"आर्य": अवतरणों में अंतर
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आर्य प्रजाति की आदि भूमि के संबंध में अभी तक विद्वानों में बहुत मतभेद | '''आर्य''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Arya'') प्रजाति की आदि भूमि के संबंध में अभी तक विद्वानों में बहुत मतभेद हैं। भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के प्रारंभ में प्राय: भाषा और प्रजाति को अभिन्न मानकर एकोद्भव (मोनोजेनिक) सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ और माना गया कि भारोपीय भाषाओं के बोलने वालों के पूर्वज कहीं एक ही स्थान में रहते थे और वहीं से विभिन्न देशों में गए। भाषा वैज्ञानिक साक्ष्यों की अपूर्णता और अनिश्चितता के कारण यह आदि भूमि कभी मध्य एशिया, कभी पामीर-[[कश्मीर]], कभी आस्ट्रिया-[[हंगरी]], कभी जर्मनी, कभी स्वीडन-नार्वे और आज दक्षिण रूस के घास के मैदानों में ढूँढ़ी जाती है। भाषा और प्रजाति अनिवार्य रूप से अभिन्न नहीं। आज आर्यों की विविध शाखाओं के बहूद्भव (पॉलिजेनिक) होने का सिद्धांत भी प्रचलित होता जा रहा है जिसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आर्य-भाषा-परिवार की सभी जातियाँ एक ही मानव वंश की रही हों। भाषा का ग्रहण तो संपर्क और प्रभाव से भी होता आया है, कई जातियों ने तो अपनी मूल भाषा छोड़कर विजातीय भाषा को पूर्णत: अपना लिया है। जहां तक भारतीय आर्यों के उद्गम का प्रश्न है, भारतीय साहित्य में उनके बाहर से आने के संबंध में एक भी उल्लेख नहीं है। | ||
==परंपरा और अनुश्रुति== | ==परंपरा और अनुश्रुति== | ||
कुछ लोगों ने परंपरा और [[अनुश्रुति]] के अनुसार मध्यदेश (स्थूण) (स्थाण्वीश्वर) तथा कजंगल (राजमहल की पहाड़ियां) और [[हिमालय]] तथा विंध्य के बीच का प्रदेश अथवा [[आर्यावर्त]] (उत्तर भारत) ही आर्यों की आदि भूमि माना है। पौराणिक परंपरा से विच्छिन्न केवल [[ऋग्वेद]] के आधार पर कुछ विद्वानों ने सप्तसिंधु (सीमांत एवं पंजाब) को आर्यों की आदि भूमि माना है। [[लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक]] ने ऋग्वेद में वर्णित दीर्घ अहोरात्र, प्रलंबित उषा आदि के आधार पर आर्यों की मूल भूमि को ध्रुव प्रदेश में माना था। बहुत से यूरोपीय विद्वान् और उनके अनुयायी भारतीय विद्वान् अब भी भारतीय आर्यों को बाहर से आया हुआ मानते हैं। अब आर्यों के [[भारत]] के बाहर से आने का सिद्धान्त ग़लत सिद्ध कर दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करके अंग्रेज़ और यूरोपीय लोग भारतीयों में यह भावना भरना चाहते थे कि भारतीय लोग पहले से ही ग़ुलाम हैं। | |||
कुछ लोगों ने परंपरा और [[अनुश्रुति]] के अनुसार मध्यदेश (स्थूण) (स्थाण्वीश्वर) तथा कजंगल (राजमहल की पहाड़ियां) और [[हिमालय]] तथा विंध्य के बीच का प्रदेश अथवा [[आर्यावर्त]] (उत्तर भारत) ही आर्यों की आदि भूमि माना | ==आर्य शब्द का अर्थ== | ||
