अन्तर्जगत्
मन
(1)
मंजुल मलयानिल-समान है किसका मोहक झोंका।
विकसे कमलों के जैसा है विकसित किसे विलोका।
है नवनीत मृदुलतम किसलय कोमल है कहलाता।
कौन मुलायम ऊन के सदृश ऋजुतम माना जाता॥1॥
मंद-मंद हँसनेवाला छवि-पुंज छलकता प्यारेला।
कौन कलानिधि के समान है रस बरसानेवाला।
मधु-सा मधुमय कुसुमित विलसित पुलकित कौन दिखाया।
नव रसाल पादप-सा किसको मंजु मंजरित पाया॥2॥
रंग-बिरंगी घटा-छटा से चित्त चुराये लेते।
नवल नील नीरद-सा किसको देखा जीवन देते।
प्रिय प्रभात-सी पावनता स्निग्धता किसे मिल पाई।
द्रवणशीलता द्रवित ओस-सी किसमें है दिखलाई॥3॥
उठ-उठकर तरंग-मालाएँ किसकी मिलीं सरसती।
सहज तरलता सरिता-सी है किसमें बहुत विलसती।
भले भाव से भूरि भरित है कौन बताया जाता।
मृग-शावक-सा भोलापन है किसका अधिक लुभाता॥4॥
किसकी लाली अवनी में अनुराग-बीज है बोती।
उषा सुन्दरी सी अनुरंजनता है किसमें होती।
परम सरलता सरल बालकों-सी है किसमें मिलती।
किसी अलौकिक कलिका-जैसी किसकी रुचि है खिलती॥5॥
दलगत ओस-बिन्दुओं तक की कान्ति बढ़ानेवाली।
रवि-प्रभात-किरणों की-सी है किसकी कला निराली।
मानव का अति अनुपम तन है किसका ताना-बाना।
मन-समान बहु मधुर विमोहक महि ने किसको माना॥6॥
मानस-महत्ता
(2)
जो कुसुमायुधा कुसुम-सायकों से है विध्द बनाता।
जिसका मोहन मंत्र त्रिकदेवों पर भी है चल पाता।
प्राणि-पुंज क्या, तृण तक में भी जो है रमा दिखाता।
अवनी-तल में जनन-सृष्टि का जो है जनक कहाता॥1॥
सुन्दरता है स्वयं बलाएँ सब दिन जिसकी लेती।
छटा निछावर हो जिसकी छवि को है निज छवि देती।
नारि-पुरुष के प्रेम-सम्मिलन का जो है निर्म्माता।
वह संसार-सूत्र-संचालक मनसिज है कहलाता॥2॥
जिसकी ज्वालाओं में जलते दिग्विजयी दिखलाये।
जिसने करके धवंस धूल में नाना नगर मिलाये।
लोक-लोक विकराल मूर्ति अवलोके हैं कँप जाते।
जिसके लाल-लाल लोचन हैं काल-गाल बन पाते॥3॥
जिसका सृजन आत्म-संरक्षण के निमित्त हो पाया।
जिसने कर भूर-भंग विश्व को प्रलय-दृश्य दिखलाया।
अति कराल-वदना काली जिसकी प्रतीक कहलाई।
उस दुर्वार क्रोधा ने किससे ऐसी क्षमता पाई॥4॥
जिसका उदधिक विशाल उदर है कभी नहीं भर पाता।
लोकपाल जिसकी लहरों में है बहता दिखलाता।
तीन लोक का राज्य अवनि-मण्डल की सारी माया।
पाने पर भी जिसे सर्वदा अति लालायित पाया॥5॥
कामधेनु-कामदता, सुर-तरु की सुर-तरुता न्यारी।
जिसे तृप्त कर सकीं न चिन्तामणि-चिन्ताएँ सारी।
धनद विपुल धन प्राप्त हुए भी जो है नहीं अघाता।
उस लोलुपता-भ लोभ का कौन कहाता धाता॥6॥
छूट-छूटकर जिसके बंधन में है भव बँधा जाता।
जुड़ा हुआ है जिसके द्वारा वसुन्धारा का नाता।
यह जन मेरा, यह धन मेरा, राज-पाट यह मेरा।
ममता की इस मायिकता ने है घर-घर को घेरा॥7॥
जिसने महाजाल फैलाकर लगा-लगाकर लासा।
बात क्या सकल दनुज-मनुज की, सुर-मुनि तक को फाँसा।
