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सिंहासन बत्तीसी एक लोककथा संग्रह है। महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं। | [[चित्र:Lok-kathayen.png|thumb|250px|[[लोककथा]] संग्रह]] | ||
सिंहासन बत्तीसी एक [[लोककथा]] संग्रह है। महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं। | |||
==इतिहास== | ==इतिहास== | ||
सिंहासन बत्तीसी संभवत: संस्कृत की रचना है जो उत्तरी संस्करण में सिंहासनद्वात्रिंशति तथा "विक्रमचरित" के नाम से दक्षिणी संस्करण में उपलब्ध है। पहले के संस्कर्ता एक मुनि कहे जाते हैं जिनका नाम क्षेभेन्द्र था। बंगाल में वररुचि के द्वारा प्रस्तुत संस्करण भी इसी के समरुप माना जाता है। इसका दक्षिणी रुप ज़्यादा लोकप्रिय हुआ कि लोक भाषाओं में इसके अनुवाद होते रहे और पौराणिक कथाओं की तरह भारतीय समाज में मौखिक परम्परा के रुप में रच-बस गए। इनके रचनाकाल के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। इतना लगभग तय है कि इनकी रचना धारा के राजा भोज के समय में नहीं हुई। चूंकि प्रत्येक कथा राजा भोज का उल्लेख करती है, अत: इसका रचना काल 11वीं शताब्दी के बाद होगा। इसे द्वात्रींशत्पुत्तलिका के नाम से भी जाना जाता है। | सिंहासन बत्तीसी संभवत: [[संस्कृत]] की रचना है जो उत्तरी संस्करण में सिंहासनद्वात्रिंशति तथा "विक्रमचरित" के नाम से दक्षिणी संस्करण में उपलब्ध है। पहले के संस्कर्ता एक मुनि कहे जाते हैं जिनका नाम क्षेभेन्द्र था। [[अखण्डित बंगाल|बंगाल]] में वररुचि के द्वारा प्रस्तुत संस्करण भी इसी के समरुप माना जाता है। इसका दक्षिणी रुप ज़्यादा लोकप्रिय हुआ कि लोक भाषाओं में इसके अनुवाद होते रहे और पौराणिक कथाओं की तरह भारतीय समाज में मौखिक परम्परा के रुप में रच-बस गए। इनके रचनाकाल के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। इतना लगभग तय है कि इनकी रचना धारा के राजा भोज के समय में नहीं हुई। चूंकि प्रत्येक कथा राजा भोज का उल्लेख करती है, अत: इसका रचना काल 11वीं शताब्दी के बाद होगा। इसे द्वात्रींशत्पुत्तलिका के नाम से भी जाना जाता है। | ||
==कथा== | ==कथा भूमिका== | ||
बहुत दिनों की बात है। उज्जैन नगरी में राजा भोज नाम का एक राजा राज करता था। वह बड़ा दानी और धर्मात्मा था। न्याय ऐसा करता कि दूध और पानी अलग-अलग हो जाये। उसके राज में शेर और बकरी एक घाट पानी पीते थे। प्रजा सब तरह से सुखी थी। | <poem style="background:#fbf8df; padding:15px; font-size:14px; border:1px solid #003333; border-radius:5px"> | ||
बहुत दिनों की बात है। [[उज्जैन]] नगरी में राजा [[भोज]] नाम का एक राजा राज करता था। वह बड़ा दानी और धर्मात्मा था। न्याय ऐसा करता कि [[दूध]] और पानी अलग-अलग हो जाये। उसके राज में [[शेर]] और बकरी एक घाट पानी पीते थे। प्रजा सब तरह से सुखी थी। नगरी के पास ही एक खेत था, जिसमें एक आदमी ने तरह–तरह की बेलें और साग-भाजियां लगा रखी थीं। | |||
नगरी के पास ही एक खेत था, जिसमें एक आदमी ने तरह–तरह की बेलें और साग-भाजियां लगा | एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। खूब तरकारियां उतरीं, लेकिन खेत के बीचों-बीच थोड़ी-सी ज़मीन ख़ाली रह गई। बीज उस पर डाले थे, पर जमे नहीं। सो खेत वाले ने क्या किया कि वहाँ खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। पर उस पर वह जैसे ही चढ़ा कि लगा चिल्लाने- "कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओ और सज़ा दो।" | ||
एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। खूब तरकारियां उतरीं, लेकिन खेत के बीचों-बीच थोड़ी-सी | |||
होते-होते यह बात राजा के कानों में पहुंची। | होते-होते यह बात राजा के कानों में पहुंची। | ||
राजा ने कहा: मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं। | |||
लोग राजा को ले गये। खेत पर पहुंचते ही देखते क्या हैं कि वह आदमी मचान पर खड़ा है और कह रहा है- "राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।" | लोग राजा को ले गये। खेत पर पहुंचते ही देखते क्या हैं कि वह आदमी मचान पर खड़ा है और कह रहा है- "राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।" | ||
यह सुनकर राजा को बड़ा डर लगा। वह चुपचाप महल में लौट आया। फ़िक्र के मारे उसे रातभर नींद नहीं आयी। ज्यों-त्यों रात बिताई। सवेरा होते ही उसने अपने राज्य के ज्योतिषियों और पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने हिसाब लगाकर बताया कि उस मचान के नीचे धन छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाय। | |||
यह सुनकर राजा को बड़ा डर लगा। वह चुपचाप महल में | खोदते-खोदते जब काफ़ी [[मिट्टी]] निकल गई तो अचानक लोगों ने देखा कि नीचे एक सिंहासन है। उनके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो उसने उसे बाहर निकालने को कहा, लेकिन लाखों मज़दूरों के ज़ोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस-से मस-न हुआ। तब एक पंडित ने बताया कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि इसको कोई बलि न दी जाय। | ||
राजा ने ऐसा ही किया। बलि देते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़ा खुश हुआ। उसने कहा कि इसे साफ़ करो। सफाई की गई। वह सिंहासन ऐसा चमक उठा कि अपने मुंह देख लो। उसमें भांति-भांति के [[रत्न]] जड़ें थे, जिनकी चमक से आँखेंं चौंधियाती थीं। सिंहासन के चारों ओर आठ-आठ पुतलियाँ बनी थीं। उनके हाथ में कमल का एक-एक फूल था। कहीं-कहीं सिंहासन का [[रंग]] बिगड़ गया था। कहीं कहीं से रत्न निकल गये थे। राजा ने हुक्म दिया कि ख़ज़ाने से रुपया लेकर उसे ठीक कराओ। ठीक होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन ऐसा हो गया था। कि जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियाँ ऐसी लगती, मानो अभी बोल उठेंगी। | |||
खोदते-खोदते जब काफ़ी मिट्टी निकल गई तो अचानक लोगों ने देखा कि नीचे एक सिंहासन है। उनके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो उसने उसे बाहर निकालने को कहा, लेकिन लाखों | राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा: तुम लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालो। उसी दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा। एक दिन तय किया गया। दूर-दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गये। तरह-तरह के बाजे बजने लगे, महलों में खुशियाँ मनाई जाने लगीं। | ||
सिंहासन टस-से मस-न हुआ। तब एक पंडित ने बताया कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि इसको कोई बलि न दी जाय। | |||
राजा ने ऐसा ही किया। बलि देते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़ा खुश हुआ। उसने कहा कि इसे | |||
ठीक होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन ऐसा हो गया था। कि जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियाँ ऐसी लगती, मानो अभी बोल उठेंगी। | |||
एक दिन तय किया गया। दूर-दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गये। तरह-तरह के बाजे बजने लगे, महलों में खुशियाँ मनाई जाने लगीं। | |||
