिनी पार्वती को इस गुफा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमें अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में '''अमरकथा''' नाम से विख्यात हुई। कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान शंकर जब पार्वती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने सर्वप्रथम बैल को छोड़ा वह स्थान बैलगाम, जो कालांतर में पहलगाम बन गया, छोटे – छोटे अनंत नागों को अनंतनाग में छोड़ा, माथे के चंदन को चंदनबाड़ी में उतारा, गंगाजी को पंचतरणी का नाम मिला अन्य पिस्सुओं को पिस्सू टॉप पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोड़ा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अमरनाथ गुफा एक नहीं हैं अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी - बड़ी गुफाएं दिखती है। वे सभी बर्फ से ढकी है।
 
==अमरनाथ यात्रा की उद्गम==
==अमरनाथ यात्रा की उद्गम==
;खोज जुङी कथा --   
;खोज जुड़ी कथा--   
* लोक मान्यता है कि भगवान शंकर की इस पवित्र गुफा की खोज का श्रेय एक गुज्जर यानि गड़रिये बुटा मलिक को जाता है। एक बार बुटा मलिक पशुओं को चराता हुआ ऊंची पहाड़ी पर निकल गया। वहां उसकी मुलाकात एक संत से हुई। उस संत ने गडरिये को कोयले से भरा थैला दिया। वह थैला लेकर गडरिया घर पहुंचा। जब उसने वह थैला खोला तो वह यह देखकर अचंभित हो गया कि उस थैले में भरे कोयले के टुकड़े सोने के सिक्कों में बदल गए। वह गडरिया बहुत खुश हुआ। वह गडरिया तुरंत ही उस दिव्य संत का आभार प्रकट करने के लिए उसी स्थान पर पहुंचा। लेकिन उसने वहां पर संत को न पाकर उस स्थान पर एक पवित्र गुफा और अद्भुत हिम शिवलिंग के दर्शन किए। जिसे देखकर वह अभिभूत हो गया। उसने पुन: गांव पहुंचकर यह सारी घटना गांववालों को बताई। सभी ग्रामवासी उस गुफा और शिवलिंग के दर्शन के लिए वहां आए। माना जाता है कि तब से ही इस तीर्थयात्रा की परंपरा शुरु हो गई।  
* लोक मान्यता है कि भगवान शंकर की इस पवित्र गुफ़ा की खोज का श्रेय एक गुज्जर यानि गड़रिये बुटा मलिक को जाता है। एक बार बुटा मलिक पशुओं को चराता हुआ ऊंची पहाड़ी पर निकल गया। वहां उसकी मुलाकात एक संत से हुई। उस संत ने गडरिये को कोयले से भरा थैला दिया। वह थैला लेकर गडरिया घर पहुंचा। जब उसने वह थैला खोला तो वह यह देखकर अचंभित हो गया कि उस थैले में भरे कोयले के टुकड़े सोने के सिक्कों में बदल गए। वह गडरिया बहुत खुश हुआ। वह गडरिया तुरंत ही उस दिव्य संत का आभार प्रकट करने के लिए उसी स्थान पर पहुंचा। लेकिन उसने वहां पर संत को न पाकर उस स्थान पर एक पवित्र गुफ़ा और अद्भुत हिम शिवलिंग के दर्शन किए। जिसे देखकर वह अभिभूत हो गया। उसने पुन: गांव पहुंचकर यह सारी घटना गांववालों को बताई। सभी ग्रामवासी उस गुफ़ा और शिवलिंग के दर्शन के लिए वहां आए। माना जाता है कि तब से ही इस तीर्थयात्रा की परंपरा शुरू हो गई।<ref>{{cite web |url=http://religion.bhaskar.com/article/pahla-darshan-1115440.html |title=किसने किए पहले दर्शन बाबा अमरनाथ के |accessmonthday=21 दिसंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=दैनिक भास्कर|language=[[हिन्दी]] }}</ref> 
* इसी प्रकार पौराणिक मान्यता है कि एक बार कश्मीर की घाटी जलमग्र हो गई। उसने एक बड़ी झील का रुप ले लिया। जगत के प्राणियों की रक्षा के उद्देश्य से ऋषि कश्यप ने इस जल को अनेक नदियों और छोटे-छोटे जलस्त्रोतों के द्वारा बहा दिया। उसी समय भृगु ऋषि पवित्र हिमालय पर्वत की यात्रा के दौरान वहां से गुजरे। तब जल स्तर कम होने पर हिमालय की पर्वत श्रृखंलाओं में सबसे पहले भृगु ऋषि ने अमरनाथ की पवित्र गुफा और बर्फानी शिवलिंग को देखा। मान्यता है कि तब से ही यह स्थान शिव आराधना का प्रमुख देवस्थान बन गया और अनगिनत तीर्थयात्री शिव के अद्भुत स्वरुप के दर्शन के लिए इस दुर्गम यात्रा की सभी कष्ट और पीड़ाओं को सहन कर लेते हैं। यहां आकर वह शाश्वत और अनंत अध्यात्मिक सुख को पाते हैं।
* इसी प्रकार पौराणिक मान्यता है कि एक बार [[कश्मीर की घाटी]] जलमग्न हो गई। उसने एक बड़ी झील का रूप ले लिया। जगत् के प्राणियों की रक्षा के उद्देश्य से ऋषि [[कश्यप]] ने इस [[जल]] को अनेक नदियों और छोटे-छोटे जलस्रोतों के द्वारा बहा दिया। उसी समय [[भृगु|भृगु ऋषि]] पवित्र [[हिमालय]] [[पर्वत]] की यात्रा के दौरान वहां से गुजरे। तब जल स्तर कम होने पर हिमालय की पर्वत श्रृखंलाओं में सबसे पहले [[भृगु|भृगु ऋषि]] ने अमरनाथ की पवित्र गुफ़ा और बर्फानी शिवलिंग को देखा। मान्यता है कि तब से ही यह स्थान शिव आराधना का प्रमुख देवस्थान बन गया और अनगिनत तीर्थयात्री [[शिव]] के अद्भुत स्वरूप के दर्शन के लिए इस दुर्गम यात्रा की सभी कष्ट और पीड़ाओं को सहन कर लेते हैं। यहां आकर वह शाश्वत और अनंत अध्यात्मिक सुख को पाते हैं।
;इतिहास  -- 
[[चित्र:Amarnath Map.jpg|अमरनाथ यात्रा का मानचित्र|thumb|250px]]
श्री अमरनाथ यात्रा के उद्गम के बारे में इतिहासकारों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ लोगों का विचार है कि यह ऐतिहासिक समय से संक्षिप्त व्यवधान के साथ चली आ रही है जबकि अन्य लोगों का कहना है कि यह 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में मलिकों या मुस्लिम गडरियों द्वारा पवित्र गुफा का पता लगाने के बाद शुरू हुई। आज भी चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिए के वंशजों को मिलता है। इतिहासकारों का विचार है कि अमरनाथ यात्रा हजारों वर्षों से विद्यमान है। तथा बाबा अमरनाथ दर्शन का महत्व पुराणों में भी मिलता है। पुराण अनुसार काशी में लिंग दर्शन और पूजन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हजार गुना पुण्य देनेवाले श्री अमरनाथ के दर्शन है। बृंगेश सहिंता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी आदि में इस का बराबर उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में कुछ महत्वपूर्ण स्थानों का उल्लेख है जहां तीर्थयात्रियों को श्री अमरनाथ गुफा की ओर जाते समय धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे।  उनमें अनन्तनया (अनन्तनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी (2,811 मीटर), सुशरामनगर (शेषनाग) 3454 मीटर, पंचतरंगिनी (पंचतरणी) 3845 मीटर और अमरावती शामिल हैं।
 
कल्हण की राजतरंगिनी तरंग द्वितीय में कश्मीर के शासक सामदीमत (34 ईपू-17वीं ईस्वी) का एक आख्यान है । वह शिव का एक बड़ा भक्त था जो वनों में बर्फ के शिवलिंग की पूजा किया करता था । बर्फ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं मिलता । कश्मीर में भी यह आनन्दमय ग्रीष्म काल में प्रकट होता है । कल्हन ने यह भी उल्लेख किया है कि अरेश्वरा (अमरनाथ) आने वाले तीर्थयात्रियों को सुषराम नाग (शेषनाग) आज तक दिखाई देता है । नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गए उल्लेख से पता चलता है कि इस तीर्थ के बारे में छठीसातवीं शताब्दी में भी जानकारी थी ।
 
कश्मीर के महान शासकों में से एक था जैनुलबुद्दीन (1420-70 ईस्वी) जिसे कश्मीरी लोग प्यार से बादशाह कहते थे । उसने अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी । इस बारे में उसके इतिहासकर जोनरजा ने उल्लेख किया है । अकबर के इतिहासकर अबुल पएजल (16वीं शताब्दी) ने आइन-ए-अकबरी में उल्लेख किया है कि अमरनाथ एक  पवित्र तीर्थस्थल है । गुफा में बर्फ का एक बुलबुला बनता है । जो थोड़ा-थोड़ा कर के 15 दिन तक रोजाना बढता रहता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है । चन्द्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू कर देता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है।
 
भारत के ऑक्सफोर्ड इतिहास के लेखक विसेंट ए स्मिथ ने बरनियर की पुस्तक के दूसरे संस्करण का सम्पादन करते समय टिप्पणी की थी कि अमरनाथ गुफा आश्चर्यजनक जमाव से परिपूर्ण है जहां छत से पानी बूंद-बूंद करके गिरता रहता है और जमकर बर्फ के खंड का रूप ले लेता है। इसी की हिंदू शिव की प्रतिमा के रूप में पूजा करते हैं। विग्ने बरनियर मोंटगुमरी अपनी पुस्तक न्न कश्मीर , लद्दाख और इस्कार्दू की यात्राएं (1842) में कहते हैं कि अमरनाथ की गुफा पर श्रावण की 15 तारीख को समारोह होता है जिसमें न केवल कश्मीरी हिंदू बल्कि हिन्दुस्तान से हर जाति और मजहब के लोगों को गुफा की ओर जाने के लिए लिदर घाटी तक यात्रा करते हुए देखा जा सकता है।
 
