"तिरूपति में विष्णु": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
छो (Text replace - "पार्वती" to "पार्वती")
छो (Text replacement - "विद्वान " to "विद्वान् ")
 
(6 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 18 अवतरण नहीं दर्शाए गए)
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''तिरूपति में विष्णु / Lord Vishnu in Tirupati'''<br />
हमारे प्राचीन ग्रन्थों में विनम्रता का मनुष्यों का ही नहीं देवताओं का भी सर्वोच्च गुण माना गया है। इसका अर्थ है कि अपनी हानि होने पर भी अपनी शिष्टता तथा सभ्यता को न खोना तथा दूसरों का किसी प्रकार भी अपमान न करना, मीठी वाणी बोलते हुए दूसरे का स्वागत-सत्कार करना। महर्षि [[भृगु]] [[वेद|वेदों]] के काल में हुए हैं तथा [[सप्तर्षि]] मण्डल में से एक हैं। वे अत्यन्त बुद्धिमान तथा सामर्थ्यवान ऋषि माने जाते थे। वे मन्त्र योगी तथा सिद्ध पुरुष थे। उनकी पहुंच [[पृथ्वी देवी|पृथ्वी]] पर ही नहीं सभी लोकों में समान थीं। वे अपनी मनः शक्ति से क्षणमात्र में कहीं भी पहुंच सकते थे।


हमारे प्राचीन ग्रन्थों में विनम्रता का मनुष्यों का ही नहीं देवताओं का भी सर्वोच्च गुण माना गया है। इसका अर्थ है कि अपनी हानि होने पर भी अपनी शिष्टता तथा सभ्यता को न खोना तथा दूसरों का किसी प्रकार भी अपमान न करना, मीठी वाणी बोलते हुए दूसरे का स्वागत-सत्कार करना। महर्षि [[भृगु]] [[वेद|वेदों]] के काल में हुए हैं तथा [[सप्तर्षि]] मण्डल में से एक हैं। वे अत्यन्त बुद्धिमान तथा सामर्थ्यवान ऋषि माने जाते थे। वे मन्त्र योगी तथा सिद्ध पुरुष थे। उनकी पहुंच [[पृथ्वी]] पर ही नहीं सभी लोकों में समान थीं। वे अपनी मनः शक्ति से क्षणमात्र में कहीं भी पहुंच सकते थे।
एक बार कुछ ऋषियों में यह विचार उत्पन्न हुआ कि तीनों देवों [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]], [[महेश]] में सबसे बड़ा कौन है? इसे कैसे जाना जाए तथा इसकी परीक्षा कौन ले। सभी की दृष्टि भृगु ऋषि पर पड़ी, क्योंकि वे ही इतने साहस वाले थे कि देवताओं की परीक्षा ले सकें। महर्षि भृगु भी अन्य ऋषियों का आशय समझ गए और वे इस काम के लिए तैयार हो गए। ऋषियों से विदा लेकर वे सर्वप्रथम अपने पिता ब्रह्म के पास, जिनके वे मानसपुत्र थे, पहुंचे। ब्रह्मा जी की परीक्षा के लिए उन्होंने उन्हें प्रणाम नहीं किया इससे ब्रह्मा जी अत्यन्त कुपित हुए और बजाय उन्हें प्रिय वचनों द्वारा शिष्टता सिखाने के अपना कमण्डल लेकर उन्हें मारने (शाप) के लिए भागे। भृगु ऋषि चुपचाप वहां से चले आए। फिर वे [[शिव]] जी महाराज के पास पहुंचे। यहाँ भी उन्होंने यही धृष्टता की तथा बिना अन्दर आने की सूचना भेजे स्वंय प्रवेश कर गए। शिव जी महाराज भी उन पर बहुत क्रोधित हुए तथा अपना त्रिशूल लेकर उन पर दौड़े। उस समय माता [[पार्वती देवी|पार्वती]] उनकी जंघा पर विराजमान थीं। महर्षि भृगु इनसे भी संतुष्ट नहीं हुए। अंत में वे भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर पहुंचे। यहाँ उन्होंने क्या देखा कि विष्णु जी शेष शय्या पर लेटे हुए निद्रा ले रहे हैं और देवी [[महालक्ष्मी देवी|लक्ष्मी]] उनके चरण दबा रही है। महर्षि भृगु दो जगह डांट खाकर आ रहे थे। इसलिए उन्हें स्वाभाविक रूप से क्रोध आ रहा था। विष्णु जी को सोते हुए देखकर उनका पारा और गरम हो गया और उन्होंने विष्णु जी की छाती में एक लात मारी।