विधिक-विरचित नाना विभूतियाँ मूठी में हैं जिसकी।
उस विमोहमय मोह में भरित मिली भावना किसकी॥8॥
जो प्रसून के सदृश चाहता है तारक को चुनना।
जिसके लिए सुलभ है कर से सिता-वसन का बुनना।
सुधा सुधाकर की निचोड़ना हँसी-खेल है जिसको।
जो सुन्द्र का पद दे देता है सदैव जिस-तिसको॥9॥
जिसका तेज नहीं सह सकता दिनकर-सा तेजस्वी।
मान महीपों का हर जो है बनता महा यशस्वी।
जिसका पाँव चूमती रहती है वसुधा की माया।
ऐसा मद उस अहं-भाव ने किस मदांध से पाया॥10॥
जिसके शिर पर है गौरव-मणि-मण्डित मुकुट दिखाता।
जिसको विजय-दुंदुभी का रव है सब ओर सुनाता।
अन्तस्तल-विभूतियों का अधिकपति है कौन कहाता।
महामहिम मन के समान मन ही है माना जाता॥11॥
महामहिम मन
(3)
उन विचित्र विभवों को जिनका प्रकृति-नटी से नाता है।
उन अपूर्व दृश्यावलियों को जिनको गगन दिखाता है।
उस छवि को भूतल सदैव जिसको स्वअंक में रखता है।
नयन न होते भी अनन्त नयनों से कौन निरखता है॥1॥
उस स्वर-लहरी को सदैव जो झंकृत होती रहती है।
सरस सुधा-धारा समस्त वसुधा पर जिससे बहती है।
प्राणि-पुंज जिसको सुन-सुन हो-हो विमुग्ध सिर धुनता है।
उसे कौन हो कान-रहित अगणित कानों से सुनता है॥2॥
उस सुगंध को जो मलयानिल को सुगन्धिकमय करता है।
रंग-बिरंगी कुसुमावलि में बहु सुवास जो भरता है।
मृग-मद-अगरु-चन्दनादिक को जो महँ-महँ महँकाता है।
उसे एक नासिका-हीन क्यों सूँघ नाक से पाता है॥3॥
कौन-कौन व्यंजन कैसा है, तुरत यह समझ जाता है।
मधुर फलों की मधुमयता का भी अनुभव कर पाता है।
जो जैसा है भला-बुरा उसको वैसा कह देता है।
रसनाहीन कौन बहु रसनाओं से सब रस लेता है॥4॥
मधुर लयों से बड़े मनोहर सुन्दर गीत सुनाता है।
बडे-बड़े ग्रंथों का कितना पढ़ा पाठ पढ़ जाता है।
बिना कंठ के कौन सदा अगणित कंठों से गाता है।
वाणी बिना कौन वक्ता बन वाणी का पद पाता है॥5॥
है कोमल-कठोर का अनुभव सर्द-गर्म का ज्ञाता है।
मलय-पवन से है सुख पाता, तप्त समीर तपाता है।
परसे कुसुम मुदित होता है, दवस्पर्श दुख देता है।
बिना त्वचा के कौन त्वचा के सकल कार्य कर लेता है॥6॥
सुन्दर मोती-से अक्षर लिख मोती कब न पिरोता है।
कनक-प्रसू वसुधातल को कर बीज विभव के बोता है।
चित्रा-विचित्र बेल-बूटे रच रंग अनूठे भरता है।
कर के बिना कौन बहु कर से काम अनेकों करता है॥7॥
जल में, थल में तथा गगन में पल में जाता-आता है।
उसकी चाल देखकर खगपति चकित बना दिखलाता है।
पवन-पूत क्या, स्वयं पवन कब गति में उसको पाता है।
पद के बिना विपुल पद से चल पदक कौन पा जाता है॥8॥
सकल इन्द्रियाँ बन विमूढ़ कर्तव्य नहीं कर पाती हैं।
जो सहयोग न मानस का हो तो असफल हो जाती हैं।
अन्तस्तल के मूलभूत भावों में वही समाया है।
मानव-तन में महाबली मन ही की सारी माया है॥9॥
मन से लिपटी ललनाएँ
(4)
ऑंखें हँस-हँस सदा अनेकों अद्भुत दृश्य दिखाती हैं।
