"चाणक्य नीति- अध्याय 15": अवतरणों में अंतर
No edit summary |
व्यवस्थापन (वार्ता | योगदान) छो (Text replacement - "करनेवाला" to "करने वाला") |
||
(2 सदस्यों द्वारा किए गए बीच के 6 अवतरण नहीं दर्शाए गए) | |||
पंक्ति 1: | पंक्ति 1: | ||
[[चित्र:chanakya_niti_f.jpg|thumb|250px|[[चाणक्य नीति]]]] | |||
===अध्याय 15=== | ===अध्याय 15=== | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
पंक्ति 15: | पंक्ति 13: | ||
भूमि माहि धन नाहि वह, जोदे अनृण कहाय ॥2॥ | भूमि माहि धन नाहि वह, जोदे अनृण कहाय ॥2॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''यदि गुरु एक अक्षर भी बोलकर शिष्य को उपदेश दे देता है तो पृथ्वी में कोई | '''अर्थ -- '''यदि गुरु एक अक्षर भी बोलकर शिष्य को उपदेश दे देता है तो पृथ्वी में कोई ऐसा द्रव्य है ही नहीं कि जिसे देखकर उस गुरु से उऋण हो जाय। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
पंक्ति 29: | पंक्ति 27: | ||
सोवै रवि पिछवतु जगत, तजै जो श्री हरि ऎन ॥4॥ | सोवै रवि पिछवतु जगत, तजै जो श्री हरि ऎन ॥4॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''मैले कपडे | '''अर्थ -- '''मैले कपडे पहनने वाला, मैले दाँत वाला, भुक्खड, नीरस बातें करने वाला और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय तक सोने-वाला यदि ईश्वर ही हो तो उसे भी लक्ष्मी त्याग देती हैं। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
पंक्ति 50: | पंक्ति 48: | ||
विषौ भयो भूषण शिवहिं, अमृत राहु कँह मीच ॥7॥ | विषौ भयो भूषण शिवहिं, अमृत राहु कँह मीच ॥7॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''अयोग्य कार्य भी यदि कोई प्रभावशाली व्यक्ति कर गुजरे तो वह उसके लिए योग्य हो जाता है और नीच प्रकृति का मनुष्य यदि उत्तम काम भी करता है तो वह उसके करने से अयोग्य साबित हो जाता है। जैसे अमृत भी राहु के लिए मृत्यु का कारण बन गया और विष शिवजी के कंठ का | '''अर्थ -- '''अयोग्य कार्य भी यदि कोई प्रभावशाली व्यक्ति कर गुजरे तो वह उसके लिए योग्य हो जाता है और नीच प्रकृति का मनुष्य यदि उत्तम काम भी करता है तो वह उसके करने से अयोग्य साबित हो जाता है। जैसे अमृत भी राहु के लिए मृत्यु का कारण बन गया और विष शिवजी के कंठ का श्रृंगार हो गया। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
पंक्ति 64: | पंक्ति 62: | ||
लेत देत मणिही रहे, काँच काँच रहि जाय ॥9॥ | लेत देत मणिही रहे, काँच काँच रहि जाय ॥9॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''वैसे मणि पैरों तले लुढके और काँच माथे पर रखा जाय तो इसमें उन दोनों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। पर जब वे दोनों | '''अर्थ -- '''वैसे मणि पैरों तले लुढके और काँच माथे पर रखा जाय तो इसमें उन दोनों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। पर जब वे दोनों बाज़ार में बिकने आवेंगे और उनका क्रय-विक्रय होने लगेगा तब काँच काँच ही रहेगा और मणि मणि ही। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
पंक्ति 71: | पंक्ति 69: | ||