स्वामी विवेकानन्द ने 1898 में 8 अगस्त को अमरनाथ गुफा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि मैंने सोचा कि बर्फ का लिंग स्वयं शिव हैं। मैंने ऐसी सुन्दर, इतनी प्रेरणादायक कोई चीज नहीं देखी और न ही किसी धार्मिक स्थल का इतना आनन्द लिया है।
लारेंस अपनी पुस्तक वैली ऑफ कश्मीर में कहते हैं कि मट्टन के ब्राह्मण अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों में शामिल हो गए और बाद में बटकुट में मलिकों ने जिम्मेदारी संभाल ली क्योंकि मार्ग को बनाए रखना उनकी जिम्मेदारी है, वे ही गाइड के रूप में कार्य करते हैं और बीमारों, वृध्दों की सहायता करते हैं। साथ ही वे तीर्थ यात्रियों की जान व माल की सुरक्षा भी सुनिश्चित करते हैं। इसके लिए उन्हें धर्मस्थल के चढावे का एक तिहाई हिस्सा मिलता है। जम्मू कश्मीर में हिन्दुओं के विभिन्न मंदिरों का रखरखाव करने वाले धमार्थ न्यास की जिम्मेदारी संभालने वाले मट्टन के ब्राह्मण और अमृतसर के गिरि महंत जो कश्मीर में सिखों की सत्ता शुरू होने के समय से आज तक मुख्यतीर्थ यात्रा के अग्रणी के रूप में छड़ी मुबारक ले जाते हैं, चढावे का शेष हिस्सा लेते हैं।
 
अमरनाथ तीर्थयात्रियों की ऐतिहासिकता का समर्थन करने वाले इतिहासकारों का कहना है कि कश्मीर घाटी पर विदेशी आक्रमणों और हिन्दुओं के वहां से  चले जाने से उत्पन्न अशांति के कारण 14वीं शताब्दी के मध्य से लगभग तीन सौ वर्ष की अवधि के लिए यात्रा बाधित रही। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 1869 के ग्रीष्म काल में गुफा की फिर से खोज की गई और पवित्र गुफा की पहली औपचारिक तीर्थ यात्रा तीन साल बाद 1872 में आयोजित की गई थी। इस तीर्थयात्रा में मलिक भी साथ थे।
 
==अमरनाथ यात्रा==
==अमरनाथ यात्रा==
[[चित्र:Amarnath Map.jpg|अमरनाथ यात्रा का मानचित्र|thumb|300px]]
{{main|अमरनाथ यात्रा}}
अमरनाथ यात्रा को उत्तर भारत की सबसे पवित्र तीर्थयात्रा माना जाता है। यात्रा के दौरान भारत की विविध परंपराओं, धर्मो और संस्कृतियों की झलक देखी जा सकती है। अमरनाथ यात्रा में शिव भक्तों को कड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। रास्ते उबड़ - खाबड़ है, रास्ते में कभी बर्फ गिरने लग जाती है, कभी बारिश होने लगती है तो कभी बर्फीली हवाएं चलने लगती है। फिर भी भक्तों की आस्था और भक्ति इतनी मजबूत होती है कि यह सारे कष्ट महसूस नहीं होते और बाबा अमरनाथ के दर्शनों के लिए एक अदृश्य शक्ति से खिंचे चले आते हैं। यह माना जाता है कि अगर तीर्थयात्री इस यात्रा को सच्ची श्रद्धा से पूरा कर तो वह भगवान शिव के साक्षात दर्शन पा सकते हैं।  
अमरनाथ यात्रा को [[उत्तर भारत]] का सबसे पवित्र तीर्थयात्रा माना जाता है। यात्रा के दौरान भारत की विविध परंपराओं, [[धर्म|धर्मों]] और [[संस्कृति|संस्कृतियों]] की झलक देखी जा सकती है। अमरनाथ यात्रा में [[शिव]] भक्तों को कड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। रास्ते उबड़ - खाबड़ है, रास्ते में कभी बर्फ़ गिरने लग जाती है, कभी बारिश होने लगती है तो कभी बर्फीली हवाएं चलने लगती है। फिर भी भक्तों की आस्था और भक्ति इतनी मज़बूत होती है कि यह सारे कष्ट महसूस नहीं होते और बाबा अमरनाथ के दर्शनों के लिए एक अदृश्य शक्ति से खिंचे चले आते हैं। यह माना जाता है कि अगर तीर्थयात्री इस यात्रा को सच्ची श्रद्धा से पूरा कर तो वह भगवान शिव के साक्षात दर्शन पा सकते हैं।  
 
;पहलगाम से अमरनाथ
देश के सभी कोनों से तीर्थयात्री रेल, बस या हवाई जहाज के जरिए आसानी से जम्मू पहुंच सकते हैं। श्रद्धालुओं की तीर्थयात्रा जम्मू से शुरू होती है। '''अमरनाथ यात्रा पर जाने के भी दो रास्ते है। एक पहलगाम होकर और दूसरा सोनमर्ग बलटाल से।''' यानी कि पहलगाम और बलटाल तक किसी भी सवारी से पहुंचे, यहां से आगे जाने के लिए अपने पैरों का ही इस्तेमाल करना होगा। अशक्त या वृद्धों के लिए सवारियों का प्रबंध किया जा सकता है। हालांकि पवित्र गुफा सिंध घाटी में सिंध नदी की एक सहायक नदी अमरनाथ ( अमरावती ) के पास स्थित है तथापि इस तक परम्परागत रूप से बरास्ता लिदर घाटी पहुंचा जाता है । श्रध्दालु इस मार्ग पर दक्षिण कश्मीर में पहलगांव से होकर पवित्र गुफा पहुंचते हैं और चंदनवाड़ी, पिस्सू घाटी, शेषनाग और पंचतरनी से गुजरते हुए लगभग 46 किलोमीटर की यात्रा करते हैं । पहलगाम से जाने वाले रास्ते को सरल और सुविधाजनक समझा जाता है। एक और छोटा रास्ता श्रीनगर - लेह राजमार्ग पर स्थित बालताल से है । बलटाल से अमरनाथ गुफा की दूरी केवल 14 किलोमीटर है और यह बहुत ही दुर्गम रास्ता है और सुरक्षा की दृष्टि से भी संदिग्ध है। इसमें कुछ क्षेत्र सीधी चढ़ाई और गहरी ढलान वाले हैं । इसीलिए सरकार इस मार्ग को सुरक्षित नहीं मानती और अधिकतर यात्रियों को पहलगाम के रास्ते अमरनाथ जाने के लिए प्रेरित करती है। लेकिन रोमांच और जोखिम लेने का शौक रखने वाले लोग इस मार्ग से यात्रा करना पसंद करते हैं। अतीत में यह मार्ग ग्रीष्म ऋतु की शुरूआत में प्रयोग में आता था लेकिन कभी - कभी बर्फ के पिघलने के कारण इस मार्ग का प्रयोग असंभव हो जाता था । लेकिन समय के बीतने के साथ परिस्थितियों में सुधार हुआ है और दोनों ही मार्गों पर यात्रा काफी आसान हो गई है।
अमरनाथ की गुफ़ा तक पहुंचने के लिए तीर्थयात्री [[जम्मू]] से [[पहलगाम]] / पहलगांव जाते हैं। यह दूरी सडक मार्ग से पहलगाम जम्मू से 365 किलोमीटर की दूरी पर है। यह विख्यात पर्यटन स्थल भी है और यह पर्वतों से घिरा क्षेत्र है और सुंदर प्राकृतिक दृश्यों के लिए विश्वप्रसिद्ध है। यह [[लिद्दर नदी]] के किनारे बसा है। पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू – कश्मीर पर्यटन केंद्र से सरकारी बस उपलब्ध रहती है। यदि आप [[श्रीनगर]] के हवाई अड्डे पर उतरते हैं, तो लगभग 96 कि.मी. की सडक - यात्रा कर पहलगाम पहुंच सकते हैं। पहलगाम में ठहरने के लिए सामाजिक - धार्मिक संगठनों की ओर से आवासीय व्यवस्था है। पहलगाम और गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था की जाती है। पहलगाम से एक कि.मी. नीचे ही ‘नुनवन’ में यात्री बेस कैम्प पर पहला पड़ाव होता है।  तीर्थयात्रियों की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है।<ref name="amr">{{cite web |url=http://www.ghamasan.com/newsdetail.aspx?typ=2&sno=25876 |title=अमरनाथ यात्रा |accessmonthday=28 दिसंबर |accessyear=2010 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=घमासान |language=[[हिन्दी]]}}</ref>
 
[[चित्र:Amarnath-Yatra.jpg|अमरनाथ जाने का रास्ता|thumb|250px|left]]
===पहलगाम से अमरनाथ===
अमरनाथ की गुफा तक पहुंचने के लिए तीर्थयात्री जम्मू से पहलगाम / पहलगांव जाते हैं। यह दूरी सडक मार्ग से पहलगाम जम्मू से 365 किलोमीटर की दूरी पर है। यह विख्यात पर्यटन स्थल भी है और यह पर्वतों से घिरा क्षेत्र है और सुंदर प्राकृतिक दृश्यों के लिए विश्वप्रसिद्ध है। यह लिद्दर नदी के किनारे बसा है। पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू – कश्मीर पर्यटन केंद्र से सरकारी बस उपलब्ध रहती है। यदि आप श्रीनगर के हवाई अड्डे पर उतरते हैं, तो लगभग 96 कि.मी. की सडक - यात्रा कर पहलगाम पहुंच सकते हैं। पहलगाम में ठहरने के लिए सामाजिक - धार्मिक संगठनों की ओर से आवासीय व्यवस्था है। पहलगाम और गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था की जाती है। पहलगाम से एक कि.मी. नीचे ही ‘नुनवन’ में यात्री बेस कैम्प पर पहला पड़ाव होता है।  तीर्थयात्रियों की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है।  
 
