"चाणक्य नीति- अध्याय 4": अवतरणों में अंतर

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===अध्याय 4===
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;सोरठा --  
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आयुर्बल औ कर्म, धन, विद्या अरु मरण ये ।
आयुर्बल औ कर्म, धन, विद्या अरु मरण ये ।
नीति कहत अस मर्म, गर्भहि में लिखि जात ये ॥१॥
नीति कहत अस मर्म, गर्भहि में लिखि जात ये ॥1॥
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आयु, कर्म, धन, विद्या, और मृत्यु ये पाँच बातें तभी लिख दी जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है ॥१॥
'''अर्थ -- '''आयु, कर्म, धन, विद्या, और मृत्यु ये पाँच बातें तभी लिख दी जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है।
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;दोहा--  
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बाँधव जनमा मित्र ये, रहत साधु प्रतिकूल ।
बाँधव जनमा मित्र ये, रहत साधु प्रतिकूल ।
ताहि धर्म कुल सुकृत लहु, वो उनके प्रतिकूल ॥३॥
ताहि धर्म कुल सुकृत लहु, वो उनके प्रतिकूल ॥3॥
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संसार के अधिकांश पुत्र, मित्र और बान्धव सज्जनों से पराड्मुख ही रहते हैं, लेकिन जो पराड्मुख न रह कर सज्जनों के साथ रहते हैं, उन्हीं के धर्म से वह कुल पुनीत हो जाता है ॥२॥
'''अर्थ -- '''संसार के अधिकांश पुत्र, मित्र और बान्धव सज्जनों से पराड्मुख ही रहते हैं, लेकिन जो पराड्मुख न रह कर सज्जनों के साथ रहते हैं, उन्हीं के धर्म से वह कुल पुनीत हो जाता है।
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मच्छी पच्छिनि कच्छपी, दरस, परस करि ध्यान ।
मच्छी पच्छिनि कच्छपी, दरस, परस करि ध्यान ।
शिशु पालै नित तैसे ही, सज्जन संग प्रमान ॥३॥
शिशु पालै नित तैसे ही, सज्जन संग प्रमान ॥3॥
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जैसे मछली दर्शन से, कछुई ध्यान से और पक्षिणी स्पर्श से अपने बच्चे का पालन करती है, उसी तरह सज्जनों की संगति मनुष्य का पालन करती है ॥३॥
'''अर्थ -- '''जैसे मछली दर्शन से, कछुई ध्यान से और पक्षिणी स्पर्श से अपने बच्चे का पालन करती है, उसी तरह सज्जनों की संगति मनुष्य का पालन करती है।
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जौलों देह समर्थ है, जबलौं मरिबो दूरि ।
जौलों देह समर्थ है, जबलौं मरिबो दूरि ।
तौलों आतम हित करै, प्राण अन्त सब धूरि ॥४॥
तौलों आतम हित करै, प्राण अन्त सब धूरि ॥4॥
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जब तक कि शरीर स्वस्थ है और जब तक मृत्यु दूर है। इसी बीच में आत्मा का कल्याण कर लो। अन्त समय के उपस्थित हो जाने पर कोई क्या करेगा ? ॥४॥
'''अर्थ -- '''जब तक कि शरीर स्वस्थ है और जब तक मृत्यु दूर है। इसी बीच में आत्मा का कल्याण कर लो। अन्त समय के उपस्थित हो जाने पर कोई क्या करेगा ?
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बिन औसरहू देत फल, कामधेनु सम नित्त ।
बिन औसरहू देत फल, कामधेनु सम नित्त ।
माता सों परदेश में, विद्या संचित बित्त ॥५॥
माता सों परदेश में, विद्या संचित बित्त ॥5॥
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विद्या में कामधेनु के समान गुण विद्यमान है। यह असमय में भी फल देती है। परदेश में तो यह माता की तरह पालन करती है। इसलिए कहा जाता है विद्या गुप्त धन है ॥५॥
'''अर्थ -- '''विद्या में कामधेनु के समान गुण विद्यमान है। यह असमय में भी फल देती है। परदेश में तो यह माता की तरह पालन करती है। इसलिए कहा जाता है विद्या गुप्त धन है।