जल से जैसे हंस पय, लीजै सार निसार ॥10॥ | जल से जैसे हंस पय, लीजै सार निसार ॥10॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''शास्त्र अनन्त हैं, बहुत सी विद्यायें हैं, थोडा सा समय 'जीवन' है और उसमें बहुत से विघ्न हैं। इसलिए समझदार मनुष्य को उचित है जैसे हंस सबको | '''अर्थ -- '''शास्त्र अनन्त हैं, बहुत सी विद्यायें हैं, थोडा सा समय 'जीवन' है और उसमें बहुत से विघ्न हैं। इसलिए समझदार मनुष्य को उचित है जैसे हंस सबको छोड़कर पानी से दूध केवल लेता है, उसी तरह जो अपने मतलब की बात हो, उसे ले ले बाकी सब छोड़ दे। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
पंक्ति 85: | पंक्ति 83: | ||
आपुहिं जानै नाहिं ज्यों, करिछिहिंव्यञ्जन स्वाद ॥12॥ | आपुहिं जानै नाहिं ज्यों, करिछिहिंव्यञ्जन स्वाद ॥12॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''कितने लोग चारो वेद और बहुत से धर्मशास्त्र | '''अर्थ -- '''कितने लोग चारो वेद और बहुत से धर्मशास्त्र पढ़ जाते हैं, पर वे आपको नहीं समझ पाते, जैसे कि कलछुल पाक में रहकर भी पाक का स्वाद नहीं जान सकती। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
पंक्ति 92: | पंक्ति 90: | ||
नीचे रहि तर जात सब, ऊपर रहि बुडि जाय ॥13॥ | नीचे रहि तर जात सब, ऊपर रहि बुडि जाय ॥13॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''यह द्विजमयी नौका धन्य है, कि जो इस संसाररूपी सागर में उलटे तौर पर चलती है। जो इससे नीचे (नम्र) रहते हैं, वे तर जातें हैं और जो ऊपर ( | '''अर्थ -- '''यह द्विजमयी नौका धन्य है, कि जो इस संसाररूपी सागर में उलटे तौर पर चलती है। जो इससे नीचे (नम्र) रहते हैं, वे तर जातें हैं और जो ऊपर (उद्धत) रहते, वे नीचे चले जाते हैं। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
पंक्ति 99: | पंक्ति 97: | ||
तऊचंद्र रवि ढिग मलिन, पर घर कौन गम्भीर ॥14॥ | तऊचंद्र रवि ढिग मलिन, पर घर कौन गम्भीर ॥14॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''यद्यपि चंद्रमा अमृत का | '''अर्थ -- '''यद्यपि चंद्रमा अमृत का भण्डार है, औषधियों का स्वामी है, स्वयं अमृतमय है और कान्तिमान् है। फिर भी जब वह सूर्य के मण्डल में पड़ जाता है तो किरण रहित हो जाता है। पराए घर जाकर भला कौन ऐसा है कि जिसकी लघुता न सावित होती हो। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
पंक्ति 111: | पंक्ति 109: | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
क्रोध से तात पियो चरणन से स्वामी हतो जिन रोषते छाती । | क्रोध से तात पियो चरणन से स्वामी हतो जिन रोषते छाती । | ||
बालसे | बालसे वृद्धमये तक मुख में भारति वैरिणि धारे संघाती ॥ | ||
मम वासको पुष्प सदा उन तोडत | मम वासको पुष्प सदा उन तोडत शिवजी की पूजा होत प्रभाती । | ||
ताते | ताते दु:ख मान सदैव हरि मैं ब्राह्मण कुल को त्याग चिलाती ॥16॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''ब्राह्मण अधिकांश दरिद्र दिखाई देते हैं, कवि कहता है कि इस विषय पर किसी प्रश्नोत्तर के समय लक्ष्मी जी | '''अर्थ -- '''ब्राह्मण अधिकांश दरिद्र दिखाई देते हैं, कवि कहता है कि इस विषय पर किसी प्रश्नोत्तर के समय लक्ष्मी जी भगवान् से कहती हैं - जिसने क्रुद्ध होकर मेरे पिता को पी लिया, मेरे स्वामी को लात मारा, बाल्यकाल ही से जो रोज ब्राह्मण लोग वैरिणी (सरस्वती) को अपने मुख विवर में आसन दिये रहते हैं, शिवजी को पूजने के लिये जो रोज मेरा घर (कमल) उजाडा करते हैं, इन्हीं कारणों से नाराज़ होकर हे नाथ! मैं सदैव ब्राह्मण का घर छोडे रहती हूँ - वहाँ जाती ही नहीं। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