;चंदनबाड़ी
;चंदनबाड़ी
पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से 16 किलोमीटर की दूरी पर है। यह स्थान समुद्रतल से 9500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। पहली रात तीर्थयात्री यही बिताते हैं। यहां रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। इसके ठीक दूसरे दिन पिस्सु घाटी की चढ़ाई शुरू होती है। लिद्दर नदी के किनारे से इस पड़ाव की यात्रा आसान होती है। यह रास्ता वाहनों द्वारा भी पूरा किया जा सकता है। यहां से आगे जाने के लिए घोड़ों, पालकियों अथवा पिट्ठुओं की सुविधा मिल जाती है। चंदनबाड़ी से पिस्सुटॉप जाते हुए रास्ते में बर्फ का पुल आता है। यह घाटी सर्पाकार है।
पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से 16 किलोमीटर की दूरी पर है। यह स्थान समुद्रतल से 9500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहां रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। इसके ठीक दूसरे दिन पिस्सु घाटी की चढ़ाई शुरू होती है। लिद्दर नदी के किनारे से इस पड़ाव की यात्रा आसान होती है। यह रास्ता वाहनों द्वारा भी पूरा किया जा सकता है। यहां से आगे जाने के लिए घोड़ों, पालकियों अथवा पिट्ठुओं की सुविधा मिल जाती है। चंदनबाड़ी से पिस्सुटॉप जाते हुए रास्ते में बर्फ़ का पुल आता है। यह घाटी सर्पाकार है।


;पिस्सू टाप  
;पिस्सू टाप  
चंदनवाडी से 3 किमी चढाई करने के बाद आपको रास्ते में पिस्सू टाप पहाडी मिलेगी। जनश्रुतियां हैं कि पिस्सु घाटी पर देवताओं और राक्षसों के बीच घमासान लड़ाई हुई जिसमें देवताओं ने कई दानवों को मार गिराया था। दानवों के कंकाल एक ही स्थान पर एकत्रित होने के कारण यह पहाडी बन गई। अमरनाथ यात्रा में पिस्सु घाटी काफी जोखिम भरा स्थल है। पिस्सु घाटी समुद्रतल से 11,120 फुट की ऊंचाई पर है। लिद्दर नदी के किनारे - किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज्यादा कठिन नहीं है। पिस्सू घाटी की सीधी चढ़ाई चढते हैं जो शेषनाग नदी के किनारे चलती है । 12 कि. मी. का लम्बा नदी का किनारा शेषनाग झील पर जाकर समाप्त होता है । यही तो नदी का उदगम स्थल है । (यही नदी पहलगाम से नीचे जाकर झेलम दरिया में मिल जाती है)  
चंदनवाड़ी से 3 किमी चढाई करने के बाद आपको रास्ते में पिस्सू टाप पहाडी मिलेगी। जनश्रुतियां हैं कि पिस्सु घाटी पर देवताओं और राक्षसों के बीच घमासान लड़ाई हुई, जिसमें [[देवता|देवताओं]] ने कई दानवों को मार गिराया था। दानवों के कंकाल एक ही स्थान पर एकत्रित होने के कारण यह पहाडी बन गई। अमरनाथ यात्रा में पिस्सु घाटी काफ़ी जोखिम भरा स्थल है। पिस्सु घाटी समुद्रतल से 11,120 फुट की ऊंचाई पर है। लिद्दर नदी के किनारे - किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज़्यादा कठिन नहीं है। पिस्सू घाटी की सीधी चढ़ाई चढते हैं जो शेषनाग नदी के किनारे चलती है। 12 कि. मी. का लम्बा नदी का किनारा [[शेषनाग झील]] पर जाकर समाप्त होता है। यही तो नदी का उदगम स्थल है। (यही नदी पहलगाम से नीचे जाकर झेलम दरिया में मिल जाती है)  


;शेषनाग
;शेषनाग
[[चित्र:Sheshnag lake.jpg|शेषनाग झील|thumb|250px]]
पिस्सू टाप से 12 कि.मी. दूर 11,730 फीट की ऊंचाई पर शेषनाग पर्वत है, जिसके सातों शिखर शेषनाग के समान लगते हैं। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक है। यहां तक की यात्रा तय करने में 4-5 घंटे लगते हैं। यहीं पर पिस्सु घाटी के दर्शन होते हैं। यात्री शेषनाग पहुंच कर तंबू / कैंप लगाकर अपना दूसरा पडाव डालते हैं। यहां पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की ख़ूबसूरत झील है। जिसे शेषनाग झील कहते हैं। इस झील में झांक कर यह भ्रम हो उठता है कि कहीं आसमान तो इस झील में नहीं उतर आया। यह झील क़रीब डेढ़ किलोमीटर लंबाई में फैली है। किंवदंतियों के मुताबिक़ शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं, लेकिन यह दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होते हैं। तीर्थयात्री यहां रात्रि विश्राम करते है और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं। शेषनाग और इससे आगे की यात्रा बहुत कठिन है। यहां बर्फीली हवाएं चलती रहती हैं। शेषनाग से पोषपत्री तथा फिर पंचतरणी की दूरी छह किलोमीटर है। पोषपत्री नामक यह स्थान 12500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। पोषपत्री में विशाल भंडारे का आयोजन होता है। यहां भोजन, आवास, चिकित्सा सुविधा, ऑक्सीजन सलैंडर आदि की सुविधा उपलब्ध रहती है।  
पिस्सू टाप से 12 कि.मी. दूर 11,730 फीट की ऊंचाई पर शेषनाग पर्वत है, जिसके सातों शिखर शेषनाग के समान लगते हैं। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक है। यहां तक की यात्रा तय करने में 4-5 घंटे लगते हैं। यहीं पर पिस्सु घाटी के दर्शन होते हैं। यात्री शेषनाग पहुंच कर तंबू / कैंप लगाकर अपना दूसरा पडाव डालते हैं। यहां पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की खूबसूरत झील है। जिसे शेषनाग झील कहते है। इस झील में झांक कर यह भ्रम हो उठता है कि कहीं आसमान तो इस झील में नहीं उतर आया। यह झील करीब डेढ़ किलोमीटर लंबाई में फैली है। किंवदंतियों के मुताबिक शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं, लेकिन यह दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होते हैं। तीर्थयात्री यहां रात्रि विश्राम करते है और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते है। शेषनाग और इससे आगे की यात्रा बहुत कठिन है। यहां बर्फीली हवाएं चलती रहती हैं। शेषनाग से पोषपत्री तथा फिर पंचतरणी की दूरी छह किलोमीटर है। पोषपत्री नामक यह स्थान 12500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। पोषपत्री में विशाल भंडारे का आयोजन होता है। यहां भोजन, आवास, चिकित्सा सुविधा, ऑक्सिजन सिलिंडर आदि की सुविधा उपलब्ध रहती है।  


;पंचतरणी
;पंचतरणी
शेषनाग से पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता है, जिनकी समुद्र तल से ऊंचाई क्रमश: 13,500 फुट व 14,500 फुट है। इस स्थान पर अनेक झरनें, जल प्रपात और चश्में और मनोरम प्राकृतिक दृश्य दिखाई देते हैं। महागुणास चोटी से नीचे उतरते हुए 9.4 कि.मी. की दूरी तय करके पंचतरिणी पहुंचा जा सकता है। यहां पांच छोटी – छोटी सरिताएं बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। पंचतरणी 12,500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह भैरव पर्वत की तलहटी में बसा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची – ऊंची चोटियों से ढका है। ऊंचाई की वजह से ठंड भी ज्यादा होती है। आक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियों को यहां सुरक्षा के इंतजाम करने पड़ते हैं। आगे की यात्रा में भैरव पर्वत मिलता है। इसकी तलहटी में पंचतरिणी नदी है, जहां से पांच धाराएं निकलती हैं। मान्यता है कि पांचों धाराओं की उत्पत्ति शिवजी की जटाओं से हुई है। श्री अमरनाथ के दर्शन से पूर्व का यह तीसरा और अंतिम पडाव है। पंचतरिणी से 3 कि.मी. चलने पर अमर गंगा और पंचतरिणी का संगम स्थल मिलता है। यहां से श्री अमरनाथ की पवित्र गुफा लगभग 3 कि.मी. दूर है और रास्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। अमरगंगा एक बर्फ की पतली सी धारा है, इसी में स्नान करके भक्त जन हाथ में नारियल आदि का चढावा ले श्री अमरनाथ जी के दर्शन करते हैं । इसमें पहले 3 कि.मी. के रास्ते को ‘संत सिंग की पौड़ी’ कहते हैं| यह ऍसी पगडंडी नुमा रास्ता है, जिसके एक ओर पहाड़ व दूसरी ओर गहरी खाई है | यह रास्ता भी काफी जोखिम भरा है। हिम नदी को पार करते ही मुख्य गुफा के दर्शन होते हैं। इसी दिन गुफा के नजदीक पहुंच कर पड़ाव डाल रात बिता सकते हैं और दूसरे दिन सुबह पूजा अर्चना कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। कुछ यात्री शाम तक शेषनाग तक वापस पहुंच जाते हैं। यह रास्ता काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफा में पहुंचते की सफर की सारी थकान पल भर में छू मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।  
[[चित्र:Pahalgam-River-Amarnath.jpg|thumb|250px|पहलगम नदी अमरनाथ]]
शेषनाग से पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता है, जिनकी समुद्र तल से ऊंचाई क्रमश: 13,500 फुट व 14,500 फुट है। इस स्थान पर अनेक झरनें, जल प्रपात और चश्में और मनोरम प्राकृतिक दृश्य दिखाई देते हैं। महागुणास चोटी से नीचे उतरते हुए 9.4 कि.मी. की दूरी तय करके पंचतरिणी पहुंचा जा सकता है। यहां पांच छोटी – छोटी सरिताएं बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। पंचतरणी 12,500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह भैरव पर्वत की तलहटी में बसा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची – ऊंची चोटियों से ढका है। ऊंचाई की वजह से ठंड भी ज़्यादा होती है। [[आक्सीजन]] की कमी की वजह से तीर्थयात्रियों को यहां सुरक्षा के इंतज़ाम करने पड़ते हैं। आगे की यात्रा में भैरव पर्वत मिलता है। इसकी तलहटी में पंचतरिणी नदी है, जहां से पांच धाराएं निकलती हैं। मान्यता है कि पांचों धाराओं की उत्पत्ति शिवजी की जटाओं से हुई है। श्री अमरनाथ के दर्शन से पूर्व का यह तीसरा और अंतिम पडाव है। पंचतरिणी से 3 कि.मी. चलने पर 'अमरगंगा' और 'पंचतरिणी' का संगम स्थल मिलता है। यहां से श्री अमरनाथ की पवित्र गुफ़ा लगभग 3 कि.मी. दूर है और रास्ते में बर्फ़ ही बर्फ़ जमी रहती है। अमरगंगा एक बर्फ़ की पतली सी धारा है, इसी में स्नान करके भक्त जन हाथ में [[नारियल]] आदि का चढावा ले श्री अमरनाथ जी के दर्शन करते हैं । इसमें पहले 3 कि.मी. के रास्ते को ‘संत सिंग की पौड़ी’ कहते हैं। यह ऐसी पगडंडी नुमा रास्ता है, जिसके एक ओर पहाड़ व दूसरी ओर गहरी खाई है। यह रास्ता भी काफ़ी जोखिम भरा है। हिम नदी को पार करते ही मुख्य गुफ़ा के दर्शन होते हैं। इसी दिन गुफ़ा के नजदीक पहुंच कर पड़ाव डाल रात बिता सकते हैं और दूसरे दिन सुबह पूजा अर्चना कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। कुछ यात्री शाम तक शेषनाग तक वापस पहुंच जाते हैं। यह रास्ता काफ़ी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफ़ा में पहुंचते की सफर की सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।  


