"जनतन्त्र का जन्म -रामधारी सिंह दिनकर": अवतरणों में अंतर

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|चित्र का नाम=रामधारी सिंह दिनकर
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सदियों की ठंढी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
सदियों की ठंडी - बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।


जनता?हां,मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे-पाले की कसक सदा सहनेवाली,
जाडे - पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चुस रहे
जब अंग - अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहनेवाली।
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली।
जनता?हां,लंबी - बडी जीभ की वही कसम,  
जनता? हां, लंबी - बडी जीभ की वही कसम,  
"जनता,सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"जनता, सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक,मगर,आखिर,इस पर जनमत क्या है?"
"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"
मानो,जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
 
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में;
मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सज़ा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
जन्तर - मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।
 
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह,समय में ताव कहां?
जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती,काल उधर ही मुड़ता है।
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।
अब्दों,शताब्दियों,सहस्त्राब्द का अंधकार
 
बीता;गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
यह और नहीं कोई,जनता के स्वप्न अजय
बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत का आ पहुंचा,
सब से विराट जनतंत्र जगत् का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि-हित सिंहासन तय करो
तैंतीस कोटि - हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं,प्रजा का है,
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।


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फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह,समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो,
दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।


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08:53, 17 जुलाई 2017 के समय का अवतरण

जनतन्त्र का जन्म -रामधारी सिंह दिनकर
रामधारी सिंह दिनकर
रामधारी सिंह दिनकर
कवि रामधारी सिंह दिनकर
जन्म 23 सितंबर, सन् 1908
जन्म स्थान सिमरिया, ज़िला मुंगेर (बिहार)
मृत्यु 24 अप्रैल, सन् 1974
मृत्यु स्थान चेन्नई, तमिलनाडु
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची
रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएँ

सदियों की ठंडी - बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाडे - पाले की कसक सदा सहने वाली,
जब अंग - अंग में लगे सांप हो चूस रहे
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली।
जनता? हां, लंबी - बडी जीभ की वही कसम,
"जनता, सचमुच ही, बडी वेदना सहती है।"
"सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है?"
'है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है?"

मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं,
जब चाहो तभी उतार सज़ा लो दोनों में;
अथवा कोई दूधमुंही जिसे बहलाने के
जन्तर - मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में।
लेकिन होता भूडोल, बवंडर उठते हैं,
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

हुंकारों से महलों की नींव उखड़ जाती,
सांसों के बल से ताज हवा में उड़ता है,
जनता की रोके राह, समय में ताव कहां?
वह जिधर चाहती, काल उधर ही मुड़ता है।

अब्दों, शताब्दियों, सहस्त्राब्द का अंधकार
बीता; गवाक्ष अंबर के दहके जाते हैं;
यह और नहीं कोई, जनता के स्वप्न अजय
चीरते तिमिर का वक्ष उमड़ते जाते हैं।
सब से विराट जनतंत्र जगत् का आ पहुंचा,
तैंतीस कोटि - हित सिंहासन तय करो
अभिषेक आज राजा का नहीं, प्रजा का है,
तैंतीस कोटि जनता के सिर पर मुकुट धरो।

आरती लिये तू किसे ढूंढता है मूरख,
मन्दिरों, राजप्रासादों में, तहखानों में?
देवता कहीं सड़कों पर गिट्टी तोड़ रहे,
देवता मिलेंगे खेतों में, खलिहानों में।
फावड़े और हल राजदण्ड बनने को हैं,
धूसरता सोने से श्रृंगार सजाती है;
दो राह, समय के रथ का घर्घर - नाद सुनो,
सिंहासन ख़ाली करो कि जनता आती है।

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