"राहुल सांकृत्यायन": अवतरणों में अंतर
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|मुख्य रचनाएँ=घुमक्कड़ शास्त्र, 'सतमी के बच्चे', 'जीने के लिए', 'सिंह सेनापति', ' | |मुख्य रचनाएँ=घुमक्कड़ शास्त्र, 'सतमी के बच्चे', 'जीने के लिए', 'सिंह सेनापति', 'वोल्गा से गंगा' आदि। | ||
|विषय=दर्शन, धर्म, यात्रा, राजनीति | |विषय=दर्शन, धर्म, यात्रा, राजनीति | ||
|भाषा=[[हिन्दी]], [[पाली भाषा|पाली]], [[प्राकृत भाषा|प्राकृत]], [[अपभ्रंश भाषा|अपभ्रंश]] | |भाषा=[[हिन्दी]], [[पाली भाषा|पाली]], [[प्राकृत भाषा|प्राकृत]], [[अपभ्रंश भाषा|अपभ्रंश]] | ||
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|पुरस्कार-उपाधि=[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]] (1958), [[पद्म भूषण]] (1963), त्रिपिटिका चार्य | |पुरस्कार-उपाधि=[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]] ([[1958]]), [[पद्म भूषण]] ([[1963]]), त्रिपिटिका चार्य | ||
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महापण्डित राहुल सांकृत्यायन | '''महापण्डित राहुल सांकृत्यायन''' (जन्म- [[9 अप्रैल]], [[1893]]; मृत्यु- [[14 अप्रैल]], [[1963]]) को [[हिन्दी]] यात्रा साहित्य का जनक माना जाता है। वे एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद थे और 20वीं [[सदी]] के पूर्वार्द्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए। [[बौद्ध धर्म]] पर उनका शोध [[हिन्दी साहित्य]] में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने [[तिब्बत]] से लेकर [[श्रीलंका]] तक भ्रमण किया था। | ||
==जीवन परिचय== | ==जीवन परिचय== | ||
राहुल जी | राहुल सांकृत्यायन जी का जन्म [[9 अप्रैल]], [[1893]] को पन्दहा ग्राम, [[आजमगढ़ ज़िला|ज़िला आजमगढ़]] ([[उत्तर प्रदेश]]) में हुआ। राहुल सांकृत्यायन के [[पिता]] का नाम गोवर्धन पाण्डे और [[माता]] का नाम कुलवन्ती था। इनके चार भाई और एक बहिन थी, परन्तु बहिन का देहान्त बाल्यावस्था में ही हो गया था। भाइयों में ज्येष्ठ राहुल जी थे। पितृकुल से मिला हुआ उनका नाम 'केदारनाथ पाण्डे' था। सन् [[1930]] ई. में [[लंका]] में [[बौद्ध]] होने पर उनका नाम 'राहुल' पड़ा। बौद्ध होने के पूर्व राहुल जी 'दामोदर स्वामी' के नाम से भी पुकारे जाते थे। 'राहुल' नाम के आगे 'सांस्कृत्यायन' इसलिए लगा कि पितृकुल सांकृत्य गोत्रीय है। | ||
====बाल्य काल==== | |||
राहुल जी का बाल्य जीवन ननिहाल अर्थात पन्दहा ग्राम में व्यतीत हुआ। राहुल जी के नाना का नाम था पण्डित राम शरण पाठक, जो अपनी युवावस्था में | राहुल जी का बाल्य जीवन ननिहाल अर्थात पन्दहा ग्राम में व्यतीत हुआ। राहुल जी के नाना का नाम था पण्डित राम शरण पाठक, जो अपनी युवावस्था में फ़ौज में नौकरी कर चुके थे। नाना के मुख से सुनी हुई फ़ौज़ी जीवन की कहानियाँ, शिकार के अद्भुत वृत्तान्त, देश के विभिन्न प्रदेशों का रोचक वर्णन, [[अजन्ता]]-[[एलोरा]] की किवदन्तियों तथा नदियों, झरनों के वर्णन आदि ने राहुल जी के आगामी जीवन की भूमिका तैयार कर दी थी। इसके अतिरिक्त दर्जा तीन की [[उर्दू भाषा|उर्दू]] किताब में पढ़ा हुआ 'नवाजिन्दा-बाजिन्दा' का शेर <poem> | ||
==== | सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िन्दगानी फिर कहाँ, | ||
राहुल जी की जीवन यात्रा के अध्याय इस प्रकार हैं- पहली उड़ान [[वाराणसी]] तक | ज़िन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ </poem> राहुल जी को दूर देश जाने के लिए प्रेरित करने लगा। कुछ काल पश्चात् घर छोड़ने का संयोग यों उपस्थित हुआ कि घी की मटकी सम्भाली नहीं और दो सेर घी ज़मीन पर बह गया। अब नाना की डाँट का भय था, नवाजिन्दा बाजिन्दा का वह शेर और नाना के ही मुख से सुनी कहानियाँ इन सबने मिलकर केदारनाथ पाण्डे (राहुल जी) को घर से बाहर निकाल दिया। | ||
; | ====जीवन यात्रा==== | ||
राहुल सांकृत्यायन ने छपरा के लिए प्रस्थान, बाढ़ | राहुल जी की जीवन यात्रा के अध्याय इस प्रकार हैं- | ||
; | *पहली उड़ान [[वाराणसी]] तक | ||
राहुल सांकृत्यायन [[लंका]] में 19 मास, [[नेपाल]] में | *दूसरी उड़ान [[कोलकाता|कलकत्ता]] तक | ||
; | *तीसरी उड़ान पुन: [[कोलकाता|कलकत्ता]] तक | ||
राहुल सांकृत्यायन ने [[इंग्लैण्ड]] और [[यूरोप]] | इसके बाद पुन: वापस आने पर [[हिमालय]] की यात्रा पर गये, सन् 1990 ई. से 1914 ई. तक वैराग्य से प्रभावित रहे और हिमालय पर यायावर जीवन जिया। वाराणसी में [[संस्कृत]] का अध्ययन किया। परसा महन्त का सहचर्य मिला, [[आगरा]] में पढ़ाई की, [[लाहौर]] में मिशनरी कार्य किया, इसके बाद पुन: 'घुमक्कड़ी का भूत' हावी रहा। [[कुर्ग]] में भी चार मास तक रहे। | ||