समुद्र तल से लगभग 13,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस गुफा में प्रवेश करने पर हम हिम / बर्फ से बने शिवलिंग का दर्शन करते हैं। इसके अलावा, हमें बर्फ की बनी दो और आकृति दिखाई देती है, जिन्हें पार्वती और गणपति का स्वरूप माना जाता है। गुफा में बूंद-बूंद करके जल टपकता रहता है। ऐसी मान्यता है कि गुफा के ऊपर पर्वत पर श्री राम कुंड है। इसी का जल गुफा में टपकता रहता है। कुछ विद्वान गुफा में पार्वती की मूर्ति को साक्षात जगदम्बा का स्वरूप मानते हैं और इस स्थान को शक्तिपीठ के रूप में मान्यता देते हैं। पवित्र गुफामें वन्य कबूतर भी दिखाई देते हैं, जिनकी संख्या समय - समय पर बदलती रहती है। सफेद कबूतर के जोडे को देखकर तीर्थयात्री अमरनाथ की कथा को याद कर रोमांचित हो उठते हैं।  
समुद्र तल से लगभग 13,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस गुफ़ा में प्रवेश करने पर हम हिम / बर्फ़ से बने शिवलिंग का दर्शन करते हैं। इसके अलावा, हमें बर्फ़ की बनी दो और आकृति दिखाई देती है, जिन्हें पार्वती और गणपति का स्वरूप माना जाता है। गुफ़ा में बूंद-बूंद करके जल टपकता रहता है। ऐसी मान्यता है कि गुफ़ा के ऊपर पर्वत पर श्री राम कुंड है। इसी का जल गुफ़ा में टपकता रहता है। कुछ विद्वान् गुफ़ा में पार्वती की मूर्ति को साक्षात जगदम्बा का स्वरूप मानते हैं और इस स्थान को शक्तिपीठ के रूप में मान्यता देते हैं। पवित्र गुफ़ा में वन्य कबूतर भी दिखाई देते हैं, जिनकी संख्या समय - समय पर बदलती रहती है। सफ़ेद कबूतर के जोडे को देखकर तीर्थयात्री अमरनाथ की कथा को याद कर रोमांचित हो उठते हैं।  


===बलटाल से अमरनाथ===
;बलटाल से अमरनाथ
जम्मू से बलटाल की दूरी 400 किलोमीटर है। यह मार्ग थोड़ा कठिन है, इस रास्ते में जोखिम भी ज़्यादा हैं। इस मार्ग की लंबाई 15 किलोमीटर है। जम्मू से उधमपुर के रास्ते बलटाल के लिए जम्मू कश्मीर पर्यटक स्वागत केंद्र की बसें आसानी से मिल जाती है। बलटाल कैंप से तीर्थयात्री एक दिन में अमरनाथ गुफा की यात्रा कर वापस कैंप लौट सकते हैं। वापसी में बालटाल होकर श्रीनगर की सुंदर वादियों का आनंद लिया जा सकता है। बालटाल से पवित्र गुफा तक हेलिकॉप्टर द्वारा भी पहुंचा जा सकता है। अमरनाथ यात्रा का मार्ग चाहे कठिन और जोखिम भरा हो, लेकिन यह रास्ता प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है। यह यात्रा करके निश्चित रूप से हम भगवान शिव की महिमा से अभिभूत हो जाते हैं।
जम्मू से बलटाल की दूरी 400 किलोमीटर है। यह मार्ग थोड़ा कठिन है, इस रास्ते में जोखिम भी ज़्यादा हैं। इस मार्ग की लंबाई 15 किलोमीटर है। जम्मू से उधमपुर के रास्ते बलटाल के लिए जम्मू कश्मीर पर्यटक स्वागत केंद्र की बसें आसानी से मिल जाती है। बलटाल कैंप से तीर्थयात्री एक दिन में अमरनाथ गुफ़ा की यात्रा कर वापस कैंप लौट सकते हैं। वापसी में बालटाल होकर श्रीनगर की सुंदर वादियों का आनंद लिया जा सकता है। बालटाल से पवित्र गुफ़ा तक हेलिकॉप्टर द्वारा भी पहुंचा जा सकता है। अमरनाथ यात्रा का मार्ग चाहे कठिन और जोखिम भरा हो, लेकिन यह रास्ता प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है। यह यात्रा करके निश्चित रूप से हम भगवान शिव की महिमा से अभिभूत हो जाते हैं।
[[चित्र:Amarnath-Cave.jpg|[[अमृतसर]] स्थित अमरनाथ गुफ़ा का नमूना|250px|left|thumb]]
====दर्शन का समय====
पूर्णमासी सामान्यत भगवान शिव से संबंधित नहीं है, लेकिन बर्फ़ के पूरी तरह विकसित शिवलिंग के दर्शनों के कारण श्रावण पूर्णमासी (जुलाई - [[अगस्त]]) का अमरनाथ यात्रा के साथ संबंध है और पर्वतों से गुजरते हुए गुफ़ा तक पहुंचने के लिए इस अवधि के दौरान मौसम काफ़ी हद तक अनुकूल रहता है। इसलिए बाबा अमरनाथ के दर्शन के लिए तीर्थयात्री अमूमन 'मध्य जून, जुलाई और अगस्त ( आषाढ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षा बंधन तक पूरे सावन महीने)' में आते हैं। जुलाई-अगस्त माह में मॉनसून के आगमन के दौरान पूरी कश्मीर वादी में हर तरफ हरियाली ही हरियाली ही दिखती है। यह हरियाली यहां की प्राकृतिक सुंदरता में चार चांद लगाती है। यात्रा के शुरू और बंद होने की घोषणा श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड करती है। इस यात्रा के साथ मात्र हिन्दुओं की ही नहीं बल्कि मुस्लिम और अन्य धर्म की श्रद्धालुओं की भी आस्था जुड़ी है।
;छड़ी मुबारक
[[रक्षाबंधन]] के दिन पवित्र अमरनाथ धाम में भगवान शिव का विधिवत पूजन कश्मीर के साधु समाज के प्रमुख और गुफ़ा के मुख्य पुजारी करते हैं। कुछ वर्ष पहले तक साधुओं की टोली के साथ यात्रा की प्रतीक छड़ी मुबारक को [[श्रीनगर]] से [[बिजबेहरा]], [[पहलगाम]], चंदनबाड़ी, शेषनाग, पंजतरणी के रास्ते से अमरनाथ लाया जाता था। पर अब छड़ी मुबारक की यह यात्रा जम्मू से शुरू होकर परंपरागत मार्ग से होते हुए सीधे पहलगाम तक होती है। इस मार्ग पर आम यात्री राज्य परिवहन की बसों द्वारा एक दिन में जम्मू से 270 किलोमीटर ऊपर नुनवान कैंप (पहलगाम) में पहुंच जाते हैं। उससे आगे 16 किलोमीटर चंदनवाड़ी तक का सफर टैक्सियों और स्थानीय मिनी बसों द्वारा होता है। आगे चंदनबाड़ी से अमरनाथ तक 32 किलोमीटर पैदल जाने और उतना ही पैदल आने का सफर चार दिनों में तय होता है।


