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| ==कलिंग शिलाअभिलेख==
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| {| class="bharattable-purple"
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| |+ जौगड़
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| | 1.
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| | देवानं हेवं आ [ ह ] [ । ] समापायं महमता लाजवचनिक वतविया [ । ] अं किछि दखामि हकं [ किं ] ति कं कमन
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| | देवों का प्रिय इस प्रकार कहता है- समापा में महामात्र (तोसली संस्करण में- कुमार और महामात्र) राजवचन द्वारा (यों) कहे जायँ- जो कुछ मैं देखता हूँ, उसे मैं चाहता हूँ कि किस प्रकार कर्म द्वारा
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| ==गिरनार शिलालेख==
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| *गिरनार
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| |+ गिरनार
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| | 1.
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| | देवानं प्रियो प्रियदसि राजा यसो व कीति व न महाथावहा मंञते अञत तदात्पनो दिघाय च मे जनो
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| | देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश वा कीर्ति को अन्यत्र (परलोक में) महार्थावह (बहुत लाभ उपजानेवाला) नहीं मानता। [वह] जो भी यश वा कीर्ति चाहता है। [वह इसलिए कि] वर्तमान में और भविष्य में (दीर्घ [काल] के लिए) मेरा जन (मेरी प्रजा)
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| | 2.
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| | धमंसुस्त्रु सा सुस्त्रु सतां धंमवतु च अनुविधियतां [।] एककाय देवानं पियो पियदसि राजा यसो व किति व इछति '[।]
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| | मेरे धर्म को शुश्रूषा करे और मेरे धर्मव्रत का अनुविधान (आचरण) करे। इसलिए देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा यश वा कीर्ति की इच्छा करता है।
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| | 3.
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| | यं तु किंचि परिकामते देवानं प्रियदसि राजा त सवं पारत्रिकाय किंति सकले अपपरिस्त्रवे अस [।] एस तु परिसवे य अपुंञं [।]
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| | जो कुछ भी देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा पराक्रम करता है, वह सब परलोक के लिए हो। क्यों? इसलिए कि सब निष्पाप हों।
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| | 4.
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| | दुकरं तु खो एतं छुदकेन व जनेन उसटेन व अञत्र अगेन पराक्रमेन सवं परिचजित्पा [।] एत तु खो उसटेन दुकरं [।]
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| | अपुण्य (पुण्य न करना) ही दोष (विध्र) है। यह (अपुण्य से रहित होना) बिना अगले (उत्कृष्ट) पराक्रम के [और बिना] सब [अन्य उद्देश्यों] का परित्याग किये क्षुद्र या बड़े वर्ग (जन) से अवश्य दुष्कर है। किंतु यह वस्तुत: बड़े के लिए अधिक दुष्कर है।
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| ==गिरनार शिलालेख==
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| *गिरनार
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| {| class="bharattable-purple"
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| |+ गिरनार
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| | 1.
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| | देवानं पिये पियदसि राजा सव पासंडानि च पवजितानि च घरस्तानि च पूजयति दानेन च विवधाय च पूजयति ने[।]
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| | देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा सब पाषण्डों (पंथवालों) को, [चाहे वे] प्रव्रजित [हों चाहे] गृहस्थ, दान और विविध पूजा द्वारा पूजता है।
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| | 2.
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| | न तु तथा दानं व पूजा व देवानं पियों मंञते यथा किति सारवढी अस सव पासंजानं [।] सारवढी तु बहुविधा [।]
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| | किंतु दान वा पूजा को देवों का प्रिय वैसा नहीं मानता जैसा यह कि सब पाषण्डों (पंथवालों) की सारवृद्धि हो। सारवृद्धि तो बहु प्रकार के है।
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| | 3.
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| | तसतस तु इदं मूलं य वचिगुती किंति आत्पपांसंडपूजा व परपासंड गरहा व नो भवे अपकरणम्हि लहुका व अस
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| | किंतु उसका मूल वचोगुप्ति (वाक्संयम) है। यह किस प्रकार? [इस प्रकार कि] अपने पाषण्ड (पंथ) की पूजा अथवा दूसरे पाषण्डों (पंथों) की गहाँ (निन्दा) न हो और बिना प्रसंग के [उनकी लघुता (हलकाई) न हो।
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| | 4.
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| | तम्हि प्रकरणे [।] पूजेतया तु एव परपासंडा तेन तेन प्रकरणेन [।] एवं करुं आत्पपासण्डं च वढयति परपासंडस च, उपकरोति[।]
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| | उस-उस अवसर पर (विशेष-विशेष अवसरों पर) पर-पाषण्ड (दूसरा पंथ) भी उस-उस ढंग से भिन्न-भिन्न ढंगों से) पूजनीय है। ऐसा करता हुआ मनुष्य अपने पाषण्ड (पंथ) को बढ़ाता है और दूसरे पाषण्ड (पंथ) का उपकार करता है।
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| | 5.
