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| '''रणजीत सिंह''' [[सिक्ख|सिक्खों]] के बारह मिसलों में से एक 'सुकर चाकिया' से सम्बन्धित थे। उन्होंने 1797 ई. में [[रावी नदी]] एवं [[चिनाब नदी]] के प्रदेशों के प्रशासन का कार्यभार संभाला था। 1798 - 1799 ई. में [[अफ़ग़ानिस्तान]] के शासक 'जमानशाह' ने [[पंजाब]] पर आक्रमण किया। वापस जाते हुए उसकी कुछ तोपें चिनाब नदी में गिर गयीं। रणजीत सिंह ने उन्हें निकलवा कर उसके पास भिजवा दिया। इस सेवा के बदले जमानशाह ने रणजीत सिंह को [[लाहौर]] का शासक नियुक्त किया तथा राजा की उपाधि प्रदान की। रणजीत सिंह ने कुछ सिक्ख मिसलों से वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित कर अपने प्रभाव को बढ़ाने का प्रयत्न किया। 1805 ई. में उन्होंने [[अमृतसर]] एवं [[जम्मू]] पर अधिकार कर लिया। अब पंजाब की राजनैतिक राजधानी (लाहौर) तथा धार्मिक राजधानी (अमृतसर), दोनों ही उनके अधीन आ गयी थीं। इस समय तक [[फ्राँस]] का नेपोलियन अपने चरमोत्कर्ष पर था, अतः उसका प्रभाव [[भारत]] पर न पड़े, इसके लिए तत्कालीन [[गवर्नर-जनरल]] लॉर्ड मिंटों ने पंजाब, [[ईरान]] व अफ़ग़ानिस्तान में अपने दूत भेजे। [[25 अप्रैल]], 1809 को 'चार्ल्स मैटकॉफ़' और महाराजा रणजीत सिंह के मध्य '[[अमृतसर की सन्धि]]' सम्पन्न हुई। सन्धि की शर्तों के अनुसार [[सतलुज नदी]] के पूर्वी तट के क्षेत्र [[अंग्रेज़|अंग्रेज़ों]] के अधिकार में आ गये। चूंकि नेपोलियन की सत्ता कमज़ोर पड़ गयी थी, और [[ईरान]] के [[इंग्लैण्ड]] से सम्बन्ध सुधर गये थे। इसलिए इन स्थितियों में रणजीत सिंह के लिए अमृतसर की सन्धि आवश्यक हो गयी थी।
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| ==विजय अभियान==
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| 1804 ई. में [[कांगड़ा]] के सरदार 'संसार चन्द कटोच' को हराकर रणजीत सिंह ने [[होशियारपुर]] पर अधिकार कर लिया। संसार चन्द कटोच के कहलूड़ के राजा पर आक्रमण करने पर जब कहलूड़ के राजा ने [[नेपाल]] के [[गोरखा]] से सहायता मांगी और '[[अमर सिंह थापा]]' के नेतृत्व में गोरखों ने कांगड़ा का क़िला घेर लिया, तो रणजीत सिंह ने संसार चन्द कटोच की सहायता इसी शर्त पर की, कि वह उन्हें कांगड़ा का दुर्ग दे देगा। [[दीवान]] मोहकम चन्द के अधीन एक [[सिक्ख]] सेना ने गोरखों को परास्त कर दिया। इस प्रकार कांगड़ा पर सिक्खों का अधिकार हो गया और संसार चन्द उसकी सुरक्षा में आ गया। 1800 ई. के पश्चात [[अफ़ग़ानिस्तान]] की राजनीतिक शक्ति का पतन हो गया और 1809 ई. में शाहशुजा को [[काबुल]] से भागना पड़ा। शाहशुजा ने काबुल का राज्य प्राप्त करने के लिए रणजीत सिंह से सहायता मांगी और उसे [[कोहिनूर हीरा]] भेंट किया। रणजीत सिंह ने [[सिन्ध]] के पश्चिमी तट के क्षेत्र अपने राज्य में विलय की शर्त पर सहायता का वचन दिया तथा 1837 ई. में [[पेशावर]] जीत लिया। इसके पूर्व वह 1818 ई. में [[मुल्तान]] एवं 1819 ई. में [[कश्मीर]] पर अधिकार कर चुके थे।
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| ==प्रशासन==
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| रणजीत सिंह का प्रशासन भी महत्वपूर्ण रहा। वह निरंकुश होते हुए भी 'खालसा' के नाम पर शासन करते थे। उनकी सरकार को 'सरकार खालसा' कहा जाता था। उन्होंने [[गुरु नानक]] और [[गुरु गोविन्द सिंह]] के नाम के सिक्के चलाये, किन्तु उन्होंने गुरुमत को प्रोत्साहन नहीं दिया। उन्होंने डोगरों एवं [[मुसलमान|मुसलमानों]] को उच्च पद प्रदान किये। फकीर 'अजीजुद्दीन' उनका विदेशमंत्री तथा [[दीवान]] 'दीनानाथ' उनका वितमंत्री था।