==दर्शन का समय==
यात्रियों की सुविधा के लिए जम्मू - कश्मीर सरकार का पर्यटन विभाग आरक्षण आदि की व्यवस्था भी करता है। रात्रि विश्राम के लिए टैंट, बिस्तर, फ़ोन इत्यादि की भी अच्छी व्यवस्था हैं। इस पवित्र क्षेत्र में तरह-तरह की उपयोगी जड़ी बूटियां बहुतायत में उगती हैं।
पूर्णमासी सामान्यत भगवान शिव से संबंधित नहीं है, लेकिन बर्फ के पूरी तरह विकसित शिवलिंग के दर्शनों के कारण श्रावण पूर्णमासी ( जुलाई - अगस्त ) का अमरनाथ यात्रा के साथ संबंध है और पर्वतों से गुजरते हुए गुफा तक पहुंचने के लिए इस अवधि के दौरान मौसम काफी हद तक अनुकूल रहता है। इसलिए बाबा अमरनाथ के दर्शन के लिए तीर्थयात्री अमूमन '''मध्य जून, जुलाई और अगस्त ( आषाढ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षा बंधन तक पूरे सावन महीने )''' में आते हैं। जुलाई-अगस्त माह में मॉनसून के आगमन के दौरान पूरी कश्मीर वादी में हर तरफ हरियाली ही हरियाली ही दिखती है। यह हरियाली यहां की प्राकृतिक सुंदरता में चार चांद लगाती है। यात्रा के शुरू और बंद होने की घोषणा श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड करती है। इस यात्रा के साथ मात्र हिन्दुओं की ही नहीं बल्कि मुस्लिम और अन्य धर्म की श्रद्धालुओं की भी आस्था जुड़ी है।
;मोबाइल सेवा का शुभारंभ
;छड़ी मुबारक
भारत सरकार ने बृहस्पतिवार को पवित्र अमरनाथ गुफ़ा पर भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) की मोबाइल सेवा का अधिकारिक तौर पर शुभारंभ किया। बीएसएनएल ने 13,500 फुट ऊंचाई पर स्थित पवित्र गुफ़ा पर मोबाइल सेवा शुरू करने के लिए बालटाल, नुनवान, लाकीपोरा, बेताब घाटी, संगम / पवित्र गुफ़ा, पंजतरणी, चंदनवाडी व चंदनवाडी बेस कैंप में कुल 11 टावर लगाए हैं। इससे वार्षिक अमरनाथ यात्रा पर आने वाले 4 लाख से अधिक श्रद्धालुओं को लाभ होगा और वे यात्रा के दौरान अपने घर पर परिवार के साथ लगातार संपर्क में रह सकेंगे।
रक्षाबंधन के दिन पवित्र अमरनाथ धाम में भगवान शिव का विधिवत पूजन कश्मीर के साधु समाज के प्रमुख और गुफा के मुख्य पुजारी करते हैं। कुछ वर्ष पहले तक साधुओं की टोली के साथ यात्रा की प्रतीक छड़ी मुबारक को श्रीनगर से बिजबेहरा, पहलगाम, चंदनबाड़ी, शेषनाग, पंजतरनी के रास्ते से अमरनाथ लाया जाता था। पर अब छड़ी मुबारक की यह यात्रा जम्मू से शुरू होकर परंपरागत मार्ग से होते हुए सीधे पहलगाम तक होती है। इस मार्ग पर आम यात्री राज्य परिवहन की बसों द्वारा एक दिन में जम्मू से 270 किलोमीटर ऊपर नुनवान कैंप ( पहलगाम ) में पहुंच जाते हैं। उससे आगे 16 किलोमीटर चंदनवाड़ी तक का सफर टैक्सियों और स्थानीय मिनी बसों द्वारा होता है। आगे चंदनबाड़ी से अमरनाथ तक 32 किलोमीटर पैदल जाने और उतना ही पैदल आने का सफर चार दिनों में तय होता है।
[[चित्र:pilgrimage-amarnath.jpg|thumb|1000px|center|प्राकृतिक शिवलिंग, अमरनाथ गुफ़ा]]


यात्रियों की सुविधा के लिए जम्मू - कश्मीर सरकार का पर्यटन विभाग आरक्षण आदि की व्यवस्था भी करता है। रात्रि विश्राम के लिए टेंट, बिस्तर, फोन इत्यादि की भी अच्छी व्यवस्था हैं। इस पवित्र क्षेत्र में तरह-तरह की उपयोगी जड़ी बूटियां बहुतायत में उगती हैं।


;मोबाइल सेवा का शुभारंभ
भारत सरकार ने बृहस्पतिवार को पवित्र अमरनाथ गुफा पर भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) की मोबाइल सेवा का अधिकारिक तौर पर शुभारंभ किया। बीएसएनएल ने 13,500 फुट ऊंचाई पर स्थित पवित्र गुफा पर मोबाइल सेवा शुरू करने के लिए बालटाल, नुनवान, लाकीपोरा, बेताब घाटी, संगम / पवित्र गुफा, पंजतरणी, चंदनवाडी व चंदनवाडी बेस कैंप में कुल 11 टावर लगाए हैं। इससे वार्षिक अमरनाथ यात्रा पर आने वाले 4 लाख से अधिक श्रद्धालुओं को लाभ होगा और वे यात्रा के दौरान अपने घर पर परिवार के साथ लगातार संपर्क में रह सकेंगे।


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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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==संबंधित लेख==
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{{जम्मू और कश्मीर के पर्यटन स्थल}}
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10:00, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

अमरनाथ
शेषनाग झील, अमरनाथ
शेषनाग झील, अमरनाथ
विवरण अमरनाथ भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। अमरनाथ को तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है क्योंकि यहीं पर भगवान शिव ने माँ पार्वती को अमरत्व का रहस्य बताया था।
राज्य जम्मू एवं कश्मीर
मार्ग स्थिति श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में 141 किलोमीटर दूर समुद्र तल से 3,888 मीटर (12,756 फुट) की ऊंचाई पर स्थित है।
प्रसिद्धि यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफ़ा में बर्फ़ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इसे 'स्वयंभू हिमानी शिवलिंग' भी कहते हैं।
कब जाएँ कभी भी जा सकते हैं
यातायात बस, कार, ऑटो आदि
संबंधित लेख हिमालय, वैष्णो देवी


अन्य जानकारी बाबा अमरनाथ के दर्शन का महत्त्व पुराणों में भी मिलता है। पुराणों के अनुसार काशी में लिंग दर्शन और पूजन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हज़ार गुना पुण्य देने वाले अमरनाथ के दर्शन है।
अद्यतन‎

अमरनाथ हिन्दुओं का एक प्रमुख तीर्थस्थल है। यह जम्मू - कश्मीर राज्य के श्रीनगर शहर के उत्तर-पूर्व में 141 किलोमीटर दूर समुद्र तल से 3,888 मीटर (12756 फुट) की ऊंचाई पर स्थित है। इस गुफ़ा की लंबाई (भीतर की ओर गहराई) 19 मीटर और चौड़ाई 16 मीटर है। यह गुफ़ा लगभग 150 फीट क्षेत्र में फैली है और गुफ़ा 11 मीटर ऊंची है तथा इसमें हज़ारों श्रद्धालु समा सकते हैं। प्रकृति का अद्भुत वैभव अमरनाथ गुफ़ा, भगवान शिव के प्रमुख धार्मिक स्थलों में से एक है। अमरनाथ को तीर्थों का तीर्थ कहा जाता है। एक पौराणिक गाथा के अनुसार भगवान शिव ने पार्वती को अमरत्व का रहस्य (जीवन और मृत्यु के रहस्य) बताने के लिए इस गुफ़ा को चुना था। मृत्यु को जीतने वाले मृत्युंजय शिव अमर हैं, इसलिए 'अमरेश्वर' भी कहलाते हैं। जनसाधारण 'अमरेश्वर' को ही अमरनाथ कहकर पुकारते हैं।[1]

इतिहास

अमरनाथ यात्रा के उद्गम के बारे में इतिहासकारों के अलग-अलग विचार हैं। कुछ लोगों का विचार है कि यह ऐतिहासिक समय से संक्षिप्त व्यवधान के साथ चली आ रही है जबकि अन्य लोगों का कहना है कि यह 18वीं तथा 19वीं शताब्दी में मलिकों या मुस्लिम गडरियों द्वारा पवित्र गुफ़ा का पता लगाने के बाद शुरू हुई। आज भी चौथाई चढ़ावा उस मुसलमान गडरिए के वंशजों को मिलता है। इतिहासकारों का विचार है कि अमरनाथ यात्रा हज़ारों वर्षों से विद्यमान है। तथा बाबा अमरनाथ दर्शन का महत्त्व पुराणों में भी मिलता है। पुराण अनुसार काशी में लिंग दर्शन और पूजन से दस गुना, प्रयाग से सौ गुना और नैमिषारण्य से हज़ार गुना पुण्य देने वाले श्री अमरनाथ के दर्शन है। बृंगेश सहिंता, नीलमत पुराण, कल्हण की राजतरंगिनी आदि में इस का बराबर उल्लेख मिलता है। बृंगेश संहिता में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानों का उल्लेख है जहाँ तीर्थयात्रियों को श्री अमरनाथ गुफ़ा की ओर जाते समय धार्मिक अनुष्ठान करने पड़ते थे। उनमें अनन्तनया (अनन्तनाग), माच भवन (मट्टन), गणेशबल (गणेशपुर), मामलेश्वर (मामल), चंदनवाड़ी (2,811 मीटर), सुशरामनगर (शेषनाग) 3454 मीटर, पंचतरंगिनी (पंचतरणी) 3845 मीटर और अमरावती शामिल हैं।
कल्हण की 'राजतरंगिनी तरंग द्वितीय' में कश्मीर के शासक सामदीमत (34 ईपू-17वीं ईस्वी) का एक आख्यान है। वह शिव का एक बड़ा भक्त था जो वनों में बर्फ़ के शिवलिंग की पूजा किया करता था। बर्फ़ का शिवलिंग कश्मीर को छोड़कर विश्व में कहीं भी नहीं मिलता। कश्मीर में भी यह आनन्दमय ग्रीष्म काल में प्रकट होता है। कल्हण ने यह भी उल्लेख किया है कि अरेश्वरा (अमरनाथ) आने वाले तीर्थयात्रियों को सुषराम नाग (शेषनाग) आज तक दिखाई देता है। नीलमत पुराण में अमरेश्वरा के बारे में दिए गए उल्लेख से पता चलता है कि इस तीर्थ के बारे में छठी-सातवीं शताब्दी में भी जानकारी थी।