;राजनीति में प्रवेश <small>(1921-27)</small> | |||
; | राहुल सांकृत्यायन ने [[छपरा]] के लिए प्रस्थान किया, बाढ़ पीड़ितों की सेवा की, स्वतंत्रता आंदोलन में सत्याग्रह में भाग लिया और उसमें जेल की सज़ा मिली, बक्सर जेल में छ: मास तक रहे, ज़िला [[कांग्रेस]] के मंत्री रहे, इसके बाद [[नेपाल]] में डेढ़ मास तक रहे, हज़ारी बाग़ जेल में रहे। राजनीतिक शिथिलता आने पर पुन: हिमालय की ओर गये, कौंसिल का चुनाव भी लड़ा। | ||
राहुल सांकृत्यायन जी कम्युनिस्ट पार्टी के | ;लंका के लिए प्रस्थान <small>(1927)</small> | ||
; | राहुल सांकृत्यायन ने [[लंका]] में 19 मास प्रवास किया, [[नेपाल]] में अज्ञातवास किया, [[तिब्बत]] में सवा बरस तक रहे, लंका में दूसरी बार गये, इसके बाद सत्याग्रह के लिए [[भारत]] में लौटकर आये। कुछ समय बाद [[लंका]] के लिए तीसरी बार प्रस्थान किया। | ||
राहुल जी की प्रारम्भिक यात्राओं ने दो दिशाएँ दीं। एक तो प्राचीन एवं अर्वाचीन विषयों का अध्ययन तथा दूसरे देश-देशान्तरों की अधिक से अधिक प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त करना। इन दो प्रवृत्तियों से अभिभूत होकर राहुल जी | ;यात्राएँ <small>(1932-33)</small> | ||
राहुल सांकृत्यायन ने [[इंग्लैण्ड]] और [[यूरोप]] की यात्रा की। दो बार लद्दाख यात्रा, दो बार [[तिब्बत]] यात्रा, [[जापान]], कोरिया, मंचूरिया, सोवियत भूमि ([[1935]] ई.), [[ईरान]] में पहली बार, तिब्बत में तीसरी बार [[1936]] ई. में, सोवियत भूमि में दूसरी बार [[1937]] ई. में, तिब्बत में चौथी बार [[1938]] ई.में यात्रा की। | |||
कट्टर सनातनी [[ब्राह्मण]] कुल में जन्म लेकर भी सनातन धर्म की रूढ़ियों को राहुल जी ने अपने ऊपर से उतार फेंका और जो भी | ;आंदोलन <small>(1938)</small> | ||
किसान मज़दूरों के आन्दोलन में 1938-44 तक भाग लिया, किसान संघर्ष में [[1936]] में भाग लिया और सत्याग्रह भूख हड़ताल किया। | |||
यद्यपि राहुल जी के जीवन में पर्यटक वृत्ति सदैव प्रधान रही, परन्तु उनका पर्यटन केवल पर्यटन के लिए ही नहीं रहा। पर्यटन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति सर्वोपरि रही। अनेक धार्मिक एवं राजनीतिक वलयों में रहने के बाद भी उनके अध्ययन एवं चिन्तन में कभी जड़ता नहीं आने पायी। राहुल जी बाल्यकाल से ही मेधावी थे। समूचे दर्जे में अव्वल होना उनके लिए साधारण बात थी। परिस्थितियों के अनुसार जिस विषय के सम्पर्क में वे आये, उसकी पूरी जानकारी प्राप्त करना उनका व्यक्तिगत धर्म बन गया। [[वाराणसी]] में जब [[संस्कृत]] से अनुराग हुआ, तो सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य एवं | ;सज़ा, जेल और एक नये जीवन का प्रारम्भ | ||
राहुल सांकृत्यायन जी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने। जेल में 29 मास (1940-42 ई.) रहे। इसके बाद सोवियत रूस के लिए पुन: प्रस्थान किया। रूस से लौटने के बाद राहुल जी [[भारत]] में रहे और कुछ समय के पश्चात् [[चीन]] चले गये, फिर [[लंका]] चले गये। | |||
;महान पर्यटक | |||
राहुल जी की प्रारम्भिक यात्राओं ने उनके चिंतन को दो दिशाएँ दीं। एक तो प्राचीन एवं अर्वाचीन विषयों का अध्ययन तथा दूसरे देश-देशान्तरों की अधिक से अधिक [[प्रत्यक्ष]] जानकारी प्राप्त करना। इन दो प्रवृत्तियों से अभिभूत होकर राहुल जी महान् पर्यटक और महान् अध्येता बने। | |||
==धर्म== | |||
कट्टर सनातनी [[ब्राह्मण]] कुल में जन्म लेकर भी सनातन धर्म की रूढ़ियों को राहुल जी ने अपने ऊपर से उतार फेंका और जो भी तर्कवादी [[धर्म]] या तर्कवादी समाजशास्त्र उनके सामने आते गये, उसे ग्रहण करते गये और शनै: शनै: उन धर्मों एवं शास्त्रों के भी मूल तत्वों को अपनाते हुए उनके बाह्य ढाँचे को छोड़ते गये। {{दाँयाबक्सा|पाठ="कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों! <br /> संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।"|विचारक=}}सनातन धर्म से, [[आर्य समाज]] से और [[बौद्ध धर्म]] से साम्यवाद-राहुल जी के सामाजिक चिन्तन का क्रम है, राहुल जी किसी धर्म या विचारधारा के दायरे में बँध नहीं सके। 'मज्झिम निकाय' के सूत्र का हवाला देते हुए राहुल जी ने अपनी 'जीवन यात्रा' में इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है- <blockquote>“बड़े की भाँति मैंने तुम्हें उपदेश दिया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिए नहीं-तो मालूम हुआ कि जिस चीज़ को मैं इतने दिनों से ढूँढता रहा हूँ, वह मिल गयी”।</blockquote> | |||