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| | तदंञथा करोतो आत्पपासंडं च छणति परपासण्डस, च पि अपकरोति [।] यो हि कोचटि आत्पपासण्डं पूजयति परसासाण्डं व गरहति
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| | तद्विपीत करता हुआ [मनुष्य] अपने पाषण्ड (पंथ) को क्षीण करता है। और दूसरे पाषण्ड (पंथ) का अपकार करता है। क्योंकि जो कोई अपने पाषण्ड (पंथ) को पूजता है वा दूसरे पाषण्ड (पंथ) की गर्हा (निन्दा) करता है,
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| | 6.
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| | सवं आत्पपासण्डभतिया किंति आत्पपासण्डं दिपयेम इति सो च पुन तथ करातो आत्पपासण्डं बाढ़तरं उपहनाति [।] त समवायों एव साधु
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| | वह अपने पाषण्ड (पंथ) क प्रति भक्ति से अथवा अपने पाषण्ड (पंथ)को दीप्त (प्रकाशित) करने के लिए ही। और वह फिर वैसा करता हुआ अपने पाषण्ड (पंथ) को हानि पहुँचता है। इसलिए समवाय मेलजोल ही अच्छा है।
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| | 7.
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| | किंति अञमञंस धंसं स्त्रुणारु च सुसंसेर च [।] एवं हि देवानं पियस इछा किंति सब पासण्डा बहुस्त्रुता च असु कलाणागमा च असु [।]
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| | यह कैसे/ ऐसे कि [लोग] एक-दूसरे के धर्म को सुनें और शुश्रूषा (सेवा) करें। क्योंकि ऐसी ही देवों के प्रिय की इच्छा है। क्या? कि सब पाषण्ड (पंथवाले) बहुश्रुत और कल्याणागम (कल्याणकारक ज्ञानवाले) हों।
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| | 8.
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| | ये च तत्र प्रसंना तेहि वतय्वं [।] देवानं पियों नो तथा दानं व पूजां व मंञते यथा किंति सारवढी अस सर्वपासडानं [।] बहुका च एताय
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| | और जो वहाँ-वहाँ किसी पंथ में स्थिर हों, वे कहे जायँ "देवों का प्रिय दान वा पूजा को वैसा नहीं मानता, जैसा फिर सब पाषण्डों (पंथों) की सारवृद्धि को।"
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| | 9.
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| | अथा व्यपता धंममहामाता च इथीझख-महामाता च वचभूमीका च अञे च निकाया [।] अयं च एतस फल य आत्पपासण्डवढ़ी च होति धंमस च दीपना [।]
| |
| | इस अर्थ के लिए बहुत धर्ममहामात्र, स्त्री-अध्यक्ष -महामात्र, व्रजभूमिक और अन्य निकाय (स्वायत्तशासन-प्राप्त स्थानीय संस्थाएँ) नियिक्त हैं। इसका फल यह है कि अपने पाषण्ड (पंथ) की वृद्धि होती है और धर्म की दीप्ति [होती है]।
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| |}
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| ==गिरनार शिलालेख==
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| *गिरनार
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| {| class="bharattable-purple"
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| |+ गिरनार
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| | 1.
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| | देवानंप्रि [यो पियद] सि राजा एवं आह [।] अतिक्रांत अंतर
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| | देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है- बहुत काल बीत गया
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| | 2.
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| | न भूतप्रुव सवे काले अथकंमें व पटिवेदना वा [।] त मया एवं कतं [।]
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| | पहले सब काल में अर्थ कर्म (राजकार्य, शासन सम्बंधी कार्य) वा प्रतिवेदना (प्रजा की पुकार अथवा अन्य सरकारी काम का निवेदन, सूचना या ख़बर) नहीं होती थी। सो मेरे द्वारा ऐसा किया गया है।
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| | 3.
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| | सवे काले भुंजमानस में ओरोधनम्हि गभागरम्हि वचम्हि व
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| | सब काल में भोजन करते हुए, अवरोधन (अंत:पुर), गर्भागार, व्रज (पशुशाला)
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| | 4.
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| | विनीतम्हि च उयानेसु चन सर्वत्र पटिवेदका स्टिता अथे में जनस
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| | विनीत (व्यायामशाला,पालकी) और उद्यान (उद्यानों) में [होते हुए] मुझे सर्वत्र प्रतिवेदक (निवेदक) उपस्थित होकर मेरे जन (प्रजा) के अर्थ (शासन सम्बन्धी कार्य) का
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| | 5.
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| | पटिवेदेथ इति [।] सर्वत्र च जनस अथे करोमि [।] य च किंचि मुखतो
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| | प्रतिवेदन (निवेदन) करें। मैं सर्वत्र जन (जनता, प्रजा) का अर्थ (शासन-सम्बन्धी कार्य) करता हूँ (करुँगा) जो कुछ भी मैं मुख से (मौखिक रूप से)।
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| | 6.
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| | आञपयामि स्वयं दापकं वा स्त्रवापकं वा य वा पुन महामात्रेसु
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| | दापक (दान) वा श्रावक (घोषणा) के लिए आज्ञा देता हूँ अथवा पुन: महामात्रों पर
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| | 7.
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| | आचायिके अरोपितं भवति ताय अथाय विवादो निझती व संतों परिसायं
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| | अत्यंत आवश्यकता पर जो [अधिकार या कार्यभार] आरोपित होता है (दिया जाता है) उस अर्थ (शासन-सम्बन्धी कार्य) के लिए परिषद से विवाह
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| | 8.