कश्मीर के महान् शासकों में से एक था 'जैनुलबुद्दीन' (1420-70 ईस्वी), जिसे कश्मीरी लोग प्यार से बादशाह कहते थे, उसने अमरनाथ गुफ़ा की यात्रा की थी। इस बारे में उसके इतिहासकार जोनराज ने उल्लेख किया है। अकबर के इतिहासकार अबुल फ़जल (16वीं शताब्दी) ने आइना-ए-अकबरी में उल्लेख किया है कि अमरनाथ एक पवित्र तीर्थस्थल है। गुफ़ा में बर्फ़ का एक बुलबुला बनता है। जो थोड़ा-थोड़ा करके 15 दिन तक रोजाना बढता रहता है और दो गज से अधिक ऊंचा हो जाता है। चन्द्रमा के घटने के साथ-साथ वह भी घटना शुरू कर देता है और जब चांद लुप्त हो जाता है तो शिवलिंग भी विलुप्त हो जाता है।

ऑक्सफ़ोर्ड में भारतीय इतिहास के लेखक विसेंट ए स्मिथ ने बरनियर की पुस्तक के दूसरे संस्करण का सम्पादन करते समय टिप्पणी की थी कि अमरनाथ गुफ़ा आश्चर्यजनक जमाव से परिपूर्ण है जहां छत से पानी बूंद-बूंद करके गिरता रहता है और जमकर बर्फ़ के खंड का रूप ले लेता है। इसी की हिन्दू शिव की प्रतिमा के रूप में पूजा करते हैं। स्वामी विवेकानन्द ने 1898 में 8 अगस्त को अमरनाथ गुफ़ा की यात्रा की थी और बाद में उन्होंने उल्लेख किया कि मैंने सोचा कि बर्फ़ का लिंग स्वयं शिव हैं। मैंने ऐसी सुन्दर, इतनी प्रेरणादायक कोई चीज़ नहीं देखी और न ही किसी धार्मिक स्थल का इतना आनन्द लिया है।[2] लारेंस अपनी पुस्तक 'वैली ऑफ़ कश्मीर' में कहते हैं कि मट्टन के ब्राह्मण अमरनाथ के तीर्थ यात्रियों में शामिल हो गए और बाद में बटकुट में मलिकों ने ज़िम्मेदारी संभाल ली क्योंकि मार्ग को बनाए रखना उनकी ज़िम्मेदारी है, वे ही गाइड के रूप में कार्य करते हैं और बीमारों, वृद्धों की सहायता करते हैं। साथ ही वे तीर्थ यात्रियों की जान व माल की सुरक्षा भी सुनिश्चित करते हैं। इसके लिए उन्हें धर्मस्थल के चढावे का एक तिहाई हिस्सा मिलता है। जम्मू कश्मीर में हिन्दुओं के विभिन्न मंदिरों का रख-रखाव करने वाले धमार्थ न्यास की ज़िम्मेदारी संभालने वाले मट्टन के ब्राह्मण और अमृतसर के गिरि महंत जो कश्मीर में सिक्खों की सत्ता शुरू होने के समय से आज तक मुख्यतीर्थ यात्रा के अग्रणी के रूप में 'छड़ी मुबारक' ले जाते हैं, चढावे का शेष हिस्सा लेते हैं।

शेषनाग कैम्प अमरनाथ

अमरनाथ तीर्थयात्रियों की ऐतिहासिकता का समर्थन करने वाले इतिहासकारों का कहना है कि कश्मीर घाटी पर विदेशी आक्रमणों और हिन्दुओं के वहां से चले जाने से उत्पन्न अशांति के कारण 14वीं शताब्दी के मध्य से लगभग तीन सौ वर्ष की अवधि के लिए यात्रा बाधित रही। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि 1869 के ग्रीष्म काल में गुफ़ा की फिर से खोज की गई और पवित्र गुफ़ा की पहली औपचारिक तीर्थ यात्रा तीन साल बाद 1872 में आयोजित की गई थी। इस तीर्थयात्रा में मलिक भी साथ थे।

शिवलिंग

यहाँ की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफ़ा में बर्फ़ से प्राकृतिक शिवलिंग का निर्मित होना है। प्राकृतिक हिम से निर्मित होने के कारण इस 'स्वयंभू हिमानी शिवलिंग' भी कहते हैं। आषाढ़ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षाबंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंग दर्शन के लिए लाखों लोग यहाँ आते हैं। गुफ़ा की परिधि लगभग डेढ़ सौ फुट है और इसमें ऊपर से बर्फ़ के पानी की बूंदे जगह - जगह टपकती रहती है। यही पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूंदों से लगभग 12-18 फुट लंबा शिवलिंग बनता है। यह बूंदे इतनी ठंडी होती है कि नीचे गिरते ही बर्फ़ का रूप लेकर ठोस हो जाती है। चन्द्रमा के घटने-बढ़ने के साथ-साथ इस बर्फ़ का आकार भी घटता-बढ़ता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है। आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंग ठोस बर्फ़ का बना होता है, जबकि गुफ़ा में आमतौर पर कच्ची बर्फ़ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंग से कई फुट दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही अलग अलग हिमखंड है।[1] गुफ़ा में अमरकुंड का जल प्रसाद के रूप में ग्रहण किया जाता है। गुफ़ा में टपकता बूंद-बूंद जल भक्तों के लिए शिव का आशीर्वाद होता है। इस हिम शिवलिंग को लेकर हर एक के मन में जिज्ञासावश प्रश्र उठता है कि आखिर इतनी ऊंचाई पर स्थित गुफ़ा में इतना ऊंचा बर्फ़ का शिवलिंग कैसे बनता है। जिन प्राकृतिक स्थितियों में इस शिवलिंग का निर्माण होता है वह विज्ञान के तथ्यों से विपरीत है। यही बात सबसे ज़्यादा अचंभित करती है। विज्ञान के अनुसार बर्फ़ को जमने के लिए क़रीब शून्य डिग्री तापमान ज़रूरी है। किंतु अमरनाथ यात्रा हर साल जून-जुलाई में शुरू होती है। तब इतना कम तापमान संभव नहीं होता। इस बारे में विज्ञान के तर्क है कि अमरनाथ गुफ़ा के आसपास और उसकी दीवारों में मौजूद दरारे या छोटे-छोटे छिद्रों में से शीतल हवा की आवाज़ाही होती है। इससे गुफ़ा में और उसके आस-पास बर्फ़ जमकर लिंग का आकार ले लेती है। किंतु इस तथ्य की कोई पुष्टि नहीं हुई है।
धर्म में आस्था रखने वाले मानते हैं कि ऐसा होने पर बहुत से शिवलिंग इस प्रकार बनने चाहिए। साथ ही इस गुफ़ा में और शिवलिंग के आस-पास कच्ची बर्फ़ पाई जाती है, जो छूने पर बिखर जाती है। जबकि हिम शिवलिंग का निर्माण पक्की बर्फ़ से होता है। धर्म को मानने वालों के लिए यही अद्भूत बातें आस्था पैदा करती है। बर्फ़ से बनी शिवलिंग को लेकर एक मान्यता यह भी है कि इसकी ऊंचाई चंद्रमा की कलाओं के साथ घटती-बढ़ती है। हालांकि पिछले कुछ वर्षों में बाबा अमरनाथ गुफ़ा के दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की आस्थावश की गई भूलों से शिवलिंग पूरा आकार न ले सका, क्योंकि हर श्रद्धालु बाबा के दर्शन पाकर भाव-विभोर हो जाता है, जिससे वह शिवलिंग को छू कर, धूप, दीपक जलाकर अपनी श्रद्धा प्रगट करता है। संभवत: अधिक श्रद्धालुओं के गुफ़ा में प्रवेश के कारण और उनके द्वारा दीपक या अगरबत्ती आदि जलाने से, तापमान के बढने को ही शिवलिंग के पूर्ण स्वरूप नहीं लेने का कारण माना गया। इसलिए अब अमरनाथ बोर्ड द्वारा भी भक्तों की आस्था को ध्यान में रखते हुए शिवलिंग के दूर से दर्शन और उपासना संबंधी सावधानियों के सख्त नियमों का पालन कराया जाता है। इस प्रकार बाबा अमरनाथ का यह दिव्य शिवलिंग जहां भक्तों की धर्म में आस्था को ऊंचाईयां देता है, वहीं विज्ञान को अचंभित करता है।

अमरनाथ यात्रा शिविर

जनश्रुतियां

जनश्रुति प्रचलित है कि इसी गुफ़ा में माता पार्वती को भगवान शिव ने अमरकथा सुनाई थी, जिसे सुनकर सद्योजात शुक – शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गए।[3] कथा अमरनाथ की मान्यता है कि सतयुग में एक बार देवी पार्वती ने शिव से प्रश्न किया कि आपके अमर होने की क्या कथा है? तथा अनुरोध किया कि वह मानव को अमरता प्रदान बनाने वाला मंत्र उन्हें सिखाएं। महादेव नहीं चाहते थे कि उस ज्ञान को कोई पार्वती के सिवा नश्वर प्राणी सुने, पर वह पार्वती का अनुरोध भी टाल नहीं सकते थे। इसके लिए उन्होंने अमरनाथ की गुफ़ा को चुना, जहां कोई प्राणी न पहुंच सके। वहां उन्होंने पार्वती जी को सारी कथा सुनाई। पर कबूतर के दो अंडे, जो वहां पहले से विद्यमान थे, उस अमर मंत्र को सुनते सुनते वयस्क होकर अमरत्व पा गए। यह भी कहा जाता है कि ये महादेव के ही दो सेवक थे, जो वहां कुरु - कुरु कह कर शोर कर रहे थे, इसलिए शिव ने उन्हें कबूतर बन जाने का शाप दिया, किंतु मंत्र सुन लेने के कारण वे अमर भी हो गए। शिव भक्त मानते हैं कि आज भी गुफ़ा में वे दोनों कबूतर दिखाई पडते हैं, जिन्हें श्रद्धालु अमर पक्षी बताते हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जिन श्रद्धालुओं को कबूतरों का जोड़ा दिखाई देता है, उन्हें शिव पार्वती अपने प्रत्यक्ष दर्शनों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं। यह भी माना जाता है कि भगवान शिव ने अर्द्धांगिनी पार्वती को इस गुफ़ा में एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमें अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई। कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान शंकर जब पार्वती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने सर्वप्रथम बैल को छोड़ा वह स्थान बैलगाम, जो कालांतर में 'पहलगाम' बन गया, छोटे – छोटे अनंत नागों को 'अनंतनाग' में छोड़ा, माथे के चंदन को चंदनबाड़ी में उतारा, गंगाजी को पंचतरणी का नाम मिला, अन्य पिस्सुओं को 'पिस्सू टॉप' पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोड़ा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं। आश्चर्य की बात यह है कि अमरनाथ गुफ़ा एक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढ़ते समय और भी कई छोटी - बड़ी गुफ़ाएं दिखती हैं। वे सभी बर्फ़ से ढकी हैं।