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सौ निर्गुनियन से अधिक, एक पुत्र सुविचार ।
सौ निर्गुनियन से अधिक, एक पुत्र सुविचार ।
एक चन्द्र तम कि हरे, तारा नहीं हजार ॥६॥
एक चन्द्र तम कि हरे, तारा नहीं हज़ार ॥6॥
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एक गुणवान पुत्र सैकडों गुणहीन पुत्रों से अच्छा है। अकेला चन्द्रमा अन्धकार के दुर कर देता है, पर हजारों तारे मिलकर उसे नहीं दूर कर पाते ॥६॥
'''अर्थ -- '''एक गुणवान पुत्र सैकडों गुणहीन पुत्रों से अच्छा है। अकेला चन्द्रमा अन्धकार के दुर कर देता है, पर हजारों तारे मिलकर उसे नहीं दूर कर पाते।
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मूर्ख चिरयन से भलो, जन्मत हो मरि जाय ।
मूर्ख चिरयन से भलो, जन्मत हो मरि जाय ।
मरे अल्प दुख होइहैं, जिये सदा दुखदाय ॥७॥
मरे अल्प दु:ख होइहैं, जिये सदा दुखदाय ॥7॥
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मूर्ख पुत्र का चिरजीवी होकर जीना अच्छा नहीं है। बल्कि उससे वह पुत्र अच्छा है, जो पैदा होते ही मर जाय। क्योंकि मरा पुत्र थोडे दुःख का कारण होता है, पर जीवित मूर्ख पुत्र जन्मभर जलाता ही रहता है ॥७॥
'''अर्थ -- '''मूर्ख पुत्र का चिरजीवी होकर जीना अच्छा नहीं है। बल्कि उससे वह पुत्र अच्छा है, जो पैदा होते ही मर जाय। क्योंकि मरा पुत्र थोडे दुःख का कारण होता है, पर जीवित मूर्ख पुत्र जन्मभर जलाता ही रहता है।
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घर कुगाँव सुत मूढ तिय, कुल नीचनि सेवकाइ ।
घर कुगाँव सुत मूढ तिय, कुल नीचनि सेवकाइ ।
मूर्ख पुत्र विधवा सुता, तन बिन अग्नि जराइ ॥८॥
मूर्ख पुत्र विधवा सुता, तन बिन अग्नि जराइ ॥8॥
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खराब गाँव का निवास, नीच कुलवाले प्रभु की सेवा, खराब भोजन, कर्कशा स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री ये छः बिना आग के ही प्राणी के शरीर को भून डालते हैं ॥८॥
'''अर्थ -- '''ख़राब गाँव का निवास, नीच कुलवाले प्रभु की सेवा, ख़राब भोजन, कर्कशा स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री ये छह बिना आग के ही प्राणी के शरीर को भून डालते हैं।
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कहा होय तेहि धेनु जो, दूध न गाभिन होय ।
कहा होय तेहि धेनु जो, दूध न गाभिन होय ।
कौन अर्थ वहि सुत भये, पण्डित भक्त न होय ॥९॥
कौन अर्थ वहि सुत भये, पण्डित भक्त न होय ॥9॥
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ऎसी गाय से क्या लाभ जो न दूध देती है और न गाभिन हो। उसी प्रकार उस पुत्र से क्या लाभ, जो न विद्वान हो और न भक्तिमान् ही होवे ॥९॥
'''अर्थ -- '''ऎसी गाय से क्या लाभ जो न दूध देती है और न गाभिन हो। उसी प्रकार उस पुत्र से क्या लाभ, जो न विद्वान् हो और न भक्तिमान् ही होवे।
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;सोरठा--  
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यह तीनों विश्राम, मोह तपन जग ताप में ।
यह तीनों विश्राम, मोह तपन जग ताप में ।
हरे घोर भव घाम, पुत्र नारि सत्संग पुनि ॥१०॥
हरे घोर भव घाम, पुत्र नारि सत्संग पुनि ॥10॥
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सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों के तीन ही विश्राम स्थल हैं। पुत्र, स्त्री और सज्जनों का संग ॥१०॥