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| | आनतंर पटिवेदेतव्यं में सर्वत्र सर्वे काले [।] एवं मया आञपितं [।] नास्ति हि मे तोसो
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| | वा पुनर्विचार होने पर बिना विलम्ब के मुझे सर्वत्र सब काल में प्रतिवेदन (निवेदन) किया जाए। मेरे द्वारा ऐसी आज्ञा दी गयी है।
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| | 9.
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| | उस्टानम्हि अथंसंतीरणाय व [।] कतव्य मते हि मे सर्वलोकहितं [।]
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| | मुझे वस्तुत: उत्थान (उद्योग) और अर्थसंतरण (राजशासनरूपी नदी को अच्छी तरह तैरकर पार करने) में तोष (संतोष) नहीं है। सर्वलोकहित वस्तुत: मेरे द्वारा कर्त्तव्य माना गया है।
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| | 10.
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| | तस च पुन एस मूले उस्टानं च अथ-संतोरणा च [।] नास्ति हि कंमतरं
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| | पुन: उसके मूल उत्थान (उद्योग) और अर्थसंतरण (कुशतापूर्वक राजकार्य-सञ्चालन) हैं। सचमुच सर्वलोकहित के अतिरिक्त दूसरा [कोई अधिक उपादेय] का नहीं है।
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| | 11.
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| | सर्वलोकहितत्पा [।] य च किंति पराक्रमामि अहं किंत भूतानं आनंणं गछेयं
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| | जो कुछ मैं पराक्रम करता हूँ, वह क्यों/ इसलिए कि भूतों (जीवधारियों) से उऋणता को प्राप्त होऊँ और
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| | 12.
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| | इध च नानि सुखापयामि परत्रा च स्वगं आराधयंतु [।] त एताय अथाय
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| | यहाँ (इस लोक में) कुछ [प्राणियों] सुखी करूँ तथा अन्यत्र (परलोक में) वे स्वर्ग को प्राप्त करें। इस अर्थ (प्रयोजन) से
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| | 13.
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| | अयं धंमलिपी लेखपिता किंति चिरं तिस्टेय इति तथा च मे पुत्रा पोता च प्रपोत्रा च
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| | यह धर्मलिपि लिखायी गयी कि [यह] चिरास्थित हो और सब प्रकार मेरे स्त्री, पुत्र, पौत्र एवं प्रपौत्र
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| | 14.
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| | अनुवतरां सवलोकहिताय [।] दुकरं तु इदं अञत्र अगेन पराक्रमेन [।]
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| | सब लोगों के हित के लिए पराक्रम अनुसरण करें। बिना उत्कृष्ट पराक्रम के यह (सर्वलोकहित) वस्तुत: दुष्कर है।
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| |}
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| ==गिरनार शिलालेख==
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| *गिरनार
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| {| class="bharattable-purple"
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| |+ गिरनार
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| |-
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| | 1.
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| | [अयं धंमलिपी देवानं प्रियेन प्रियदसिना राञा लेखापिता] [।] अस्ति एवं
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| | यह धर्मलिपि देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा लिखवायी गयी।
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| | 2.
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| | संखितेन अस्ति मझमेन अस्ति विस्ततन [।] न च सवं सवत घटितं [।]
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| | [कहीं यह] संक्षिप्त है, [कहीं] मध्यम है [और कहीं] विस्तृत है। क्योंकि सर्वत्र सब घटित (उपयुक्त) नहीं होते।
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| | 3.
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| | महालके हि विजित बहु च लिखितं लिखापयिसं चेव [।] अस्ति च एत कं
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| | [मेरा] विजित (राज्य) बड़ा (महान) है। [मेरे द्वारा] बहुत लिखा गया और [मैं] नित्य (लगातार, बराबर) लिखवाऊँगा।
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| | 4.
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| | पुन पुन वुतं तस अथस माधूरताय [।] किंति जनों तथा पटिपजेथ [।]
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| | यहाँ (इसमें) [कहीं-कहीं एक ही बात] पुन: पुन: (बार-बार) उस अर्थ के माधुर्य (मधुरता) के लिए लिखी (कही) गयी है। क्यों? [इसलिए कि] जन (मनुष्य) वैसा बर्ताव करें।
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| | 5.
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| | तत्र एकदा असमातं लिखितं अस देसं व सछाय कारणं व
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| | यह भी हो सकता है कि यहाँ जो कुछ (एक) [आध] बार असमाप्त (अधूरा) लिखा गया हो, [वहाँ] देश के कारण वा कारण की पूरी
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| |-
| |
| | 6.
| |
| | अलोचेत्पा लिपिकरापरधेन व [।]
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| | आलोचना के वा लिपिकार के अपराध (दोष) से हो।
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| |}
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| ==चतुर्दश शिलालेख==
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| *गिरनार का द्वितीय शिलालेख
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| {| class="bharattable-purple"
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| |+ गिरनार का द्वितीय शिलालेख
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| |-
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| |-
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| | 1.
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| | सर्वत विजिततम्हि देवानं प्रियस पियदसिनो राञो
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| | देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के विजित (राज्य) में सर्वत्र तथा
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| |-
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| | 2.