पंक्ति 122: | पंक्ति 120: | ||
काठौ काटन में निपुण, बँध्यो कमल महँ भौंर ॥17॥ | काठौ काटन में निपुण, बँध्यो कमल महँ भौंर ॥17॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''वैसे तो बहुत से बन्धन हैं, पर प्रेम की डोर का बन्धन कुछ और ही है। | '''अर्थ -- '''वैसे तो बहुत से बन्धन हैं, पर प्रेम की डोर का बन्धन कुछ और ही है। काठ को काटने में निपुण भ्रमर कमलदल को काटने में असमर्थ होकर उसमें बँध जाता है। | ||
----- | ----- | ||
;दोहा -- | ;दोहा -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
कटे न चन्दन महक तजु, | कटे न चन्दन महक तजु, वृद्ध न खेल गजेश । | ||
ऊख न पेरे मधुरता, शील न सकुल कलेश ॥18॥ | ऊख न पेरे मधुरता, शील न सकुल कलेश ॥18॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''काटे जाने पर भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्धि नहीं | '''अर्थ -- '''काटे जाने पर भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्धि नहीं छोड़ता, बूढ़ा हाथी भी खेलवाड़ नहीं छोड़ता, कोल्हू में पेरे जाने पर भी ईख मिठास नहीं छोड़ती, ठीक इसी प्रकार कुलीन पुरुष निर्धन होकर भी अपना शील और गुण नहीं छोड़ता। | ||
----- | ----- | ||
;स० -- | ;स० -- | ||
<blockquote><span style="color: blue"><poem> | <blockquote><span style="color: blue"><poem> | ||
कोऊ भूमि के माँहि लघु पर्वत, कर धार के नाम तुम्हारो पर्यो है। | |||
भूतल स्वर्ग के बीच सभी ने जो गिरिवरधारी | भूतल स्वर्ग के बीच सभी ने जो, गिरिवरधारी प्रसिद्ध कियो है। | ||
तिहँ लोक के धारक तुम को धराकुच अग्र कहि यह को गिनती | तिहँ लोक के धारक तुम को धराकुच अग्र कहि यह को गिनती है। | ||
ताते बहु कहना है जो वृथा | ताते बहु कहना है जो वृथा, यश लाभ हरे निज पुण्य मिलत है॥19॥ | ||
</poem></span></blockquote> | </poem></span></blockquote> | ||
'''अर्थ -- '''रुक्मिणी भगवान् से कहती हैं हे केशव! आपने एक छोटे से | '''अर्थ -- '''रुक्मिणी भगवान् से कहती हैं हे केशव! आपने एक छोटे से पहाड़ को दोनों हाथों से उठा लिया वह इसीलिये स्वर्ग और पृथ्वी दोनों लोकों में गोवर्धनधारी कहे जाने लगे। लेकिन तीनों लोकों को धारण करने वाले आपको मैं अपने कुचों के अगले भाग से ही उठा लेती हूँ, फिर उसकी कोई गिनती ही नहीं होती। हे नाथ! बहुत कुछ कहने से कोई प्रयोजन नहीं, यही समझ लीजिए कि बड़े पुण्य से यश प्राप्त होता है। | ||
----- | ----- | ||
;इति चाणक्ये पंचदशोऽध्यायः ॥15॥ | ;इति चाणक्ये पंचदशोऽध्यायः ॥15॥ | ||
पंक्ति 145: | पंक्ति 143: | ||
{{लेख प्रगति|आधार= | {{लेख प्रगति|आधार=|प्रारम्भिक=प्रारम्भिक1 |माध्यमिक= |पूर्णता= |शोध= }} | ||
==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{चाणक्य नीति}} | |||
[[Category: | [[Category:चाणक्य नीति]] | ||
[[Category:इतिहास कोश]][[Category:दर्शन कोश]] | |||
__INDEX__ | __INDEX__ | ||
__NOTOC__ |
13:52, 6 सितम्बर 2017 के समय का अवतरण
अध्याय 15
- दोहा --
जासु चित्त सब जन्तु पर, गलित दया रस माह ।
तासु ज्ञान मुक्ति जटा, भस्म लेप कर काह ॥1॥
अर्थ -- जिस का चित्त दया के कारण द्रवीभूत हो जाता है तो उसे फिर ज्ञान, मोक्ष, जटाधारण तथा भस्मलेपन की क्या आवश्यकता ?