ला सामने छटाएँ क्षिति की कर संकेत बताती हैं।
जो हम होती नहीं, भरा भूतल में अंधियाला होता।
किसी हृदय में नहीं प्रेम-रस का बहता मिलता सोता॥1॥
खग-कलरव वीणा-निनाद मुरली-वादन का मंजुल स्वर।
सकल राग आलाप किसी गायक का गान विमोहित कर।
उन सरिताओं का कलकल जो मंथर गति से बहती हैं।
सुना-सुनाकर श्रुतियाँ सब दिन बहुत रिझाती रहती हैं॥2॥
अवनीतल कुसुमावलि-सौरभ से सुरभित शरीर-द्वारा।
केसर की कमनीय क्यारियों का लेकर सुवास सारा।
मृग-मद कस्तूरी कपूर की मधुर मनोज्ञ सुरभि से भर।
स्नेहमयी नासिका सदा रहती है सेवा में तत्पर॥3॥
विपुल व्यंजनों पकवानों का स्वाद बता सुख देती है।
चखा-चखाकर मीठे-मीठे फल मोहित कर लेती है।
नीरसता से निबट सरसता-धाराओं में बहती है।
रसिका रसना विविध रसों से रस उपजाती रहती है॥4॥
बड़ी मधुर बातें कहती है, गीत मनोहर गाती है।
मधुमय ध्वनि स्वर्गीय स्वरों से सरस सुधा बरसाती है।
परम रुचिर रचनाएँ पढ़-पढ़ बहुत विमुग्ध बनाती है।
वाणी की मनोज्ञतम वीणा वाणी सदा बजाती है॥5॥
है अनुराग-राग-अनुरंजित रस से भरी दिखाती है।
है सहृदयता-मूर्ति प्रिय-वदन देखे दिवस बिताती है।
बनती है वर विभा तिमिर में बहँके पथ बतलाती है।
है समता की नहीं कामना, मति ममता में माती है॥6॥
काम पड़े पर काम चलाना पड़ता है जैसे-तैसे।
क क्यों न लीलाएँ कितनी बचे बेचारा मन कैसे।
नहीं छोड़ती क्षण-भर भी, कर विविध कलाएँ चिमटी हैं।
एक-दो नहीं, आठ-आठ ललनाएँ मन से लिपटी हैं॥7॥
मन और अलबेली ऑंखें
(5)
जादू चलता ही रहता है, तिरछी ही वे रहती हैं।
चुप रहकर भी मचल-मचलकर सौ-सौ बातें कहती हैं।
कैसे भला न तड़पे कोई, करती रहती हैं वारें।
काट कब नहीं होती है, चलती रहती हैं तलवारें॥1॥
सीधो नहीं ताकते देखा, टेढ़ी हैं इनकी चालें।
कैसे पटे बलाएँ अपनी जो वे औरों पर डालें।
लोग छटपटायें तो क्या, वे छाती छेदा करती हैं।
छलनी बने कलेजा कोई, कब वे छल से डरती हैं॥2॥
मरनेवाले मरें, मरें, पर वे तो विष उगलेंगी ही।
चोखे-चोखे बान चलाकर जान किसी की लेंगी ही।
दिल को छीने लेती हैं, किस लिए भला वे दिल देंगी।
तन बिन जाय भले ही कोई, वे तो तेवर बदलेंगी॥3॥
कभी रस बरसती रहती हैं, हँसती कभी दिखाती हैं।
कभी लाल-पीली होती हैं, कभी काल बन जाती हैं।
कभी निकलती है चिनगारी, कभी बहुत ही जलती है।
बहँके किसी के कलेजे पर कभी मूँग वे दलती हैं॥4॥
फिरते देर नहीं होती, अकसर वे अड़ती रहती हैं।
बड़ी-बड़ी ऑंखों से जब देखो तब लड़ती रहती हैं।
उलझें, कड़ी पड़ें, भर जायें, बात-बात में रो देवे।
यही बान है ऑंख लग गये अपने को भी खो देवे॥5॥
हिली-मिली वे रहे भले ही, मगर उलट भी जाती हैं।
लगती हो टकटकी, पर कभी पलके नहीं उठाती हैं।
ऑंसू आते हैं उनमें, पर मकर-भ वे होते हैं।
वे पानी हैं, मगर आग औरों के घर में बोते हैं॥6॥
बूँदें वे मोती हैं जिनके पानेवाले रोते हैं।