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| | एवमपि प्रचंतेसु यथा चोडा पाडा सतियपुतो केतलपुतो आ तंब-
| |
| | ऐसे ही जो (उसके) अंत (प्रत्यंत) हैं यथा-चोड़ (चोल), पाँड्य, सतियपुत्र, केरलपुत्र (एवं) ताम्रपर्णी तक (और)
| |
| |-
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| | 3.
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| | पंणी अंतियोको योनराजा ये वा पि तस अंतियोकस सामीपं
| |
| | अतियोक नामक यवनराज, तथा जो भी अन्य इस अंतियोक के आसपास (समीप) राजा (हैं, उनके यहाँ) सर्वत्र
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| |-
| |
| | 4.
| |
| | राजनों सर्वत्र देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो द्वे चिकीछ कता
| |
| | देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा दो (प्रकार की) चिकित्साएँ (व्यवस्थित) हुई-
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| |-
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| | 5.
| |
| | मनुस-चिकीछाच पशु-चिकिछा च [।] ओसुढानि च यानि मनुसोपगानि च।
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| | मनुष्य-चिकित्सा और पशु-चिकित्सा। मनुष्योपयोगी और
| |
| |-
| |
| | 6.
| |
| | पसोपगानि च यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।]
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| | पशु-उपयोगी जो औषधियाँ भी जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लायी गयीं और रोपी गयीं।
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| |-
| |
| | 7.
| |
| | मूलानि च फलानि च यत यत नास्ति सर्वत्र हारापितानि च रोपापितानि च [।]
| |
| | इसी प्रकार मूल और फल जहाँ-जहाँ नहीं हैं सर्वत्र लाये गये और रोपे गये।
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| |-
| |
| | 8.
| |
| | पंथेसू कूपा च खानापिता ब्रछा च रोपापिता परिभोगाय पसु-मनुसानं [।]
| |
| | मार्गों (पथों) पर पशुओं (और) मनुष्यों के प्रतिभोगी (उपभोग) के लिए कूप (जलाशय) खुदवाये गये और वृक्ष रोपवाये गये।
| |
| |}
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| |
|
| |
| इस अभिलेख से प्रकट होता [[अशोक]] ने पशु और मनुष्यों की चिकित्सा की व्यवस्था न केवल अपने ही राज्य में वरन अपने सीमावर्ती राज्यों में भी की और करायी थी। इसके लिए औषधियों से सम्बन्ध रखने वाले वृक्ष, मूल और फल भी लगाये थे। इस अभिलेख से अशोक के जनहित के कार्य पर प्रकाश पड़ता है।
| |
| इस अभिलेख में [[चोल]], [[पाण्ड्य]], सतियपुत्र, केरलपुत्र और [[ताम्रपर्णी]] का उल्लेख सीमावर्ती राज्यों के रूप में हुआ है। यहाँ चोल का [[तंजावूर|तंजुर]]-[[तिरुचिरापल्ली]] प्रदेश, [[पाण्ड्य]] से [[रामनाथपुरम]] - [[मदुरै]] - [[तिरुनवेली]]-क्षेत्र और सतियपुत्र से क्रमश: उत्तरी और दक्षिणी [[मलयालम भाषा|मलयालम]] - भाषी भूमि से तात्पर्य नहीं है, उसका तात्पर्य सम्भवत: सिंहल से है। ये अशोक के राज्य के दक्षिणी सीमावर्ती राज्य थे, ऐसा प्रतीत होता है।
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|
| |
| इस प्रकार का कोई उल्लेख अशोक ने अपने पूर्वी और उत्तरी सीमा के लिए नहीं किया है। उत्तर में [[हिमालय]] तक उसके राज्य का विस्तार था यह उसके उस प्रदेश के विभिन्न क्षेत्रों में मिले शासनों से प्रकट होता है। अत: उधर किसी सीमांत राज्य के न होने का सहज अनुमान किया जा सकता है। किंतु पूर्व के सीमांत पर्वतीय प्रदेश तक फैला रहा होगा। किंतु अभी तक [[बंगाल]] और उसके आगे के किसी भी पूर्वी क्षेत्र से अशोक का कोई अभिलेख नहीं मिला है जो इस बात को प्रमाणित कर सके। इस सीमा के प्रति यह मौन उल्लेखनीय और विचारणीय है। उत्तर-पश्चिम में अशोक के अभिलेख [[अफगानिस्तान]] तक मिले हैं। और उनमें कुछ यवन-लिपि में भी हैं जो इस बात के प्रमाण हैं कि उसकी राज्य-सीमा [[यवन]] राज्य से लगी हुई थी। इस सीमा का परिचय इस लेख से मिलता है। इसमें यवन राज अंतिओक का उल्लेख है। सम्भवत: यह साम (सीरिया) नरेश [[एण्टियोकस द्वितीय|अंतिओक (द्वितीय)]] होगा जिनका राज्यकाल ई. पू. 261 और 246 के बीच था। वह [[सिकन्दर|अलक्सान्दर]] के सुप्रसिद्ध सेनापति [[सेल्यूकस|सेल्युकी]] निकेटर का पौत्र था। उसके निकटवर्ती राजाओं का उल्लेख तेरहवें अभिलेख में भी हुआ है और वहाँ उनके नाम दिये गये हैं। कदाचित उन्हीं राजाओं से यहाँ भी तात्पर्य है।
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| *गिरनार का तृतीय शिलालेख
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| {| class="bharattable-purple"
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| |+ गिरनार का तृतीय शिलालेख
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| |-
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| | 1.
