"जम और जमाई -काका हाथरसी": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
('{| style="background:transparent; float:right" |- | {{सूचना बक्सा कविता |चित्र=Kaka-Hathrasi.jpg ...' के साथ नया पन्ना बनाया)
 
छो (Text replacement - " नर्क " to "नरक")
 
(3 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 3 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 31: पंक्ति 31:
{{Poemopen}}
{{Poemopen}}
<poem>
<poem>
बड़ा भयंकर जीव है , इस जग में दामाद
बड़ा भयंकर जीव है, इस जग में दामाद
सास - ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद
सास - ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद
कर देता बरबाद , आप कुछ पियो न खाओ
कर देता बरबाद, आप कुछ पियो न खाओ
मेहनत करो , कमाओ , इसको देते जाओ
मेहनत करो, कमाओ, इसको देते जाओ
कहॅं ‘ काका ' कविराय , सासरे पहुँची लाली
कहॅं ‘काका कविराय', सासरे पहुँची लाली
भेजो प्रति त्यौहार , मिठाई भर- भर थाली
भेजो प्रति त्यौहार, मिठाई भर - भर थाली


लल्ला हो इनके यहाँ , देना पड़े दहेज
लल्ला हो इनके यहाँ, देना पड़े दहेज
लल्ली हो अपने यहाँ , तब भी कुछ तो भेज
लल्ली हो अपने यहाँ, तब भी कुछ तो भेज
तब भी कुछ तो भेज , हमारे चाचा मरते
तब भी कुछ तो भेज, हमारे चाचा मरते
रोने की एक्टिंग दिखा , कुछ लेकर टरते
रोने की एक्टिंग दिखा, कुछ लेकर टरते
‘ काका ' स्वर्ग प्रयाण करे , बिटिया की सासू
‘काका' स्वर्ग प्रयाण करे, बिटिया की सासू
चलो दक्षिणा देउ और टपकाओ आँसू
चलो दक्षिणा देउ और टपकाओ आँसू


जीवन भर देते रहो , भरे न इनका पेट
जीवन भर देते रहो, भरे न इनका पेट
जब मिल जायें कुँवर जी , तभी करो कुछ भेंट
जब मिल जायें कुँवर जी, तभी करो कुछ भेंट
तभी करो कुछ भेंट , जँवाई घर हो शादी
तभी करो कुछ भेंट, जँवाई घर हो शादी
भेजो लड्डू , कपड़े, बर्तन, सोना - चाँदी
भेजो लड्डू, कपड़े, बर्तन, सोना - चाँदी
कहॅं ‘ काका ', हो अपने यहाँ विवाह किसी का
कह ‘काका', हो अपने यहाँ विवाह किसी का
तब भी इनको देउ , करो मस्तक पर टीका
तब भी इनको देउ, करो मस्तक पर टीका


कितना भी दे दीजिये , तृप्त न हो यह शख़्श
कितना भी दे दीजिये, तृप्त न हो यह शख़्श
तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर बक्स ?
तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर बक्स ?
अथवा लैटर बक्स , मुसीबत गले लगा ली
अथवा लैटर बक्स, मुसीबत गले लगा ली
नित्य डालते रहो , किंतु ख़ाली का ख़ाली
नित्य डालते रहो, किंतु ख़ाली का ख़ाली
कहँ ‘ काका ' कवि , ससुर नर्क में सीधा जाता
कहँ ‘काका कवि', ससुरनरकमें सीधा जाता
मृत्यु - समय यदि दर्शन दे जाये जमाता
मृत्यु - समय यदि दर्शन दे जाये जमाता


और अंत में तथ्य यह कैसे जायें भूल
और अंत में तथ्य यह कैसे जायें भूल
आया हिंदू कोड बिल , इनको ही अनुकूल
आया हिंदू कोड बिल, इनको ही अनुकूल
इनको ही अनुकूल , मार कानूनी घिस्सा
इनको ही अनुकूल, मार क़ानूनी घिस्सा
छीन पिता की संपत्ति से , पुत्री का हिस्सा
छीन पिता की संपत्ति से, पुत्री का हिस्सा
‘ काका ' एक समान लगें , जम और जमाई
‘काका' एक समान लगें, जम और जमाई
फिर भी इनसे बचने की कुछ युक्ति न पाई
फिर भी इनसे बचने की कुछ युक्ति न पाई।




पंक्ति 70: पंक्ति 70:
{{Poemclose}}
{{Poemclose}}


==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
 
==संबंधित लेख==
==संबंधित लेख==
 
{{काका हाथरसी}}
{{समकालीन कवि}}
[[Category:काका हाथरसी]]
[[Category:काका हाथरसी]]
[[Category:कविता]][[Category:हिन्दी कविता]] [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]]
[[Category:कविता]][[Category:हिन्दी कविता]] [[Category:समकालीन साहित्य]][[Category:साहित्य कोश]]

10:53, 11 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण

जम और जमाई -काका हाथरसी
काका हाथरसी
काका हाथरसी
कवि काका हाथरसी
जन्म 18 सितंबर, 1906
जन्म स्थान हाथरस, उत्तर प्रदेश
मृत्यु 18 सितंबर, 1995
मुख्य रचनाएँ काका की फुलझड़ियाँ, काका के प्रहसन, लूटनीति मंथन करि, खिलखिलाहट आदि
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
काका हाथरसी की रचनाएँ

बड़ा भयंकर जीव है, इस जग में दामाद
सास - ससुर को चूस कर, कर देता बरबाद
कर देता बरबाद, आप कुछ पियो न खाओ
मेहनत करो, कमाओ, इसको देते जाओ
कहॅं ‘काका कविराय', सासरे पहुँची लाली
भेजो प्रति त्यौहार, मिठाई भर - भर थाली

लल्ला हो इनके यहाँ, देना पड़े दहेज
लल्ली हो अपने यहाँ, तब भी कुछ तो भेज
तब भी कुछ तो भेज, हमारे चाचा मरते
रोने की एक्टिंग दिखा, कुछ लेकर टरते
‘काका' स्वर्ग प्रयाण करे, बिटिया की सासू
चलो दक्षिणा देउ और टपकाओ आँसू

जीवन भर देते रहो, भरे न इनका पेट
जब मिल जायें कुँवर जी, तभी करो कुछ भेंट
तभी करो कुछ भेंट, जँवाई घर हो शादी
भेजो लड्डू, कपड़े, बर्तन, सोना - चाँदी
कह ‘काका', हो अपने यहाँ विवाह किसी का
तब भी इनको देउ, करो मस्तक पर टीका

कितना भी दे दीजिये, तृप्त न हो यह शख़्श
तो फिर यह दामाद है अथवा लैटर बक्स ?
अथवा लैटर बक्स, मुसीबत गले लगा ली
नित्य डालते रहो, किंतु ख़ाली का ख़ाली
कहँ ‘काका कवि', ससुरनरकमें सीधा जाता
मृत्यु - समय यदि दर्शन दे जाये जमाता

और अंत में तथ्य यह कैसे जायें भूल
आया हिंदू कोड बिल, इनको ही अनुकूल
इनको ही अनुकूल, मार क़ानूनी घिस्सा
छीन पिता की संपत्ति से, पुत्री का हिस्सा
‘काका' एक समान लगें, जम और जमाई
फिर भी इनसे बचने की कुछ युक्ति न पाई।


 


संबंधित लेख