====मेधावी व्यक्तित्व के धनी==== | |||
यद्यपि राहुल जी के जीवन में पर्यटक वृत्ति सदैव प्रधान रही, परन्तु उनका पर्यटन केवल पर्यटन के लिए ही नहीं रहा। पर्यटन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति सर्वोपरि रही। अनेक धार्मिक एवं राजनीतिक वलयों में रहने के बाद भी उनके अध्ययन एवं चिन्तन में कभी जड़ता नहीं आने पायी। राहुल जी बाल्यकाल से ही मेधावी थे। समूचे दर्जे में अव्वल होना उनके लिए साधारण बात थी। परिस्थितियों के अनुसार जिस विषय के सम्पर्क में वे आये, उसकी पूरी जानकारी प्राप्त करना उनका व्यक्तिगत धर्म बन गया। [[वाराणसी]] में जब [[संस्कृत]] से अनुराग हुआ, तो सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य एवं दर्शनादि को पढ़ लिया। [[कलकत्ता]] में [[अंग्रेज़ी भाषा|अंग्रेज़ी]] से पाला पड़ा तो कुछ समय में अंग्रेज़ी के ज्ञाता बन गये। आर्य समाज का जब प्रभाव पड़ा तो [[वेद|वेदों]] को मथ डाला। बौद्ध धर्म की ओर जब झुकाव हुआ तो [[पाली भाषा|पाली]], [[प्राकृत भाषा|प्राकृत]], [[अपभ्रंश भाषा|अपभ्रंश]], तिब्बती, चीनी, जापानी, एवं सिंहली भाषाओं की जानकारी लेते हुए सम्पूर्ण बौद्ध ग्रन्थों का मनन किया और सर्वश्रेष्ठ उपाधि 'त्रिपिटिका चार्य' की पदवी पायी। साम्यवाद के क्रोड़ में जब राहुल जी गये तो [[कार्ल मार्क्स]], लेनिन तथा स्तालिन के [[दर्शन]] से पूर्ण परिचय हुआ। प्रकारान्तर से राहुल जी [[इतिहास]], [[पुरातत्त्व]], स्थापत्य, भाषाशास्त्र एवं राजनीति शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे। | |||
==घुमक्कड़ी स्वाभाव== | ==घुमक्कड़ी स्वाभाव== | ||
राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि- | [[चित्र:Rahul-Sankrityayan-Statue.jpg|thumb|220px|राहुल सांकृत्यायन प्रतिमा]] | ||
राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि- "कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।" राहुल ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात करते हुए ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ भी रचा। वे एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में था और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वह बागी हो गये। उनका सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है।{{बाँयाबक्सा|पाठ=“बड़े की भाँति मैंने तुम्हें उपदेश दिया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिए नहीं-तो मालूम हुआ कि जिस चीज़ को मैं इतने दिनों से ढूँढता रहा हूँ, वह मिल गयी”।|विचारक=राहुल सांकृत्यायन}}[[वेदान्त]] के अध्ययन के पश्चात् जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरुद्ध व्याख्यान दिया तो [[अयोध्या]] के सनातनी [[पुरोहित]] उन पर लाठी लेकर टूट पड़े। [[बौद्ध धर्म]] स्वीकार करने के बावजूद वह इसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकार पाए। बाद में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का कारण बताया। सन् [[1947]] में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया एवं जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा, पर उनके तेवर फिर भी नहीं बदले। इस कालावधि में वे किसी बंदिश से परे प्रगतिशील लेखन के सरोकारों और तत्कालीन प्रश्नों से लगातार जुड़े रहे। इस बीच मार्क्सवादी विचारधारा को उन्होंने भारतीय समाज की ठोस परिस्थितियों का आंकलन करके लागू करने पर ज़ोर दिया। अपनी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ एवं ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में इस सम्बन्ध में उन्होंने सम्यक प्रकाश डाला। अन्तत: सन् [[1953]]-[[1954|54]] के दौरान पुन: एक बार वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनाये गये। | |||
==साहित्यिक जीवन== | ==साहित्यिक जीवन== | ||
अपनी 'जीवन यात्रा' में राहुल जी ने स्वीकार किया है कि उनका साहित्यिक जीवन | अपनी 'जीवन यात्रा' में राहुल जी ने स्वीकार किया है कि उनका साहित्यिक जीवन सन् [[1927]] से प्रारम्भ होता है। वास्तविक बात तो यह है कि राहुल जी ने किशोरावस्था पार करने के बाद ही लिखना शुरू कर दिया था। जिस प्रकार उनके पाँव नहीं रुके, उसी प्रकार उनके हाथ की लेखनी भी कभी नहीं रुकी। उनकी लेखनी से विभिन्न विषयों पर प्राय: 150 से अधिक [[ग्रन्थ]] प्रणीत हुए हैं। प्रकाशित ग्रन्थों की संख्या सम्भवत: 129 है। लेखों, निबन्धों एवं वक्तृतताओं की संख्या हज़ारों में हैं। | ||
==कृतियाँ== | ==कृतियाँ== | ||