सब लोगों के सामने राजा सिंहासन के पास जाकर खड़े हो गये। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सब-की-सब पुतलियाँ खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि ये बेजान पुतलियाँ कैसे हंस पड़ी। राजा ने डर के मारे अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से बोला, "ओ पुतलियों! सच-सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?" | सब लोगों के सामने राजा सिंहासन के पास जाकर खड़े हो गये। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सब-की-सब पुतलियाँ खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि ये बेजान पुतलियाँ कैसे हंस पड़ी। राजा ने डर के मारे अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से बोला, "ओ पुतलियों! सच-सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?" | ||
पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। | पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी। | ||
राजा की बात सुनकर वह बोली: राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन घमंड करना ठीक नहीं। सुनो! जिस राजा का यह सिहांसन है, उसके यहाँ तुम जैसे तो हजारों नौकर-चाकर थे। | |||
यह सुनकर राजा आग-बबूला हो गया। | यह सुनकर राजा आग-बबूला हो गया। | ||
राजा बोला: मैं अभी इस सिहांसन को तोड़कर मिट्टी में मिला दूंगा। | |||
पुतली ने शांति से कहा: महाराज! जिस दिन राजा विक्रमादित्य से हम अलग हुई उसी दिन हमारे भाग्य फूट गये, हमारे लिए सिंहासन धूल में मिल गया। | |||
राजा का गुस्सा दूर हो गया। | राजा का गुस्सा दूर हो गया। | ||
उन्होंने कहा: पुतली रानी! तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी। साफ-साफ कहो। | |||
पुतली ने कहा: अच्छा सुनो। | |||
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05:28, 4 फ़रवरी 2021 के समय का अवतरण
सिंहासन बत्तीसी एक लोककथा संग्रह है। महाराजा विक्रमादित्य भारतीय लोककथाओं के एक बहुत ही चर्चित पात्र रहे हैं। प्राचीनकाल से ही उनके गुणों पर प्रकाश डालने वाली कथाओं की बहुत ही समृद्ध परम्परा रही है। सिंहासन बत्तीसी भी 32 कथाओं का संग्रह है जिसमें 32 पुतलियाँ विक्रमादित्य के विभिन्न गुणों का कथा के रूप में वर्णन करती हैं।
इतिहास
सिंहासन बत्तीसी संभवत: संस्कृत की रचना है जो उत्तरी संस्करण में सिंहासनद्वात्रिंशति तथा "विक्रमचरित" के नाम से दक्षिणी संस्करण में उपलब्ध है। पहले के संस्कर्ता एक मुनि कहे जाते हैं जिनका नाम क्षेभेन्द्र था। बंगाल में वररुचि के द्वारा प्रस्तुत संस्करण भी इसी के समरुप माना जाता है। इसका दक्षिणी रुप ज़्यादा लोकप्रिय हुआ कि लोक भाषाओं में इसके अनुवाद होते रहे और पौराणिक कथाओं की तरह भारतीय समाज में मौखिक परम्परा के रुप में रच-बस गए। इनके रचनाकाल के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है। इतना लगभग तय है कि इनकी रचना धारा के राजा भोज के समय में नहीं हुई। चूंकि प्रत्येक कथा राजा भोज का उल्लेख करती है, अत: इसका रचना काल 11वीं शताब्दी के बाद होगा। इसे द्वात्रींशत्पुत्तलिका के नाम से भी जाना जाता है।
कथा भूमिका
बहुत दिनों की बात है। उज्जैन नगरी में राजा भोज नाम का एक राजा राज करता था। वह बड़ा दानी और धर्मात्मा था। न्याय ऐसा करता कि दूध और पानी अलग-अलग हो जाये। उसके राज में शेर और बकरी एक घाट पानी पीते थे। प्रजा सब तरह से सुखी थी। नगरी के पास ही एक खेत था, जिसमें एक आदमी ने तरह–तरह की बेलें और साग-भाजियां लगा रखी थीं।
