"पारिजात पंचम सर्ग": अवतरणों में अंतर
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'''दृश्य जगत्''' | |||
'''समुद्र''' | |||
'''रोला (1)''' | |||
वर विभूतिमय बनी विलसते विभव दिखाये। | |||
रसा नाम पा सकी रसा किसका रस पाये। | |||
अंगारक-सा तप्तभूत शीतल कहलाया। | |||
किसके बल से सकल धारातल बहु सरसाया॥1॥ | |||
शस्यश्यामला बनी हरितवसना दिखलाई। | |||
ललित लता-तृण मिले परम अनुपम छवि पाई। | |||
विकसित-वदना रही पहन कुसुमावलि-माला। | |||
किसको पाकर धारा हो सकी दिव की बाला॥2॥ | |||
ह-भ फल-भार नये नव दल से विलसे। | |||
खड़े विविध तरु-निचय खेलते मृदुल अनिल से। | |||
मिले सरसता-हीन अवनि को किसके द्वारा। | |||
मरु को किसने सदय-हृदय बन दी जल-धारा॥3॥ | |||
बीज दाघ का जब निदाघ भव में बोता है। | |||
तपन-ताप से तप्त धारातल जब होता है। | |||
दु:ख-वाष्प तब किसके उर में भर जाता है। | |||
ऊपर उठकर नील नीरधार बन पाता है॥4॥ | |||
कौन नीर-धार? वह, जो है जग-जीवन-दाता। | |||
एक-एक रजकरण को जो है सिक्त बनाता। | |||
जिससे गिरि, तर, परम सरस तरुवर बनता है। | |||
अति कमनीय वितान गगन में जो तनता है॥5॥ | |||
जब सुन्द्र ने परम कुपित हो वज्र उठाया। | |||
काट-काटकर पक्ष पर्वतों को कलपाया। | |||
परम द्रवित उस काल हृदय किसका हो पाया। | |||
किसने बहुतों को स्वअंक में छिपा बचाया॥6॥ | |||
किसने अपनी सुता को बना हरि की दारा। | |||
अयुत-वदन अहि-विष से महि को सदा उबारा। | |||
निम्न-गामिनी नदियों को किसने अपनाया। | |||
सुर-समूह ने सुधा सुधाकर किससे पाया॥7॥ | |||
गरल-कंठ बन सके गरल के यदि अनुरागी। | |||
तो हो दग्धा नहीं दयालुता निधिक ने त्यागी। | |||
जलते बड़वानल ने किससे जीवन पाया। | |||
कौन सुधानिधिक-सा वसुधा में सरस दिखाया॥8॥ | |||
'''समुद्र की सामयिक मूर्ति''' | |||
'''(2)''' | |||
जलनिधिक प्रभात होते ही। | |||
है बहुत दिव्य दिखलाता। | |||
अवलोक दिवस को आता। | |||
है फूला नहीं समाता॥1॥ | |||
स्वागत-निमित्त दिन-पति के। | |||
है पट पाँवड़े बिछाता। | |||
या रागमयी ऊषा की। | |||
रंगत में है रँग जाता॥2॥ | |||
या प्रकृति-सुन्दरी हँसती। | |||
सिन्दूर-भरी है आती। | |||
अपना अनुराग उदधिक के। | |||
अंतर में है भर जाती॥3॥ | |||
या रमा समा अभिरामा। | |||
रमणी है रंग दिखाती। | |||
जग निज ललामता-लाली। | |||
आलय में है फैलाती॥4॥ | |||
कुछ काल बाद वारिधिक में। | |||
है कनक-कान्ति भर जाती। | |||
उर मध्य लालिमा लसती। | |||
है विभामयी बन पाती॥5॥ | |||
दिनमणि सहस्र कर से क्या। | |||
निधिक को है कान्त बनाता। | |||
अनुराग-रँगा अन्तर या। | |||
है दिव्य ज्योति पा जाता॥6॥ | |||
इस काल कूल का तरुवर। | |||
है प्रभा-पुंज से भरता। | |||
रवि-किरणों पर मुक्तावलि। | |||
है निखर निछावर करता॥7॥ | |||
बालुका विलसकर हँसकर। | |||
है बहुत जगमगा जाती। | |||
मिल किरणावलि से लहरें। | |||
हैं मंद-मंद मुसकाती॥8॥ | |||
चट्टानें चमक-चमककर। | |||
चमकीली हैं दिखलाती। | |||