अपना पानी रखकर जो औरों का पानी खोते हैं।
कभी धार बँधाती है तो बन जाते ऐसे सोते हैं।
जिनमें बहकर लोग हाथ सब अरमानों से धोते हैं॥7॥
चाह पीसने लग जाती है, आह बहुत तड़पाती है।
कभी टपकते हैं तो टपक फफोलों की बढ़ जाती है।
पागल बने नहीं मन कैसे जब कि हैं पहेली ऑंखें।
सिर पर उसके जब सवार हैं दो-दो अलबेली ऑंखें॥8॥
शार्दूल-विक्रीडित
(6)
होता है मधु स्वयं मुग्ध किसकी देखे मनोहारिता।
पाती है महि में कहाँ विकचता पुष्पावली ईदृशी।
ऐसी है कलिता द्रुमावलि कहाँ, कान्ता लता है कहाँ।
लोकों में नयनाभिराम मन-सा आराम है कौन-सा॥1॥
होती है बहु रत्न-राजि-रुचिरा मुक्तावली-मंडिता।
लीला मूर्तिमती अतीव ललिता उल्लासिता रंजिता।
नाना नर्त्तन-कला-केलि-कलिता आलोक-आलोकिता।
मंदादोलित सिंधु-तुल्य मन की कान्ता तरंगावली॥2॥
होती है शशि-कला-कान्त रवि की रम्यांशु-सी रंजिता।
ऊषा-सी अनुराग-राग-लसिता प्रात:प्रभोद्भासिता।
दिव्या तारक-मालिका-विलसिता नीलाभ्र-शोभांकिता।
रंगारंग छटा-निकेत मन की नाना तरंगावली॥3॥
जो हो पातक-मूर्ति जो भरित हो पापीयसी पूत्तिक से।
पाके ताप अतीव भूमि जिससे हो भूरि उत्ताकपिता।
जो हो दानवता विभूति जिसमें दुर्भावना हो भरी।
पूरी हो न प्रभो! कभी मनुज की ऐसी मनोकामना॥4॥
है चिन्तामणि चिन्तनीय विदिता है कौस्तुभी कल्पना।
है कल्पद्रुम-मर्म ज्ञात सुर-गो की गीतिका है सुनी।
है क्या पारस? है रहस्य समझा, बातें गढ़ी हैं गयी।
ये क्या हैं? मन के प्रतीक अथवा हैं मानसी प्रक्रिया॥5॥
कैसे तो मचले न क्यों न बहके कैसे सुनाई सुने।
कैसे तो बिगडे बने न कहके बातें बड़ी बेतुकी।
कैसे तो हठ ठान के न तमके सारी बुराई क।
ताने तो फिर क्यों भला न मन जो माने मनाये नहीं॥6॥
छूटी मादकता कभी न मद की, है दंभवाला बड़ा।
मानी है, इतना ममत्व-रत है, जो मान का है नहीं।
घूमा है करता प्रमाद-नभ में, उन्माद से है भरा।
प्राय: है बनता प्रमत्त मन की जाती नहीं मत्तता॥7॥
देखेंगे दृग रूप, देख न सकें तो दृष्टि का दोष है।
जिह्ना है रसकामुका रसनता चाहे बची ही न ही।
चाहेगी ललना ललाम, ललना चाहे न चाहे उसे।
है काया कस में न किन्तु मन की माया नहीं छूटती॥8॥
ऑंखें हैं कस में न, रूप-शशि की जो हैं चकोरी बनी।
हो जिह्ना रस-लुब्धा स्वाद-धन की जो है हुई चातकी।
भाता है विषयोपभोग उसको जो कंज के भृंगसा।
टूटेगा जग-जाल तो न, मन जो जंजाल में है फँसा॥9॥
देते हैं पादप प्रमोद हिलते प्यारे ह पत्रा-से।
लेती है कलिका लुभा विलस के हैं बेलियाँ मोहती।
रीझा है करता विलोक तृण की, दूर्वा-दलों की छटा।
होता मानस है प्रफुल्ल लख के उत्फुल्ल पुष्पावली॥10॥
मोरों का अवलोक नर्त्तन स्वयं है नाचता मत्त हो।
गाता है बहु गीत कंठ अपना गाते खगों से मिला।
होता है मन महा मुग्ध पिक की उन्मुक्त तानें सुने।