एक बार कुछ ऋषियों में यह विचार उत्पन्न हुआ कि तीनों देवों [[ब्रह्मा]], [[विष्णु]], [[महेश]] में सबसे बड़ा कौन है? इसे कैसे जाना जाए तथा इसकी परीक्षा कौन ले। सभी की दृष्टि भृगु ऋषि पर पड़ी, क्योंकि वे ही इतने साहस वाले थे कि देवताओं की परीक्षा ले सकें। महर्षि भृगु भी अन्य ऋषियों का आशय समझ गए और वे इस काम के लिए तैयार हो गए। ऋषियों से विदा लेकर वे सर्वप्रथम अपने पिता ब्रह्म के पास, जिनके वे मानसपुत्र थे, पहुंचे। ब्रह्मा जी की परीक्षा के लिए उन्होंने उन्हें प्रणाम नहीं किया इससे ब्रह्मा जी अत्यन्त कुपित हुए और बजाय उन्हें प्रिय वचनों द्वारा शिष्टता सिखाने के अपना कमण्डल लेकर उन्हें मारने (शाप) के लिए भागे। भृगु ऋषि चुपचाप वहां से चले आए। फिर वे [[शिव]] जी महाराज के पास पहुंचे। यहाँ भी उन्होंने यही धृष्टता की तथा बिना अन्दर आने की सूचना भेजे स्वंय प्रवेश कर गए। शिव जी महाराज भी उन पर बहुत क्रोधित हुए तथा अपना त्रिशूल लेकर उन पर दौड़े। उस समय माता [[पार्वती देवी|पार्वती]] उनकी जंघा पर विराजमान थीं। महर्षि भृगु इनसे भी संतुष्ट नही हुए। अंत में वे भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर पहुंचे। यहाँ उन्होंने क्या देखा कि विष्णु जी शेष शय्या पर लेटे हुए निद्रा ले रहे हैं और देवी [[लक्ष्मी]] उनके चरण दबा रही है। महर्षि भृगु दो जगह डांट खाकर आ रहे थे। इसलिए उन्हें स्वाभाविक रूप से क्रोध आ रहा था। विष्णु जी को सोते हुए देखकर उनका पारा और गरम हो गया और उन्होंने विष्णु जी की छाती में एक लात मारी।
विष्णु जी एकदम जाग उठे और उन्होंने भृगु ऋषि के पैर को पकड़ लिया तथा बोले, 'हे महर्षि, मेरी छाती वज्र की तरह कठोर है और आपका शरीर तपस्या के कारण दुर्बल और कोमल, कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आई। आपने मुझे सावधान करके बड़ी कृपा की है। इसको याद रखने के लिए यह आपका चरणचिह्न मेरे वक्ष पर सदा अंकित रहेगा।' महर्षि भृगु को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने तो भगवान विष्णु की परीक्षा लेने के लिए यह दुष्कर्म किया था लेकिन भगवान मुस्करा रहे थे। उन्होंने यह निश्चय किया कि वे वास्तव में विष्णु ही सबसे बड़े देवता हैं। उनकी विनम्रता की किसी भी अन्य देवता से कोई तुलना नहीं हैं। लौटकर उन्होंने सभी ऋषियों को पूरी घटना सुनाई और सभी ने एक मत से यह निश्चय किया कि वे वास्तव में भगवान विष्णु ही सबसे महान् हैं और तभी से उन्हें सभी देवताओं में श्रेष्ठ एवं पूज्य माना जाता है। अब इससे आगे की कथा तिरूपति के मन्दिर से मिलती है, जो केरल प्रांत में स्थित है । वहां के एक विद्वान् पंडित ने बताया कि जब लक्ष्मी जी ने महर्षि भृगु को अपने पति की छाती पर लात मारते हुए देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया, परन्तु यह क्या? इतने शक्तिशाली एवं सामर्थ्यवान देव होते हुए भी वे तो भृगु ऋषि के चरण पकड़े बैठे हैं और उल्टे उनसे क्षमा मांग रहे हैं। यह उनका कैसा पति है, जो इतना कायर है। यह कैसे धर्म की रक्षा करने के लिए अधर्मियों एवं दुष्टों का नाश करता होगा।


