"बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-2 ब्राह्मण-2": अवतरणों में अंतर

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*यहाँ विराट '[[ब्रह्माण्ड]]' और 'मानव' की समानता का बोध कराया गया है।  
*यहाँ विराट '[[ब्रह्माण्ड]]' और 'मानव' की समानता का बोध कराया गया है।  
*जो ब्राह्मण में है, वही मानव-शरीर में विद्यमान है।  
*जो ब्राह्मण में है, वही मानव-शरीर में विद्यमान है।  
*कहा भी है- ''यद् पिण्डे तत्त्ब्रह्माण्डे,'' अर्थात जो कुछ भी स्थूल और सूक्ष्म रूप से इस शरीर में विद्यमान है, वही इस विराट ब्रह्माण्ड में स्थित है।  
*कहा भी है- ''यद् पिण्डे तत्त्ब्रह्माण्डे,'' अर्थात् जो कुछ भी स्थूल और सूक्ष्म रूप से इस शरीर में विद्यमान है, वही इस विराट ब्रह्माण्ड में स्थित है।  
*वास्तव में इस विशाल सृष्टि का अतिसूक्ष्म रूप परमात्मा ने इस मानव-शरीर में स्थापित किया है और वह स्वयं भी इस शरीर में प्राण-शक्ति के रूप में विराजमान है।  
*वास्तव में इस विशाल सृष्टि का अतिसूक्ष्म रूप परमात्मा ने इस मानव-शरीर में स्थापित किया है और वह स्वयं भी इस शरीर में प्राण-शक्ति के रूप में विराजमान है।  
*इस ब्राह्मण के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि जिसने आधान (आधार), प्रत्याधान (शीर्ष), स्थूणा (खूंटा, अर्थात अन्न और जल से प्राप्त होने वाली जीवनी-शक्ति) और दाम (बांधने की रस्सी, अर्थात वह नाल जिससे शिशु माता के साथ जुड़ा रहता है) को समझ लिया, वह परमज्ञान को प्राप्त कर लेता है।  
*इस ब्राह्मण के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि जिसने आधान (आधार), प्रत्याधान (शीर्ष), स्थूणा (खूंटा, अर्थात् अन्न और जल से प्राप्त होने वाली जीवनी-शक्ति) और दाम (बांधने की रस्सी, अर्थात् वह नाल जिससे शिशु माता के साथ जुड़ा रहता है) को समझ लिया, वह परमज्ञान को प्राप्त कर लेता है।  
*यहाँ शिशु के रूपक द्वारा 'प्राण' को शिशु का रूप बताया गया है।  
*यहाँ शिशु के रूपक द्वारा 'प्राण' को शिशु का रूप बताया गया है।  
*यह शिशु अथवा 'प्राण' मानव-शरीर का आधार हैं 'शीर्ष', अर्थात पांचों ज्ञानेन्द्रियों- आंख, कान, नाक, [[जिह्वा]] और मन-प्रत्याधान हैं।  
*यह शिशु अथवा 'प्राण' मानव-शरीर का आधार हैं 'शीर्ष', अर्थात् पांचों ज्ञानेन्द्रियों- आंख, कान, नाक, [[जिह्वा]] और मन-प्रत्याधान हैं।  
*श्वास की स्थूणा है और दाम 'अन्न' है।  
*श्वास की स्थूणा है और दाम 'अन्न' है।  
*प्राणतत्त्व का इस शरीर से गहरा सम्बन्ध है।  
*प्राणतत्त्व का इस शरीर से गहरा सम्बन्ध है।  
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*हृदय-रूपी आकाश या प्राण-रूपी तट पर '[[सप्तर्षि|सप्त ऋषि]]' विद्यमान हैं दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र और एक रसना, ये सात ऋषि हैं। इनके साथ संवाद करने वाली आठवीं 'वाणी' है। ये दोनों कान [[गौतम]] और [[भारद्वाज]] ऋषि हैं ये दोनों नेत्र ही [[विश्वामित्र]] और [[जमदग्नि]] ऋषि हैं, दोनों नासिका छिद्र [[वसिष्ठ]] और [[कश्यप]] हैं और वाक् ही सातवें [[अत्रि]] ऋषि हैं। जो ऐसा जानता है, वह समस्त अन्न भोगों का स्वामी होता है।
*हृदय-रूपी आकाश या प्राण-रूपी तट पर '[[सप्तर्षि|सप्त ऋषि]]' विद्यमान हैं दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र और एक रसना, ये सात ऋषि हैं। इनके साथ संवाद करने वाली आठवीं 'वाणी' है। ये दोनों कान [[गौतम]] और [[भारद्वाज]] ऋषि हैं ये दोनों नेत्र ही [[विश्वामित्र]] और [[जमदग्नि]] ऋषि हैं, दोनों नासिका छिद्र [[वसिष्ठ]] और [[कश्यप]] हैं और वाक् ही सातवें [[अत्रि]] ऋषि हैं। जो ऐसा जानता है, वह समस्त अन्न भोगों का स्वामी होता है।