[[संस्कृत भाषा]] के शब्द 'आर्य' का अर्थ होता था- 'कुलीन और सभ्य'। इसलिये पुराने इतिहारकारों, जैसे [[मैक्समूलर]] ने आदिम और आधुनिक हिन्द-यूरोपीय भाषा बोलने वाली जातियों का नाम "आर्य" रख दिया। ये नाम यूरोपीय लोगों को क़ाफ़ी पसन्द आया और जल्द ही सभी [[यूरोप]] वासियों ने अपने-अपने देशों को प्रचीन आर्यों की जन्मभूमि बताना शुरू कर दिया। ख़ासतौर पर हिटलर ने यह प्रचारित किया कि प्राचीन आर्यों की जन्मभूमि जर्मनी ही है, और आर्य का अर्थ शुद्ध नस्ल का मनुष्य है, जिसकी त्वचा गोरी, क़द लम्बा, आँखे नीली और बाल सुनहरे हैं। हिटलर के मुताबिक़ जर्मन लोग ही सर्वोच्च और सर्वशक्तिमान नस्ल के हैं और ख़ास तौर पर यहूदी लोग घटिया नस्ल के और अनार्य हैं। ब्रिटिश लोगों ने प्रचारित किया कि लगभग 1700 ई. पू. में हिन्द-आर्य कबीलों ने यूरोप से आकर सिन्धु घाटी में आक्रमण किया और [[भारत]] की देशी सिन्धु घाटी सभ्यता को उजाड़ दिया और उसके निवासियों का नरसंहार किया और बाद में बचे-खुचे लोगों को ग़ुलाम बना लिया, जिनको [[ऋग्वेद]] में दास और [[दस्यु]] कहा गया है। इस तरह वह अपने उपनिवेशवाद को सही ठहराना चाहते थे।<ref>{{cite web |url=https://www.facebook.com/permalink.php?story_fbid=278022995576396&id=274927545885941|title=हिन्दी एक गर्व गाथा|accessmonthday=02 सितम्बर|accessyear= 2013|last= |first= |authorlink= |format= |publisher= |language=हिन्दी}}</ref> | |||
आर्य शब्द का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था फिर उच्च और निम्न अथवा श्रमिक वर्ग में अंतर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और अनार्य अथवा शूद्र वर्ण का प्रयोग होने लगा। आर्यों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्ण को बनाया और समाज चार वर्णों में वृत्ति और श्रम के आधार पर विभक्त हुआ। ऋक्संहिता में चारों वर्णों की उत्पत्ति और कार्य का उल्लेख इस प्रकार है :<br /> | |||
आर्य शब्द का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था फिर उच्च और निम्न अथवा श्रमिक वर्ग में अंतर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और अनार्य अथवा शूद्र वर्ण का प्रयोग होने | ब्राहृणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:।<br /> | ||
ब्राहृणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत: ।<br /> | ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रोऽजायत।। <ref> ऋक्संहिता 10।।90।22 (इस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण , भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरण से शूद्र उत्पन्न हुआ।</ref> | ||
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां | |||
==सामाजिक विभाजन== | ==सामाजिक विभाजन== | ||
आजकल की भाषा में ये वर्ग बौद्धिक, प्रशासकीय, व्यावसायिक तथा श्रमिक थे। मूल में इनमें तरलता थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग रहते और परस्पर विवाहादि संबध और भोजन, पान आदि होते | आजकल की भाषा में ये वर्ग बौद्धिक, प्रशासकीय, व्यावसायिक तथा श्रमिक थे। मूल में इनमें तरलता थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग रहते और परस्पर विवाहादि संबध और भोजन, पान आदि होते थे। क्रमश: ये वर्ग परस्पर वर्जनशील होते गए। ये सामाजिक विभाजन आर्य परिवार की प्राय: सभी शाखाओं में पाए जाते हैं, यद्यपि इनके नामों और सामाजिक स्थिति में देशगत भेद मिलते हैं। प्रारंभिक आर्य परिवार पितृसत्तात्मक था, यद्यपि [[आदित्य देवता|आदित्य]] [[अदिति]] से उत्पन्न), दैत्य ([[दिति]] से उत्पन्न) आदि शब्दों में मातृसत्ता की ध्वनि वर्तमान है। दंपति की कल्पना में पति पत्नी का गृहस्थी के ऊपर समान अधिकार पाया जाता है। परिवार में पुत्र जन्म की कामना की जाती थी। दायित्व के कारण कन्या का जन्म परिवार को गंभीर बना देता था, किंतु उसकी उपेक्षा नहीं की जाती थी। [[घोषा]], [[लोपामुद्रा]], [[अपाला]], [[विश्ववारा]] आदि स्त्रियां मन्त्रद्रष्टा ऋषि पद को प्राप्त हुई थीं। विवाह प्राय: युवावस्था में होता था। पति-पत्नी को परस्पर निर्वाचन का अधिकार था। विवाह धार्मिक कृत्यों के साथ संपन्न होता था, जो परवर्ती ब्राहृ विवाह से मिलता जुलता था। | ||