विष्णु जी एकदम जाग उठे और उन्होंने भृगु ऋषि के पैर को पकड़ लिया तथा बोले, 'हे महर्षि, मेरी छाती वज्र की तरह कठोर है और आपका शरीर तपस्या के कारण दुर्बल और कोमल, कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आई। आपने मुझे सावधान करके बड़ी कृपा की है। इसको याद रखने के लिए यह आपका चरणचिन्ह मेरे वक्ष पर सदा अंकित रहेगा।' महर्षि भृगु को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने तो भगवान विष्णु की परीक्षा लेने के लिए यह दुष्कर्म किया था लेकिन भगवान मुस्करा रहे थे। उन्होंने यह निश्चय किया कि वे वास्तव में विष्णु ही सबसे बड़े देवता हैं। उनकी विनम्रता की किसी भी अन्य देवता से कोई तुलना नहीं हैं। लौटकर उन्होंने सभी ऋषियों को पूरी घटना सुनाई और सभी ने एक मत से यह निश्चय किया कि वे वास्तव में भगवान विष्णु ही सबसे महान हैं और तभी से उन्हें सभी देवताओं में श्रेष्ठ एवं पूज्य माना जाता है। अब इससे आगे की कथा तिरूपति के मन्दिर से मिलती है, जो केरल प्रांत में स्थित है । वहां के एक विद्वान पंडित ने बताया कि जब लक्ष्मी जी ने महर्षि भृगु को अपने पति की छाती पर लात मारते हुए देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया, परन्तु यह क्या? इतने शक्तिशाली एवं सामर्थ्यवान देव होते हुए भी वे तो भृगु ऋषि के चरण पकड़े बैठे हैं और उल्टे उनसे क्षमा मांग रहे हैं। यह उनका कैसा पति है, जो इतना कायर है। यह कैसे धर्म की रक्षा करने के लिए अधर्मियों एवं दुष्टों का नाश करता होगा।
भृगु जी के जाने के पश्चात् वे अवसर मिलते ही ग्लानि और शर्म के मारे पृथ्वी पर आकर एक वन में तपस्या करने लगीं। यही पर तपस्या करते-करते उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया और दरिद्र् ब्राह्मण के यहाँ जन्म ले लिया। विष्णु जी उन्हें ढूंढ़ते फिर रहे थे, तीनों लोकों में उन्होंने खोज की, लेकिन माता लक्ष्मी की शक्ति ने उन्हें भ्रमित रखा। आख़िर भगवान विष्णु को पता लग ही गया, लेकिन तब तक वे अपना शरीर छोड़ चुकीं थी। अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका जन्म किस ब्राह्मण परिवार में हुआ है। वे तुंरत एक सामान्य ब्राह्मण युवक का वेष धारण कर उस सौभाग्यशाली ब्राह्मण के यहाँ पहुंचे और उससे उसकी कन्या का हाथ मांगा। ब्राह्मण सोचने लगा कि क्या करना चाहिए। उन्होंने सोच-विचार कर एक लम्बी रकम ब्राह्मण युवक से मांगी। युवक ने शर्त को स्वीकार कर लिया। लेकिन विष्णु जी के पास इतनी रकम कहां से आए। वे सोचने लगे कि क्या करें, कहां से इतना सारा धन लाएं लक्ष्मी तो उनके पास से पहले ही चली गई, इसलिए धन कहां से होता। आख़िर विचार करते-करते उन्हें [[कुबेर]] का ध्यान आया और वे उसके पास चल पड़े। उन्होंने अपनी समस्या कुबेर के सामने रखी। कुबेर ने जब जाना कि यह स्वंय विष्णु भगवान हैं तो वह धन देने के लिए राजी हो गया, लेकिन शर्त यह थी कि धन मय ब्याज के वापस करना पड़ेगा और जब तक यह ऋण उतर नहीं जाएगा, वे वहीं केरल में रहेंगे। भगवान क्या करते । लक्ष्मी जी को वे छोड़ नहीं सकते थे । इसलिए उन्होंने सोचा कि हमें तो कहीं न कहीं रहना ही है । इसलिए केरल प्रदेंश ही सही। दोनों का विवाह हो गया, ब्राह्मण देवता को, जो उनसे धन मांगा दे दिया, लेकिन तभी से भगवान विष्णु श्री[[कृष्ण]] भगवान के रूप में  तिरूपति में ही रह रहे हैं । रोज़ हज़ारों-लाखों रुपया चढ़ावे में आता है और वह कुबेर के भंडार में चला जाता है । लम्बी रकम और फिर उसका ब्याज, ऐसा लगता है कि यह रकम तो कभी उतरेगी ही नहीं और बेचारे विष्णु जी को केरल प्रदेश के मन्दिर में ही बन्दी बनकर रहना पड़ेगा।
 