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| | देवानंप्रियो पियदसि राजा एवं आह [।] द्वादसवासाभिसितेन मया इदं आञपितं [।]
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| | देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-बारह वर्षों से अभिषिक्त हुए मुझ द्वारा यह आज्ञा दी गयी-
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| |-
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| | 2.
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| | सर्वत विजिते मम युता च राजूके प्रादेसिके च पंचसु वासेसु अनुसं-
| |
| | मेरे विजित (राज्य) में सर्वत्र युक्त, राजुक और प्रादेशिक पाँच-पाँच वर्षों में जैसे अन्य [शासन सम्बन्धी] कामों के लिए दौरा करते हैं, वैसे ही
| |
| |-
| |
| | 3.
| |
| | यानं नियातु एतायेव अथाय इमाय धंमानुसस्टिय यथा अञा-
| |
| | इस धर्मानुशासन के लिए भी अनुसंयान (दौरे) को बाहर निकलें [ताकि देखें]
| |
| |-
| |
| | 4.
| |
| | य पि कंमाय [।] साधु मातिर च पितरि च सुस्त्रूसा मिता-संस्तुत-ञातीनं ब्राह्मण-
| |
| | माता और पिता की शुश्रूषा अच्छी है; मित्रों, प्रशंसितों (या परचितों), सम्बन्धियों तथा ब्राह्मणों [और]
| |
| |-
| |
| | 5.
| |
| | समणानं साधु दानं प्राणानं साधु अनारंभो अपव्ययता अपभांडता साधु [।]
| |
| | श्रमणों को दान देना अच्छा है। प्राणियों (जीवों) को न मारना अच्छा है। थोड़ा व्यय करना और थोड़ा संचय करना अच्छा है।
| |
| |-
| |
| | 6.
| |
| | परिसा पि युते आञपयिसति गणनायं हेतुतो च व्यंजनतो च [।]
| |
| | परिषद भी युक्तों को [इसके] हेतु (कारण, उद्देश्य) और व्यंजन (अर्थ) के अनुसार गणना (हिसाब जाँचने, आय-व्यय-पुस्तक के निरीक्षण) की आज्ञा देगी।
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| |}
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| ----
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| *गिरनार का चतुर्थ शिलालेख
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| {| class="bharattable-purple"
| |
| |+ गिरनार का चतुर्थ शिलालेख
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| |-
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| ! क्रमांक
| |
| ! शिलालेख
| |
| ! अनुवाद
| |
| |-
| |
| | 1.
| |
| | अनिकातं अंतरं बहूनि बाससतानि वाढितो एवं प्रणारंभो विहिंसा च भूतानं ज्ञातीसु
| |
| | बहुत काल बीत गया, बहुत सौ वर्ष [बीत गये पर] प्राणि-वध, भूतों की विहिंसा, सम्बन्धी के साथ
| |
| |-
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| | 2.
| |
| | असंप्रतिपती ब्रह्मण-स्त्रणानं असंप्रतीपती [।] त अज देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो
| |
| | अनुसूचित बर्ताव [तथा] श्रमणों और ब्राह्मणों के साथ अनुसूचित बर्ताव बढ़ते ही गये। इसलिए आज देवों के प्रियदर्शी राजा के
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| |-
| |
| | 3.
| |
| | धंम-चरणेन भेरीघोसो अहो धंमघोसो [।] विमानदसंणा च हस्तिदसणा च
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| | धर्माचरण से भेरीघोष-जनों (मनुष्यों) को विमान-दर्शन, हस्तिदर्शन,
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| |-
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| | 4.
| |
| | अगिखंधानि च अञानि च दिव्यानि रूपानि दसयित्पा जनं यारिसे बहूहि वास-सतेहि
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| | अग्रिस्कन्ध (ज्योतिस्कन्ध) और अन्य द्विव्य रूप दिखलाकर-धर्मघोष हो गया है। जिस प्रकार बहुत वर्षों से
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| |-
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| | 5.
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| | न भूत-पूवे तारिसे अज वढिते देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो धंमानुसस्टिया अनांर-
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| | पहले कभी न हुआ था, उस प्रकार आज देवों के प्रियदर्शी राजा के धर्मनुशासन से
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| |-
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| | 6.