====आर्यों के आदि स्थल सूची==== | |||
{{आदिकाल सूची1}} | |||
==आर्यों का प्राचीनतम साहित्य== | ==आर्यों का प्राचीनतम साहित्य== | ||
प्रारंभिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य और कला का ऊँचा स्थान | प्रारंभिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य और कला का ऊँचा स्थान है। भारोपीय भाषा ज्ञान के सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई। इसमें काव्य, धर्म, [[दर्शन शास्त्र|दर्शन]] आदि विभिन्न शास्त्रों का उदय हुआ। आर्यों का प्राचीनतम साहित्य [[वेद]] भाषा, काव्य और चिंतन, सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। | ||
==आर्य और दास== | |||
आर्यों ब्राह्मणकुमारयो:<ref>3।2।58</ref> सूत्र में आर्य-ब्राह्मण और आर्यकुमार शब्द आए हैं। आर्य ब्राह्मण पद मंत्रिपरिषद के प्रधान मंत्री के लिये एवं आर्यकुमार पद युवराज के लिए प्रयुक्त होता था। 'ब्राह्मणमिश्रो राजा' पद में राजा और उसके प्रधान सहायक का जो ब्राह्मण मंत्री होता था, उल्लेख है।<ref>मिश्रो चानुपसर्गमसंधौ, 6।2।145</ref> यही आर्य-ब्राह्मण कहलाता था।<ref>{{पुस्तक संदर्भ |पुस्तक का नाम=पाणिनीकालीन भारत |लेखक=वासुदेवशरण अग्रवाल|अनुवादक= |आलोचक= |प्रकाशक=चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1|संकलन=भारतकोश पुस्तकालय |संपादन= |पृष्ठ संख्या=93|url=}}</ref> | |||
==पशुपालन== | |||
ऋग्वैदिक आर्यों का प्रारम्भिक जीवन अस्थाई था। अतः उनके जीवन में [[कृषि]] की अपेक्षा पशुपालन का अधिक महत्व था। पशुओं में [[गाय]] की सर्वाधिक महत्ता थी। गाय की गणना सम्पत्ति में की जाती थी। [[ऋग्वेद]] में 176 बार 'गो' शब्द का उल्लेख मिलता है। गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप में भी होता था। गाय को अघन्या (न मारे जाने योग्य), अष्टकर्णी आदि नामों से पुकारा जाता था। ऋग्वेद में अवि (भेड़), अजा (बकरी) का कई बार जिक्र हुआ है। गव्य एवं गव्यति शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त किये जाते थे। गाय के अलावा दूसरा प्रमुख पशु घोड़ा था। | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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==संबंधित लेख== | |||
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06:19, 26 जून 2021 के समय का अवतरण
आर्य (अंग्रेज़ी: Arya) प्रजाति की आदि भूमि के संबंध में अभी तक विद्वानों में बहुत मतभेद हैं। भाषा वैज्ञानिक अध्ययन के प्रारंभ में प्राय: भाषा और प्रजाति को अभिन्न मानकर एकोद्भव (मोनोजेनिक) सिद्धांत का प्रतिपादन हुआ और माना गया कि भारोपीय भाषाओं के बोलने वालों के पूर्वज कहीं एक ही स्थान में रहते थे और वहीं से विभिन्न देशों में गए। भाषा वैज्ञानिक साक्ष्यों की अपूर्णता और अनिश्चितता के कारण यह आदि भूमि कभी मध्य एशिया, कभी पामीर-कश्मीर, कभी आस्ट्रिया-हंगरी, कभी जर्मनी, कभी स्वीडन-नार्वे और आज दक्षिण रूस के घास के मैदानों में