'''अर्थ -- '''सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों के तीन ही विश्राम स्थल हैं। पुत्र, स्त्री और सज्जनों का संग।
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भुपति औ पण्डित बचन, औ कन्या को दान ।
भुपति औ पण्डित बचन, औ कन्या को दान ।
एकै एकै बार ये, तीनों होत समान ॥११॥
एकै एकै बार ये, तीनों होत समान ॥11॥
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राजा लोग केवल एक बात कहतें हैं, उसी प्रकार पण्डित लोग भी केवल एक ही बार बोलते हैं, (आर्यधर्मावलम्बियोंके यहाँ) केवल एक बार कन्या दी जाती हैं, ये तीन बातें केवल एक ही बार होती हैं ॥११॥
'''अर्थ -- '''राजा लोग केवल एक बात कहतें हैं, उसी प्रकार पण्डित लोग भी केवल एक ही बार बोलते हैं, (आर्य धर्मावलम्बियों के यहाँ) केवल एक बार कन्या दी जाती हैं, ये तीन बातें केवल एक ही बार होती हैं।
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तप एकहि द्वैसे पठन, गान तीन मग चारि ।
तप एकहि द्वैसे पठन, गान तीन मग चारि ।
कृषी पाँच रन बहुत मिलु, अस कह शास्त्र विचारि ॥१२॥
कृषी पाँच रन बहुत मिलु, अस कह शास्त्र विचारि ॥12॥
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अकेले में तपस्या, दो आदमियों से पठन, तीन गायन, चार आदमियों से रास्ता, पाँच आदमियों के संघ से खेती का काम और ज्यादा मनुष्यों को समुदाय द्वारा युध्द सम्पन्न होता है ॥१२॥
'''अर्थ -- '''अकेले में तपस्या, दो आदमियों से पठन, तीन गायन, चार आदमियों से रास्ता, पाँच आदमियों के संघ से खेती का काम और ज़्यादा मनुष्यों को समुदाय द्वारा युद्ध सम्पन्न होता है।
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सत्य मधुर भाखे बचन, और चतुरशुचि होय ।
सत्य मधुर भाखे बचन, और चतुरशुचि होय ।
पति प्यारी और पतिव्रता, त्रिया जानिये सोय ॥१३॥
पति प्यारी और पतिव्रता, त्रिया जानिये सोय ॥13॥
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वही भार्या (स्त्री) भार्या है, जो पवित्र, काम-काज करने में निपुण, पतिव्रता, पतिपरायण और सच्ची बात करने वाली हो ॥१३॥
'''अर्थ -- '''वही भार्या (स्त्री) भार्या है, जो पवित्र, काम-काज करने में निपुण, पतिव्रता, पतिपरायण और सच्ची बात करने वाली हो।
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है अपुत्र का सून घर, बान्धव बिन दिशि शून ।
है अपुत्र का सून घर, बान्धव बिन दिशि शून ।
मूरख का हिय सून है, दारिद का सब सून ॥१४॥
मूरख का हिय सून है, दारिद का सब सून ॥14॥
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जिसके पुत्र नहीं जओ, उसका घर सूना है। जिसका कोई भाईबन्धु नहीं होता, उसके लिए दिशाएँ शून्य रहती हैं। मूर्ख मनुष्य का हृदय शून्य रहता है और दरिद्र मनुष्य के लिए सारा संसार सूना रहता है ॥१४॥
'''अर्थ -- '''जिसके पुत्र नहीं जओ, उसका घर सूना है। जिसका कोई भाईबन्धु नहीं होता, उसके लिए दिशाएँ शून्य रहती हैं। मूर्ख मनुष्य का हृदय शून्य रहता है और दरिद्र मनुष्य के लिए सारा संसार सूना रहता है।
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भोजन विष है बिन पचे, शास्त्र बिना अभ्यास ।
भोजन विष है बिन पचे, शास्त्र बिना अभ्यास ।
सभा गरल सम रंकहिं, बूढहिं तरुनी पास ॥१५॥
सभा गरल सम रंकहिं, बूढहिं तरुनी पास ॥15॥
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अनभ्यस्त शास्त्र विष के समान रहता है, अजीर्ण अवस्था में फिर से भोजन करना विष है। दरिद्र के लिए सभा विष है और बूढे पुरुष के लिए युवती स्त्री विष है ॥१५॥