- दोहा --
एकौ अक्षर जो गुरु, शिष्यहिं देत जनाय ।
भूमि माहि धन नाहि वह, जोदे अनृण कहाय ॥2॥
अर्थ -- यदि गुरु एक अक्षर भी बोलकर शिष्य को उपदेश दे देता है तो पृथ्वी में कोई ऐसा द्रव्य है ही नहीं कि जिसे देखकर उस गुरु से उऋण हो जाय।
- दोहा --
खल काँटा इन दुहुन को, दोई जगह उपाय ।
जूतन ते मुख तोडियो, रहिबो दूरि बचाय ॥3॥
अर्थ -- दुष्ट मनुष्य और कण्टक, इन दोनों के प्रतिकार के दो ही मार्ग हैं। या तो उनके लिए पनही (जूते) का उपयोग किया जाय या उन्हें दूर ही से त्याग दे।
- दोहा --
वसन दसन राखै मलिन, बहु भोजन कटु बैन ।
सोवै रवि पिछवतु जगत, तजै जो श्री हरि ऎन ॥4॥
अर्थ -- मैले कपडे पहनने वाला, मैले दाँत वाला, भुक्खड, नीरस बातें करने वाला और सूर्योदय तथा सूर्यास्त के समय तक सोने-वाला यदि ईश्वर ही हो तो उसे भी लक्ष्मी त्याग देती हैं।
- दोहा --
तजहिं तीय हित मीत औ, सेबक धन जब नाहिं ।
धन आये बहुरैं सब धन बन्धु जग माहिं ॥5॥
अर्थ -- निर्धन मित्र को मित्र, स्त्री, सेवक और सगे सम्बन्धी छोड देते हैं और वही जब फिर धन हो जाता है तो वे लोग फिर उसके साथ हो लेते हैं। मतलब यह, संसार में धन ही मनुष्य का बन्धु है।
- दोहा --
करि अनिति धन जोरेऊ, दशे वर्ष ठहराय ।
ग्यारहवें के लागते, जडौ मूलते जाय ॥6॥
अर्थ -- अन्यार से कमाया हुआ धन केवल दस वर्ष तक टिकता है, ग्यारहवाँ वर्ष लगने पर वह मूल धन के साथ नष्ट हो जाता है।
- दोहा --
खोतो मल समरथ पँह, भलौ खोट लहि नीच ।
विषौ भयो भूषण शिवहिं, अमृत राहु कँह मीच ॥7॥
अर्थ -- अयोग्य कार्य भी यदि कोई प्रभावशाली व्यक्ति कर गुजरे तो वह उसके लिए योग्य हो जाता है और नीच प्रकृति का मनुष्य यदि उत्तम काम भी करता है तो वह उसके करने से अयोग्य साबित हो जाता है। जैसे अमृत भी राहु के लिए मृत्यु का कारण बन गया और विष शिवजी के कंठ का श्रृंगार हो गया।
- दोहा --
द्विज उबरेउ भोजन सोई, पर सो मैत्री सोय ।
जेहि न पाप वह चतुरता, धर्म दम्भ विनु जोय ॥8॥
अर्थ -- वही भोजन भोजन है, जो ब्राह्मणों के जीम लेने के बाद बचा हो, वही प्रेम प्रेम है जो स्वार्थ वश अपने ही लोगों में न किया जाकर औरों पर भी किया जाय। वही विज्ञता (समझदारी) है कि जिसके प्रभाव से कोई पाप न हो सके और वही धर्म धर्म है कि जिसमें आडम्बर न हो।
- दोहा --
