"बैत अल-हिक्मा": अवतरणों में अंतर
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07:35, 24 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
बैत अल-हिक्मा बग़दाद में एक प्राचीन पुस्तकालय था जो 13वीं सदी में नष्ट हो गया। 'बैत अल-हिक्मा' यानी 'ज्ञान का घर'। सुन कर ही विश्वास हो जाता है ज्ञान का कोई ऐसा केंद्र, कभी जरूर रहा होगा। हालांकि 13वीं सदी में यह प्राचीन लाइब्रेरी पूरी तरह नष्ट हो चुकी थी और अब इसकी कोई निशानी नहीं दिखती, इसलिए यह कहना अब बड़ा मुश्किल है कि यह वास्तव में कहां रही होगी और कैसी दिखती होगी। आज भले ही इस लाइब्रेरी का कोई अंश नहीं बचा है लेकिन एक ज़माना था जब यह बग़दाद का एक बड़ा बौद्धिक पावरहाउस हुआ करता था। ख़ासकर इस्लामी स्वर्ण युग में इसकी तूती बोलती थी। यह वह केंद्र था, जहां कॉमन ज़ीरो से लेकर आधुनिक अरबी संख्याओं का जन्म हुआ था।
स्थापना
बैत अल-हिक्मा की स्थापना 8वीं सदी के आखिर में खलीफ़ा हारून अल-राशिद के निजी संग्रह के तौर पर हुई थी लेकिन लगभग 30 साल बाद यह एक सार्वजनिक शिक्षा केंद्र के तौर पर तब्दील हो गई थी। 'ज्ञान केंद्र' नाम से ऐसा लगता है कि इसने उस दौर में दुनिया भर के वैज्ञानिकों को बगदाद की ओर खींचा होगा। दरअसल बगदाद इन दिनों बौद्धिक जिज्ञासा का एक बड़ा और जीवंत केंद्र था। यह अभिव्यक्ति की आज़ादी का एक अहम केंद्र भी था (यहां मुस्लिम, यहूदी और ईसाई विद्वानों, यानी सभी को अध्ययन की इजाज़त थी)। इसका आर्काइव अपने आकार में उतना ही बड़ा था जितना आज लंदन स्थित ब्रिटिश लाइब्रेरी या पेरिस का बिबलियोथेक नेशनल का आर्काइव है।[1]
सांस्कृतिक पुनर्जागरण
बैत अल-हिक्मा या ज्ञान का घर उन दिनों मानविकी और विज्ञान के अध्ययन का ऐसा केंद्र बन गया था, जिसका कोई सानी नहीं था। यहां गणित, खगोल विज्ञान, औषधि विज्ञान, रसायनशास्त्र जैसे तमाम विज्ञान विषयों के साथ भूगोल, दर्शनशास्त्र, साहित्य और कला का अध्ययन होता था। कुछ और विषयों जैसे कीमियागिरी और ज्योतिषशास्त्र का भी यह अध्ययन केंद्र था। ज्ञान के इस महान केंद्र की छवि दिमाग में बनाने के लिए बहुत अधिक कल्पनाशक्ति की ज़रूरत है।[2] लेकिन एक चीज तय है कि इस केंद्र ने एक ऐसे सांस्कृतिक पुनर्जागरण को जन्म दिया, जिसने गणित की पूरी धारा ही मोड़ दी। बग़दाद पर 1258 ई. में मंगोलों की घेराबंदी ने इस अध्ययन केंद्र को नष्ट कर दिया।[3] लेकिन इस अध्ययन केंद्र में खोजी गई अमूर्त गणितीय भाषा को बाद में न सिर्फ इस्लामी साम्राज्य ने बल्कि यूरोप और अंतत: पूरी दुनिया ने अपनाया।
विरासत की तलाश
सरे यूनिवर्सिटी में भौतिकशास्त्र के प्रोफेसर जिम अली-खलीली कहते हैं, " हमारे लिए जिस चीज़ का ज़्यादा मायने होना चाहिए वो ये नहीं कि ज्ञान का यह केंद्र कहां था या कैसे बना, बल्कि ज्यादा दिलचस्प वहां पनपा वैज्ञानिकों विचारों का इतिहास है। हमारे लिए ज्यादा उत्सुकता की चीज यह है कि आखिर ये विचार कैसे आगे बढ़े। दरअसल सांस्कृतिक पुनर्जागरण की गणित की विरासत की खोज के लिए इतिहास में थोड़ा पीछे जाना होगा।
फिबोनेकी