[[चित्र:Rahul-Sankrityayan | [[चित्र:Rahul-Sankrityayan.jpg|thumb|राहुल सांकृत्यायन]] | ||
राहुल जी की प्रकाशित कृतियों का क्रम इस प्रकार है- | राहुल जी की प्रकाशित कृतियों का क्रम इस प्रकार है- | ||
==== | ====उपन्यास-कहानी==== | ||
{| class="bharattable-purple" | |||
|- | |||
! मौलिक | |||
! अनुवाद | |||
|- | |||
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*'सतमी के बच्चे' (कहानी, 1939 ई.) | *'सतमी के बच्चे' (कहानी, 1939 ई.) | ||
*'जीने के लिए' (1940 ई.) | *'जीने के लिए' (1940 ई.) | ||
*'सिंह सेनापति' (1944 ई.) | *'सिंह सेनापति' (1944 ई.) | ||
*'जय यौधेय' (1944 ई.) | *'जय यौधेय' (1944 ई.) | ||
*' | *'[[वोल्गा से गंगा -राहुल सांकृत्यायन|वोल्गा से गंगा]]' (कहानी संग्रह, 1944 ई.) | ||
*'मधुर स्वप्न' (1949 ई.) | *'मधुर स्वप्न' (1949 ई.) | ||
*'बहुरंगी मधुपुरी' (कहानी, 1953 ई.) | *'बहुरंगी मधुपुरी' (कहानी, 1953 ई.) | ||
पंक्ति 73: | पंक्ति 84: | ||
*'कनैला की कथा' (कहानी, 1955-56 ई.) | *'कनैला की कथा' (कहानी, 1955-56 ई.) | ||
*'सप्तसिन्धु' | *'सप्तसिन्धु' | ||
| | |||
*'शैतान की आँख' (1923 ई.) | *'शैतान की आँख' (1923 ई.) | ||
*'विस्मृति के गर्भ से' (1923 ई.) | *'विस्मृति के गर्भ से' (1923 ई.) | ||
पंक्ति 84: | पंक्ति 95: | ||
*'सूदख़ोर की मौत' (1951 ई.) | *'सूदख़ोर की मौत' (1951 ई.) | ||
*'शादी' (1952 ई.) | *'शादी' (1952 ई.) | ||
|} | |||
{{राहुल सांकृत्यायन की रचनाएँ}} | |||
==कर्मयोगी योद्धा== | |||
एक कर्मयोगी योद्धा की तरह राहुल सांकृत्यायन ने [[बिहार]] के [[किसान आन्दोलन|किसान-आन्दोलन]] में भी प्रमुख भूमिका निभाई। सन् 1940 के दौरान किसान-आन्दोलन के सिलसिले में उन्हें एक वर्ष की जेल हुई तो देवली कैम्प के इस जेल-प्रवास के दौरान उन्होंने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ ग्रन्थ की रचना कर डाली। [[1942]] के [[भारत छोड़ो आन्दोलन]] के पश्चात् जेल से निकलने पर किसान आन्दोलन के उस समय के शीर्ष नेता [[स्वामी सहजानन्द सरस्वती]] द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘हुंकार’ का उन्हें सम्पादक बनाया गया। ब्रिटिश सरकार ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाते हुए गैर कांग्रेसी पत्र-पत्रिकाओं में चार अंकों हेतु ‘गुण्डों से लड़िए’ शीर्षक से एक विज्ञापन जारी किया। इसमें एक व्यक्ति गाँधी टोपी व जवाहर बण्डी पहने आग लगाता हुआ दिखाया गया था। राहुल सांकृत्यायन ने इस विज्ञापन को छापने से इन्कार कर दिया पर विज्ञापन की मोटी धनराशि देखकर स्वामी सहजानन्द ने इसे छापने पर जोर दिया। अन्तत: राहुल ने अपने को [[पत्रिका]] के सम्पादन से ही अलग कर लिया। इसी प्रकार सन् 1940 में ‘बिहार प्रान्तीय किसान सभा’ के अध्यक्ष रूप में जमींदारों के आतंक की परवाह किए बिना वे किसान सत्याग्रहियों के साथ खेतों में उतर हँसिया लेकर गन्ना काटने लगे। प्रतिरोध स्वरूप ज़मींदार के लठैतों ने उनके सिर पर वार कर लहुलुहान कर दिया पर वे हिम्मत नहीं हारे। इसी तरह न जाने कितनी बार उन्होंने जनसंघर्षों का सक्रिय नेतृत्व किया और अपनी आवाज को मुखर अभिव्यक्ति दी।<ref>{{cite web |url=http://www.sahityashilpi.com/2009/04/blog-post_9306.html |title=राहुल सांकृत्यायन का घुमक्कड़ शास्त्र [जीवन परिचय] - कृष्ण कुमार यादव |accessmonthday=24 मार्च |accessyear=2013 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=साहित्य शिल्पी |language= हिंदी}}</ref> | |||
[[ | |||
= | |||
==== | |||
==अन्य विषयों पर दृष्टिकोण== | ==अन्य विषयों पर दृष्टिकोण== | ||
राहुल जी ने | [[चित्र:Rahul-Sankrityayan-Stamp.jpg|thumb|राहुल सांकृत्यायन के सम्मान में जारी [[डाक टिकट]]]] | ||
== | राहुल जी ने [[हिन्दी साहित्य]] के अतिरिक्त [[धर्म]], [[दर्शन]], लोक साहित्य, यात्रा साहित्य, जीवनी, राजनीति, [[इतिहास]], [[संस्कृत]] के ग्रन्थों की टीका और अनुवाद, कोश, तिब्बती भाषा एवं बालपोथी सम्पादन आदि विषयों पर पूरे अधिकार के साथ लिखा है। [[हिन्दी भाषा]] और [[साहित्य]] के क्षेत्र में राहुल जी ने 'अपभ्रंश काव्य साहित्य' 'दक्खिनी हिन्दी साहित्य' 'आदि हिन्दी की कहानियाँ' प्रस्तुत कर लुप्तप्राय निधि का उद्धार किया है। राहुल जी की मौलिक कहानियाँ एवं उपन्यास एक नये दृष्टिकोण को सामने रखती है। साहित्य से सम्बन्धित राहुल जी की रचनाओं में एक और विशिष्ट बात यह रही है कि उन्होंने प्राचीन इतिहास अथवा वर्तमान जीवन के उन अछूते अंगों को स्पर्श किया है, जिस पर साधारणतया लोगों की दृष्टि नहीं गयी थी। उन रचनाओं में जहाँ एक ओर प्राचीन के प्रति मोह, इतिहास का गौरव आदि है, तो दूसरी ओर उनकी अनेक रचनाएँ स्थानीय रंगत को लेकर मोहक चित्र उपस्थित करती है। 