अवलोक वदन दिनमणि का। | |||
हैं अन्तर-ज्योति जगाती॥9॥ | |||
इतने में दूर कहीं पर। | |||
कुहरा उठता दिखलाता। | |||
फिर नीले नभ में फिरता। | |||
सित जलद-खंड आ जाता॥10॥ | |||
थी जगी अयुत-मुख अहि की। | |||
प्रश्वास-प्रक्रिया सोई। | |||
या किसी जलधिक के रिस का। | |||
यह पूर्व रूप था कोई॥11॥ | |||
फिर नील-कलेवर होकर | |||
उसने नीलाम्बर पहना। | |||
बन गया वारिनिधिक-तन का। | |||
दिव-ज्योति-पुंज वर गहना॥12॥ | |||
इस काल मध्य नभ में आ। | |||
रवि था चौगुना चमकता। | |||
उठती तरंग-माला में। | |||
था बन बहु दिव्य दमकता॥13॥ | |||
दिन ढले अचानक नभ में। | |||
है घन-समूह घिर आता। | |||
है वायुवेग से बहती। | |||
भय भू में है भर जाता॥14॥ | |||
हैं विटप विधूनित होते। | |||
है छिपता पुलिन दिखाता। | |||
पत्तों पर बूँद पतन का। | |||
है टपटप नाद सुनाता॥15॥ | |||
इस समय कँपाता उर है। | |||
गंभीर सिंधु का गर्जन। | |||
अमितावदात अंतस्तल। | |||
उत्ताकल-तरंगाकुल तन॥16॥ | |||
विकराल रूप धारण कर। | |||
उत्पातों से लड़ता है। | |||
या प्रबल प्रभंजन पर वह। | |||
बन प्रबल टूट पड़ता है॥17॥ | |||
दिवसान्त देखकर फिर वह। | |||
बनता है कान्त कलेवर। | |||
कर लाभ नीलिमा नभ-सी। | |||
बन रवि-कर से बहु सुन्दर॥18॥ | |||
शारद सुनील नभतल ज्यों। | |||
पा ज्योति जगमगाता है। | |||
दामिनी-दमक से जैसे | |||
श्यामल घन छवि पाता है॥19॥ | |||
कमनीय कान्ति से त्यों ही। | |||
कुछ काल अलंकृत होकर। | |||
निधिक धामिल है बन जाता। | |||
बहु धाम-पुंज से भर-भर॥20॥ | |||
दिव-मण्डन दिनमणि को खो। | |||
क्या वह आहें भरता है। | |||
कर वाष्प-समूह-विसर्जन। | |||
या हृदय-व्यथा हरता है॥21॥ | |||
दुख-सुख हैं मिले दिखाते। | |||
महि परिवर्तन-शीला है। | |||
है कौन द्वंद्व से छूटा। | |||
भव की विचित्र लीला है॥22॥ | |||
रवि छिपे निशामुख-कर ने। | |||
भव-ग्रंथ-पृष्ठ को उलटा। | |||
संकेत समय का पाकर। | |||
पट प्रकृति-नटी ने पलटा॥23॥ | |||
'''रत्नाकर की रत्नाकरता''' | |||
'''(3)''' | |||
वह कमल कहाँ पर मिलता। | |||
जो धाता का है धाता। | |||
पाता वह वास कहाँ पर। | |||
जो सब जग का है पाता॥1॥ | |||
भव-विजयी रव-परिपूरित। | |||
प्रिय कंबु कहाँ पा जाते। | |||
रमणी रमणीय रमापति। | |||
कौस्तुभ-मणि किससे पाते॥2॥ | |||
जिससे शिव-शक्ति-महत्ता। | |||
बुध भव को हैं बतलाते। | |||
वह गरल भयंकर किससे। | |||
कैसे अभयंकर पाते॥3॥ | |||
जिसकी अनुपम सितता से। | |||
सित घन विलसित बन जाते। | |||
वृन्दारक-वन्दित किससे। | |||
ऐरावत-सा गज पाते॥4॥ | |||
है अरुण अरुणता-द्वारा। | |||
जिसकी कनकाभा साजी। | |||
दिनपति कैसे पा सकते। | |||
वह अप्रतिहत-गति वाजी॥5॥ | |||
जिसके कर वसुधा पर भी। | |||
हैं सदा सुधा बरसाते। | |||
शिव-सहित सर्व सुर किससे। | |||
उस सुधा-सदन को पाते॥6॥ | |||
है सदा छलकता रहता। | |||
किसके यौवन का प्यारेला। | |||
सब सुर कैसे पा सकते। | |||
रंभा-सी सुरपुर-बाला॥7॥ | |||
प्रति-दिन किसमें मिल पाता। | |||