भृगु जी के जाने के पश्चात वे अवसर मिलते ही ग्लानि और शर्म के मारे पृथ्वी पर आकर एक वन में तपस्या करने लगीं। यही पर तपस्या करते-करते उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया और दरिद्र् ब्राह्मण के यहाँ जन्म ले लिया। विष्णु जी उन्हें ढूंढ़ते फिर रहे थे, तीनों लोकों में उन्होंने खोज की, लेकिन माता लक्ष्मी की शक्ति ने उन्हें भ्रमित रखा। आखिर भगवान विष्णु को पता लग ही गया, लेकिन तब तक वे अपना शरीर छोड़ चुकीं थी। अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका जन्म किस ब्राह्मण परिवार में हुआ है। वे तुंरत एक सामान्य ब्राह्मण युवक का वेष धारण कर उस सौभाग्यशाली ब्राह्मण के यहाँ पहुंचे और उससे उसकी कन्या का हाथ मांगा। ब्राह्मण सोचने लगा कि क्या करना चाहिए। उन्होंने सोच-विचार कर एक लम्बी रकम ब्राह्मण युवक से मांगी। युवक ने शर्त को स्वीकार कर लिया। लेकिन विष्णु जी के पास इतनी रकम कहां से आए। वे सोचने लगे कि क्या करें, कहां से इतना सारा धन लाएं लक्ष्मी तो उनके पास से पहले ही चली गई, इसलिए धन कहां से होता। आखिर विचार करते-करते उन्हें [[कुबेर]] का ध्यान आया और वे उसके पास चल पड़े। उन्होंने अपनी समस्या कुबेर के सामने रखी। कुबेर ने जब जाना कि यह स्वंय विष्णु भगवान हैं तो वह धन देने के लिए राजी हो गया, लेकिन शर्त यह थी कि धन मय ब्याज के वापस करना पड़ेगा और जब तक यह ऋण उतर नहीं जाएगा, वे वहीं केरल में रहेंगे। भगवान क्या करते । लक्ष्मी जी को वे छोड़ नहीं सकते थे । इसलिए उन्होंने सोचा कि हमें तो कहीं न कहीं रहना ही है । इसलिए केरल प्रदेंश ही सही। दोनों का विवाह हो गया, ब्राह्मण देवता को, जो उनसे धन मांगा दे दिया, लेकिन तभी से भगवान विष्णु श्री[[कृष्ण]] भगवान के रूप में  तिरूपति में ही रह रहे हैं । रोज हजारों-लाखों रूपया चढ़ावे में आता है और वह कुबेर के भंडार में चला जाता है । लम्बी रकम और फिर उसका ब्याज, ऐसा लगता है कि यह रकम तो कभी उतरेगी ही नही और बेचारे विष्णु जी को केरल प्रदेश के मन्दिर में ही बन्दी बनकर रहना पड़ेगा।
<blockquote><poem>
<blockquote><poem>
'''जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्।'''
'''जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्।'''
'''ममेदह क्र तावसो मम चित्तमुपायसी<balloon title="अथर्ववेद 1/34/2" style=color:blue>*</balloon>।।
'''ममेदह क्र तावसो मम चित्तमुपायसी<ref>अथर्ववेद 1/34/2</ref>।।
'''मेरी जिह्वा के अग्रभाग में माधुर्य हो। मेरी जिह्वा के मूल में मधुरता हो। मेरे कर्म में माधुर्य का निवास हो और हे माधुर्य, मेरे ह्वदय तक पहुंचो'''’
'''मेरी जिह्वा के अग्रभाग में माधुर्य हो। मेरी जिह्वा के मूल में मधुरता हो। मेरे कर्म में माधुर्य का निवास हो और हे माधुर्य, मेरे ह्वदय तक पहुंचो'''’
</poem></blockquote>
</poem></blockquote>
 
{{प्रचार}}
==अन्य लिंक==
{{संदर्भ ग्रंथ}}
==टीका टिप्पणी और संदर्भ==
<references/>
==संबंधित लेख==
{{कथा}}
{{कथा}}
[[Category:कथा साहित्य कोश]]
[[Category:कथा साहित्य कोश]]
[[Category:कथा साहित्य]]
[[Category:कथा साहित्य]]
__INDEX__
__INDEX__

