"सिंहासन बत्तीसी दो": अवतरणों में अंतर
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[[सिंहासन बत्तीसी]] एक [[लोककथा]] संग्रह है। [[विक्रमादित्य|महाराजा विक्रमादित्य]] भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर [[प्रकाश]] डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं। | |||
==सिंहासन बत्तीसी दो== | |||
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एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा योग साधने की हुई। अपना राजपाट अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर वह अंग में भभूत लगाकर जंगल में चले गये। | एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा योग साधने की हुई। अपना राजपाट अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर वह अंग में भभूत लगाकर जंगल में चले गये। | ||
उसी जंगल में एक [[ब्राह्मण]] तपस्या कर रहा था। एक दिन [[देवता|देवताओं]] ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को एक फल दिया और कहा, "जो इसे खा लेगा, वह अमर हो जायगा।" ब्राह्मण ने उस फल को अपनी ब्राह्मणी को दे दिया। | |||
उसी जंगल में एक ब्राह्मण तपस्या कर रहा था। एक दिन देवताओं ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को एक फल दिया और कहा, "जो इसे खा लेगा, वह अमर हो जायगा।" ब्राह्मण ने उस फल को अपनी ब्राह्मणी को दे दिया। | |||
''ब्राह्मणी ने उससे कहा:'' इसे राजा को दे आओ और बदले में कुछ धन ले आओ। ब्राह्मण ने जाकर वह फल राजा को दे दिया। | ''ब्राह्मणी ने उससे कहा:'' इसे राजा को दे आओ और बदले में कुछ धन ले आओ। ब्राह्मण ने जाकर वह फल राजा को दे दिया। | ||
राजा अपनी रानी को बुहत प्यार करता था, उसने इसे अपनी रानी को दे दिया। रानी की दोस्ती शहर के कोतवाल से थी। रानी ने वह फल उस दे दिया। कोतवाल एक वेश्या के पास जाया करता था। वह फल वेश्या के यहाँ पहुंचा। | |||
राजा अपनी रानी को बुहत प्यार करता था, | |||
''वेश्या ने सोचा कि:'' मैं अमर हो जाऊंगी तो बराबर पाप करती रहूंगी। अच्छा होगा कि यह फल राजा को दे दूं। वह जीयेगा तो लाखों का भला करेगा।" | ''वेश्या ने सोचा कि:'' मैं अमर हो जाऊंगी तो बराबर पाप करती रहूंगी। अच्छा होगा कि यह फल राजा को दे दूं। वह जीयेगा तो लाखों का भला करेगा।" | ||
यह सोचकर उसने दरबार में जाकर वह फल राजा को दे दिया। फल को देखकर राजा चकित रह गया। उसे सब भेद मालूम हुआ तो उसे बड़ा दु:ख हुआ। उसे दुनिया बेकार लगने लगी। एक दिन वह बिना किसी से कहे-सुने राजपाठ छोड़कर घर से निकल गया। राजा [[इंद्र]] को यह मालूम हुआ तो उन्होंने राज्य की रखवाली के लिए एक देव भेज दिया। | |||
यह सोचकर उसने दरबार में जाकर वह फल राजा को दे दिया। फल को देखकर राजा चकित रह गया। उसे सब भेद मालूम हुआ तो उसे बड़ा दु:ख हुआ। उसे दुनिया बेकार लगने लगी। एक दिन वह बिना किसी से कहे-सुने राजपाठ छोड़कर घर से निकल गया। राजा इंद्र को यह मालूम हुआ तो उन्होंने राज्य की रखवाली के लिए एक देव भेज दिया। | उधर जब राजा विक्रमादित्य का योग पूरा हुआ तो वह लौटे। देव ने उन्हें रोका, विक्रमादित्य ने उससे पूछा तो उसने सब हाल बता दिया। विक्रमादित्य ने अपना नाम बताया, फिर भी देव ने उन्हें न जाने दिया। | ||
''वह बोला:'' तुम विक्रमादित्य हो तो पहले मुझसे लड़ो। | |||