पुरहूत-चाप छविवाला। | |||
पावस - तन - रत्न - विभूषण। | |||
घन-कंठ मंजु मणि-माला॥8॥ | |||
भव - सदाचार - सुमनावलि। | |||
जिसको पाकर है खिलती। | |||
जो सुर को सुर है करती। | |||
वह सुरा कहाँ पर मिलती॥9॥ | |||
कामना सदा रहती है। | |||
जिसके प्रिय पय की प्यारेसी। | |||
उस कामधेनु को पाते। | |||
क्यों अमरावती-निवासी॥10॥ | |||
मन-वांछित फल पाते हैं। | |||
सुर-वृन्द सर्वदा जिससे। | |||
नन्दन-कानन को मिलता। | |||
वह कलित कल्पतरु किससे॥11॥ | |||
सुर-असुर-निकर को कैसे। | |||
मोहनी मूर्ति दिखलाती। | |||
सब अमर-वृन्द को किससे। | |||
अभिलषित सुधा मिल पाती॥12॥ | |||
होता निदान रोगों का। | |||
क्यों भोगों के मुख खिलते। | |||
किसके सुअंक से भव को। | |||
धान्वन्तरि-से सुत मिलते॥13॥ | |||
क्यों महि का पानी रहता। | |||
कैसे बहता रस-सोता। | |||
तो जीवन जीव न पाते। | |||
जो जग में जलधिक न होता॥14॥ | |||
'''समुद्र का संताप''' | |||
'''(4)''' | |||
क्यों धारती पर पड़े हुए तुम। | |||
सदा तड़पते रहते हो। | |||
क्यों रह-रहकर चिल्लाते हो। | |||
क्यों आकुल बन बहते हो॥1॥ | |||
बतला दो क्यों चल दलदल-सा। | |||
हृदय तुम्हारा हिलता है। | |||
बार-बार कँपने से क्यों। | |||
छुटकारा तुम्हें न मिलता है॥2॥ | |||
डूब-डूब करके ऑंसू में। | |||
क्यों तुम कलपा करते हो। | |||
वाष्प-समूह-विमोचन कर | |||
क्यों प्रति-दिन आहें भरते हो॥3॥ | |||
कौन-सी जलन है वह जिससे। | |||
जलते सदा दिखाते हो। | |||
बहुत क्षुभित होते हो तुम। | |||
क्यों परम कुपित बन पाते हो॥4॥ | |||
छिने चतुर्दश रत्न इसी से। | |||
विपुल व्यथा क्या होती है। | |||
उसकी सुधिक वेदनामयी बन। | |||
बिलख-बिलख क्या रोती है॥5॥ | |||
हो मर्यादाशील; किन्तु है। | |||
प्रलयंकरी प्रबल धारा। | |||
कलित ललित लीलामय हो; पर | |||
सलिल तुम्हारा है खारा॥6॥ | |||
कला-कान्त है परम प्रिय सुअन। | |||
किन्तु नितान्त कलंकित है। | |||
क्षय-रुज-ग्रसित प्रचंड राहु से। | |||
त्रासित प्रवंचित शंकित है॥7॥ | |||
सकल-लोकपति-अंक-शायिनी। | |||
रमा-समा दुहिता प्यारी। | |||
है चंचला उलूक-वाहना। | |||
विपुल विलासमयी नारी॥8॥ | |||
जिस घन के तुम पूज्य पिता हो। | |||
जिसने सरस हृदय पाया। | |||
जिससे सलिल मिले रहती है। | |||
हरी-भरी महि की काया॥9॥ | |||
एक-एक रजकण तक जिससे। | |||
सतत सिक्त हो पाता है। | |||
वह बहुधा कर पवि-प्रहार। | |||
तुम पर ओले बरसाता है॥10॥ | |||
क्या ये सारी मर्म-वेधिकनी। | |||
बातें व्यथित बनाती हैं। | |||
विविध रूप धारकर तुमको। | |||
दुख देतीं, बहुत सताती हैं॥11॥ | |||
सदा तुम्हा अन्तस्तल में। | |||
हैं विपत्तिक-भंजन रहते। | |||
नहीं समझ में आता कैसे। | |||
तब विपत्तिक वे हैं सहते॥12॥ | |||
लाखों बरस कमल-दल पर। | |||
तुमने कमलासन को पाला। | |||
अहह उन्होंने तुमको कैसे। | |||
ऐसे संकट में डाला॥13॥ | |||
नहीं सोच सकता कुछ कोई। | |||
क्यों न विबुध हो कैसा ही। | |||
यह संसार रहा रहस्यमय। | |||
