"करन कवि": अवतरणों में अंतर
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'''करन कवि''' षट्कुल कान्यकुब्ज पाण्डे थे और [[बुन्देला]] राजा [[छत्रसाल]] के वंशधर [[पन्ना]] नरेश महाराज 'हिंदूपति' की सभा में रहते थे। इनका [[कविता]] काल संवत 1860 के लगभग माना जाता है। | |||
* | *करन कवि ने 'साहित्यरस' और 'रसकल्लोल' नामक दो रीति ग्रंथ लिखे हैं। | ||
*'साहित्यरस' में इन्होंने लक्षणा, व्यंजना, ध्वनिभेद, [[रस]] भेद, गुण दोष आदि काव्य के प्राय: सब विषयों का विस्तार से वर्णन किया है। | *'साहित्यरस' में इन्होंने लक्षणा, व्यंजना, ध्वनिभेद, [[रस]] भेद, गुण दोष आदि काव्य के प्राय: सब विषयों का विस्तार से वर्णन किया है। | ||
*काव्यगत विशेषताओं की दृष्टि से यह एक उत्तम रीति ग्रंथ है। | *काव्यगत विशेषताओं की दृष्टि से यह एक उत्तम रीति ग्रंथ है। | ||
*कविता भी इनकी सरस और मनोहर है। इससे इनका एक सुविज्ञ कवि होना सिद्ध होता है। | *[[कविता]] भी इनकी सरस और मनोहर है। इससे इनका एक सुविज्ञ कवि होना सिद्ध होता है। | ||
<poem>कंटकित होत गात बिपिन समाज देखि, | <blockquote><poem>कंटकित होत गात बिपिन समाज देखि, | ||
हरी हरी भूमि हेरि हियो लरजतु है। | हरी हरी भूमि हेरि हियो लरजतु है। | ||
एते पै करन धुनि परति मयूरन की, | एते पै करन धुनि परति मयूरन की, | ||
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अरज्यो न मानी तू न गरज्यो चलत बार, | अरज्यो न मानी तू न गरज्यो चलत बार, | ||
एरे घन बैरी! अब काहे गरजतु है | एरे घन बैरी! अब काहे गरजतु है | ||
खल खंडन मंडन धारनि, उद्ध त उदित उदंड। | खल खंडन मंडन धारनि, उद्ध त उदित उदंड। | ||
दलमंडन दारुन समर, हिंदुराज भुजदंड</poem> | दलमंडन दारुन समर, हिंदुराज भुजदंड</poem></blockquote> | ||
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12:40, 18 अक्टूबर 2012 के समय का अवतरण
करन कवि षट्कुल कान्यकुब्ज पाण्डे थे और बुन्देला राजा छत्रसाल के वंशधर पन्ना नरेश महाराज 'हिंदूपति' की सभा में रहते थे। इनका कविता काल संवत 1860 के लगभग माना जाता है।
- करन कवि ने 'साहित्यरस' और 'रसकल्लोल' नामक दो रीति ग्रंथ लिखे हैं।
- 'साहित्यरस' में इन्होंने लक्षणा, व्यंजना, ध्वनिभेद, रस भेद, गुण दोष आदि काव्य के प्राय: सब विषयों का विस्तार से वर्णन किया है।
- काव्यगत विशेषताओं की दृष्टि से यह एक उत्तम रीति ग्रंथ है।
- कविता भी इनकी सरस और मनोहर है। इससे इनका एक सुविज्ञ कवि होना सिद्ध होता है।
कंटकित होत गात बिपिन समाज देखि,
हरी हरी भूमि हेरि हियो लरजतु है।
एते पै करन धुनि परति मयूरन की,
चातक पुकारि तेह ताप सरजतु है
निपट चवाई भाई बंधु जे बसत गाँव,
पाँव परे जानि कै न कोऊ बरजतु है।
अरज्यो न मानी तू न गरज्यो चलत बार,
एरे घन बैरी! अब काहे गरजतु है
खल खंडन मंडन धारनि, उद्ध त उदित उदंड।
दलमंडन दारुन समर, हिंदुराज भुजदंड
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