"गोकुल सिंह": अवतरणों में अंतर
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'''गोकुल सिंह''' जिसे 'गोकुलराम' और 'गोकुला जाट' के नाम से भी जाना जाता है, [[भारतीय इतिहास]] के प्रसिद्ध व्यक्तियों में से एक है। वह सिनसिनी गाँव का सरदार था। [[10 मई]], 1666 ई. को [[जाट|जाटों]] और [[मुग़ल]] [[औरंगज़ेब|बादशाह औरंगज़ेब]] की सेना के मध्य तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। पराजय के पश्चात् मुग़ल शासक ने [[इस्लाम धर्म]] को बढ़ावा दिया और किसानों पर कर बढ़ा दिया। जाट गोकुल सिंह ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। इस बार औरंगज़ेब ने पहले से अधिक शक्तिशाली सेना भेजी और गोकुल सिंह को बंदी बना लिया गया। [[1 जनवरी]], 1670 ई. को आगरा के क़िले पर गोकुल सिंह को मौत के घाट उतार दिया गया। गोकुल सिंह के बलिदान ने मुग़ल साम्राज्य के खात्मे शुरुआत कर दी। | |||
< | वीरवर गोकुल सिंह के जीवन के बारे में बस यही पता चलता है कि सन 1660-70 के दशक में वह [[तिलपत]] नामक इलाके का प्रभावशाली ज़मींदार था। तिलपत के ज़मींदार ने मुग़ल सत्ता को इस समय चुनौती दी। गोकुलराम (गोकुल सिंह) में संगठन की बहुत क्षमता थी और वह बहुत साहसी और दृढ़प्रतिज्ञ था। | ||
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*उपेन्द्रनाथ शर्मा का कथन है कि- "उसका जन्म सिनसिनी में हुआ था और वह [[सूरजमल]] का पूर्वज था। वह [[जाट]], गूजर और [[अहीर]] किसानों का नेता बन गया और उसने कहा कि वे मुग़लों को [[मालगुज़ारी]] देना बन्द कर दें। शाही परगने में एक ना मालूम-से ज़मींदार के विद्रोह को सहन नहीं किया जा सकता था। [[औरंगज़ेब]] ने एक शक्तिशाली सेना भेजी। पहली तो रदंदाज़ ख़ाँ के अधीन और दूसरी हसनअली ख़ाँ के अधीन। वे एक-दूसरे के बाद [[मथुरा]] के फ़ौजदार नियुक्त किए गए। गोकुलराम से समझौते की बातचीत चलाई गई। यदि वह उस लूट को लौटा दे जो उसने जमा कर ली है, तो उसे क्षमा कर दिया जाएगा। भविष्य में सदाचरण का आश्वासन भी माँगा गया। परन्तु गोकुला राज़ी न हुआ। स्थिति बिगड़ती गई। स्वयं सम्राट औरंगज़ेब ने [[28 नवंबर]], 1669 ई. को [[दिल्ली]] से उपद्रवग्रस्त क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया। वह मक्खी को मारने के लिए भारी घन का प्रयोग करने की तरह था। [[4 दिसम्बर]] को हसनअली ख़ाँ ने ब्रह्मदेव सिसौदिया की सहायता से गोकुला और उसके समर्थकों के गाँवों पर आक्रमण किया, जो अद्भुत साहस और उत्साह के साथ लड़े। अन्त में वे हार गए। इस लड़ाई में उनके 300 साथी मारे गए। [[औरंगज़ेब]] ने उदारता और मानवता के अपने एक दुर्लभ उदाहरण के रूप में '200 घुड़सवारों को अलग इस काम पर लगा दिया कि वे गाँव वालों की फ़सलों की रक्षा करें और सैनिकों को गाँव वालों पर अत्याचार करने या किसी भी बच्चे को बन्दी बनाने से रोकें।"<ref>'उपेन्द्रनाथ शर्मा', 'ए न्यू हिस्ट्री ऑफ़ द जाट्स,' खंड एक, पृ.397</ref> औरंगज़ेब ने हसनअली ख़ाँ को मथुरा का फ़ौजदार बना दिया। | |||