सदा रहेगा ऐसा ही॥14॥ | |||
'''सागर की सागरता''' | |||
'''(5)''' | |||
फूल पत्तो जिससे पाये। | |||
मिली जिससे मंजुल छाया। | |||
मधुरता से विमुग्ध हो-हो। | |||
मधुरतम फल जिसका खाया॥1॥ | |||
जो सहज अनुरंजनता से। | |||
नयन-रंजन करता आया। | |||
काट उस ह-भ तरु को। | |||
जन-दृगों में कब जल आया॥2॥ | |||
धारातल-अंक में विलसती। | |||
लता कल कोमल दलवाली। | |||
कलित कुसुमावलि से जिसकी। | |||
सुछवि मुख की रहती लाली॥3॥ | |||
वहन करके सौरभ जिसका। | |||
सौरभित था मारुत होता। | |||
कुचलकर उसे राह चलते। | |||
क्या कभी जन-मन है रोता॥4॥ | |||
किसी सुन्दर तरु पर बैठी। | |||
निरखता निखरी हरियाली। | |||
छटा अवलोक प्रसूनों की। | |||
मत्तता कर की सुन ताली॥5॥ | |||
मुग्ध हो परम मधुर स्वर से। | |||
गीत जो अपने गाता है। | |||
वेधाकर उस निरीह खग को। | |||
मनुज-मन क्या बिंधा पाता है॥6॥ | |||
'सहज अलबेलापन' छवि लख। | |||
जाल में जिसकी फँसता है। | |||
बड़ा ही अनुपम भोलापन। | |||
ऑंख में जिसकी बसता है॥7॥ | |||
घास खा, वन में रह, जो मृग। | |||
बिताता है अपना जीवन। | |||
बेधाकर उसको बाणों से। | |||
क्या कलपता है मानव-मन॥8॥ | |||
फूल-जैसे लाखों बालक। | |||
पाँव से उसने मसले हैं। | |||
लुट गयी अगणित ललनाएँ। | |||
कभी जो तेवर बदले हैं॥9॥ | |||
लोभ की लहरों में उसकी। | |||
करोड़ों कलप-कलप डूबे। | |||
न बेड़ा पार हुआ उनका। | |||
भले थे जिनके मनसूबे॥10॥ | |||
लहू की प्यासे न बुझ पाई। | |||
बीतती जाती हैं सदियाँ। | |||
उतरते ही जाते हैं सिर। | |||
रुधिकर की बहती हैं नदियाँ॥11॥ | |||
आज तक सके न उतने बस। | |||
उजाडे ग़ये सदन जितने। | |||
सकेगा समय भी न बतला। | |||
उता गये गले कितने॥12॥ | |||
पिसे उसके कर से सुरपति। | |||
लुट गया धनपति का सब धन। | |||
नगर सुरपुर-जैसे उजड़े। | |||
मरु बने लाखों नन्दन-वन॥13॥ | |||
पर नहीं मनु-सुत के सिर पर। | |||
पड़ सकी सुरतरु की छाया। | |||
सदा उर बना रहा पवि-सा। | |||
कलेजा मुँह को कब आया॥14॥ | |||
देख निर्ममता मानव की। | |||
प्रकृति कब नहीं बहुत रोई। | |||
जमा है यह उसका ऑंसू। | |||
नहीं है यह सागर कोई॥15॥ | |||
'''शार्दूल-विक्रीडित''' | |||
'''(6)''' | |||
कैसे तो अवलोकता निज छटा तारों-भरी रात में। | |||
कैसे नर्त्तन देखता सलिल में लाखों निशानाथ का। | |||
होती वारिधिक-मध्य दृष्टिगत क्यों ज्योतिर्मयी भूतियाँ। | |||
आईना मिलता न जो गगन को दिव्याभ अंभोधिक-सा॥1॥ | |||
संध्याकाल हुए व्यतीत भव में आये-अमा यामिनी। | |||
सन्नाटा सब ओर पूरित हुए, छाये महा कालिमा। | |||
नीचे-ऊपर अंक में उदधिक के सर्वत्र भू में भ। | |||
तो देखें तमपुंज को प्रलय का जो दृश्य हो देखना॥2॥ | |||
क्या धान्वन्तरि के समान सुकृति, क्या दिव्य मुक्तावली। | |||
क्या आरंजित मंजु इन्द्रधानु, क्या रंभा-समा सुन्दरी। | |||
सा रत्न-समूह भव्य भव के अंभोधिक-संभूत हैं। | |||
क्या कल्पद्रुम, क्या सुधा, सुरगवी, क्या इन्दु, क्या इन्दिरा॥3॥ | |||