मणि लोटत रहु पाँव तर, काँच रह्यो शिर नाय ।
लेत देत मणिही रहे, काँच काँच रहि जाय ॥9॥
अर्थ -- वैसे मणि पैरों तले लुढके और काँच माथे पर रखा जाय तो इसमें उन दोनों के विषय में कुछ नहीं कहा जा सकता। पर जब वे दोनों बाज़ार में बिकने आवेंगे और उनका क्रय-विक्रय होने लगेगा तब काँच काँच ही रहेगा और मणि मणि ही।
- दोहा --
बहुत विघ्न कम काल है, विद्या शास्त्र अपार ।
जल से जैसे हंस पय, लीजै सार निसार ॥10॥
अर्थ -- शास्त्र अनन्त हैं, बहुत सी विद्यायें हैं, थोडा सा समय 'जीवन' है और उसमें बहुत से विघ्न हैं। इसलिए समझदार मनुष्य को उचित है जैसे हंस सबको छोड़कर पानी से दूध केवल लेता है, उसी तरह जो अपने मतलब की बात हो, उसे ले ले बाकी सब छोड़ दे।
- दोहा --
दूर देश से राह थकि, बिनु कारज घर आय ।
तेहि बिनु पूजे खाय जो, सो चाण्डाल कहाय ॥11॥
अर्थ -- जो दूर से आ रहा हो इन अभ्यागतों की सेवा किये बिना जो भोजन कर लेता है उसे चाण्डाल कहना चाहिए।
- दोहा --
पढे चारहूँ वेदहुँ, धर्म शास्त्र बहु बाद ।
आपुहिं जानै नाहिं ज्यों, करिछिहिंव्यञ्जन स्वाद ॥12॥
अर्थ -- कितने लोग चारो वेद और बहुत से धर्मशास्त्र पढ़ जाते हैं, पर वे आपको नहीं समझ पाते, जैसे कि कलछुल पाक में रहकर भी पाक का स्वाद नहीं जान सकती।
- दोहा --
भवसागर में धन्य है, उलटी यह द्विज नाव ।
नीचे रहि तर जात सब, ऊपर रहि बुडि जाय ॥13॥
अर्थ -- यह द्विजमयी नौका धन्य है, कि जो इस संसाररूपी सागर में उलटे तौर पर चलती है। जो इससे नीचे (नम्र) रहते हैं, वे तर जातें हैं और जो ऊपर (उद्धत) रहते, वे नीचे चले जाते हैं।
- दोहा --
सुघा धाम औषधिपति, छवि युत अभीय शरीर ।
तऊचंद्र रवि ढिग मलिन, पर घर कौन गम्भीर ॥14॥
अर्थ -- यद्यपि चंद्रमा अमृत का भण्डार है, औषधियों का स्वामी है, स्वयं अमृतमय है और कान्तिमान् है। फिर भी जब वह सूर्य के मण्डल में पड़ जाता है तो किरण रहित हो जाता है। पराए घर जाकर भला कौन ऐसा है कि जिसकी लघुता न सावित होती हो।
- दोहा --
वह अलि नलिनी पति मधुप, तेहि रस मद अलसान ।
परि विदेस विधिवश करै, फूल रसा बहु मान ॥15॥
अर्थ -- यह एक भौंरा है, जो पहले कमलदल के ही बीच में कमिलिनी का बास लेता तहता था संयोगवश वह अब परदेश में जा पहुँचा है, वहाँ वह कौरैया के पुष्परस को ही बहुत समझता है।
- स० --