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| ====राजस्व के स्रोत====
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| रणजीत सिंह के राजस्व का प्रमुख स्रोत 'भू-राजस्व' था, जिसमें नवीन प्रणालियों का समावेश होता रहता था। महाराजा रणजीत सिंह ने नीलामी के आधार पर सबसे ऊँची बोली बोलने वाले को भू-राजस्व वसूली का अधिकार प्रदान किया। राज्य की ओर से लगान उपज का 2/5 से 1/3 भाग लिया जाता था। रणजीत सिंह का राज्य 4 सूबों में बंटा था - पेशावर, कश्मीर, मुल्तान, और लाहौर । न्याय प्रशासन के क्षेत्र में राजधानी में 'अदालत-ए-आला' (आधुनिक उच्च न्यायालय के समान) खोला गया था, जहाँ उच्च अधिकारियों द्वारा विवादों का निपटारा किया जाता था।
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| ====सैन्य व्यवस्था====
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| रणजीत सिंह ने अपनी सैन्य व्यवस्था पर विशेष ध्यान दिया था। उन्होंने अपनी सेना को [[फ़्राँसीसी]] सैनिकों से प्रशिक्षित करवाया। उन्होंने अपनी पैदल सेना को दो फ़्राँसीसी सैन्य अधिकारियों 'अलार्ड' एवं 'वन्तूरा' के अधीन रखा। वन्तूरा 'फौज-ए-ख़ास' की पदाति तथा अर्लाड 'घुड़सवार' पक्षों के कार्यवाहक थे। इसी प्रकार रणजीत सिंह ने एक तोपखाने का भी गठन करवाया, जिसका कार्यवाहक 'इलाही बख़्श' था। उन्होंने 1827 एवं 1832 ई. में क्रमशः जनरल कोर्ट एवं कर्नल गार्डनर की नियुक्ति कर इस तोपखाने का पुनर्गठन करवाया। रणजीत सिंह की सेना में दो तरह के घुड़सवार थे- घुड़चढ़ख़ास और मिसलदार। रणजीत सिंह की सेना में विभिन्न विदेशी जातियों के 39 अफ़सर कार्य करते थे, जिसमें फ़्राँसीसी, जर्मन, अमेरिकी, [[यूनानी]], रूसी, [[अंग्रेज़]], एंग्लो-इण्डियन, स्पेनी आदि सम्मिलित थे। इन विदेशियों को [[पंजाब]] में बसने के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार के प्रोत्साहन दिए गए। इनमें से जिन लोगों को उत्कृष्ट पद प्राप्त था, उनमें - वन्तूरा, अलार्ड, कोर्ट, गार्डनर और एविटेबल प्रमुख थे। कोर्ट और गार्डनर ने तोपखाने का पुनर्गठन किया था। रणजीत सिंह ने [[लाहौर]] और [[अमृतसर]] में तोप, गोला और बारूद बनाने के कारखाने लगवाये। इसके अतिरिक्त उन्होंने सेना में मासिक वेतन, जिसे 'महादारी' कहते थे, देने की प्रणाली प्रारम्भ की और सेना की साज-सज्जा तथा गतिशीलता पर बल दिया।
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| ==मृत्यु==
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| [[7 जून]], 1839 को महाराज रणजीत सिंह की मृत्यु हो गई। एक फ़्राँसीसी पर्यटक 'विक्टर जैकोमाण्ट' ने रणजीत सिंह की तुलना [[नेपोलियन बोनापार्ट]] से की है। रणजीत सिंह की मृत्यु के बाद का समय पंजाब के लिए घोर अराजकता का काल था। संघावलिया, डोगरा, अतरवालिया, जो रणजीत सिंह के शासन काल में प्रशासन के महत्वपूर्ण अंग थे, ने उनके कमज़ोर उत्तराधिकारियों 'खड़क सिंह', 'नौनिहाल सिंह' व 'शेर सिंह' में एक दूसरे का समर्थन करना शुरू कर दिया। इस बीच सेना का हस्तक्षेप भी प्रशासन में बढ़ने लगा। इसके अलावा, चूंकि [[अंग्रेज़]] पहले से पंजाब को ललचायी दृष्टि से देख रहे थे, इसलिए यह उनके हस्तक्षेप का उचित कारण बना। इन सभी कारणों का परिणाम ही [[प्रथम आंग्ल-सिख]] युद्ध था।
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