ढूँढ़ी जाती है। भाषा और प्रजाति अनिवार्य रूप से अभिन्न नहीं। आज आर्यों की विविध शाखाओं के बहूद्भव (पॉलिजेनिक) होने का सिद्धांत भी प्रचलित होता जा रहा है जिसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि आर्य-भाषा-परिवार की सभी जातियाँ एक ही मानव वंश की रही हों। भाषा का ग्रहण तो संपर्क और प्रभाव से भी होता आया है, कई जातियों ने तो अपनी मूल भाषा छोड़कर विजातीय भाषा को पूर्णत: अपना लिया है। जहां तक भारतीय आर्यों के उद्गम का प्रश्न है, भारतीय साहित्य में उनके बाहर से आने के संबंध में एक भी उल्लेख नहीं है।
परंपरा और अनुश्रुति
कुछ लोगों ने परंपरा और अनुश्रुति के अनुसार मध्यदेश (स्थूण) (स्थाण्वीश्वर) तथा कजंगल (राजमहल की पहाड़ियां) और हिमालय तथा विंध्य के बीच का प्रदेश अथवा आर्यावर्त (उत्तर भारत) ही आर्यों की आदि भूमि माना है। पौराणिक परंपरा से विच्छिन्न केवल ऋग्वेद के आधार पर कुछ विद्वानों ने सप्तसिंधु (सीमांत एवं पंजाब) को आर्यों की आदि भूमि माना है। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने ऋग्वेद में वर्णित दीर्घ अहोरात्र, प्रलंबित उषा आदि के आधार पर आर्यों की मूल भूमि को ध्रुव प्रदेश में माना था। बहुत से यूरोपीय विद्वान् और उनके अनुयायी भारतीय विद्वान् अब भी भारतीय आर्यों को बाहर से आया हुआ मानते हैं। अब आर्यों के भारत के बाहर से आने का सिद्धान्त ग़लत सिद्ध कर दिया गया है। ऐसा माना जाता है कि इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करके अंग्रेज़ और यूरोपीय लोग भारतीयों में यह भावना भरना चाहते थे कि भारतीय लोग पहले से ही ग़ुलाम हैं।
आर्य शब्द का अर्थ
संस्कृत भाषा के शब्द 'आर्य' का अर्थ होता था- 'कुलीन और सभ्य'। इसलिये पुराने इतिहारकारों, जैसे मैक्समूलर ने आदिम और आधुनिक हिन्द-यूरोपीय भाषा बोलने वाली जातियों का नाम "आर्य" रख दिया। ये नाम यूरोपीय लोगों को क़ाफ़ी पसन्द आया और जल्द ही सभी यूरोप वासियों ने अपने-अपने देशों को प्रचीन आर्यों की जन्मभूमि बताना शुरू कर दिया। ख़ासतौर पर हिटलर ने यह प्रचारित किया कि प्राचीन आर्यों की जन्मभूमि जर्मनी ही है, और आर्य का अर्थ शुद्ध नस्ल का मनुष्य है, जिसकी त्वचा गोरी, क़द लम्बा, आँखे नीली और बाल सुनहरे हैं। हिटलर के मुताबिक़ जर्मन लोग ही सर्वोच्च और सर्वशक्तिमान नस्ल के हैं और ख़ास तौर पर यहूदी लोग घटिया नस्ल के और अनार्य हैं। ब्रिटिश लोगों ने प्रचारित किया कि लगभग 1700 ई. पू. में हिन्द-आर्य कबीलों ने यूरोप से आकर सिन्धु घाटी में आक्रमण किया और भारत की देशी सिन्धु घाटी सभ्यता को उजाड़ दिया और उसके निवासियों का नरसंहार किया और बाद में बचे-खुचे लोगों को ग़ुलाम बना लिया, जिनको ऋग्वेद में दास और दस्यु कहा गया है। इस तरह वह अपने उपनिवेशवाद को सही ठहराना चाहते थे।[1]
आर्य शब्द का प्रयोग पहले संपूर्ण मानव के अर्थ में होता था फिर उच्च और निम्न अथवा श्रमिक वर्ग में अंतर दिखाने के लिए आर्य वर्ण और अनार्य अथवा शूद्र वर्ण का प्रयोग होने लगा। आर्यों ने अपनी सामाजिक व्यवस्था का आधार वर्ण को बनाया और समाज चार वर्णों में वृत्ति और श्रम के आधार पर विभक्त हुआ। ऋक्संहिता में चारों वर्णों की उत्पत्ति और कार्य का उल्लेख इस प्रकार है :
ब्राहृणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:।
ऊरू तदस्य यद्वैश्य: पदभ्यां शूद्रोऽजायत।। [2]
सामाजिक विभाजन
