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| ==कलिंग शिलाअभिलेख== | | ==कालसी== |
| | *कालसी<ref>इस अभिलेख की केवल आरम्भिक पंक्तियाँ ही सभी संस्करणों में पायी जाती हैं।</ref> |
| {| class="bharattable-purple" | | {| class="bharattable-purple" |
| |+ जौगड़ | | |+ कालसी शिलालेख |
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| ! क्रमांक | | ! क्रमांक |
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| ! अनुवाद | | ! अनुवाद |
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| | 1. | | | 1. |
| | देवानं हेवं आ [ ह ] [ । ] समापायं महमता लाजवचनिक वतविया [ । ] अं किछि दखामि हकं [ किं ] ति कं कमन | | | देवानंपिये पियदसि लाजा आहा [।] जने उचावुचं मंगलं कलेति [।] आबाधसि अवाहसि विवाहसि पजोपदाये पवाससि एताये अंनाये चा एदिसाये जने मंगलं कलेति [।] हेतु चु अबकजनियों बहु चा बहुविधं चा खुदा चा निलथिया चा मंगलं कलंति [।] |
| | देवों का प्रिय इस प्रकार कहता है- समापा में महामात्र (तोसली संस्करण में- कुमार और महामात्र) राजवचन द्वारा (यों) कहे जायँ- जो कुछ मैं देखता हूँ, उसे मैं चाहता हूँ कि किस प्रकार कर्म द्वारा | | | |
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| | | 2. |
| | | से कटवि चेव खो मंगले [।] अपफले वु खो एसे [।] इयं चु खो महाफले ये धंममगले [।] हेता इयं दासभटकसि सम्यापटिपाति गुलुना अपचिति पानानं समये समनबंभनान दाने एसे अंने चा हेडिसे तं धंममगले नामा [।] से वतलिये पितिना पि पुतेन पि भातिना पि सुवामिकेना पि मितसंथुनेता आय पटिवेसियेना पि |
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| | | 3. |
| | | इयं साधु इयं कटविये मगले आव तसा अथसा निवुतिया [।] इमं कथमिति [।]<ref>इसके आगे गिरनार, धौली और जौगड़ में सर्वथा भिन्न पंक्तिया हैं।</ref> |
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| ==चतुर्दश शिलालेख==
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| *गिरनार का द्वितीय शिलालेख
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| |+ गिरनार
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| | 1.
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| | सर्वत विजिततम्हि देवानं प्रियस पियदसिनो राञो
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| | देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के विजित (राज्य) में सर्वत्र तथा
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| | 2.
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| | एवमपि प्रचंतेसु यथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो आ तंब-
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| | ऐसे ही जो (उसके) अंत (प्रत्यंत) हैं यथा-चोड़ (चोल), पाँड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र (एवं) ताम्रपर्णी तक (और)
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| | 3.
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| | पंणी अंतियोको योनराजा ये वा पि तस अंतियोकस सामीपं
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| | अतियोक नामक यवनराज, तथा जो भी अन्य इस अंतियोक के आसपास (समीप) राजा (हैं, उनके यहाँ) सर्वत्र
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| | 4.
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| | राजनों सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछ कता
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| | देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा दो (प्रकार की) चिकित्साएँ (व्यवस्थित) हुई-
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| | 5.
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| | मनुस-चिकीछाच पशु-चिकिछा च [।] ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च।
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| | मनुष्य-चिकित्सा और पशु-चिकित्सा। मनुष्योपयोगी और
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| | 6.
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| | पसोपगानि च यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।]
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| | पशु-उपयोगी जो औषधियाँ भी जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लायी गयीं और रोपी गयीं।
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| | 7.
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| | मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।]
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| | इसी प्रकार मूल और फल जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लाये गये और रोपे गये।
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| | 8.
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| | पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।]
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| | मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये।
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| | | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
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| | <references/> |
| *गिरनार का तृतीय शिलालेख
| | __NOTOC__ |
| {| class="bharattable-purple"
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| |+ गिरनार
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| | 1.
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| | देवानंप्रियो पियदसि राजा एवं आह [।] द्वादसवासाभिसितेन मया इदं आञपितं [।]
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| | देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-बारह वर्षों से अभिषिक्त हुए मुझ द्वारा यह आज्ञा दी गयी-
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| | 2.
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| | सर्वत विजिते मम युता च राजूके प्रादेसिके च पंचसु वासेसु अनुसं-
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| | मेरे विजित (राज्य) में सर्वत्र युक्त, राजुक और प्रादेशिक पाँच-पाँच वर्षों में जैसे अन्य [शासन सम्बन्धी] कामों के लिए दौरा करते हैं, वैसे ही
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| | 3.
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| | यानं नियातु एतायेव अथाय इमाय धंमानुसस्टिय यथा अञा-
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| | इस धर्मानुशासन के लिए भी अनुसंयान (दौरे) को बाहर निकलें [ताकि देखें]
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| | 4.
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| | य पि कंमाय [।] साधु मातिर च पितरि च सुस्त्रूसा मिता-संस्तुत-ञातीनं ब्राह्मण-
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| | माता और पिता की शुश्रूषा अच्छी है; मित्रों, प्रशंसितों (या परचितों), सम्बन्धियों तथा ब्राह्मणों [और]
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| | 5.
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| | समणानं साधु दानं प्राणानं साधु अनारंभो अपव्ययता अपभांडता साधु [।]
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| | श्रमणों को दान देना अच्छा है। प्राणियों (जीवों) को न मारना अच्छा है। थोड़ा व्यय करना और थोड़ा संचय करना अच्छा है।
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| | 6.
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| | परिसा पि युते आञपयिसति गणनायं हेतुतो च व्यंजनतो च [।]
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| | परिषद भी युक्तों को [इसके] हेतु (कारण, उद्देश्य) और व्यंजन (अर्थ) के अनुसार गणना (हिसाब जाँचने, आय-व्यय-पुस्तक के निरीक्षण) की आज्ञा देगी।
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