'सतमी के बच्चे' और 'कनैला की कथा' इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। राहुल जी ने प्राचीन खण्डहरों से गणतंत्रीय प्रणाली को खोज निकाला। धार्मिक आन्दोलनों के मूल में जाकर सर्वहारा के धर्म को पकड़ लिया। [[इतिहास]] के पृष्ठों में असाधारण के स्थान पर साधारण को अधिक प्रश्रय दिया और इस प्रकार जनता, जनता का राज्य, मेहनतकश मज़दूर यह सब उनकी रचनाओं के मूलाधार बने। साहित्यिक भाषा, काव्यात्मकता अथवा व्यंजनाओं का सहारा न लेते हुए राहुल जी ने सीधी, सरल शैली का सहारा लिया। इसीलिए राहुल जी की रचनाएँ पाठकों के लिए भी मनोरंजक एवं बोधगम्य हैं। | ||
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को | ==पुरस्कार== | ||
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को सन् [[1958]] में '[[साहित्य अकादमी पुरस्कार हिन्दी|साहित्य अकादमी पुरस्कार]]' और सन् [[1963]] भारत सरकार द्वारा '[[पद्म भूषण]]' से सम्मानित किया गया। | |||
==मृत्यु== | ==मृत्यु== | ||
राहुल सांकृत्यायन को अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्मृति लोप’ जैसी अवस्था से गुजरना पड़ा एवं इलाज हेतु उन्हें मास्को ले जाया गया। [[मार्च]], [[1963]] में वे पुन: मास्को से [[दिल्ली]] आ गए और [[14 अप्रैल]], [[1963]] को सत्तर वर्ष की आयु में सन्न्यास से साम्यवाद तक का उनका सफर पूरा हो गया। | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
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==बाहरी कड़ियाँ== | ==बाहरी कड़ियाँ== | ||
*[http://www.rahul-sankrityayan.co.nr/ महापण्डित राहुल सांकृत्यायन] | |||
*[http://dastavez.blogspot.com/2010/09/blog-post_28.html राहुल सांकृत्यायन और बिहार में किसान आंदोलन] | *[http://dastavez.blogspot.com/2010/09/blog-post_28.html राहुल सांकृत्यायन और बिहार में किसान आंदोलन] | ||
*[http://www.chaurichaura.com/news/news.php?go=fullnews&id=143 अथातो घुमक्कड़ - जिज्ञासा : राहुल सांकृत्यायन] | *[http://www.chaurichaura.com/news/news.php?go=fullnews&id=143 अथातो घुमक्कड़ - जिज्ञासा : राहुल सांकृत्यायन] | ||
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==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
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06:12, 14 अप्रैल 2018 के समय का अवतरण
राहुल सांकृत्यायन
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पूरा नाम | राहुल सांकृत्यायन |
अन्य नाम | केदारनाथ पाण्डे, दामोदर स्वामी |
जन्म | 9 अप्रैल, 1893 |
जन्म भूमि | पन्दहा ग्राम, ज़िला आजमगढ़, (उत्तर प्रदेश) |
मृत्यु | 14 अप्रैल, 1963 |
मृत्यु स्थान | दार्जिलिंग, पश्चिम बंगाल |
अभिभावक | गोवर्धन पाण्डे, कुलवन्ती |
कर्म भूमि | बिहार |
कर्म-क्षेत्र | साहित्य |
मुख्य रचनाएँ | घुमक्कड़ शास्त्र, 'सतमी के बच्चे', 'जीने के लिए', 'सिंह सेनापति', 'वोल्गा से गंगा' आदि। |
विषय | दर्शन, धर्म, यात्रा, राजनीति |
भाषा | हिन्दी, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश |
पुरस्कार-उपाधि | साहित्य अकादमी पुरस्कार (1958), पद्म भूषण (1963), त्रिपिटिका चार्य |
नागरिकता | भारतीय |
अद्यतन | 15:17, 19 अगस्त 2012 (IST)
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इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन (जन्म- 9 अप्रैल, 1893; मृत्यु- 14 अप्रैल, 1963) को हिन्दी यात्रा साहित्य का जनक माना जाता है। वे एक प्रतिष्ठित बहुभाषाविद थे और 20वीं सदी के पूर्वार्द्ध में उन्होंने यात्रा वृतांत तथा विश्व-दर्शन के क्षेत्र में साहित्यिक योगदान किए। बौद्ध धर्म पर उनका शोध हिन्दी साहित्य में युगान्तरकारी माना जाता है, जिसके लिए उन्होंने तिब्बत से लेकर श्रीलंका तक भ्रमण किया था।
जीवन परिचय
राहुल सांकृत्यायन जी का जन्म 9 अप्रैल, 1893 को पन्दहा ग्राम, ज़िला आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश) में हुआ। राहुल सांकृत्यायन के पिता का नाम गोवर्धन पाण्डे और माता का नाम कुलवन्ती था। इनके चार भाई और एक बहिन थी, परन्तु बहिन का देहान्त बाल्यावस्था में ही हो गया था। भाइयों में ज्येष्ठ राहुल जी थे। पितृकुल से मिला हुआ उनका नाम 'केदारनाथ पाण्डे' था। सन् 1930 ई. में लंका में बौद्ध होने पर उनका नाम 'राहुल' पड़ा। बौद्ध होने के पूर्व राहुल जी 'दामोदर स्वामी' के नाम से भी पुकारे जाते थे। 'राहुल' नाम के आगे 'सांस्कृत्यायन' इसलिए लगा कि पितृकुल सांकृत्य गोत्रीय है।