आजकल की भाषा में ये वर्ग बौद्धिक, प्रशासकीय, व्यावसायिक तथा श्रमिक थे। मूल में इनमें तरलता थी। एक ही परिवार में कई वर्ण के लोग रहते और परस्पर विवाहादि संबध और भोजन, पान आदि होते थे। क्रमश: ये वर्ग परस्पर वर्जनशील होते गए। ये सामाजिक विभाजन आर्य परिवार की प्राय: सभी शाखाओं में पाए जाते हैं, यद्यपि इनके नामों और सामाजिक स्थिति में देशगत भेद मिलते हैं। प्रारंभिक आर्य परिवार पितृसत्तात्मक था, यद्यपि आदित्य अदिति से उत्पन्न), दैत्य (दिति से उत्पन्न) आदि शब्दों में मातृसत्ता की ध्वनि वर्तमान है। दंपति की कल्पना में पति पत्नी का गृहस्थी के ऊपर समान अधिकार पाया जाता है। परिवार में पुत्र जन्म की कामना की जाती थी। दायित्व के कारण कन्या का जन्म परिवार को गंभीर बना देता था, किंतु उसकी उपेक्षा नहीं की जाती थी। घोषा, लोपामुद्रा, अपाला, विश्ववारा आदि स्त्रियां मन्त्रद्रष्टा ऋषि पद को प्राप्त हुई थीं। विवाह प्राय: युवावस्था में होता था। पति-पत्नी को परस्पर निर्वाचन का अधिकार था। विवाह धार्मिक कृत्यों के साथ संपन्न होता था, जो परवर्ती ब्राहृ विवाह से मिलता जुलता था।
आर्यों के आदि स्थल सूची
आर्यों के आदि स्थल | हड़प्पाकालीन नदियों के किनारे बसे नगर | विभिन्न विद्वानों द्वारा सिंधु सभ्यता का काल निर्धारण | |||
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आदि (मूल) स्थान | मत | नगर | नदी / सागर तट | काल | विद्वान |
आर्यों का प्राचीनतम साहित्य
प्रारंभिक आर्य संस्कृति में विद्या, साहित्य और कला का ऊँचा स्थान है। भारोपीय भाषा ज्ञान के सशक्त माध्यम के रूप में विकसित हुई। इसमें काव्य, धर्म, दर्शन आदि विभिन्न शास्त्रों का उदय हुआ। आर्यों का प्राचीनतम साहित्य वेद भाषा, काव्य और चिंतन, सभी दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है।
आर्य और दास
आर्यों ब्राह्मणकुमारयो:[3] सूत्र में आर्य-ब्राह्मण और आर्यकुमार शब्द आए हैं। आर्य ब्राह्मण पद मंत्रिपरिषद के प्रधान मंत्री के लिये एवं आर्यकुमार पद युवराज के लिए प्रयुक्त होता था। 'ब्राह्मणमिश्रो राजा' पद में राजा और उसके प्रधान सहायक का जो ब्राह्मण मंत्री होता था, उल्लेख है।[4] यही आर्य-ब्राह्मण कहलाता था।[5]
पशुपालन
ऋग्वैदिक आर्यों का प्रारम्भिक जीवन अस्थाई था। अतः उनके जीवन में कृषि की अपेक्षा पशुपालन का अधिक महत्व था। पशुओं में गाय की सर्वाधिक महत्ता थी। गाय की गणना सम्पत्ति में की जाती थी। ऋग्वेद में 176 बार 'गो' शब्द का उल्लेख मिलता है। गाय का प्रयोग मुद्रा के रूप में भी होता था। गाय को अघन्या (न मारे जाने योग्य), अष्टकर्णी आदि नामों से पुकारा जाता था। ऋग्वेद में अवि (भेड़), अजा (बकरी) का कई बार जिक्र हुआ है। गव्य एवं गव्यति शब्द चारागाह के लिए प्रयुक्त किये जाते थे। गाय के अलावा दूसरा प्रमुख पशु घोड़ा था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ हिन्दी एक गर्व गाथा (हिन्दी)। । अभिगमन तिथि: 02 सितम्बर, 2013।
- ↑ ऋक्संहिता 10।।90।22 (इस विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण , भुजाओं से क्षत्रिय, जंघा से वैश्य और चरण से शूद्र उत्पन्न हुआ।
- ↑ 3।2।58
- ↑ मिश्रो चानुपसर्गमसंधौ, 6।2।145
- ↑ पाणिनीकालीन भारत |लेखक: वासुदेवशरण अग्रवाल |प्रकाशक: चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1 |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 93 |