होता है सित दिव्यक्षीर निधिक-सा राका सिता से लसे। | |||
पाता है बहते हिमोपल भ कल्लोल से भव्यता। | |||
जाता है बन कान्त मत्स्य-कुल की आलोक-माला मिले। | |||
देखी है किसने कहाँ उदधिक-सी स्वर्गीय दृश्यावली॥4॥ | |||
आभा से भर के सतोगुण हुआ सर्वांग में व्याप्त है। | |||
या सारा जल हो गया सित बने क्षीराब्धिक के दुग्धा-सा। | |||
या भू में, नभ में, समुद्र-तन में है कीत्तिक श्री की भरी। | |||
या राका-रजनी-विभूति-बल से वारीश है राजता॥5॥ | |||
है उत्ताकल तरंग में विलसती उद्दीप्त शृंगावली। | |||
किंवा हैं जल-केलि-लग्न जल में ज्योतिष्क आकाश के। | |||
किंवा हीरक-मालिका उदधिक में हैं अर्बुदों शोभिता। | |||
किंवा हैं हिम के समूह बहुश: पाथोधिक में तैरते॥6॥ | |||
जैसे हैं तमपुंज भूरि भरते पाथोधिक के अंक में। | |||
वैसे ही बहु दिव्य मीन विधिक ने अंभोधिक को हैं दिये। | |||
आये मूर्तिमती मसी सम निशा घोरांधाकारावृता। | |||
विद्युद्दीप-समान है दमकती वारीश-मत्स्यावली॥7॥ | |||
ऊषा-से अनुराग-राग-लसिता शोभा मनोरंजिनी। | |||
स्वर्णाभा रवि के सहस्र कर से राका निशा से सिता। | |||
भू से भूरि विभूति पूत विधु से सच्ची सुधा-सिक्ता। | |||
पाता है रस-धाम वारि-धार से वारीश-मुक्तावली॥8॥ | |||
आये घोर विभावरी उदधिक में तेजस्विता है भरी। | |||
या आलोक-निकेत मीन-कुल हैं कल्लोल में डोलते। | |||
किंवा मंथन से पयोधिक-पय के विद्युद्विभा है जगी। | |||
या व्यापी वडवाग्नि-दीप्ति-बल से दीपावली है बली॥9॥ | |||
नीले व्योम-समान है विलसता, है मोहता कान्त हो। | |||
है आर्वत-समूह से थिरकता, है नाचता मत्त हो। | |||
है पाता रवि से अलौकिक विभा, राकेश से दिव्यता। | |||
है शोभामय सिंधु की सलिलता लावण्यलीलामयी॥10॥ | |||
होती है गुरु गर्जनाति-विकटा विद्युन्निपाताधिकका। | |||
देखे तुंग तरंग-भंग भरती है भीति सर्वांग में। | |||
होते हैं बहु पोत भग्न पल में आर्वत गर्त में। | |||
भू में भूरि विभीषिका भरित है अंभोधिक अंभोधिक-सा॥11॥ | |||
है सर्वाधिकक वारि-लाभ करता पाथोधिक पर्जन्य से। | |||
सारा तोय-समूह सर्व नदियाँ देतीं उसे सर्वदा। | |||
तो भी है वह अल्प भी न बढ़ता, सीमा नहीं त्यागता। | |||
पाते हैं किसमें रसाधिकपति-सी गंभीरता धीरेरता॥12॥ | |||
पानी है रखता, गँभीर रहता, है धीरेरता से भरा। | |||
जाती पास नहीं कदापि कटुता अस्निग्धता क्षुद्रता। | |||
देखी नीरसता कभी न उसमें, पाई नहीं शुष्कता। | |||
है मर्यादित कौन नीरनिधिक-सा संसार में दूसरा॥13॥ | |||
पाई श्री हरि ने, तुरंग रवि ने, मातंग देवेन्द्र ने। | |||
सा उत्ताम रत्न कल्पतरु से वृन्दारकों ने लिये। | |||
देखो मन्थन में अगाधा निधिक के क्या दानवों को मिला। | |||
होती है वर बुध्दि ही जगत में सर्वार्थ की साधिकका॥14॥ | |||
टाली भीति नृलोक की, गरलता पाथोधिक की दूर की। | |||
थोड़ा लेकर वक्र अंश शशि का राकेशता दी उसे। | |||
क्या पाया शिव ने सिवा गरल के दे दी सुरों को सुधा। | |||
होते हैं महनीय कीत्तिक महि में माहात्म्य की मूर्तियाँ॥15॥ | |||