बाल्य काल
राहुल जी का बाल्य जीवन ननिहाल अर्थात पन्दहा ग्राम में व्यतीत हुआ। राहुल जी के नाना का नाम था पण्डित राम शरण पाठक, जो अपनी युवावस्था में फ़ौज में नौकरी कर चुके थे। नाना के मुख से सुनी हुई फ़ौज़ी जीवन की कहानियाँ, शिकार के अद्भुत वृत्तान्त, देश के विभिन्न प्रदेशों का रोचक वर्णन, अजन्ता-एलोरा की किवदन्तियों तथा नदियों, झरनों के वर्णन आदि ने राहुल जी के आगामी जीवन की भूमिका तैयार कर दी थी। इसके अतिरिक्त दर्जा तीन की उर्दू किताब में पढ़ा हुआ 'नवाजिन्दा-बाजिन्दा' का शेर
सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िन्दगानी फिर कहाँ,
ज़िन्दगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ
राहुल जी को दूर देश जाने के लिए प्रेरित करने लगा। कुछ काल पश्चात् घर छोड़ने का संयोग यों उपस्थित हुआ कि घी की मटकी सम्भाली नहीं और दो सेर घी ज़मीन पर बह गया। अब नाना की डाँट का भय था, नवाजिन्दा बाजिन्दा का वह शेर और नाना के ही मुख से सुनी कहानियाँ इन सबने मिलकर केदारनाथ पाण्डे (राहुल जी) को घर से बाहर निकाल दिया।
जीवन यात्रा
राहुल जी की जीवन यात्रा के अध्याय इस प्रकार हैं-
इसके बाद पुन: वापस आने पर हिमालय की यात्रा पर गये, सन् 1990 ई. से 1914 ई. तक वैराग्य से प्रभावित रहे और हिमालय पर यायावर जीवन जिया। वाराणसी में संस्कृत का अध्ययन किया। परसा महन्त का सहचर्य मिला, आगरा में पढ़ाई की, लाहौर में मिशनरी कार्य किया, इसके बाद पुन: 'घुमक्कड़ी का भूत' हावी रहा। कुर्ग में भी चार मास तक रहे।
- राजनीति में प्रवेश (1921-27)
राहुल सांकृत्यायन ने छपरा के लिए प्रस्थान किया, बाढ़ पीड़ितों की सेवा की, स्वतंत्रता आंदोलन में सत्याग्रह में भाग लिया और उसमें जेल की सज़ा मिली, बक्सर जेल में छ: मास तक रहे, ज़िला कांग्रेस के मंत्री रहे, इसके बाद नेपाल में डेढ़ मास तक रहे, हज़ारी बाग़ जेल में रहे। राजनीतिक शिथिलता आने पर पुन: हिमालय की ओर गये, कौंसिल का चुनाव भी लड़ा।
- लंका के लिए प्रस्थान (1927)
राहुल सांकृत्यायन ने लंका में 19 मास प्रवास किया, नेपाल में अज्ञातवास किया, तिब्बत में सवा बरस तक रहे, लंका में दूसरी बार गये, इसके बाद सत्याग्रह के लिए भारत में लौटकर आये। कुछ समय बाद लंका के लिए तीसरी बार प्रस्थान किया।
- यात्राएँ (1932-33)
राहुल सांकृत्यायन ने इंग्लैण्ड और यूरोप की यात्रा की। दो बार लद्दाख यात्रा, दो बार तिब्बत यात्रा, जापान, कोरिया, मंचूरिया, सोवियत भूमि (1935 ई.), ईरान में पहली बार, तिब्बत में तीसरी बार 1936 ई. में, सोवियत भूमि में दूसरी बार 1937 ई. में, तिब्बत में चौथी बार 1938 ई.में यात्रा की।
- आंदोलन (1938)
किसान मज़दूरों के आन्दोलन में 1938-44 तक भाग लिया, किसान संघर्ष में 1936 में भाग लिया और सत्याग्रह भूख हड़ताल किया।
- सज़ा, जेल और एक नये जीवन का प्रारम्भ
राहुल सांकृत्यायन जी कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने। जेल में 29 मास (1940-42 ई.) रहे। इसके बाद सोवियत रूस के लिए पुन: प्रस्थान किया। रूस से लौटने के बाद राहुल जी भारत में रहे और कुछ समय के पश्चात् चीन चले गये, फिर लंका चले गये।
- महान पर्यटक
राहुल जी की प्रारम्भिक यात्राओं ने उनके चिंतन को दो दिशाएँ दीं। एक तो प्राचीन एवं अर्वाचीन विषयों का अध्ययन तथा दूसरे देश-देशान्तरों की अधिक से अधिक प्रत्यक्ष जानकारी प्राप्त करना। इन दो प्रवृत्तियों से अभिभूत होकर राहुल जी महान् पर्यटक और महान् अध्येता बने।
धर्म
कट्टर सनातनी ब्राह्मण कुल में जन्म लेकर भी सनातन धर्म की रूढ़ियों को राहुल जी ने अपने ऊपर से उतार फेंका और जो भी तर्कवादी धर्म या तर्कवादी समाजशास्त्र उनके सामने आते गये, उसे ग्रहण करते गये और शनै: शनै: उन धर्मों एवं शास्त्रों के भी मूल तत्वों को अपनाते हुए उनके बाह्य ढाँचे को छोड़ते गये।
"कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों! |
सनातन धर्म से, आर्य समाज से और बौद्ध धर्म से साम्यवाद-राहुल जी के सामाजिक चिन्तन का क्रम है, राहुल जी किसी धर्म या विचारधारा के दायरे में बँध नहीं सके। 'मज्झिम निकाय' के सूत्र का हवाला देते हुए राहुल जी ने अपनी 'जीवन यात्रा' में इस तथ्य का स्पष्टीकरण इस प्रकार किया है-
“बड़े की भाँति मैंने तुम्हें उपदेश दिया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिए नहीं-तो मालूम हुआ कि जिस चीज़ को मैं इतने दिनों से ढूँढता रहा हूँ, वह मिल गयी”।