14:36, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

हमारे प्राचीन ग्रन्थों में विनम्रता का मनुष्यों का ही नहीं देवताओं का भी सर्वोच्च गुण माना गया है। इसका अर्थ है कि अपनी हानि होने पर भी अपनी शिष्टता तथा सभ्यता को न खोना तथा दूसरों का किसी प्रकार भी अपमान न करना, मीठी वाणी बोलते हुए दूसरे का स्वागत-सत्कार करना। महर्षि भृगु वेदों के काल में हुए हैं तथा सप्तर्षि मण्डल में से एक हैं। वे अत्यन्त बुद्धिमान तथा सामर्थ्यवान ऋषि माने जाते थे। वे मन्त्र योगी तथा सिद्ध पुरुष थे। उनकी पहुंच पृथ्वी पर ही नहीं सभी लोकों में समान थीं। वे अपनी मनः शक्ति से क्षणमात्र में कहीं भी पहुंच सकते थे।

एक बार कुछ ऋषियों में यह विचार उत्पन्न हुआ कि तीनों देवों ब्रह्मा, विष्णु, महेश में सबसे बड़ा कौन है? इसे कैसे जाना जाए तथा इसकी परीक्षा कौन ले। सभी की दृष्टि भृगु ऋषि पर पड़ी, क्योंकि वे ही इतने साहस वाले थे कि देवताओं की परीक्षा ले सकें। महर्षि भृगु भी अन्य ऋषियों का आशय समझ गए और वे इस काम के लिए तैयार हो गए। ऋषियों से विदा लेकर वे सर्वप्रथम अपने पिता ब्रह्म के पास, जिनके वे मानसपुत्र थे, पहुंचे। ब्रह्मा जी की परीक्षा के लिए उन्होंने उन्हें प्रणाम नहीं किया इससे ब्रह्मा जी अत्यन्त कुपित हुए और बजाय उन्हें प्रिय वचनों द्वारा शिष्टता सिखाने के अपना कमण्डल लेकर उन्हें मारने (शाप) के लिए भागे। भृगु ऋषि चुपचाप वहां से चले आए। फिर वे शिव जी महाराज के पास पहुंचे। यहाँ भी उन्होंने यही धृष्टता की तथा बिना अन्दर आने की सूचना भेजे स्वंय प्रवेश कर गए। शिव जी महाराज भी उन पर बहुत क्रोधित हुए तथा अपना त्रिशूल लेकर उन पर दौड़े। उस समय माता पार्वती उनकी जंघा पर विराजमान थीं। महर्षि भृगु इनसे भी संतुष्ट नहीं हुए। अंत में वे भगवान विष्णु के पास क्षीर सागर पहुंचे। यहाँ उन्होंने क्या देखा कि विष्णु जी शेष शय्या पर लेटे हुए निद्रा ले रहे हैं और देवी लक्ष्मी उनके चरण दबा रही है। महर्षि भृगु दो जगह डांट खाकर आ रहे थे। इसलिए उन्हें स्वाभाविक रूप से क्रोध आ रहा था। विष्णु जी को सोते हुए देखकर उनका पारा और गरम हो गया और उन्होंने विष्णु जी की छाती में एक लात मारी।

विष्णु जी एकदम जाग उठे और उन्होंने भृगु ऋषि के पैर को पकड़ लिया तथा बोले, 'हे महर्षि, मेरी छाती वज्र की तरह कठोर है और आपका शरीर तपस्या के कारण दुर्बल और कोमल, कहीं आपके पैर में चोट तो नहीं आई। आपने मुझे सावधान करके बड़ी कृपा की है। इसको याद रखने के लिए यह आपका चरणचिह्न मेरे वक्ष पर सदा अंकित रहेगा।' महर्षि भृगु को बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने तो भगवान विष्णु की परीक्षा लेने के लिए यह दुष्कर्म किया था लेकिन भगवान मुस्करा रहे थे। उन्होंने यह निश्चय किया कि वे वास्तव में विष्णु ही सबसे बड़े देवता हैं। उनकी विनम्रता की किसी भी अन्य देवता से कोई तुलना नहीं हैं। लौटकर उन्होंने सभी ऋषियों को पूरी घटना सुनाई और सभी ने एक मत से यह निश्चय किया कि वे वास्तव में भगवान विष्णु ही सबसे महान् हैं और तभी से उन्हें सभी देवताओं में श्रेष्ठ एवं पूज्य माना जाता है। अब इससे आगे की कथा तिरूपति के मन्दिर से मिलती है, जो केरल प्रांत में स्थित है । वहां के एक विद्वान् पंडित ने बताया कि जब लक्ष्मी जी ने महर्षि भृगु को अपने पति की छाती पर लात मारते हुए देखा तो उन्हें बड़ा क्रोध आया, परन्तु यह क्या? इतने शक्तिशाली एवं सामर्थ्यवान देव होते हुए भी वे तो भृगु ऋषि के चरण पकड़े बैठे हैं और उल्टे उनसे क्षमा मांग रहे हैं। यह उनका कैसा पति है, जो इतना कायर है। यह कैसे धर्म की रक्षा करने के लिए अधर्मियों एवं दुष्टों का नाश करता होगा।