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| | भो प्राणानं अविहीसा भूतानं ञातीनं संपटिपती ब्रह्मण-समणानं संपटिपती मातारि-पितरि
| |
| | प्राणियों का अनालम्भ (न मारा जाना), भूतों (जीवों) की अविहिंसा, सम्बन्धियों के प्रति उचित बर्ताव, ब्राह्मणों [और] श्रमणों के प्रति उचित बर्ताव, माता [और] पिता की
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| |-
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| | 7.
| |
| | सुस्त्रुसा थैरसुस्त्रुसा [।] एस अञे च बहुविधे धंमचरणे वढिते [।] वढयिसति चवे देवानंप्रियो।
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| | सुश्रूषा [तथा] वृद्ध (स्थविरों) की सुश्रूषा में वृद्धि आ गया है। ये तथा अन्य बहुत प्रकार के धर्माचरण वर्धित हुए हैं।
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| |-
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| | 8.
| |
| | प्रियदसि राजा धंमचरण [।] पुत्रा च पोत्रा च प्रपोत्रा च देवानंप्रियस प्रियदसिनो राञो
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| | देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा इस धर्माचरण को [और भी] बढ़ायेगा। देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा के पुत्र, पौत्र और प्रपौत्र भी
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| |-
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| | 9.
| |
| | प्रवधयिसंति इदं धंमचरणं आव सवटकपा धंमम्हि सीलम्हि तिस्टंतो धंर्म अनुसासिसंति [।]
| |
| | इस धर्माचरण केयावत्कल्प बढायेंगे। धर्माचरण को शील में [वे स्वयं स्थित] रहते हुए धर्म के अनुसार करेंगे।
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| |-
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| | 10.
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| | एस हि सेस्टे कंमे य धंमानुसासनं [।] धंमाचरणे पि न भवति असीलस [।] त इमम्हि अथम्हि
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| | यह धर्मानुशासन ही श्रेष्ठ कर्म है; किंतु अशील [व्यक्ति] का धर्माचरण भी नहीं होता। सो इस अर्थ (उद्देश्य) की वृद्धि में जुट जायँ
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| |-
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| | 11.
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| | वधी च अहीनी च साधु [।] एताय अथाय इदं लेखापितं इमस अथस वधि युजंत हीनि च
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| | वृद्धि और अहानि अच्छी है। इस अर्थ के लिए यह लिखा (लिखवाया) गया [कि लोग] इस अर्थ की वृद्धि में जुट जाएँ
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| |-
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| | 12.
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| | मा लोचेतव्या [।] द्वादसवासाभिसितेन देवानांप्रियेन प्रियदसिना राञा इदं लेखापितं [।]
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| | और हानि न देखें। बारह वर्षों से अभिषिक देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा द्वारा यह लिखवाया गया।
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| |}
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| |
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| ==शाहबाजगढ़ी शिलालेख==
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| {| class="bharattable-purple"
| |
| |+ शाहबाजगढ़ी शिलालेख
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| |-
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| |-
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| | 1.
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| | देवनंप्रियों प्रिय[द्र] शि रज सवत्र इछति सव्र-
| |
| | देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा चाहता है कि
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| |-
| |
| | 2.
| |
| | प्रषंड वयेयु [।] सवे हि ते समये भव-शुधि च इंछति
| |
| | सर्वत्र सब पाषंड (पंथवाले) वास करें। क्योंकि वे सभी [पाषंड या पंथ] संयम और भावशुद्धि चाहते हैं।
| |
| |-
| |
| | 3.
| |
| | जनो चु उचवुच-छंदो उचवुच-रगो [।] ते सव्रं एकदेश व
| |
| | [अंतर इस कारण होता है कि] जन (मनुष्य) ऊँच-नीच विचार के और ऊँच-नीच राग के [होते हैं] ।[इससे] वे पूरी तरह [अपने कर्त्तव्य का पालन] करेंगे अथवा [उसके] एक देश (अंश) का पालन करेंगे।
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| |-
| |
| | 4.
| |
| | पि कषंति [।] विपुले पि चु दने ग्रस नस्ति समय भव-
| |
| | जिसका दान विपुल है, [किंतु जिसमें] संयम
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| |-
| |
| | 5.
| |
| | शुधि किट्रञत द्रिढ-भतति निचे पढं[।]
| |
| | भावशुद्धि, कृतज्ञता और दृढ़भक्ति नहीं है, [ऐसा मनुष्य] अत्यंत नीच है।
| |
| |-
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| |}
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| |
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| ==शाहबाजगढ़ी शिलालेख==
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| {| class="bharattable-purple"
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| |+ शाहबाजगढ़ी शिलालेख
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| |-
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| |-
| |
| | 1.
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| | अढवषाभिंसितस देवन प्रिअस प्रिअद्रशिस रञो कलिग विजित [।] दिअढमत्रे प्रणशतमहस्त्रे ये ततो अपवुढे शतसहस्त्रमत्रे तत्र हते बहुतवतके व मुटे[।]
| |
| | आठ वर्षों से अभिषिक्त देवों के प्रियदर्शी राजा से कलिंग विजित हुआ। डेढ़ लाख प्राणी यहाँ से बाहर ले जाये गये (कैद कर लिये गये), सौ हजार (एक लाख) वहाँ आहत (घायल) हुए; [और] उससे [भी] बहुत अधिक संख्या में मरे।
| |
| |-
| |
| | 2.
| |
| | ततो पच अधुन लधेषु कलिगेषु तिव्रे ध्र्मशिलनं ध्रमकमत ध्रमनुशस्ति च देवनं प्रियसर [।] सो अस्ति अनुसोचन देवनं प्रियस विजिनिति कलिगनि [।]
| |
| | अत्पश्चात अब कलिंग के उपलब्ध होने पर देवों के प्रिय का धर्मवाय (धर्मपालन), धर्मकामता (धर्म की इच्छा) और धर्मानुशासन तीव्र हुए। सो कलिंग के विजेता देवों के प्रिय को अनुशय (अनुशोचन; पछतावा) है।
| |
| |-
| |
| | 3.