'''अर्थ -- '''अनभ्यस्त शास्त्र विष के समान रहता है, अजीर्ण अवस्था में फिर से भोजन करना विष है। दरिद्र के लिए सभा विष है और बूढे पुरुष के लिए युवती स्त्री विष है।
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दया रहित धर्महिं तजै, औ गुरु विद्याहीन ।
दया रहित धर्महिं तजै, औ गुरु विद्याहीन ।
क्रोधमुखी प्रिय प्रीति बिनु, बान्धव तजै प्रवीन ॥१६॥
क्रोधमुखी प्रिय प्रीति बिनु, बान्धव तजै प्रवीन ॥16॥
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जिस धर्म में दया का उपदेश न हो, वह धर्म त्याग दे। जिस गुरु में विद्या न हो, उसे त्याग दे। हमेशा नाराज रहनेवाली स्त्री त्याग दे और स्नेहविहीन भाईबन्धुओं को त्याग देना चाहिये ॥१६॥
'''अर्थ -- '''जिस धर्म में दया का उपदेश न हो, वह धर्म त्याग दे। जिस गुरु में विद्या न हो, उसे त्याग दे। हमेशा नाराज़ रहनेवाली स्त्री त्याग दे और स्नेहविहीन भाईबन्धुओं को त्याग देना चाहिये।
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पन्थ बुराई नरन की, हयन पंथ इक धाम ।
पन्थ बुराई नरन की, हयन पंथ इक धाम ।
जरा अमैथुन तियन कहँ, और वस्त्रन को धाम ॥१७॥
जरा अमैथुन तियन कहँ, और वस्त्रन को धाम ॥17॥
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मनुष्यों के लिए रास्ता चलना बुढापा है। घोडे के लिए बन्धन बुढापा है। स्त्रियों के लिए मैथुन का अभाव बुढापा है। वस्त्रों के लिए घाम बुढापा है ॥१७॥
'''अर्थ -- '''मनुष्यों के लिए रास्ता चलना बुढापा है। घोडे के लिए बन्धन बुढापा है। स्त्रियों के लिए मैथुन का अभाव बुढापा है। वस्त्रों के लिए घाम बुढापा है।
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हौं केहिको का शक्ति मम, कौन काल अरु देश ।
हौं केहिको का शक्ति मम, कौन काल अरु देश ।
लाभ खर्च को मित्र को, चिन्ता करे हमेश ॥१८॥
लाभ खर्च को मित्र को, चिन्ता करे हमेश ॥18॥
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यह कैसा समय है, मेरे कौन मित्र हैं, यह कैसा देश है, इस समय हमारी क्या आमदनी और क्या खर्च है, मैं किसेके अधीन हूँ और मुझमें कितनी शक्ति है इन बातों को बार-बार सोचते रहना चाहिये ॥१८॥
'''अर्थ -- '''यह कैसा समय है, मेरे कौन 2 मित्र हैं, यह कैसा देश है, इस समय हमारी क्या आमदनी और क्या खर्च है, मैं किसेके अधीन हूँ और मुझ में कितनी शक्ति है इन बातों को बार-बार सोचते रहना चाहिये।
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ब्राह्मण, क्षतिय, वैश्य को, अग्नि देवता और ।
ब्राह्मण, क्षतिय, वैश्य को, अग्नि देवता और ।
मुनिजन हिय मूरति अबुध, समदर्शिन सब ठौर ॥१९॥
मुनिजन हिय मूरति अबुध, समदर्शिन सब ठौर ॥19॥
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द्विजातियों के लिए अग्नि देवता हैं, मुनियों का हृदय ही देवता है, साधारण बुध्दिवालों के लिए प्रतिमायें ही देवता है और समदर्शी के लिए सारा संसार देवमय है ॥१९॥
'''अर्थ -- '''द्विजातियों के लिए अग्नि देवता हैं, मुनियों का हृदय ही देवता है, साधारण बुध्दिवालों के लिए प्रतिमायें ही देवता है और समदर्शी के लिए सारा संसार देवमय है।
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;इति चाणक्ये चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
;इति चाणक्ये चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥
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[[चाणक्यनीति - अध्याय 5]]
[[चाणक्य नीति- अध्याय 5]]
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
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16:34, 19 जून 2022 के समय का अवतरण