क्रोध से तात पियो चरणन से स्वामी हतो जिन रोषते छाती ।
बालसे वृद्धमये तक मुख में भारति वैरिणि धारे संघाती ॥
मम वासको पुष्प सदा उन तोडत शिवजी की पूजा होत प्रभाती ।
ताते दु:ख मान सदैव हरि मैं ब्राह्मण कुल को त्याग चिलाती ॥16॥
अर्थ -- ब्राह्मण अधिकांश दरिद्र दिखाई देते हैं, कवि कहता है कि इस विषय पर किसी प्रश्नोत्तर के समय लक्ष्मी जी भगवान् से कहती हैं - जिसने क्रुद्ध होकर मेरे पिता को पी लिया, मेरे स्वामी को लात मारा, बाल्यकाल ही से जो रोज ब्राह्मण लोग वैरिणी (सरस्वती) को अपने मुख विवर में आसन दिये रहते हैं, शिवजी को पूजने के लिये जो रोज मेरा घर (कमल) उजाडा करते हैं, इन्हीं कारणों से नाराज़ होकर हे नाथ! मैं सदैव ब्राह्मण का घर छोडे रहती हूँ - वहाँ जाती ही नहीं।
- दोहा --
बन्धन बहु तेरे अहैं, प्रेमबन्धन कछु और ।
काठौ काटन में निपुण, बँध्यो कमल महँ भौंर ॥17॥
अर्थ -- वैसे तो बहुत से बन्धन हैं, पर प्रेम की डोर का बन्धन कुछ और ही है। काठ को काटने में निपुण भ्रमर कमलदल को काटने में असमर्थ होकर उसमें बँध जाता है।
- दोहा --
कटे न चन्दन महक तजु, वृद्ध न खेल गजेश ।
ऊख न पेरे मधुरता, शील न सकुल कलेश ॥18॥
अर्थ -- काटे जाने पर भी चन्दन का वृक्ष अपनी सुगन्धि नहीं छोड़ता, बूढ़ा हाथी भी खेलवाड़ नहीं छोड़ता, कोल्हू में पेरे जाने पर भी ईख मिठास नहीं छोड़ती, ठीक इसी प्रकार कुलीन पुरुष निर्धन होकर भी अपना शील और गुण नहीं छोड़ता।
- स० --
कोऊ भूमि के माँहि लघु पर्वत, कर धार के नाम तुम्हारो पर्यो है।
भूतल स्वर्ग के बीच सभी ने जो, गिरिवरधारी प्रसिद्ध कियो है।
तिहँ लोक के धारक तुम को धराकुच अग्र कहि यह को गिनती है।
ताते बहु कहना है जो वृथा, यश लाभ हरे निज पुण्य मिलत है॥19॥
अर्थ -- रुक्मिणी भगवान् से कहती हैं हे केशव! आपने एक छोटे से पहाड़ को दोनों हाथों से उठा लिया वह इसीलिये स्वर्ग और पृथ्वी दोनों लोकों में गोवर्धनधारी कहे जाने लगे। लेकिन तीनों लोकों को धारण करने वाले आपको मैं अपने कुचों के अगले भाग से ही उठा लेती हूँ, फिर उसकी कोई गिनती ही नहीं होती। हे नाथ! बहुत कुछ कहने से कोई प्रयोजन नहीं, यही समझ लीजिए कि बड़े पुण्य से यश प्राप्त होता है।
- इति चाणक्ये पंचदशोऽध्यायः ॥15॥
|
|
|
|
|
टीका टिप्पणी और संदर्भ
संबंधित लेख