अमरनाथ यात्रा की उद्गम

खोज जुड़ी कथा--
  • लोक मान्यता है कि भगवान शंकर की इस पवित्र गुफ़ा की खोज का श्रेय एक गुज्जर यानि गड़रिये बुटा मलिक को जाता है। एक बार बुटा मलिक पशुओं को चराता हुआ ऊंची पहाड़ी पर निकल गया। वहां उसकी मुलाकात एक संत से हुई। उस संत ने गडरिये को कोयले से भरा थैला दिया। वह थैला लेकर गडरिया घर पहुंचा। जब उसने वह थैला खोला तो वह यह देखकर अचंभित हो गया कि उस थैले में भरे कोयले के टुकड़े सोने के सिक्कों में बदल गए। वह गडरिया बहुत खुश हुआ। वह गडरिया तुरंत ही उस दिव्य संत का आभार प्रकट करने के लिए उसी स्थान पर पहुंचा। लेकिन उसने वहां पर संत को न पाकर उस स्थान पर एक पवित्र गुफ़ा और अद्भुत हिम शिवलिंग के दर्शन किए। जिसे देखकर वह अभिभूत हो गया। उसने पुन: गांव पहुंचकर यह सारी घटना गांववालों को बताई। सभी ग्रामवासी उस गुफ़ा और शिवलिंग के दर्शन के लिए वहां आए। माना जाता है कि तब से ही इस तीर्थयात्रा की परंपरा शुरू हो गई।[4]
  • इसी प्रकार पौराणिक मान्यता है कि एक बार कश्मीर की घाटी जलमग्न हो गई। उसने एक बड़ी झील का रूप ले लिया। जगत् के प्राणियों की रक्षा के उद्देश्य से ऋषि कश्यप ने इस जल को अनेक नदियों और छोटे-छोटे जलस्रोतों के द्वारा बहा दिया। उसी समय भृगु ऋषि पवित्र हिमालय पर्वत की यात्रा के दौरान वहां से गुजरे। तब जल स्तर कम होने पर हिमालय की पर्वत श्रृखंलाओं में सबसे पहले भृगु ऋषि ने अमरनाथ की पवित्र गुफ़ा और बर्फानी शिवलिंग को देखा। मान्यता है कि तब से ही यह स्थान शिव आराधना का प्रमुख देवस्थान बन गया और अनगिनत तीर्थयात्री शिव के अद्भुत स्वरूप के दर्शन के लिए इस दुर्गम यात्रा की सभी कष्ट और पीड़ाओं को सहन कर लेते हैं। यहां आकर वह शाश्वत और अनंत अध्यात्मिक सुख को पाते हैं।
अमरनाथ यात्रा का मानचित्र

अमरनाथ यात्रा

अमरनाथ यात्रा को उत्तर भारत का सबसे पवित्र तीर्थयात्रा माना जाता है। यात्रा के दौरान भारत की विविध परंपराओं, धर्मों और संस्कृतियों की झलक देखी जा सकती है। अमरनाथ यात्रा में शिव भक्तों को कड़ी कठिनाईयों का सामना करना पड़ता है। रास्ते उबड़ - खाबड़ है, रास्ते में कभी बर्फ़ गिरने लग जाती है, कभी बारिश होने लगती है तो कभी बर्फीली हवाएं चलने लगती है। फिर भी भक्तों की आस्था और भक्ति इतनी मज़बूत होती है कि यह सारे कष्ट महसूस नहीं होते और बाबा अमरनाथ के दर्शनों के लिए एक अदृश्य शक्ति से खिंचे चले आते हैं। यह माना जाता है कि अगर तीर्थयात्री इस यात्रा को सच्ची श्रद्धा से पूरा कर तो वह भगवान शिव के साक्षात दर्शन पा सकते हैं।

पहलगाम से अमरनाथ

अमरनाथ की गुफ़ा तक पहुंचने के लिए तीर्थयात्री जम्मू से पहलगाम / पहलगांव जाते हैं। यह दूरी सडक मार्ग से पहलगाम जम्मू से 365 किलोमीटर की दूरी पर है। यह विख्यात पर्यटन स्थल भी है और यह पर्वतों से घिरा क्षेत्र है और सुंदर प्राकृतिक दृश्यों के लिए विश्वप्रसिद्ध है। यह लिद्दर नदी के किनारे बसा है। पहलगाम तक जाने के लिए जम्मू – कश्मीर पर्यटन केंद्र से सरकारी बस उपलब्ध रहती है। यदि आप श्रीनगर के हवाई अड्डे पर उतरते हैं, तो लगभग 96 कि.मी. की सडक - यात्रा कर पहलगाम पहुंच सकते हैं। पहलगाम में ठहरने के लिए सामाजिक - धार्मिक संगठनों की ओर से आवासीय व्यवस्था है। पहलगाम और गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से लंगर की व्यवस्था की जाती है। पहलगाम से एक कि.मी. नीचे ही ‘नुनवन’ में यात्री बेस कैम्प पर पहला पड़ाव होता है। तीर्थयात्रियों की पैदल यात्रा यहीं से आरंभ होती है।[1]

अमरनाथ जाने का रास्ता
चंदनबाड़ी

पहलगाम के बाद पहला पड़ाव चंदनबाड़ी है, जो पहलगाम से 16 किलोमीटर की दूरी पर है। यह स्थान समुद्रतल से 9500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। पहली रात तीर्थयात्री यहीं बिताते हैं। यहां रात्रि निवास के लिए कैंप लगाए जाते हैं। इसके ठीक दूसरे दिन पिस्सु घाटी की चढ़ाई शुरू होती है। लिद्दर नदी के किनारे से इस पड़ाव की यात्रा आसान होती है। यह रास्ता वाहनों द्वारा भी पूरा किया जा सकता है। यहां से आगे जाने के लिए घोड़ों, पालकियों अथवा पिट्ठुओं की सुविधा मिल जाती है। चंदनबाड़ी से पिस्सुटॉप जाते हुए रास्ते में बर्फ़ का पुल आता है। यह घाटी सर्पाकार है।

पिस्सू टाप

चंदनवाड़ी से 3 किमी चढाई करने के बाद आपको रास्ते में पिस्सू टाप पहाडी मिलेगी। जनश्रुतियां हैं कि पिस्सु घाटी पर देवताओं और राक्षसों के बीच घमासान लड़ाई हुई, जिसमें देवताओं ने कई दानवों को मार गिराया था। दानवों के कंकाल एक ही स्थान पर एकत्रित होने के कारण यह पहाडी बन गई। अमरनाथ यात्रा में पिस्सु घाटी काफ़ी जोखिम भरा स्थल है। पिस्सु घाटी समुद्रतल से 11,120 फुट की ऊंचाई पर है। लिद्दर नदी के किनारे - किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज़्यादा कठिन नहीं है। पिस्सू घाटी की सीधी चढ़ाई चढते हैं जो शेषनाग नदी के किनारे चलती है। 12 कि. मी. का लम्बा नदी का किनारा शेषनाग झील पर जाकर समाप्त होता है। यही तो नदी का उदगम स्थल है। (यही नदी पहलगाम से नीचे जाकर झेलम दरिया में मिल जाती है)

शेषनाग

पिस्सू टाप से 12 कि.मी. दूर 11,730 फीट की ऊंचाई पर शेषनाग पर्वत है, जिसके सातों शिखर शेषनाग के समान लगते हैं। यह मार्ग खड़ी चढ़ाई वाला और खतरनाक है। यहां तक की यात्रा तय करने में 4-5 घंटे लगते हैं। यहीं पर पिस्सु घाटी के दर्शन होते हैं। यात्री शेषनाग पहुंच कर तंबू / कैंप लगाकर अपना दूसरा पडाव डालते हैं। यहां पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की ख़ूबसूरत झील है। जिसे शेषनाग झील कहते हैं। इस झील में झांक कर यह भ्रम हो उठता है कि कहीं आसमान तो इस झील में नहीं उतर आया। यह झील क़रीब डेढ़ किलोमीटर लंबाई में फैली है। किंवदंतियों के मुताबिक़ शेषनाग झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं, लेकिन यह दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होते हैं। तीर्थयात्री यहां रात्रि विश्राम करते है और यहीं से तीसरे दिन की यात्रा शुरू करते हैं। शेषनाग और इससे आगे की यात्रा बहुत कठिन है। यहां बर्फीली हवाएं चलती रहती हैं। शेषनाग से पोषपत्री तथा फिर पंचतरणी की दूरी छह किलोमीटर है। पोषपत्री नामक यह स्थान 12500 फीट की ऊंचाई पर स्थित है। पोषपत्री में विशाल भंडारे का आयोजन होता है। यहां भोजन, आवास, चिकित्सा सुविधा, ऑक्सीजन सलैंडर आदि की सुविधा उपलब्ध रहती है।