चाणक्य नीति

अध्याय 4

सोरठा --

आयुर्बल औ कर्म, धन, विद्या अरु मरण ये ।
नीति कहत अस मर्म, गर्भहि में लिखि जात ये ॥1॥

अर्थ -- आयु, कर्म, धन, विद्या, और मृत्यु ये पाँच बातें तभी लिख दी जाती हैं, जब कि मनुष्य गर्भ में ही रहता है।


दोहा --

बाँधव जनमा मित्र ये, रहत साधु प्रतिकूल ।
ताहि धर्म कुल सुकृत लहु, वो उनके प्रतिकूल ॥3॥

अर्थ -- संसार के अधिकांश पुत्र, मित्र और बान्धव सज्जनों से पराड्मुख ही रहते हैं, लेकिन जो पराड्मुख न रह कर सज्जनों के साथ रहते हैं, उन्हीं के धर्म से वह कुल पुनीत हो जाता है।


दोहा --

मच्छी पच्छिनि कच्छपी, दरस, परस करि ध्यान ।
शिशु पालै नित तैसे ही, सज्जन संग प्रमान ॥3॥

अर्थ -- जैसे मछली दर्शन से, कछुई ध्यान से और पक्षिणी स्पर्श से अपने बच्चे का पालन करती है, उसी तरह सज्जनों की संगति मनुष्य का पालन करती है।


दोहा --

जौलों देह समर्थ है, जबलौं मरिबो दूरि ।
तौलों आतम हित करै, प्राण अन्त सब धूरि ॥4॥

अर्थ -- जब तक कि शरीर स्वस्थ है और जब तक मृत्यु दूर है। इसी बीच में आत्मा का कल्याण कर लो। अन्त समय के उपस्थित हो जाने पर कोई क्या करेगा ?


दोहा --

बिन औसरहू देत फल, कामधेनु सम नित्त ।
माता सों परदेश में, विद्या संचित बित्त ॥5॥

अर्थ -- विद्या में कामधेनु के समान गुण विद्यमान है। यह असमय में भी फल देती है। परदेश में तो यह माता की तरह पालन करती है। इसलिए कहा जाता है विद्या गुप्त धन है।


दोहा --

सौ निर्गुनियन से अधिक, एक पुत्र सुविचार ।
एक चन्द्र तम कि हरे, तारा नहीं हज़ार ॥6॥

अर्थ -- एक गुणवान पुत्र सैकडों गुणहीन पुत्रों से अच्छा है। अकेला चन्द्रमा अन्धकार के दुर कर देता है, पर हजारों तारे मिलकर उसे नहीं दूर कर पाते।


दोहा --

मूर्ख चिरयन से भलो, जन्मत हो मरि जाय ।
मरे अल्प दु:ख होइहैं, जिये सदा दुखदाय ॥7॥

अर्थ -- मूर्ख पुत्र का चिरजीवी होकर जीना अच्छा नहीं है। बल्कि उससे वह पुत्र अच्छा है, जो पैदा होते ही मर जाय। क्योंकि मरा पुत्र थोडे दुःख का कारण होता है, पर जीवित मूर्ख पुत्र जन्मभर जलाता ही रहता है।


दोहा --

घर कुगाँव सुत मूढ तिय, कुल नीचनि सेवकाइ ।
मूर्ख पुत्र विधवा सुता, तन बिन अग्नि जराइ ॥8॥

अर्थ -- ख़राब गाँव का निवास, नीच कुलवाले प्रभु की सेवा, ख़राब भोजन, कर्कशा स्त्री, मूर्ख पुत्र और विधवा पुत्री ये छह बिना आग के ही प्राणी के शरीर को भून डालते हैं।


दोहा --

कहा होय तेहि धेनु जो, दूध न गाभिन होय ।
कौन अर्थ वहि सुत भये, पण्डित भक्त न होय ॥9॥

अर्थ -- ऎसी गाय से क्या लाभ जो न दूध देती है और न गाभिन हो। उसी प्रकार उस पुत्र से क्या लाभ, जो न विद्वान् हो और न भक्तिमान् ही होवे।


सोरठा --

यह तीनों विश्राम, मोह तपन जग ताप में ।
हरे घोर भव घाम, पुत्र नारि सत्संग पुनि ॥10॥

अर्थ -- सांसारिक ताप से जलते हुए लोगों के तीन ही विश्राम स्थल हैं। पुत्र, स्त्री और सज्जनों का संग।