भृगु जी के जाने के पश्चात् वे अवसर मिलते ही ग्लानि और शर्म के मारे पृथ्वी पर आकर एक वन में तपस्या करने लगीं। यही पर तपस्या करते-करते उन्होंने अपना शरीर छोड़ दिया और दरिद्र् ब्राह्मण के यहाँ जन्म ले लिया। विष्णु जी उन्हें ढूंढ़ते फिर रहे थे, तीनों लोकों में उन्होंने खोज की, लेकिन माता लक्ष्मी की शक्ति ने उन्हें भ्रमित रखा। आख़िर भगवान विष्णु को पता लग ही गया, लेकिन तब तक वे अपना शरीर छोड़ चुकीं थी। अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा उन्हें ज्ञात हुआ कि उनका जन्म किस ब्राह्मण परिवार में हुआ है। वे तुंरत एक सामान्य ब्राह्मण युवक का वेष धारण कर उस सौभाग्यशाली ब्राह्मण के यहाँ पहुंचे और उससे उसकी कन्या का हाथ मांगा। ब्राह्मण सोचने लगा कि क्या करना चाहिए। उन्होंने सोच-विचार कर एक लम्बी रकम ब्राह्मण युवक से मांगी। युवक ने शर्त को स्वीकार कर लिया। लेकिन विष्णु जी के पास इतनी रकम कहां से आए। वे सोचने लगे कि क्या करें, कहां से इतना सारा धन लाएं लक्ष्मी तो उनके पास से पहले ही चली गई, इसलिए धन कहां से होता। आख़िर विचार करते-करते उन्हें कुबेर का ध्यान आया और वे उसके पास चल पड़े। उन्होंने अपनी समस्या कुबेर के सामने रखी। कुबेर ने जब जाना कि यह स्वंय विष्णु भगवान हैं तो वह धन देने के लिए राजी हो गया, लेकिन शर्त यह थी कि धन मय ब्याज के वापस करना पड़ेगा और जब तक यह ऋण उतर नहीं जाएगा, वे वहीं केरल में रहेंगे। भगवान क्या करते । लक्ष्मी जी को वे छोड़ नहीं सकते थे । इसलिए उन्होंने सोचा कि हमें तो कहीं न कहीं रहना ही है । इसलिए केरल प्रदेंश ही सही। दोनों का विवाह हो गया, ब्राह्मण देवता को, जो उनसे धन मांगा दे दिया, लेकिन तभी से भगवान विष्णु श्रीकृष्ण भगवान के रूप में तिरूपति में ही रह रहे हैं । रोज़ हज़ारों-लाखों रुपया चढ़ावे में आता है और वह कुबेर के भंडार में चला जाता है । लम्बी रकम और फिर उसका ब्याज, ऐसा लगता है कि यह रकम तो कभी उतरेगी ही नहीं और बेचारे विष्णु जी को केरल प्रदेश के मन्दिर में ही बन्दी बनकर रहना पड़ेगा।

जिह्वाया अग्रे मधु मे जिह्वामूले मधूलकम्।
ममेदह क्र तावसो मम चित्तमुपायसी[1]।।
मेरी जिह्वा के अग्रभाग में माधुर्य हो। मेरी जिह्वा के मूल में मधुरता हो। मेरे कर्म में माधुर्य का निवास हो और हे माधुर्य, मेरे ह्वदय तक पहुंचो


टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. अथर्ववेद 1/34/2

संबंधित लेख