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+[[ | +[[पुरु]] एवं [[सिकन्दर]] के मध्य | ||
-[[सिकन्दर]] एवं [[आम्भि]] के मध्य | -[[सिकन्दर]] एवं [[आम्भि]] के मध्य | ||
||'[[वितस्ता का युद्ध]]' राजा [[पुरु]] और मकदूनिया ([[यूनान]]) के राजा [[सिकन्दर]] (अलेक्ज़ेंडर) के मध्य लड़ा गया था। इस युद्ध में राजा पुरु ने अपनी [[हाथी]] सेना पर ही अधिक भरोसा किया और युद्ध में हाथियों की संख्या घोड़ों के मुकाबले अधिक रखी। जबकि सिकन्दर ने अपने घुड़सवार | ||'[[वितस्ता का युद्ध]]' राजा [[पुरु]] और मकदूनिया ([[यूनान]]) के राजा [[सिकन्दर]] (अलेक्ज़ेंडर) के मध्य लड़ा गया था। इस युद्ध में राजा पुरु ने अपनी [[हाथी]] सेना पर ही अधिक भरोसा किया और युद्ध में हाथियों की संख्या घोड़ों के मुकाबले अधिक रखी। जबकि सिकन्दर ने अपने घुड़सवार तीरन्दाज़ों पर अधिक भरोसा किया। युद्ध में सिकन्दर की घुड़सवार सेना की तेज़ीपुरु की हाथी सेना पर भारी पड़ी और परिणामस्वरूप पुरु ये युद्ध हार गया। - अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[वितस्ता का युद्ध]] | ||
{' | {'महरोली का स्तम्भ लेख' किस शासक से सम्बन्धित है? | ||
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+[[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] | +[[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] | ||
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-[[अशोक]] | -[[अशोक]] | ||
-[[समुद्रगुप्त]] | -[[समुद्रगुप्त]] | ||
||'चन्द्रगुप्त द्वितीय' ( | ||'चन्द्रगुप्त द्वितीय' (शासनकाल 380-413) [[गुप्त वंश]] का राजा था। सभी [[गुप्त]] राजाओं में [[समुद्रगुप्त]] का पुत्र [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] सर्वाधिक शौर्य एवं वीरोचित गुणों से सम्पन्न था। चन्द्रगुप्त द्वितीय ने देव, देवगुप्त, देवराज, देवश्री, श्रीविक्रम, विक्रमादित्य, परमभागवत्, नरेन्द्रचन्द्र, सिंहविक्रम, अजीत विक्रम आदि उपाधियाँ धारण की थीं। अनुश्रूतियों में चन्द्रगुप्त द्वितीय ने अपनी पुत्री प्रभावती का [[विवाह]] [[वाकाटक वंश|वाकाटक]] नरेश [[रुद्रसेन]] से किया था। रुद्रसेन की मृत्यु के बाद चन्द्रगुप्त ने अप्रत्यक्ष रूप से वाकाटक राज्य को अपने राज्य में मिलाकर [[उज्जैन]] को अपनी दूसरी राजधानी बनाया। इसी कारण से उसे 'उज्जैनपुरवराधीश्वर' भी कहा जाता है। - अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] | ||
{[[गुप्त काल]] के किस शासक को 'कविराज' कहा गया है? | {[[गुप्त काल]] के किस शासक को 'कविराज' कहा गया है? | ||
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+[[समुद्रगुप्त]] | +[[समुद्रगुप्त]] | ||
-[[स्कन्दगुप्त]] | -[[स्कन्दगुप्त]] | ||
||[[हरिषेण]] के शब्दों में [[समुद्रगुप्त]] का चरित्र इस प्रकार का था- 'उसका मन विद्वानों के सत्संग-सुख का व्यसनी था। उसके जीवन में [[सरस्वती]] और [[लक्ष्मी]] का अविरोध था। वह वैदिक मार्ग का अनुयायी था। उसका काव्य ऐसा था, कि कवियों | ||[[हरिषेण]] के शब्दों में [[समुद्रगुप्त]] का चरित्र इस प्रकार का था- 'उसका मन विद्वानों के सत्संग-सुख का व्यसनी था। उसके जीवन में [[सरस्वती]] और [[लक्ष्मी]] का अविरोध था। वह वैदिक मार्ग का अनुयायी था। उसका काव्य ऐसा था, कि कवियों के बुद्धि-वैभव का भी उससे विकास होता था, यही कारण है कि उसे 'कविराज' की उपाधि दी गई थी। ऐसा कौन-सा ऐसा गुण है, जो उसमें नहीं था। सैकड़ों देशों में विजय प्राप्त करने की उसमें अपूर्व क्षमता थी। अपनी भुजाओं का पराक्रम ही उसका सबसे उत्तम साथी था। [[परशु अस्त्र|परशु]], [[बाण अस्त्र|बाण]], शंकु, शक्ति आदि [[अस्त्र शस्त्र|अस्त्रों-शस्त्रों]] के सैकड़ों घावों से उसका शरीर सुशोभित था। - अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[समुद्रगुप्त]] | ||