 
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07:49, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण

  • यहाँ विराट 'ब्रह्माण्ड' और 'मानव' की समानता का बोध कराया गया है।
  • जो ब्राह्मण में है, वही मानव-शरीर में विद्यमान है।
  • कहा भी है- यद् पिण्डे तत्त्ब्रह्माण्डे, अर्थात् जो कुछ भी स्थूल और सूक्ष्म रूप से इस शरीर में विद्यमान है, वही इस विराट ब्रह्माण्ड में स्थित है।
  • वास्तव में इस विशाल सृष्टि का अतिसूक्ष्म रूप परमात्मा ने इस मानव-शरीर में स्थापित किया है और वह स्वयं भी इस शरीर में प्राण-शक्ति के रूप में विराजमान है।
  • इस ब्राह्मण के प्रारम्भ में ही कहा गया है कि जिसने आधान (आधार), प्रत्याधान (शीर्ष), स्थूणा (खूंटा, अर्थात् अन्न और जल से प्राप्त होने वाली जीवनी-शक्ति) और दाम (बांधने की रस्सी, अर्थात् वह नाल जिससे शिशु माता के साथ जुड़ा रहता है) को समझ लिया, वह परमज्ञान को प्राप्त कर लेता है।
  • यहाँ शिशु के रूपक द्वारा 'प्राण' को शिशु का रूप बताया गया है।
  • यह शिशु अथवा 'प्राण' मानव-शरीर का आधार हैं 'शीर्ष', अर्थात् पांचों ज्ञानेन्द्रियों- आंख, कान, नाक, जिह्वा और मन-प्रत्याधान हैं।
  • श्वास की स्थूणा है और दाम 'अन्न' है।
  • प्राणतत्त्व का इस शरीर से गहरा सम्बन्ध है।
  • इसके बिना शरीर की सक्रियता अथवा गतिशीलता की कल्पना ही नहीं की जा सकतीं इसीलिए इसे शरीर का आधार माना गया है।
  • 'शीर्ष' ही समस्त ज्ञानेन्द्रियों का नियन्त्रण करता है और 'श्वास' ही प्राण की स्थूणा शक्ति है।
  • प्राण का आधार 'अन्न' है। शिशु की ऊपरी पलक 'द्युलोक' है और निचली पलक 'पृथ्वीलोक' है।
  • पलकों का झपकना रात और दिन है।
  • आंखों के लाल डोरे रुद्र अथवा अग्नितत्त्व है।
  • नेत्रों का गीलापन जलतत्त्व है, सफ़ेद भाग आकाश है, काली पुतली पृथ्वी-तत्त्व है और पुतली के मध्य स्थित तारा सूर्य है, आंखों के छिद्र वायुतत्त्व हैं।
  • इस रहस्य को समझने वाला साधक जीवन में कभी अभावग्रस्त नहीं होता।
  • हृदय-रूपी आकाश या प्राण-रूपी तट पर 'सप्त ऋषि' विद्यमान हैं दो कान, दो नेत्र, दो नासिका छिद्र और एक रसना, ये सात ऋषि हैं। इनके साथ संवाद करने वाली आठवीं 'वाणी' है। ये दोनों कान गौतम और भारद्वाज ऋषि हैं ये दोनों नेत्र ही विश्वामित्र और जमदग्नि ऋषि हैं, दोनों नासिका छिद्र वसिष्ठ और कश्यप हैं और वाक् ही सातवें अत्रि ऋषि हैं। जो ऐसा जानता है, वह समस्त अन्न भोगों का स्वामी होता है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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