| |
| | अविजितं हि विजिनमनो यो तत्र वध न मरणं व अपवहों व जनस तं बढं वेदनियमंत गुरुमतं च देवनं प्रियस [।] इदं पि चु ततो गुरुमततरं देवनं प्रियस [।] व तत्र हि
| |
| | क्योंकि [मैं] विजित [देश] को अविजित ही मानता हूँ; यदि वहाँ जन (मनुष्यों) का वध, मरण वा अपवाह (कैद कर ले जाना) होता है। यह (वध आदि) देवों के प्रिय से अत्यंत वेदनीय (दु:खदायी) और गुरु (भारी) माना गया है। यह वध आदि देवों के प्रिय द्वारा उससे भी अधिक भारी माना गया है।
| |
| |-
| |
| | 4.
| |
| | वसति ब्रमण व श्रमण व अंञे व प्रषंड ग्रहथ व येसु विहित एष अग्रभुटि-सुश्रुष मतपितुषु सुश्रुष गुरुनं सुश्रुष मित्रसंस्तुतसहयञतिकेषु दसभटकनं संमप्रतिपति द्रिढभतित तेषं तत्र भोति अपग्रथों व वधों व अभिरतन व निक्रमणं [।] येषं व संविहितनं [सि] नहो अविप्रहिनों ए तेष मित्रसंस्तुतसहञतिक वसन
| |
| | [क्योंकि] वहाँ ब्राह्मण, श्रमण,दूसरे पाषण्ड (पंथवाले) और गृहस्थ बसते हैं, जिसमें ये विहित (प्रतिष्ठित) हैं- सबसे पहले (आगे) भरण [पोषण], माता-पिता की शुश्रूषा; मित्रों, प्रशंसितों (या परिचितों), सहायकों [तथा] सम्बन्धियों के प्रति [एवं] दासों और वेतनभोगी नौकरों के प्रति सम्यक बर्ताव [तथा] दृढ़भक्ति। उनका (ऐसे लोगों का) वहाँ उपघात (अपघात) का वध अथवा सुख से रहते हुओं का विनिष्क्रमण (निष्क्रमण, देअशनिकाला) होता है। अथवा जिन व्यवस्थित [लोगों] का स्नेह अक्षुण्ण है, उनके मित्र, प्रशंसित (या परिचित), सहायकों और सम्बन्धियों को व्यसन (दु:ख) की प्राप्ति होती है।
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| |-
| |
| | 5.
| |
| | प्रपुणति तत्र तं पि तेष वो अपघ्रथो भोति [।] प्रतिभंग च एतं सव्रं मनुशनं गुरुमतं च देवनं प्रियस [।] नस्ति च एकतरे पि प्रषंअडस्पि न नम प्रसदो [।] सो यमत्रो जनो तद कलिगे हतो च मुटो च अपवुढ च ततो
| |
| | [इसलिए] वहाँ उनका (मित्रादि का भी) [अक्षुण्ण स्नेह के कारण] उपघात हो जाता है। यह दशा सब मनुष्यों की है; पर देवों के प्रिय द्वारा अधिक भारी (दु:खद) मानी गयी है। ऐसा [कोई] भी जनपद नहीं है, जहाँ ब्राह्मणों और श्रमणों के वर्ग न हों। कहीं भी जनपद [ऐसा स्थान] नहीं है, जहाँ मनुष्यों का किसी न किसी पाषण्ड (पंथ) में प्रसाद (प्रीति, स्थिति) न हो। सो तब (उस समय) कलिंग के उपलब्ध होने पर जितने जन मनुष्य मारे गये, मर गये और बाहर निकाले गये, उनमें से
| |
| |-
| |
| | 6.
| |
| | शतभगे व सहस्त्रभगं व अज गुरुमतं वो देवनं प्रियस [।] यो पि च अपकरेयति छमितवियमते वे देवनं प्रियस यं शकों छमनये [।] य पि च अटवि देवनं प्रियस विजिते भोति त पि अनुनेति अपुनिझपेति [।] अनुतपे पि च प्रभवे
| |
| | सौवाँ भाग वा हजारवाँ भाग भी [यदि आहत होता, मारा जाता या निकाला जाता तो] आज देवों के प्रिय से भारी (खेदजनक) माना जाता। जो भी अपकार करता है, [वह भी] देवों के प्रिय द्वारा क्षंतव्य माना गया है यदि [वह] क्षमा किया जा सके। जो भी अटवियों (वन्य प्रदेशों) [के निवासी] देवों के प्रिय के विजित (राज्य) में है, उन्हें भी [वह] शांत करता है और ध्यानदीक्षित कराता है। अनुताप (पछतावा) होने पर भी देवों के प्रिय का प्रभाव उन्हें कहा [बताया] जाता है, जिसमें [वे अपने दुष्कर्मों पर] लज्जित हो और न मारे जायँ।
| |
| |-
| |
| | 7.