एक बार की बात है कि खेत में बड़ी अच्छी फसल हुई। खूब तरकारियां उतरीं, लेकिन खेत के बीचों-बीच थोड़ी-सी ज़मीन ख़ाली रह गई। बीज उस पर डाले थे, पर जमे नहीं। सो खेत वाले ने क्या किया कि वहाँ खेत की रखवाली के लिए एक मचान बना लिया। पर उस पर वह जैसे ही चढ़ा कि लगा चिल्लाने- "कोई है? राजा भोज को पकड़ लाओ और सज़ा दो।"
होते-होते यह बात राजा के कानों में पहुंची।
राजा ने कहा: मुझे उस खेत पर ले चलो। मैं सारी बातें अपनी आंखों से देखना और कानों से सुनना चाहता हूं।
लोग राजा को ले गये। खेत पर पहुंचते ही देखते क्या हैं कि वह आदमी मचान पर खड़ा है और कह रहा है- "राजा भोज को फौरन पकड़ लाओ और मेरा राज उससे ले लो। जाओ, जल्दी जाओ।"
यह सुनकर राजा को बड़ा डर लगा। वह चुपचाप महल में लौट आया। फ़िक्र के मारे उसे रातभर नींद नहीं आयी। ज्यों-त्यों रात बिताई। सवेरा होते ही उसने अपने राज्य के ज्योतिषियों और पंडितों को इकट्ठा किया। उन्होंने हिसाब लगाकर बताया कि उस मचान के नीचे धन छिपा है। राजा ने उसी समय आज्ञा दी कि उस जगह को खुदवाया जाय।
खोदते-खोदते जब काफ़ी मिट्टी निकल गई तो अचानक लोगों ने देखा कि नीचे एक सिंहासन है। उनके अचरज का ठिकाना न रहा। राजा को खबर मिली तो उसने उसे बाहर निकालने को कहा, लेकिन लाखों मज़दूरों के ज़ोर लगाने पर भी वह सिंहासन टस-से मस-न हुआ। तब एक पंडित ने बताया कि यह सिंहासन देवताओं का बनाया हुआ है। अपनी जगह से तब तक नहीं हटेगा जब तक कि इसको कोई बलि न दी जाय।
राजा ने ऐसा ही किया। बलि देते ही सिहांसन ऐसे ऊपर उठ आया, मानो फूलों का हो। राजा बड़ा खुश हुआ। उसने कहा कि इसे साफ़ करो। सफाई की गई। वह सिंहासन ऐसा चमक उठा कि अपने मुंह देख लो। उसमें भांति-भांति के रत्न जड़ें थे, जिनकी चमक से आँखेंं चौंधियाती थीं। सिंहासन के चारों ओर आठ-आठ पुतलियाँ बनी थीं। उनके हाथ में कमल का एक-एक फूल था। कहीं-कहीं सिंहासन का रंग बिगड़ गया था। कहीं कहीं से रत्न निकल गये थे। राजा ने हुक्म दिया कि ख़ज़ाने से रुपया लेकर उसे ठीक कराओ। ठीक होने में पांच महीने लगे। अब सिंहासन ऐसा हो गया था। कि जो भी देखता, देखता ही रह जाता। पुतलियाँ ऐसी लगती, मानो अभी बोल उठेंगी।
राजा ने पंडितों को बुलाया और कहा: तुम लोग कोई अच्छा मुहूर्त निकालो। उसी दिन मैं इस सिंहासन पर बैठूंगा। एक दिन तय किया गया। दूर-दूर तक लोगों को निमंत्रण भेजे गये। तरह-तरह के बाजे बजने लगे, महलों में खुशियाँ मनाई जाने लगीं।
सब लोगों के सामने राजा सिंहासन के पास जाकर खड़े हो गये। लेकिन जैसे ही उन्होंने अपना दाहिना पैर बढ़ाकर सिंहासन पर रखना चाहा कि सब-की-सब पुतलियाँ खिलखिला कर हंस पड़ी। लोगों को बड़ा अचंभा हुआ कि ये बेजान पुतलियाँ कैसे हंस पड़ी। राजा ने डर के मारे अपना पैर खींच लिया और पुतलियों से बोला, "ओ पुतलियों! सच-सच बताओं कि तुम क्यों हंसी?"
पहली पुतली का नाम था। रत्नमंजरी।
राजा की बात सुनकर वह बोली: राजन! आप बड़े तेजस्वी हैं, धनी हैं, बलवान हैं, लेकिन घमंड करना ठीक नहीं। सुनो! जिस राजा का यह सिहांसन है, उसके यहाँ तुम जैसे तो हजारों नौकर-चाकर थे।
यह सुनकर राजा आग-बबूला हो गया।
राजा बोला: मैं अभी इस सिहांसन को तोड़कर मिट्टी में मिला दूंगा।
पुतली ने शांति से कहा: महाराज! जिस दिन राजा विक्रमादित्य से हम अलग हुई उसी दिन हमारे भाग्य फूट गये, हमारे लिए सिंहासन धूल में मिल गया।
राजा का गुस्सा दूर हो गया।
उन्होंने कहा: पुतली रानी! तुम्हारी बात मेरी समझ में नहीं आयी। साफ-साफ कहो।
पुतली ने कहा: अच्छा सुनो।
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