नाना क्रूर प्रचंड जन्तु कुल के उत्पीडनोत्पात से। | |||
आता है बहु झाग सिंधु-मुख से क्या क्षुब्धाता के बढे। | |||
किंवा सात्तिवक भाव क्रुध्द उर से उत्क्षिप्त है हो रहा। | |||
होता फेनिल है समुद्र बहुधा या शेष फूत्कार से॥16॥ | |||
बारंबार सुना विकम्पिकरी अत्युत्कटा गर्जना। | |||
नाना दृश्य दिखा-दिखा प्रलय के आर्वत-माला मिले। | |||
होती है विकराल मूर्ति निधिक की अत्यन्त त्राकसप्रसू। | |||
हो आन्दोलित चंड वायुबल से, कल्लोल से लोल हो॥17॥ | |||
छोटे हैं बनते विशाल, लघुता पाते महाद्वीप हैं। | |||
डूबे देश कई, बनी मरु मही भू शस्य से श्यामला। | |||
कैसी है यह नीति सिंधु! तुममें क्या है महत्ता नहीं। | |||
होते हैं जल-मग्न वे नगर जो थे स्वर्र्ग-जैसे लसे॥18॥ | |||
खाते हैं लघु को बड़े रिपु बने हैं निर्बलों के बली। | |||
नाना आश्रित व्यर्थ कष्ट कितने हैं भोगते सर्वदा। | |||
हो ऐसे ममता-विहीन निधिक क्यों हो के महाविक्रमी। | |||
सा जंतु-समूह मत्स्य-कुल के हो जन्मदाता तुम्हीं॥19॥ | |||
तो क्या हैं गिरि-तुल्य तुंग लहरें क्या है महागर्जना। | |||
है रत्नाकरतातितुच्छ विभुता है व्यर्थ आर्वत की। | |||
तो है हेय अगाधाता सरसता गंभीरता सिंधु की। | |||
कष्टों से बहु आत्ता मत्स्य-कुल जो है त्राकण पाता नहीं॥20॥ | |||
पोतों को कर मग्न भग्न कब है होती समुद्विग्नता। | |||
लाखों का कर प्राण-नाश उसको रोमांच होता नहीं। | |||
लाती है अवसन्नता न उसमें संहार-दृश्यावली। | |||
जैसा निर्दयता-निकेत निधिक है, है वज्र वैसा कहाँ॥21॥ | |||
हो सम्मानित भव्य भाव प्रतिभू हो भूतियों से भरा। | |||
पापों का फल पा सका सब सदा दुर्वृत्तिकयाँ हैं बुरी। | |||
सा रत्न छिने, विलोड़ित हुआ, है दग्धा होता महा। | |||
पी डाला मुनि ने, तिरस्कृत बना, पाथोधिक बाँधा गया॥22॥ | |||
कैसे मान सकें तुझे सरस, तू संताप-सन्देह है। | |||
जो तू है पवि-सा, तुझे तरलता-सर्वस्व कैसे कहे। | |||
हों ऊँची उठती, परन्तु निधिक! हैं तेरी तरंगें बुरी। | |||
होते हैं बहु पोत भग्न जिनसे, है मग्न होती तरी॥23॥ | |||
हैं नाना विकराल जन्तु उसमें, आपत्तिकयाँ हैं भरी। | |||
है संहारक, मूर्तिमन्त यम है, आतंक का केन्द्र है। | |||
तो भी है यह बात सत्य भव का कोई यशस्वी सुधीरे। | |||
पारावार अपार दिव्य गुण का है पार पाता नहीं॥24॥ | |||
होती है विभुता-विभूति विदिता सद्रत्न-माला मिले। | |||
देती है बतला सदैव गुरुता गंभीरता गर्जना। | |||
गाती है गुण-मालिका सरव हो सारी तरंगावली। | |||
राका रम्य निशा सिता जलधिक को र्सत्कीत्तिक की मूर्ति है॥25॥ | |||
</poem> | </poem> | ||
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09:45, 17 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
पारिजात | एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- पारिजात (बहुविकल्पी) |
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दृश्य जगत् |
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