मेधावी व्यक्तित्व के धनी
यद्यपि राहुल जी के जीवन में पर्यटक वृत्ति सदैव प्रधान रही, परन्तु उनका पर्यटन केवल पर्यटन के लिए ही नहीं रहा। पर्यटन के मूल में अध्ययन की प्रवृत्ति सर्वोपरि रही। अनेक धार्मिक एवं राजनीतिक वलयों में रहने के बाद भी उनके अध्ययन एवं चिन्तन में कभी जड़ता नहीं आने पायी। राहुल जी बाल्यकाल से ही मेधावी थे। समूचे दर्जे में अव्वल होना उनके लिए साधारण बात थी। परिस्थितियों के अनुसार जिस विषय के सम्पर्क में वे आये, उसकी पूरी जानकारी प्राप्त करना उनका व्यक्तिगत धर्म बन गया। वाराणसी में जब संस्कृत से अनुराग हुआ, तो सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य एवं दर्शनादि को पढ़ लिया। कलकत्ता में अंग्रेज़ी से पाला पड़ा तो कुछ समय में अंग्रेज़ी के ज्ञाता बन गये। आर्य समाज का जब प्रभाव पड़ा तो वेदों को मथ डाला। बौद्ध धर्म की ओर जब झुकाव हुआ तो पाली, प्राकृत, अपभ्रंश, तिब्बती, चीनी, जापानी, एवं सिंहली भाषाओं की जानकारी लेते हुए सम्पूर्ण बौद्ध ग्रन्थों का मनन किया और सर्वश्रेष्ठ उपाधि 'त्रिपिटिका चार्य' की पदवी पायी। साम्यवाद के क्रोड़ में जब राहुल जी गये तो कार्ल मार्क्स, लेनिन तथा स्तालिन के दर्शन से पूर्ण परिचय हुआ। प्रकारान्तर से राहुल जी इतिहास, पुरातत्त्व, स्थापत्य, भाषाशास्त्र एवं राजनीति शास्त्र के अच्छे ज्ञाता थे।
घुमक्कड़ी स्वाभाव
राहुल सांकृत्यायन का मानना था कि घुमक्कड़ी मानव-मन की मुक्ति का साधन होने के साथ-साथ अपने क्षितिज विस्तार का भी साधन है। उन्होंने कहा भी था कि- "कमर बाँध लो भावी घुमक्कड़ों, संसार तुम्हारे स्वागत के लिए बेकरार है।" राहुल ने अपनी यात्रा के अनुभवों को आत्मसात करते हुए ‘घुमक्कड़ शास्त्र’ भी रचा। वे एक ऐसे घुमक्कड़ थे जो सच्चे ज्ञान की तलाश में था और जब भी सच को दबाने की कोशिश की गई तो वह बागी हो गये। उनका सम्पूर्ण जीवन अन्तर्विरोधों से भरा पड़ा है।
“बड़े की भाँति मैंने तुम्हें उपदेश दिया है, वह पार उतरने के लिए है, सिर पर ढोये-ढोये फिरने के लिए नहीं-तो मालूम हुआ कि जिस चीज़ को मैं इतने दिनों से ढूँढता रहा हूँ, वह मिल गयी”।
- राहुल सांकृत्यायन
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वेदान्त के अध्ययन के पश्चात् जब उन्होंने मंदिरों में बलि चढ़ाने की परम्परा के विरुद्ध व्याख्यान दिया तो अयोध्या के सनातनी पुरोहित उन पर लाठी लेकर टूट पड़े। बौद्ध धर्म स्वीकार करने के बावजूद वह इसके ‘पुनर्जन्मवाद’ को नहीं स्वीकार पाए। बाद में जब वे मार्क्सवाद की ओर उन्मुख हुए तो उन्होंने तत्कालीन सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी में घुसे सत्तालोलुप सुविधापरस्तों की तीखी आलोचना की और उन्हें आन्दोलन के नष्ट होने का कारण बताया। सन् 1947 में अखिल भारतीय साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष रूप में उन्होंने पहले से छपे भाषण को बोलने से मना कर दिया एवं जो भाषण दिया, वह अल्पसंख्यक संस्कृति एवं भाषाई सवाल पर कम्युनिस्ट पार्टी की नीतियों के विपरीत था। नतीजन पार्टी की सदस्यता से उन्हें वंचित होना पड़ा, पर उनके तेवर फिर भी नहीं बदले। इस कालावधि में वे किसी बंदिश से परे प्रगतिशील लेखन के सरोकारों और तत्कालीन प्रश्नों से लगातार जुड़े रहे। इस बीच मार्क्सवादी विचारधारा को उन्होंने भारतीय समाज की ठोस परिस्थितियों का आंकलन करके लागू करने पर ज़ोर दिया। अपनी पुस्तक ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’ एवं ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ में इस सम्बन्ध में उन्होंने सम्यक प्रकाश डाला। अन्तत: सन् 1953-54 के दौरान पुन: एक बार वे कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बनाये गये।
साहित्यिक जीवन
अपनी 'जीवन यात्रा' में राहुल जी ने स्वीकार किया है कि उनका साहित्यिक जीवन सन् 1927 से प्रारम्भ होता है। वास्तविक बात तो यह है कि राहुल जी ने किशोरावस्था पार करने के बाद ही लिखना शुरू कर दिया था। जिस प्रकार उनके पाँव नहीं रुके, उसी प्रकार उनके हाथ की लेखनी भी कभी नहीं रुकी। उनकी लेखनी से विभिन्न विषयों पर प्राय: 150 से अधिक ग्रन्थ प्रणीत हुए हैं। प्रकाशित ग्रन्थों की संख्या सम्भवत: 129 है। लेखों, निबन्धों एवं वक्तृतताओं की संख्या हज़ारों में हैं।
कृतियाँ
राहुल जी की प्रकाशित कृतियों का क्रम इस प्रकार है-
उपन्यास-कहानी
मौलिक | अनुवाद |
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दर्शन
कोश
जीवनी
बौद्ध धर्म