*गोकुल सिंह और उसके साथियों को दबाने के लिए [[मुग़ल]] सेना में वृद्धि की गई। गोकुला ने जाट, अहीर और गूजर किसानों की 20,000 की सेना से हसन अली ख़ाँ और रज़ीउद्दीन भागलपुरी के नेतृत्व में आई मुग़ल सेना का मुक़ाबला किया। गोकुला और उसके चाचा उदयसिंह वीरता के साथ लड़े, परन्तु मुग़ल तोपख़ाने का वह मुक़ाबला नहीं कर सके। तीन दिन के घमासान युद्ध के बाद गोकुला की हार हुई। इस युद्ध में 4,000 मुग़ल सैनिक और 5,000 [[जाट]] मारे गए। गोकुला और उसके [[परिवार]] के सदस्य बन्दी कर लिये गये। | |||
*[[जदुनाथ सरकार|सर जदुनाथ]] और उपेन्द्रनाथ शर्मा का कहना है कि- "गोकुला और उदयसिंह को [[आगरा]] लाया गया, जब उन्होंने [[मुसलमान]] बनने से इंकार कर दिया, तो आगरा की कोतवाली के सामने उसकी बोटी-बोटी काटकर फेंक दी गई। गोकुला के पुत्र और पुत्री को मुसलमान बना दिया गया।"<ref>'वे जवाहर ख़ाँ नाज़िर को सौंप दिए गए; लड़की की शादी ग़ुलामशाह कुली से कर दी गई और लड़के को [[क़ुरान]] पढ़ाया गया। उसका क़ुरान-पाठ सम्राट को बहुत अच्छा लगता था।" - के.आर.क़ानूनगो, 'हिस्ट्री ऑफ़ द जाट्स,' पृ.39</ref> | |||
*क़ानूनगो का विचार है- "किसान लम्बे अरसे तक धीरतापूर्वक, बिना घबराए डटकर शौर्य प्रदर्शित करते हुए, जो सदा से उनकी चारित्रिक विशेषता रही है, लड़ते रहे। जब प्रतिरोध के लायक़ नहीं रहे, तब उनमें से बहुतों ने अपनी स्त्रियों को मार डाला और अपने प्राणों का ख़ूब महँगा सौदा करने के लिए वे मुग़लों पर टूट पड़े। गोकुला का [[रक्त]] व्यर्थ नहीं बहा; उसने जाटों के हृदय में स्वतन्त्रता के नए अंकुर में पानी दिया।" | |||
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गोकुल सिंह जिसे 'गोकुलराम' और 'गोकुला जाट' के नाम से भी जाना जाता है, भारतीय इतिहास के प्रसिद्ध व्यक्तियों में से एक है। वह सिनसिनी गाँव का सरदार था। 10 मई, 1666 ई. को जाटों और मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब की सेना के मध्य तिलपत में लड़ाई हुई। लड़ाई में जाटों की विजय हुई। पराजय के पश्चात् मुग़ल शासक ने इस्लाम धर्म को बढ़ावा दिया और किसानों पर कर बढ़ा दिया। जाट गोकुल सिंह ने किसानों को संगठित किया और कर जमा करने से मना कर दिया। इस बार औरंगज़ेब ने पहले से अधिक शक्तिशाली सेना भेजी और गोकुल सिंह को बंदी बना लिया गया। 1 जनवरी, 1670 ई. को आगरा के क़िले पर गोकुल सिंह को मौत के घाट उतार दिया गया। गोकुल सिंह के बलिदान ने मुग़ल साम्राज्य के खात्मे शुरुआत कर दी।
वीरवर गोकुल सिंह के जीवन के बारे में बस यही पता चलता है कि सन 1660-70 के दशक में वह तिलपत नामक इलाके का प्रभावशाली ज़मींदार था। तिलपत के ज़मींदार ने मुग़ल सत्ता को इस समय चुनौती दी। गोकुलराम (गोकुल सिंह) में संगठन की बहुत क्षमता थी और वह बहुत साहसी और दृढ़प्रतिज्ञ था।