{[[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] ने कब 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी? | {[[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] ने कब 'विक्रमादित्य' की उपाधि धारण की थी? | ||
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-[[चाँदी]] के सिक्के जारी करने के बाद | -[[चाँदी]] के सिक्के जारी करने के बाद | ||
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||[[चित्र:Chandragupta-Coins.JPG|right|140px|चन्द्रगुप्त द्वितीय की मुद्राएँ]][[गुजरात]] और [[काठियावाड़]] के शकों का उच्छेद करके उनके राज्य को [[गुप्त साम्राज्य]] के अंतर्गत कर लेना [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसी कारण वह 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' कहलाया। कई सदी पहले शकों का इसी प्रकार से उच्छेद कर [[सातवाहन वंश|सातवाहन]] सम्राट [[गौतमीपुत्र सातकर्णि]] ने भी 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' की उपाधियाँ ग्रहण की थीं। अब चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी एक बार फिर उसी गौरव को प्राप्त किया। गुजरात और काठियावाड़ की विजय के कारण अब गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिम में [[अरब सागर]] तक विस्तृत हो गई थी। | ||[[चित्र:Chandragupta-Coins.JPG|right|140px|चन्द्रगुप्त द्वितीय की मुद्राएँ]][[गुजरात]] और [[काठियावाड़]] के शकों का उच्छेद करके उनके राज्य को [[गुप्त साम्राज्य]] के अंतर्गत कर लेना [[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] के शासन काल की सबसे महत्त्वपूर्ण घटना थी। इसी कारण वह 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' कहलाया। कई सदी पहले शकों का इसी प्रकार से उच्छेद कर [[सातवाहन वंश|सातवाहन]] सम्राट [[गौतमीपुत्र सातकर्णि]] ने भी 'शकारि' और 'विक्रमादित्य' की उपाधियाँ ग्रहण की थीं। अब चन्द्रगुप्त द्वितीय ने भी एक बार फिर उसी गौरव को प्राप्त किया। गुजरात और काठियावाड़ की विजय के कारण अब गुप्त साम्राज्य की सीमा पश्चिम में [[अरब सागर]] तक विस्तृत हो गई थी। - अधिक जानकारी के लिए देखें:-[[चन्द्रगुप्त द्वितीय]] | ||
{[[गुप्त काल|गुप्त कालीन]] [[सोना|सोने]] की मुद्रा को क्या कहा जाता था? | {[[गुप्त काल|गुप्त कालीन]] [[सोना|सोने]] की मुद्रा को क्या कहा जाता था? | ||
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+दीनार | +[[दीनार]] | ||
-कर्षापण | -[[कर्षापण]] | ||
-[[निष्क]] | -[[निष्क]] | ||
-काकिनी | -काकिनी | ||
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{{सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी}} | {{सामान्य ज्ञान प्रश्नोत्तरी}} | ||
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- इस विषय से संबंधित लेख पढ़ें:- इतिहास प्रांगण, इतिहास कोश, ऐतिहासिक स्थान कोश
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