देखे रंग-बिरंग की विहरती नाना विहंगावली॥11॥
हो ऊँची, नत हो, कला-निरत हो, हैं नाचती मत्त हो।
देती हैं बहु दिव्य दृश्य दिखला हो भूरि उल्लासिता।
हैं मंदानिल-दोलिता सुलहरें, हैं भीतियों से भरी।
हैं कल्लोल-समान लोल मन की लीलामयी वृत्तिकयाँ॥12॥
कैसे व्यंजन-स्वाद जान सकती, क्यों रीझती खा उसे।
क्यों मीठे फल तो विमुग्ध करते, क्यों दुग्धाता मोहती।
कैसे तो रस के विभेद खुलते, क्यों ज्ञात होते किसे।
क्यों होती रसना रसज्ञ, मन जो होता रसीला नहीं॥13॥
क्यों तो चंचलता दिखा मचलते सीधो नहीं ताकते।
कैसे तो अड़ते कटाक्ष करते क्यों तीर देते चला।
क्यों चालें चलते बला-पर-बला लाते दिखाते फि।
जो मानी मन मानता नयन तो कैसे नहीं मानते॥14॥
जो पाये वन-फूल, फूल बन ले, काँटे न बोता फिर।
क्यों हो स्वार्थ-प्रवृत्तिक-बेलि बहुधा नेत्रकम्बु से सिंचिता।
होता आग्रह-अंधा है हित उसे तो सूझता ही नहीं।
क्यों है तू हठ ठानता मन-कही क्यों है नहीं मानता॥15॥
कोई है अपना न, स्वप्न सब है, संसार निस्सार है।
काया है किस काम की, जलद की छाया कही है गयी।
है सम्पत्तिक विपत्तिक, राज रज है, है भूति तो भूति ही।
क्यों यों है मन! तू उदास? विष है ऐसी उदासीनता॥16॥
जो काली अलकें विलोक ललकें लालायिता ही रहीं।
देखे लोचन लोच है ललचता जो हो महा लालची।
जो गोरा तन कंज मंजु मुखड़ा है मत्त देता बना।
कैसे तो मथता न काम मन को माया दिखा मन्मथी॥17॥
भाती है उतनी न भूति जितनी भावों भरी भामिनी।
प्यारी है उतनी न भक्ति जितनी भ्रू-भंगिमा-पंडिता।
मीठी है उतनी सुधा न जितनी है ओष्ठ की माधुरी।
क्यों हो गौरव-धाम, काम मन को है कामिनी काम से॥18॥
बेढंगे सिर उठा बात कहते बुल्ले बिलाते मिले।
पाये पक्ष पहाड़ जो न सँभले तो पक्ष काटे गये।
खाते हैं मुँह की सदैव बहके वे हैं बुझे जो बले।
ले दंभी मन सोच धवंस प्रिय क्यों विधवंस होगा नहीं॥19॥
दो क्या विंशति बाँह का वधा हुआ है स्वर्णलंका कहाँ।
हो गर्वान्धा सहस्रबाहु बिलटा उत्पीड़नों में पड़ा।
दंभी तू मन हो न भूलकर भी है दंभ तो दंभ ही।
होगा गर्व अवश्य खर्व, न रहा कंदर्प का दर्प भी॥20॥
आती है बहुधा विपत्तिक, वश क्या, क्यों धीरे तजे धीरता।
कोई चाल चले, चले, विचलते क्यों बुध्दिवाले रहें।
वैरी वैर क, क, विकल हो क्यों वीर की वीरता।
क्यों निश्चिन्त रहे न चित्त! नित तू, चिन्ता चिता-तुल्य है॥21॥
सोना है करती कुधातु अय को है सिध्दि सत्तामयी।
होती है उसकी विभूति-बल से पूरी मनोकामना।
जाती है बन दिव्य ज्योति तम में है मोहती मंजु हो।
है चिन्तामणि के समान रुचिरा चिन्ता चिता है नहीं॥22॥
हो पाई वश में नहीं सबल हो जो वासनाएँ बुरी।
हो-हो के कमनीय कान्त न बनी जो कामना काम की।
जो ऑंखें न खुलीं प्रबुध्द कहला जो हैं प्रपंची छिपे।
तो क्या चेतनता अचिन्त्य पटुता क्या चित्त की चातुरी॥23॥
रस्सी साँप बनी, सदैव तम में दीखे खड़े भूत ही।
