"ठाकुर असनी दूसरे": अवतरणों में अंतर
('ठाकुर असनी दूसरे ऋषिनाथ कवि के पुत्र और [[से...' के साथ नया पन्ना बनाया) |
No edit summary |
||
(3 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 4 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
ठाकुर असनी दूसरे [[ऋषिनाथ|ऋषिनाथ कवि]] के पुत्र और | ठाकुर असनी दूसरे [[ऋषिनाथ|ऋषिनाथ कवि]] के पुत्र और 'सेवक कवि' के पितामह थे। सेवक के भतीजे श्रीकृष्ण ने अपने पूर्वजों का जो वर्णन लिखा है, उसके अनुसार ऋषिनाथ जी के पूर्वज देवकीनंदन मिश्र गोरखपुर ज़िले के एक कुलीन सरयूपारी [[ब्राह्मण]], पयासी के मिश्र थे , और अच्छी कविता करते थे। एक बार मँझौली के राजा के यहाँ विवाह के अवसर पर देवकीनंदन जी ने भाटों की तरह कुछ कवित्त पढ़े और पुरस्कार लिया। इस पर उनके भाई-बन्धुओं ने उन्हें जातिच्युत कर दिया और वे असनी के भाट नरहर कवि की कन्या के साथ अपना विवाह करके असनी में जा रहे और भाट हो गए। उन्हीं देवकीनंदन के वंश में ठाकुर के पिता ऋषिनाथ कवि हुए। | ||
;रचनाएँ | ;रचनाएँ | ||
ठाकुर ने संवत् 1861 में 'सतसई बरनार्थ' नाम की 'बिहारी सतसई' की एक टीका (देवकीनंदन टीका) बनाई। अत: इनका कविताकाल संवत् 1860 के इधर उधर माना जा सकता है। ये काशिराज के संबंधी [[काशी]] के नामी रईस<ref> जिनकी हवेली अब तक प्रसिद्ध है</ref> बाबू देवकीनंदन के आश्रित थे। इनका विशेष वृत्तांत स्व. पं.अंबिकादत्त व्यास ने अपने 'बिहारी बिहार' की भूमिका में दिया है। ये ठाकुर भी बड़ी सरस कविता करते थे। इनके पद्यों में भाव या दृश्य का निर्वाह अबाध रूप में पाया जाता है। - | ठाकुर ने संवत् 1861 में 'सतसई बरनार्थ' नाम की 'बिहारी सतसई' की एक टीका (देवकीनंदन टीका) बनाई। अत: इनका कविताकाल संवत् 1860 के इधर उधर माना जा सकता है। ये काशिराज के संबंधी [[काशी]] के नामी रईस<ref> जिनकी हवेली अब तक प्रसिद्ध है</ref> बाबू देवकीनंदन के आश्रित थे। इनका विशेष वृत्तांत स्व. [[अंबिकादत्त व्यास|पं. अंबिकादत्त व्यास]] ने अपने 'बिहारी बिहार' की भूमिका में दिया है। ये ठाकुर भी बड़ी सरस कविता करते थे। इनके पद्यों में भाव या दृश्य का निर्वाह अबाध रूप में पाया जाता है। - | ||
<poem>कारे लाज करहे पलासन के पुंज तिन्हैं | <poem>कारे लाज करहे पलासन के पुंज तिन्हैं | ||
अपने झकोरन झुलावन लगी है री। | अपने झकोरन झुलावन लगी है री। | ||
पंक्ति 18: | पंक्ति 18: | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
{{cite book | last =आचार्य| first =रामचंद्र शुक्ल| title =हिन्दी साहित्य का इतिहास| edition =| publisher =कमल प्रकाशन, नई दिल्ली| location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिन्दी | pages =पृष्ठ सं. | {{cite book | last =आचार्य| first =रामचंद्र शुक्ल| title =हिन्दी साहित्य का इतिहास| edition =| publisher =कमल प्रकाशन, नई दिल्ली| location =भारतडिस्कवरी पुस्तकालय | language =हिन्दी | pages =पृष्ठ सं. 261| chapter =प्रकरण 3}} | ||
==बाहरी कड़ियाँ== | ==बाहरी कड़ियाँ== | ||
पंक्ति 29: | पंक्ति 28: | ||
[[Category:कवि]] | [[Category:कवि]] | ||
[[Category:रीति_काल]] | [[Category:रीति_काल]] | ||
[[Category: | [[Category:रीतिकालीन कवि]] | ||
[[Category:चरित कोश]] | |||
[[Category:साहित्य कोश]] | [[Category:साहित्य कोश]] | ||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ | __NOTOC__ |
08:10, 11 जनवरी 2014 के समय का अवतरण
ठाकुर असनी दूसरे ऋषिनाथ कवि के पुत्र और 'सेवक कवि' के पितामह थे। सेवक के भतीजे श्रीकृष्ण ने अपने पूर्वजों का जो वर्णन लिखा है, उसके अनुसार ऋषिनाथ जी के पूर्वज देवकीनंदन मिश्र गोरखपुर ज़िले के एक कुलीन सरयूपारी ब्राह्मण, पयासी के मिश्र थे , और अच्छी कविता करते थे। एक बार मँझौली के राजा के यहाँ विवाह के अवसर पर देवकीनंदन जी ने भाटों की तरह कुछ कवित्त पढ़े और पुरस्कार लिया। इस पर उनके भाई-बन्धुओं ने उन्हें जातिच्युत कर दिया और वे असनी के भाट नरहर कवि की कन्या के साथ अपना विवाह करके असनी में जा रहे और भाट हो गए। उन्हीं देवकीनंदन के वंश में ठाकुर के पिता ऋषिनाथ कवि हुए।
- रचनाएँ
ठाकुर ने संवत् 1861 में 'सतसई बरनार्थ' नाम की 'बिहारी सतसई' की एक टीका (देवकीनंदन टीका) बनाई। अत: इनका कविताकाल संवत् 1860 के इधर उधर माना जा सकता है। ये काशिराज के संबंधी काशी के नामी रईस[1] बाबू देवकीनंदन के आश्रित थे। इनका विशेष वृत्तांत स्व. पं. अंबिकादत्त व्यास ने अपने 'बिहारी बिहार' की भूमिका में दिया है। ये ठाकुर भी बड़ी सरस कविता करते थे। इनके पद्यों में भाव या दृश्य का निर्वाह अबाध रूप में पाया जाता है। -
कारे लाज करहे पलासन के पुंज तिन्हैं
अपने झकोरन झुलावन लगी है री।
ताही को ससेटी तृन पत्रन लपेटी धारा ,
धाम तैं अकास धूरि धावन लगी है री
ठाकुर कहत सुचि सौरभ प्रकाशन मों
आछी भाँति रुचि उपजावन लगी है री।
ताती सीरी बैहर बियोग वा संयोगवारी,
आवनि बसंत की जनावन लगी है री
प्रात झुकामुकि भेष छपाय कै गागर लै घर तें निकरी ती।
जानि परी न कितीक अबार है, जाय परी जहँ होरी धारी ती
ठाकुर दौरि परे मोहिं देखि कै, भागि बची री, बड़ी सुघरी ती।
बीर की सौं जो किवार न देऊँ तौ मैं होरिहारन हाथ परी ती॥
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ जिनकी हवेली अब तक प्रसिद्ध है
आचार्य, रामचंद्र शुक्ल “प्रकरण 3”, हिन्दी साहित्य का इतिहास (हिन्दी)। भारतडिस्कवरी पुस्तकालय: कमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ सं. 261।
बाहरी कड़ियाँ
संबंधित लेख