इतालवी पुनर्जागरण के अवसान से पहले कुछ सौ सालों के दौरान यूरोप में गणित का पर्याय एक ही शख्स को माना जाता था और वह था लियोनार्दो द पीसा। मरणोपरांत इन्हें 'फिबोनेकी' के नाम से जाना गया। 1170 ई. में पैदा हुए इस इतालवी गणितज्ञ की शुरुआती शिक्षा अफ्रीका (तटीय उत्तरी अफ्रीका) के बारबेरी तट पर मौजूद व्यापार केंद्र बुगिया में हुआ था। फिबोनोकी उम्र के दूसरे दशक के शुरुआती सालों में मध्यपूर्व की ओर चले गए। वह उन विचारों से प्रेरित होकर यहां आए थे जो भारत से होकर फ़ारस होते हुए पश्चिमी देशों तक चला आया था। इटली लौट कर फिबोनेकी ने लिबर अबाकी प्रकाशित किया। यह पश्चिमी देशों में हिंदू-अरबी संख्या पद्धति के शुरुआती प्रकाशनों में से एक था। लिबर अबाकी का प्रकाशन 1202 में हुआ था। लेकिन उस समय तक कुछ ही बुद्धिजीवियों को हिंदू-अरबी संख्याओं के बारे में पता था। यूरोप के व्यापारी और विद्वान अभी भी रोमन संख्याओं का ही इस्तेमाल करते थे। इससे गुणा और भाग उनके लिए बड़ा जटिल हो जाता था।[1]
गणित को बनाया सर्वसुलभ
फिबोनेकी की किताब में पहली बार संख्याओं का इस्तेमाल अंकगणित की क्रियाओं में हुआ था। इस तकनीक का इस्तेमाल व्यावहारिक समस्याओं के हल में हो सकता था। जैसे- प्रॉफिट मार्जिन निकालने, एक मुद्रा को दूसरे मुद्रा में बदलने में, एक पद्धति के वजन को दूसरे में परिवर्तन, चीज़ों की अदला-बदली और ब्याज़ की गणना में यह काम आ सकती थी। अपने ग्रंथ के पहले ही अध्याय में उन्होंने लिखा, "जो लोग गणना कला की जटिलताओं और बारीकियों को समझना चाहते हैं उन्हें उंगलियों से गणना करने में दक्ष होना चाहिए। उनका इशारा उन संख्याओं से था, जिन्हें आजकल बच्चे स्कूल में सीखते हैं"। तो इस तरह नौ अंकों और शून्य जिसे सिफर कहा गया, के सहारे अब कोई भी संख्या लिखी जा सकती थी। इस तरह अब गणित अब एक ऐसे रूप में सामने आ गया जिसका इस्तेमाल हर कोई कर सकता था।
अल ख्वारिजमी का योगदान
एक गणितज्ञ के तौर पर अपनी रचनात्मकता की वजह से फिबोनेकी का व्यक्तित्व विलक्षण तो था ही लेकिन वह उन चीजों की भी गहरी समझ रखते थे, जिनके बारे में मुस्लिम विद्वानों को सैकड़ों सालों से जानकारी थी। फिबोनेकी उनकी गणना करने के सूत्रों के बारे में जानते थे। उनकी दशमलव पद्धति के बारे में उन्हें जानकारी थी और वह उनके बीजगणित के ज्ञान के बारे में भी जानते थे। दरअसल लीबरअबाकी लगभग पूरी तरह 9वीं सदी के गणितज्ञ अल ख्वारिजमी की गणितीय गणना पद्धति पर आधारित था। उन्हीं के ग्रंथ में पहली बार द्विघातीय समीकरणों को व्यवस्थित ढंग से हल करने का तरीका बताया गया था।
गणित में अपनी खोजों की वजह से ही अक्सर अल-ख्वारिजमी को बीजगणित का जनक कहा जाता है। यह शब्द उन्हीं के जरिये आया है। अरबी में अल-जब्र का मतलब होता है टूटे हुए हिस्सों को एक जगह इकट्ठा करना। 821 ईस्वी में उन्हें बैत अल-हिक्मा का खगोल विज्ञानी और प्रमुख लाइब्रेरियन बनाया गया। अल-खलीली कहते हैं, "ख्वारिजमी के ग्रंथ ने ही पहली बार मुस्लिम दुनिया का दशमलव संख्या पद्धति से परिचय कराया। इसके बाद लियोनार्दो दा पीसा जैसे गणितज्ञों ने इसका प्रसार पूरे यूरोप में किया। फिबोनेकी ने आधुनिक गणित में जो परिवर्तनकारी प्रभाव पैदा किया, उसका बहुत कुछ श्रेय अल ख्वारिजमी की विरासत को जाता है। इस तरह चार सदियों के अंतर पर रह रहे दो लोगों को एक प्राचीन लाइब्रेरी ने जोड़ दिया। यानी मध्य युग का सबसे प्रख्यात गणितज्ञ एक ऐसे महान चिंतक के कंधे पर खड़ा था, जिसकी सफलताओं ने इस्लामी स्वर्ण युग की एक महान संस्थान में आकार लिया था।[1]