- उपेन्द्रनाथ शर्मा का कथन है कि- "उसका जन्म सिनसिनी में हुआ था और वह सूरजमल का पूर्वज था। वह जाट, गूजर और अहीर किसानों का नेता बन गया और उसने कहा कि वे मुग़लों को मालगुज़ारी देना बन्द कर दें। शाही परगने में एक ना मालूम-से ज़मींदार के विद्रोह को सहन नहीं किया जा सकता था। औरंगज़ेब ने एक शक्तिशाली सेना भेजी। पहली तो रदंदाज़ ख़ाँ के अधीन और दूसरी हसनअली ख़ाँ के अधीन। वे एक-दूसरे के बाद मथुरा के फ़ौजदार नियुक्त किए गए। गोकुलराम से समझौते की बातचीत चलाई गई। यदि वह उस लूट को लौटा दे जो उसने जमा कर ली है, तो उसे क्षमा कर दिया जाएगा। भविष्य में सदाचरण का आश्वासन भी माँगा गया। परन्तु गोकुला राज़ी न हुआ। स्थिति बिगड़ती गई। स्वयं सम्राट औरंगज़ेब ने 28 नवंबर, 1669 ई. को दिल्ली से उपद्रवग्रस्त क्षेत्र के लिए प्रस्थान किया। वह मक्खी को मारने के लिए भारी घन का प्रयोग करने की तरह था। 4 दिसम्बर को हसनअली ख़ाँ ने ब्रह्मदेव सिसौदिया की सहायता से गोकुला और उसके समर्थकों के गाँवों पर आक्रमण किया, जो अद्भुत साहस और उत्साह के साथ लड़े। अन्त में वे हार गए। इस लड़ाई में उनके 300 साथी मारे गए। औरंगज़ेब ने उदारता और मानवता के अपने एक दुर्लभ उदाहरण के रूप में '200 घुड़सवारों को अलग इस काम पर लगा दिया कि वे गाँव वालों की फ़सलों की रक्षा करें और सैनिकों को गाँव वालों पर अत्याचार करने या किसी भी बच्चे को बन्दी बनाने से रोकें।"[1] औरंगज़ेब ने हसनअली ख़ाँ को मथुरा का फ़ौजदार बना दिया।
- गोकुल सिंह और उसके साथियों को दबाने के लिए मुग़ल सेना में वृद्धि की गई। गोकुला ने जाट, अहीर और गूजर किसानों की 20,000 की सेना से हसन अली ख़ाँ और रज़ीउद्दीन भागलपुरी के नेतृत्व में आई मुग़ल सेना का मुक़ाबला किया। गोकुला और उसके चाचा उदयसिंह वीरता के साथ लड़े, परन्तु मुग़ल तोपख़ाने का वह मुक़ाबला नहीं कर सके। तीन दिन के घमासान युद्ध के बाद गोकुला की हार हुई। इस युद्ध में 4,000 मुग़ल सैनिक और 5,000 जाट मारे गए। गोकुला और उसके परिवार के सदस्य बन्दी कर लिये गये।
- सर जदुनाथ और उपेन्द्रनाथ शर्मा का कहना है कि- "गोकुला और उदयसिंह को आगरा लाया गया, जब उन्होंने मुसलमान बनने से इंकार कर दिया, तो आगरा की कोतवाली के सामने उसकी बोटी-बोटी काटकर फेंक दी गई। गोकुला के पुत्र और पुत्री को मुसलमान बना दिया गया।"[2]
- क़ानूनगो का विचार है- "किसान लम्बे अरसे तक धीरतापूर्वक, बिना घबराए डटकर शौर्य प्रदर्शित करते हुए, जो सदा से उनकी चारित्रिक विशेषता रही है, लड़ते रहे। जब प्रतिरोध के लायक़ नहीं रहे, तब उनमें से बहुतों ने अपनी स्त्रियों को मार डाला और अपने प्राणों का ख़ूब महँगा सौदा करने के लिए वे मुग़लों पर टूट पड़े। गोकुला का रक्त व्यर्थ नहीं बहा; उसने जाटों के हृदय में स्वतन्त्रता के नए अंकुर में पानी दिया।"
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