पत्तो के खड़के भला कब नहीं हैं कान होते खड़े।
काँपा है करता, हुए हृदय में आतंक की कल्पना।
जाता त्राकस नहीं, सशंक मन की शंका नहीं छूटती॥24॥
सा प्रेत-प्रसंग भ्रान्तिमय हैं, हैं कल्पना से भ।
खोजे भी तरु के तले तिमिर में क्या हैं चुडैलें मिलीं।
देखा दृष्टि-विवेक ने, पर कहीं बैताल दीखे नहीं।
होता है भयभीत व्यर्थ मन! तू, है भूत भू में कहाँ॥25॥
पेड़ों में भ्रमते फि तिमिर में बागों वनों में बसे।
रातें बीत गईं श्मशान-महि में शंका-स्थलों में रहे।
पाया भूत कहाँ, कहीं न फिरती देखी गयी भूतनी।
शिक्षा है अनुभूत भूत-भय की बातें वृथा भूत हैं॥26॥
है रोता, हँसता, प्रफुल्ल बनता, होता कभी मत्त है।
हो पाथोधिक-तरंगमान नभ के ता कभी, तोड़ता।
जाता है वन भूति भूतप कभी, पाता विधाता कभी।
कैसे तो न क प्रपंच मन! जो तू है प्रपंची महा॥27॥
भू में कौन अनर्थ अर्थवश हो तूने किया है नहीं।
तेरी पापप्रवृत्तिक ने प्रबल हो पीसा नहीं है किसे।
तेरा देख महाप्रकोप महि क्या होती नहीं कम्पिता।
जो है पातक-प्रेम-मूढ़ मन! तो तू है महा पातकी॥28॥
है गोलोक कहाँ, विभूति उसकी है दृष्टि आती नहीं।
है बैकुण्ठ कहाँ? कहाँ शिवपुरी? है स्वर्ग-भू भी कहाँ।
पाया है किसने कहाँ सुरगवी या नन्दनोद्यान को।
ये हैं कल्पक कान्त भूत मन की लोकोत्तारा भूतियाँ॥29॥
जो है संयमशील, वृत्तिक जिसकी है दिव्य ज्ञानात्मिका।
पापों को तज जो सदैव करता है पुण्य के कार्य ही।
जो है मुक्त प्रपंचजात रुज से, है मुक्त प्राणी वही।
क्या है मुक्ति? विकारबध्द मन की उन्मुक्ति ही मुक्ति है॥30॥
क्या है ब्रह्म? स्वरूप क्या प्रकृति का? क्या विश्व की है क्रिया।
क्या है ज्ञान, विवेक, बुध्दि अथवा क्या पाप या पुण्य है।
क्यों होता इनका विचार, इनको कैसे सुधी जानते।
जो होता मन ही न तो मनन क्यों होता किसी तत्तव का॥31॥
हैं नाना कृतियाँ विभूति उसकी हैं इंगिते नीतियाँ।
है विज्ञान विवेक मानसिकता है भक्ति कान्ता क्रिया।
है धाता रमणीयता मधुरता लोकोत्तारा प्रीति का।
दासी है भव-भूति मुक्त मन की, हैं सेविका मुक्तियाँ॥32॥
हैं सारी निधिकयाँ रता अनुगता, सम्पत्तिक है आश्रिता।
हैं ब्रह्मांड-विभूतियाँ सहचरी, हैं शासिता शक्तियाँ।
हैं संसार-पदार्थ हस्तगत-से, हैं वस्तुएँ स्वीकृता।
है सेवारत सिध्दि, सिध्द मन की हैं सिध्दियाँ सेविका॥33॥
ऊषा कान्त कपोल, भानु-किरणें आलोकिता रंजिता।
भू के रंग-बिरंग पुष्पतरु की श्यामाभिरामा छटा।
नागों की ललितांगता रुचिरता कैसे नहीं मोहती।
हैं रंगीन बने त्रिकलोक, मन की रंगीनियों से रँगे॥34॥
क्या हैं ज्ञान, विवेक, बुध्दिबल क्या, ये मानसोत्पन्न हैं।
क्या हैं चिन्तन-शक्तियाँ? मनन क्या? क्या तर्कनाएँ सभी।
जो हैं वे सब हैं विभूति उसकी या हैं उसी की क्रिया।
कैसे जाय कही महान मन की सत्ता-इयत्ताक कभी॥35॥