चूंकि बैत अल-हिक्मा के बारे में बहुत कम जानकारी मौजूद है, लिहाज़ा इतिहासकार अक्सर इसके कार्य क्षेत्र और मकसद को बढ़ा-चढ़ा कर बताने का लालच रोक नहीं पाते। अक्सर इसे एक मिथकीय दर्जा दे दिया जाता है लेकिन मौजूदा वक्त में हमारे पास जो थोड़े-बहुत ऐतिहासिक रिकार्ड हैं , उनसे ये मेल नहीं खाता। अल खलीली कहते हैं, "कुछ लोगों का कहना है कि यह केंद्र इतना भी महान नहीं थी कि आंखों की किरकिरी बन जाए।" खलीली कहते हैं, हो सकता है कि कुछ लोग इसकी महानता को न मानें लेकिन अल-ख्वारिजमी जैसे लोगों से इसका जुड़ाव और गणित, खगोल विज्ञान और भूगोल में किया गया उनका काम मेरे लिए इस बात का पुख्ता सबूत है कि यह सही अर्थों में एक बौद्धिक केंद्र रहा होगा। इतना तय है कि यह सिर्फ अनूदित किताबों का एक संग्रह भर नहीं होगा।"
बड़ी भूमिका
ब्रिटेन में ओपन यूनिवर्सिटी में गणित के इतिहास के प्रोफेसर जून बेरो-ग्रीन ने बताया, " ज्ञान के इस केंद्र का बुनियादी महत्व है क्योंकि यहीं पर अरबी विद्वानों ने ग्रीक विचारों का स्थानीय भाषा में अनुवाद किया। और यही अनूदित काम गणित के बारे में हमारी समझ का आधार बना।" दरअसल महल में बनी यह लाइब्रेरी संख्याओं के बारे में प्राचीन विचारों की दुनिया में झांकने की खिड़की मुहैया कराती थी। दरअसल यह वैज्ञानिक खोज की जगह थी। दशमलव पद्धति, आजकल के कंप्यूटरों को प्रोग्राम करने वाली द्विगुण अंक प्रणाली, रोमन अंक पद्धित और मेसोपोटामिया में इस्तेमाल होने वाली पद्धति से पहले मनुष्य गणनाओं के लिए टैली पद्धति का इस्तेमाल करता था। हालांकि इनमें से सभी पद्धितयां हमें कुछ दुरूह या बेहद पुरानी लग सकती हैं लेकिन संख्याओं या यह अलग-अलग प्रतिनिधित्व हमें उन गठनों, रिश्तों और ऐतिहासिक सांस्कृतिक संदर्भों के बारे में बहुत कुछ बताता है, जहां से ये उभर कर हमारे सामने आए हैं।
दरअसल ये सारी पद्धतियां संख्या की जगह के महत्व और उनकी अमूर्तता के विचारों पर जोर देती हैं और हमें यह बताने में मदद करती हैं अंकों के काम करने का तरीका क्या है। बेरो-ग्रीन कहते हैं, "यह सारी संख्या पद्धतियां बताती हैं कि सिर्फ पश्चिम में प्रचलित तरीका ही एक मात्र अंक प्रणाली नहीं है। दरअसल अलग-अलग अंक या संख्या पद्धति को समझने की खास अहमियत है।" मसलन, जब प्राचीन समय में किसी व्यापारी को दो भेड़ें लिखने की जरूरत हुई होगी तो उसने मिट्टी में इनकी तस्वीरें बनाकर काम चलाया होगा। लेकिन इस तरह से 20 भेड़ें लिखना उसके लिए संभव नहीं रहा होगा। तो इस तरह किसी जगह का एक चिन्ह बनाकर लिखने की एक ऐसी प्रणाली विकसित की होगी जिसमें संख्याओं (चिह्नों) ने मिलकर उसका एक मूल्य निर्धारित कर दिया होगा। यानी उसका एक निश्चित मान होगा। यहां दो भेड़ों को दिखाने का मतलब उसकी मात्रा को दिखाना था।[1]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 जब इतिहास में गुम एक इस्लामी लाइब्रेरी ने रखी आधुनिक गणित की नींव (हिंदी) bbc.com। अभिगमन तिथि: 24 फ़रवरी, 2020।
- ↑ 'आप गेम ऑफ थ्रोन्स' में दिखाए जाने वाले किलों या फिर हैरी पॉटर की फिल्मों में हॉगवार्ट्स की लाइब्रेरी जैसे किसी अध्ययन केंद्र की कल्पना कर सकते हैं।
- ↑ कहा जाता है कि हमले के दौरान दजला नदी में इतनी अधिक पांडुलिपियां फेंकी गई थीं कि इसका पानी स्याही की वजह से काला पड़ गया था।