उधर जब राजा विक्रमादित्य का योग पूरा हुआ तो वह लौटे। देव ने | |||
''वह बोला:'' तुम | |||
दोनों में लड़ाई हुई। विक्रमादित्य ने उसे पछाड़ दिया। | दोनों में लड़ाई हुई। विक्रमादित्य ने उसे पछाड़ दिया। | ||
''देव बोला:'' तुम मुझे छोड़ दो। मैं तुम्हारी जान बचाता हूँ। | ''देव बोला:'' तुम मुझे छोड़ दो। मैं तुम्हारी जान बचाता हूँ। | ||
''राजा ने पूछा:'' कैसे? | ''राजा ने पूछा:'' कैसे? | ||
''देव बोला:'' इस नगर में एक तेली और एक कुम्हार तुम्हें मारने की फिराक में है। तेली पाताल में राज करता है। और कुम्हार योगी बना जंगल में तपस्या करता है। | ''देव बोला:'' इस नगर में एक तेली और एक कुम्हार तुम्हें मारने की फिराक में है। तेली पाताल में राज करता है। और कुम्हार योगी बना जंगल में तपस्या करता है। | ||
दोनों चाहते हैं कि एक दूसरे को और तुमको मारकर तीनों लोकों का राज करें। | दोनों चाहते हैं कि एक दूसरे को और तुमको मारकर तीनों लोकों का राज करें। | ||
योगी ने चालाकी से तेली को अपने वश में कर लिया है। और वह अब सिरस के पेड़ पर रहता है। एक दिन योगी तुम्हें बुलाएगा और छल करके ले जायगा। जब वह देवी को दंडवत करने को कहे तो तुम कह देना कि मैं राजा हूँ। दण्डवत करना नहीं जानता। तुम बताओ कि कैसे करूँ। योगी जैसे ही सिर झुकाये, तुम खांडे से उसका सिर काट देना। फिर उसे और तेली को सिरस के पेड़ से उतारकर देवी के आगे खौलते तेल के कड़ाह में डाल देना। | योगी ने चालाकी से तेली को अपने वश में कर लिया है। और वह अब सिरस के पेड़ पर रहता है। एक दिन योगी तुम्हें बुलाएगा और छल करके ले जायगा। जब वह देवी को दंडवत करने को कहे तो तुम कह देना कि मैं राजा हूँ। दण्डवत करना नहीं जानता। तुम बताओ कि कैसे करूँ। योगी जैसे ही सिर झुकाये, तुम खांडे से उसका सिर काट देना। फिर उसे और तेली को सिरस के पेड़ से उतारकर देवी के आगे खौलते तेल के कड़ाह में डाल देना। | ||
राजा ने ऐसा ही किया। इससे देवी बहुत प्रसन्न हुई और उसने दो वीर उनके साथ भेज दिये। राजा अपने घर आये और राज करने लगे। दोनों वीर राजा के बस में रहे और उनकी मदद से राजा ने आगे बड़े–बडे काम किये। | राजा ने ऐसा ही किया। इससे देवी बहुत प्रसन्न हुई और उसने दो वीर उनके साथ भेज दिये। राजा अपने घर आये और राज करने लगे। दोनों वीर राजा के बस में रहे और उनकी मदद से राजा ने आगे बड़े–बडे काम किये। | ||
''इतना कहकर पुतली बोली:'' राजन्! क्या तुममें इतनी योग्यता है? तुम जैसे करोड़ों राजा इस भूमि पर हो गये हैं। | |||
''इतना कहकर पुतली बोली:'' राजन्! क्या तुममें इतनी योग्यता है? तुम जैसे | |||
दूसरा दिन भी इसी तरह निकल गया। तीसरे दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को हुआ तो रविभामा नाम की तीसरी पुतली ने उसे रोककर कहा, "हे राजन्! यह क्या करते हो? पहले विक्रमादित्य जैसे काम करो, तब सिंहासन पर बैठना!" | दूसरा दिन भी इसी तरह निकल गया। तीसरे दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को हुआ तो रविभामा नाम की तीसरी पुतली ने उसे रोककर कहा, "हे राजन्! यह क्या करते हो? पहले विक्रमादित्य जैसे काम करो, तब सिंहासन पर बैठना!" | ||
''राजा ने पूछा:'' विक्रमादित्य ने कैसे काम किये थे? | ''राजा ने पूछा:'' विक्रमादित्य ने कैसे काम किये थे? | ||
''पुतली बोली:'' लो, सुनो। | |||