दोहा --

भुपति औ पण्डित बचन, औ कन्या को दान ।
एकै एकै बार ये, तीनों होत समान ॥11॥

अर्थ -- राजा लोग केवल एक बात कहतें हैं, उसी प्रकार पण्डित लोग भी केवल एक ही बार बोलते हैं, (आर्य धर्मावलम्बियों के यहाँ) केवल एक बार कन्या दी जाती हैं, ये तीन बातें केवल एक ही बार होती हैं।


दोहा --

तप एकहि द्वैसे पठन, गान तीन मग चारि ।
कृषी पाँच रन बहुत मिलु, अस कह शास्त्र विचारि ॥12॥

अर्थ -- अकेले में तपस्या, दो आदमियों से पठन, तीन गायन, चार आदमियों से रास्ता, पाँच आदमियों के संघ से खेती का काम और ज़्यादा मनुष्यों को समुदाय द्वारा युद्ध सम्पन्न होता है।


दोहा --

सत्य मधुर भाखे बचन, और चतुरशुचि होय ।
पति प्यारी और पतिव्रता, त्रिया जानिये सोय ॥13॥

अर्थ -- वही भार्या (स्त्री) भार्या है, जो पवित्र, काम-काज करने में निपुण, पतिव्रता, पतिपरायण और सच्ची बात करने वाली हो।


दोहा --

है अपुत्र का सून घर, बान्धव बिन दिशि शून ।
मूरख का हिय सून है, दारिद का सब सून ॥14॥

अर्थ -- जिसके पुत्र नहीं जओ, उसका घर सूना है। जिसका कोई भाईबन्धु नहीं होता, उसके लिए दिशाएँ शून्य रहती हैं। मूर्ख मनुष्य का हृदय शून्य रहता है और दरिद्र मनुष्य के लिए सारा संसार सूना रहता है।


दोहा --

भोजन विष है बिन पचे, शास्त्र बिना अभ्यास ।
सभा गरल सम रंकहिं, बूढहिं तरुनी पास ॥15॥

अर्थ -- अनभ्यस्त शास्त्र विष के समान रहता है, अजीर्ण अवस्था में फिर से भोजन करना विष है। दरिद्र के लिए सभा विष है और बूढे पुरुष के लिए युवती स्त्री विष है।


दोहा --

दया रहित धर्महिं तजै, औ गुरु विद्याहीन ।
क्रोधमुखी प्रिय प्रीति बिनु, बान्धव तजै प्रवीन ॥16॥

अर्थ -- जिस धर्म में दया का उपदेश न हो, वह धर्म त्याग दे। जिस गुरु में विद्या न हो, उसे त्याग दे। हमेशा नाराज़ रहनेवाली स्त्री त्याग दे और स्नेहविहीन भाईबन्धुओं को त्याग देना चाहिये।


दोहा --

पन्थ बुराई नरन की, हयन पंथ इक धाम ।
जरा अमैथुन तियन कहँ, और वस्त्रन को धाम ॥17॥

अर्थ -- मनुष्यों के लिए रास्ता चलना बुढापा है। घोडे के लिए बन्धन बुढापा है। स्त्रियों के लिए मैथुन का अभाव बुढापा है। वस्त्रों के लिए घाम बुढापा है।


दोहा --

हौं केहिको का शक्ति मम, कौन काल अरु देश ।
लाभ खर्च को मित्र को, चिन्ता करे हमेश ॥18॥

अर्थ -- यह कैसा समय है, मेरे कौन 2 मित्र हैं, यह कैसा देश है, इस समय हमारी क्या आमदनी और क्या खर्च है, मैं किसेके अधीन हूँ और मुझ में कितनी शक्ति है इन बातों को बार-बार सोचते रहना चाहिये।


दोहा --

ब्राह्मण, क्षतिय, वैश्य को, अग्नि देवता और ।
मुनिजन हिय मूरति अबुध, समदर्शिन सब ठौर ॥19॥

अर्थ -- द्विजातियों के लिए अग्नि देवता हैं, मुनियों का हृदय ही देवता है, साधारण बुध्दिवालों के लिए प्रतिमायें ही देवता है और समदर्शी के लिए सारा संसार देवमय है।


इति चाणक्ये चतुर्थोऽध्यायः ॥4॥

चाणक्य नीति- अध्याय 5



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