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राजनीति साम्यवाद
देश दर्शन
संस्कृत बालपोथी (सम्पादन) दर्शन, धर्म
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यात्रा
साहित्य और इतिहास
भोजपुरी नाटक
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कर्मयोगी योद्धा
एक कर्मयोगी योद्धा की तरह राहुल सांकृत्यायन ने बिहार के किसान-आन्दोलन में भी प्रमुख भूमिका निभाई। सन् 1940 के दौरान किसान-आन्दोलन के सिलसिले में उन्हें एक वर्ष की जेल हुई तो देवली कैम्प के इस जेल-प्रवास के दौरान उन्होंने ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ ग्रन्थ की रचना कर डाली। 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन के पश्चात् जेल से निकलने पर किसान आन्दोलन के उस समय के शीर्ष नेता स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित साप्ताहिक पत्र ‘हुंकार’ का उन्हें सम्पादक बनाया गया। ब्रिटिश सरकार ने फूट डालो और राज करो की नीति अपनाते हुए गैर कांग्रेसी पत्र-पत्रिकाओं में चार अंकों हेतु ‘गुण्डों से लड़िए’ शीर्षक से एक विज्ञापन जारी किया। इसमें एक व्यक्ति गाँधी टोपी व जवाहर बण्डी पहने आग लगाता हुआ दिखाया गया था। राहुल सांकृत्यायन ने इस विज्ञापन को छापने से इन्कार कर दिया पर विज्ञापन की मोटी धनराशि देखकर स्वामी सहजानन्द ने इसे छापने पर जोर दिया। अन्तत: राहुल ने अपने को पत्रिका के सम्पादन से ही अलग कर लिया। इसी प्रकार सन् 1940 में ‘बिहार प्रान्तीय किसान सभा’ के अध्यक्ष रूप में जमींदारों के आतंक की परवाह किए बिना वे किसान सत्याग्रहियों के साथ खेतों में उतर हँसिया लेकर गन्ना काटने लगे। प्रतिरोध स्वरूप ज़मींदार के लठैतों ने उनके सिर पर वार कर लहुलुहान कर दिया पर वे हिम्मत नहीं हारे। इसी तरह न जाने कितनी बार उन्होंने जनसंघर्षों का सक्रिय नेतृत्व किया और अपनी आवाज को मुखर अभिव्यक्ति दी।[1]
अन्य विषयों पर दृष्टिकोण
राहुल जी ने हिन्दी साहित्य के अतिरिक्त धर्म, दर्शन, लोक साहित्य, यात्रा साहित्य, जीवनी, राजनीति, इतिहास, संस्कृत के ग्रन्थों की टीका और अनुवाद, कोश, तिब्बती भाषा एवं बालपोथी सम्पादन आदि विषयों पर पूरे अधिकार के साथ लिखा है। हिन्दी भाषा और साहित्य के क्षेत्र में राहुल जी ने 'अपभ्रंश काव्य साहित्य' 'दक्खिनी हिन्दी साहित्य' 'आदि हिन्दी की कहानियाँ' प्रस्तुत कर लुप्तप्राय निधि का उद्धार किया है। राहुल जी की मौलिक कहानियाँ एवं उपन्यास एक नये दृष्टिकोण को सामने रखती है। साहित्य से सम्बन्धित राहुल जी की रचनाओं में एक और विशिष्ट बात यह रही है कि उन्होंने प्राचीन इतिहास अथवा वर्तमान जीवन के उन अछूते अंगों को स्पर्श किया है, जिस पर साधारणतया लोगों की दृष्टि नहीं गयी थी। उन रचनाओं में जहाँ एक ओर प्राचीन के प्रति मोह, इतिहास का गौरव आदि है, तो दूसरी ओर उनकी अनेक रचनाएँ स्थानीय रंगत को लेकर मोहक चित्र उपस्थित करती है। 'सतमी के बच्चे' और 'कनैला की कथा' इस तथ्य की पुष्टि करते हैं। राहुल जी ने प्राचीन खण्डहरों से गणतंत्रीय प्रणाली को खोज निकाला। धार्मिक आन्दोलनों के मूल में जाकर सर्वहारा के धर्म को पकड़ लिया। इतिहास के पृष्ठों में असाधारण के स्थान पर साधारण को अधिक प्रश्रय दिया और इस प्रकार जनता, जनता का राज्य, मेहनतकश मज़दूर यह सब उनकी रचनाओं के मूलाधार बने। साहित्यिक भाषा, काव्यात्मकता अथवा व्यंजनाओं का सहारा न लेते हुए राहुल जी ने सीधी, सरल शैली का सहारा लिया। इसीलिए राहुल जी की रचनाएँ पाठकों के लिए भी मनोरंजक एवं बोधगम्य हैं।
पुरस्कार
महापण्डित राहुल सांकृत्यायन को सन् 1958 में 'साहित्य अकादमी पुरस्कार' और सन् 1963 भारत सरकार द्वारा 'पद्म भूषण' से सम्मानित किया गया।
मृत्यु
राहुल सांकृत्यायन को अपने जीवन के अंतिम दिनों में ‘स्मृति लोप’ जैसी अवस्था से गुजरना पड़ा एवं इलाज हेतु उन्हें मास्को ले जाया गया। मार्च, 1963 में वे पुन: मास्को से दिल्ली आ गए और 14 अप्रैल, 1963 को सत्तर वर्ष की आयु में सन्न्यास से साम्यवाद तक का उनका सफर पूरा हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ राहुल सांकृत्यायन का घुमक्कड़ शास्त्र [जीवन परिचय - कृष्ण कुमार यादव] (हिंदी) साहित्य शिल्पी। अभिगमन तिथि: 24 मार्च, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
- महापण्डित राहुल सांकृत्यायन
- राहुल सांकृत्यायन और बिहार में किसान आंदोलन
- अथातो घुमक्कड़ - जिज्ञासा : राहुल सांकृत्यायन
- भोजपुरी के बारे में क्या सोचते थे राहुल सांकृत्यायन
- राहुल सांकृत्यायन का घुमक्कड़ शास्त्र
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