पंचतरणी
पहलगम नदी अमरनाथ

शेषनाग से पंचतरणी आठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास दर्रे को पार करना पड़ता है, जिनकी समुद्र तल से ऊंचाई क्रमश: 13,500 फुट व 14,500 फुट है। इस स्थान पर अनेक झरनें, जल प्रपात और चश्में और मनोरम प्राकृतिक दृश्य दिखाई देते हैं। महागुणास चोटी से नीचे उतरते हुए 9.4 कि.मी. की दूरी तय करके पंचतरिणी पहुंचा जा सकता है। यहां पांच छोटी – छोटी सरिताएं बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पड़ा है। पंचतरणी 12,500 फीट की ऊँचाई पर स्थित है। यह भैरव पर्वत की तलहटी में बसा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाड़ों की ऊंची – ऊंची चोटियों से ढका है। ऊंचाई की वजह से ठंड भी ज़्यादा होती है। आक्सीजन की कमी की वजह से तीर्थयात्रियों को यहां सुरक्षा के इंतज़ाम करने पड़ते हैं। आगे की यात्रा में भैरव पर्वत मिलता है। इसकी तलहटी में पंचतरिणी नदी है, जहां से पांच धाराएं निकलती हैं। मान्यता है कि पांचों धाराओं की उत्पत्ति शिवजी की जटाओं से हुई है। श्री अमरनाथ के दर्शन से पूर्व का यह तीसरा और अंतिम पडाव है। पंचतरिणी से 3 कि.मी. चलने पर 'अमरगंगा' और 'पंचतरिणी' का संगम स्थल मिलता है। यहां से श्री अमरनाथ की पवित्र गुफ़ा लगभग 3 कि.मी. दूर है और रास्ते में बर्फ़ ही बर्फ़ जमी रहती है। अमरगंगा एक बर्फ़ की पतली सी धारा है, इसी में स्नान करके भक्त जन हाथ में नारियल आदि का चढावा ले श्री अमरनाथ जी के दर्शन करते हैं । इसमें पहले 3 कि.मी. के रास्ते को ‘संत सिंग की पौड़ी’ कहते हैं। यह ऐसी पगडंडी नुमा रास्ता है, जिसके एक ओर पहाड़ व दूसरी ओर गहरी खाई है। यह रास्ता भी काफ़ी जोखिम भरा है। हिम नदी को पार करते ही मुख्य गुफ़ा के दर्शन होते हैं। इसी दिन गुफ़ा के नजदीक पहुंच कर पड़ाव डाल रात बिता सकते हैं और दूसरे दिन सुबह पूजा अर्चना कर पंचतरणी लौटा जा सकता है। कुछ यात्री शाम तक शेषनाग तक वापस पहुंच जाते हैं। यह रास्ता काफ़ी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफ़ा में पहुंचते की सफर की सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।

समुद्र तल से लगभग 13,000 फीट की ऊंचाई पर स्थित इस गुफ़ा में प्रवेश करने पर हम हिम / बर्फ़ से बने शिवलिंग का दर्शन करते हैं। इसके अलावा, हमें बर्फ़ की बनी दो और आकृति दिखाई देती है, जिन्हें पार्वती और गणपति का स्वरूप माना जाता है। गुफ़ा में बूंद-बूंद करके जल टपकता रहता है। ऐसी मान्यता है कि गुफ़ा के ऊपर पर्वत पर श्री राम कुंड है। इसी का जल गुफ़ा में टपकता रहता है। कुछ विद्वान् गुफ़ा में पार्वती की मूर्ति को साक्षात जगदम्बा का स्वरूप मानते हैं और इस स्थान को शक्तिपीठ के रूप में मान्यता देते हैं। पवित्र गुफ़ा में वन्य कबूतर भी दिखाई देते हैं, जिनकी संख्या समय - समय पर बदलती रहती है। सफ़ेद कबूतर के जोडे को देखकर तीर्थयात्री अमरनाथ की कथा को याद कर रोमांचित हो उठते हैं।

बलटाल से अमरनाथ

जम्मू से बलटाल की दूरी 400 किलोमीटर है। यह मार्ग थोड़ा कठिन है, इस रास्ते में जोखिम भी ज़्यादा हैं। इस मार्ग की लंबाई 15 किलोमीटर है। जम्मू से उधमपुर के रास्ते बलटाल के लिए जम्मू कश्मीर पर्यटक स्वागत केंद्र की बसें आसानी से मिल जाती है। बलटाल कैंप से तीर्थयात्री एक दिन में अमरनाथ गुफ़ा की यात्रा कर वापस कैंप लौट सकते हैं। वापसी में बालटाल होकर श्रीनगर की सुंदर वादियों का आनंद लिया जा सकता है। बालटाल से पवित्र गुफ़ा तक हेलिकॉप्टर द्वारा भी पहुंचा जा सकता है। अमरनाथ यात्रा का मार्ग चाहे कठिन और जोखिम भरा हो, लेकिन यह रास्ता प्राकृतिक दृश्यों से भरपूर है। यह यात्रा करके निश्चित रूप से हम भगवान शिव की महिमा से अभिभूत हो जाते हैं।

अमृतसर स्थित अमरनाथ गुफ़ा का नमूना

दर्शन का समय

पूर्णमासी सामान्यत भगवान शिव से संबंधित नहीं है, लेकिन बर्फ़ के पूरी तरह विकसित शिवलिंग के दर्शनों के कारण श्रावण पूर्णमासी (जुलाई - अगस्त) का अमरनाथ यात्रा के साथ संबंध है और पर्वतों से गुजरते हुए गुफ़ा तक पहुंचने के लिए इस अवधि के दौरान मौसम काफ़ी हद तक अनुकूल रहता है। इसलिए बाबा अमरनाथ के दर्शन के लिए तीर्थयात्री अमूमन 'मध्य जून, जुलाई और अगस्त ( आषाढ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षा बंधन तक पूरे सावन महीने)' में आते हैं। जुलाई-अगस्त माह में मॉनसून के आगमन के दौरान पूरी कश्मीर वादी में हर तरफ हरियाली ही हरियाली ही दिखती है। यह हरियाली यहां की प्राकृतिक सुंदरता में चार चांद लगाती है। यात्रा के शुरू और बंद होने की घोषणा श्री अमरनाथ श्राइन बोर्ड करती है। इस यात्रा के साथ मात्र हिन्दुओं की ही नहीं बल्कि मुस्लिम और अन्य धर्म की श्रद्धालुओं की भी आस्था जुड़ी है।

छड़ी मुबारक

रक्षाबंधन के दिन पवित्र अमरनाथ धाम में भगवान शिव का विधिवत पूजन कश्मीर के साधु समाज के प्रमुख और गुफ़ा के मुख्य पुजारी करते हैं। कुछ वर्ष पहले तक साधुओं की टोली के साथ यात्रा की प्रतीक छड़ी मुबारक को श्रीनगर से बिजबेहरा, पहलगाम, चंदनबाड़ी, शेषनाग, पंजतरणी के रास्ते से अमरनाथ लाया जाता था। पर अब छड़ी मुबारक की यह यात्रा जम्मू से शुरू होकर परंपरागत मार्ग से होते हुए सीधे पहलगाम तक होती है। इस मार्ग पर आम यात्री राज्य परिवहन की बसों द्वारा एक दिन में जम्मू से 270 किलोमीटर ऊपर नुनवान कैंप (पहलगाम) में पहुंच जाते हैं। उससे आगे 16 किलोमीटर चंदनवाड़ी तक का सफर टैक्सियों और स्थानीय मिनी बसों द्वारा होता है। आगे चंदनबाड़ी से अमरनाथ तक 32 किलोमीटर पैदल जाने और उतना ही पैदल आने का सफर चार दिनों में तय होता है।

यात्रियों की सुविधा के लिए जम्मू - कश्मीर सरकार का पर्यटन विभाग आरक्षण आदि की व्यवस्था भी करता है। रात्रि विश्राम के लिए टैंट, बिस्तर, फ़ोन इत्यादि की भी अच्छी व्यवस्था हैं। इस पवित्र क्षेत्र में तरह-तरह की उपयोगी जड़ी बूटियां बहुतायत में उगती हैं।

मोबाइल सेवा का शुभारंभ

भारत सरकार ने बृहस्पतिवार को पवित्र अमरनाथ गुफ़ा पर भारत संचार निगम लिमिटेड (बीएसएनएल) की मोबाइल सेवा का अधिकारिक तौर पर शुभारंभ किया। बीएसएनएल ने 13,500 फुट ऊंचाई पर स्थित पवित्र गुफ़ा पर मोबाइल सेवा शुरू करने के लिए बालटाल, नुनवान, लाकीपोरा, बेताब घाटी, संगम / पवित्र गुफ़ा, पंजतरणी, चंदनवाडी व चंदनवाडी बेस कैंप में कुल 11 टावर लगाए हैं। इससे वार्षिक अमरनाथ यात्रा पर आने वाले 4 लाख से अधिक श्रद्धालुओं को लाभ होगा और वे यात्रा के दौरान अपने घर पर परिवार के साथ लगातार संपर्क में रह सकेंगे।

प्राकृतिक शिवलिंग, अमरनाथ गुफ़ा



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 अमरनाथ यात्रा (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) घमासान। अभिगमन तिथि: 28 दिसंबर, 2010।
  2. अमरनाथ यात्रा - एकता की अद्भुत मिसाल (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) स्टार न्युज़ ऐजेंसी। अभिगमन तिथि: 28 दिसंबर, 2010।
  3. पवित्र अमरनाथ मन्दिर और और पौराणिक कहानियाँ (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) चिंतन। अभिगमन तिथि: 21 दिसंबर, 2010।
  4. किसने किए पहले दर्शन बाबा अमरनाथ के (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) दैनिक भास्कर। अभिगमन तिथि: 21 दिसंबर, 2010।

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