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09:08, 25 फ़रवरी 2013 के समय का अवतरण
सिंहासन बत्तीसी एक लोककथा संग्रह है। महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।
सिंहासन बत्तीसी दो
एक बार राजा विक्रमादित्य की इच्छा योग साधने की हुई। अपना राजपाट अपने छोटे भाई भर्तृहरि को सौंपकर वह अंग में भभूत लगाकर जंगल में चले गये।
उसी जंगल में एक ब्राह्मण तपस्या कर रहा था। एक दिन देवताओं ने प्रसन्न होकर उस ब्राह्मण को एक फल दिया और कहा, "जो इसे खा लेगा, वह अमर हो जायगा।" ब्राह्मण ने उस फल को अपनी ब्राह्मणी को दे दिया।
ब्राह्मणी ने उससे कहा: इसे राजा को दे आओ और बदले में कुछ धन ले आओ। ब्राह्मण ने जाकर वह फल राजा को दे दिया।
राजा अपनी रानी को बुहत प्यार करता था, उसने इसे अपनी रानी को दे दिया। रानी की दोस्ती शहर के कोतवाल से थी। रानी ने वह फल उस दे दिया। कोतवाल एक वेश्या के पास जाया करता था। वह फल वेश्या के यहाँ पहुंचा।
वेश्या ने सोचा कि: मैं अमर हो जाऊंगी तो बराबर पाप करती रहूंगी। अच्छा होगा कि यह फल राजा को दे दूं। वह जीयेगा तो लाखों का भला करेगा।"
यह सोचकर उसने दरबार में जाकर वह फल राजा को दे दिया। फल को देखकर राजा चकित रह गया। उसे सब भेद मालूम हुआ तो उसे बड़ा दु:ख हुआ। उसे दुनिया बेकार लगने लगी। एक दिन वह बिना किसी से कहे-सुने राजपाठ छोड़कर घर से निकल गया। राजा इंद्र को यह मालूम हुआ तो उन्होंने राज्य की रखवाली के लिए एक देव भेज दिया।
उधर जब राजा विक्रमादित्य का योग पूरा हुआ तो वह लौटे। देव ने उन्हें रोका, विक्रमादित्य ने उससे पूछा तो उसने सब हाल बता दिया। विक्रमादित्य ने अपना नाम बताया, फिर भी देव ने उन्हें न जाने दिया।
वह बोला: तुम विक्रमादित्य हो तो पहले मुझसे लड़ो।
दोनों में लड़ाई हुई। विक्रमादित्य ने उसे पछाड़ दिया।
देव बोला: तुम मुझे छोड़ दो। मैं तुम्हारी जान बचाता हूँ।
राजा ने पूछा: कैसे?
देव बोला: इस नगर में एक तेली और एक कुम्हार तुम्हें मारने की फिराक में है। तेली पाताल में राज करता है। और कुम्हार योगी बना जंगल में तपस्या करता है।
दोनों चाहते हैं कि एक दूसरे को और तुमको मारकर तीनों लोकों का राज करें।
योगी ने चालाकी से तेली को अपने वश में कर लिया है। और वह अब सिरस के पेड़ पर रहता है। एक दिन योगी तुम्हें बुलाएगा और छल करके ले जायगा। जब वह देवी को दंडवत करने को कहे तो तुम कह देना कि मैं राजा हूँ। दण्डवत करना नहीं जानता। तुम बताओ कि कैसे करूँ। योगी जैसे ही सिर झुकाये, तुम खांडे से उसका सिर काट देना। फिर उसे और तेली को सिरस के पेड़ से उतारकर देवी के आगे खौलते तेल के कड़ाह में डाल देना।
राजा ने ऐसा ही किया। इससे देवी बहुत प्रसन्न हुई और उसने दो वीर उनके साथ भेज दिये। राजा अपने घर आये और राज करने लगे। दोनों वीर राजा के बस में रहे और उनकी मदद से राजा ने आगे बड़े–बडे काम किये।
इतना कहकर पुतली बोली: राजन्! क्या तुममें इतनी योग्यता है? तुम जैसे करोड़ों राजा इस भूमि पर हो गये हैं।
दूसरा दिन भी इसी तरह निकल गया। तीसरे दिन जब वह सिंहासन पर बैठने को हुआ तो रविभामा नाम की तीसरी पुतली ने उसे रोककर कहा, "हे राजन्! यह क्या करते हो? पहले विक्रमादित्य जैसे काम करो, तब सिंहासन पर बैठना!"
राजा ने पूछा: विक्रमादित्य ने कैसे काम किये थे?
पुतली बोली: लो, सुनो।
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