| |
| | देवनं प्रियस वुचति तेष किति अवत्रपेयु न च हंञेयसु [।] इछति हि देवनं प्रियों अव्रभुतन अछति संयमं समचरियं रभसिये [।] एषे च मुखमुते विजये देवन प्रियस यो ध्रमविजयों [।] सो चन पुन लधो देवनं प्रियस इह च अंतेषु
| |
| | देवों का प्रिय भूतों (प्राणियों) की अक्षति, संयम समचर्या और मोदवृत्ति (मोद) की इच्छा करता है। जो धर्मविजय है, वहीं देवों के प्रिय द्वारा मुख्य विजय मानी गयी है। पुन: देवों के प्रिय की वह [धर्मविजय] यहा [अपने राज्य में] और सब अंतों (सीमांतस्थित राज्यों) में उपलब्ध हुई है।
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| |-
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| | 8.
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| | अषपु पि योजन शतेषु यत्र अंतियोको नम योरज परं च तेन अंतियोकेत चतुरे 4 रजनि तुरमये नम अंतिकिनि नम मक नम अलिकसुदरो नम निज चोड पण्ड अब तम्बपंनिय [।] एवमेव हिद रज विषवस्पि योन-कंबोयेषु नभक नभितिन
| |
| | [वह धर्मविजय] छ: सौ योजनों तक, जहाँ अंतियोक नामक यवनराज है और उस अंतियोक से परे चार राजा-तुरमय (तुलमय), अंतिकिनी, मक (मग) और अलिकसुन्दर नामक हैं, और नीचे (दक्षिण में) चोड़ पाण्डय एवं ताम्रपर्णियों (ताम्रपर्णीवालों) तक [उपलब्ध हुई है] ऐसे ही यहाँ राजा के विषय (राज्य) में यवनों [और] कांबोजों में, नाभक और नाभपंति (नभिति) में,
| |
| |-
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| | 9.
| |
| | भोज-पितिनिकेषु अन्ध्रपलिदेषु सवत्र देवनं प्रियस ध्रुमनुशस्ति अनुवटंति [।] यत्र पि देवन प्रियस दुत न व्रंचंति ते पि श्रुतु देवनं प्रियस ध्रमवुटं विधेन ध्रुमनुशास्ति ध्रुमं अनुविधियंति अनुविधियशांति च [।] यो च लधे एतकेन भोति सवत्र विजयों सवत्र पुन
| |
| | भोजों [और] पितिनिकों में [तथा] आंध्रो [और] पुलिन्दों में सर्वत्र देवों के प्रिय धर्मानुशासन का [लोग] अनुवर्तन (अनुसरण) करते हैं। जहाँ देवों के प्रिय दूत न भी जाते हैं, वे भी देवों के प्रिय के धर्मवृत्त को, अनुविधान (आचरण) करते हैं और अनुविधान (आचरण) करेंगे।
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| |-
| |
| | 10.
| |
| | विजयो प्रतिरसो सो [।] लध भोति प्रति ध्रमविजयस्पि [।] लहुक तु खो स प्रित [।] परत्रिकेव महफल मेञति देवन प्रियो [।] एतये च अठये अयो ध्रमदिपि दि पस्त[।] किति पुत्र पपोत्र मे असु नवं विजयं म विजेतविक मञिषु [।] स्पकस्पि यो विजये छंति च लहुदण्डतं च रोचेतु [।] तं एवं विज [यं] मञ [तु]
| |
| | अब तक जो विजय उपलब्ध हुई है, वह विजय सर्वत्र प्रीतिरसवाली है। वह प्रीति धर्मविजय में गाढ़ी हो जाती है। किंतु वह प्रीति निश्चय ही लघुतापूर्ण (क्षुद्र, हलकी) है। देवों का प्रिय पारत्रिक (पारलौकिक) [प्रीति आनन्द] को महाफलवाला मानता है। इस अर्थ (प्रयोजन) के लिए यह धर्मलिपि लिखायी गयी, जिसमें [जो] मेरे पुत्र [और] प्रपौत्र हों, [वे] नवीन विजय को प्राप्त करने योग्य भी मानें। स्वरस (अपनी खुशी) से प्राप्त विजय में [वे] शांति और लघुदण्डता को पसन्द करे तथा उसको ही विजय माने, जो धर्मविजय हैं।
| |
| |-
| |
| | 11.
| |
| | यो ध्रुमविजयो [।] सो हिदलोकिको परलोकिको [।] सव्र च निरति भोतु य स्त्रमरति [।] स हि हिदलोकिक परलोकिक [।]
| |
| | वह [धर्मविजय] इहलौकिक [और] पारलौकिक [फल देनेवाली है] जो धर्मरति (उद्यमरति) उद्यम से उत्पन्न आनन्द है [है, वही] सब [प्रकार का] आनन्द हो (माना जाये), क्योंकि वह (धर्म या उद्यम का आनन्द इहलौकिक और पारलौकिक) [फल देनेवाला है]।
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| |-
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| |}
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| ==शाहबाजगढ़ी शिलालेख==
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| {| class="bharattable-purple"
| |
| |+ शाहबाजगढ़ी शिलालेख
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| |-
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| |-
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| | 1.
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| | देवनं प्रिय प्रियद्रशि रय एवं हहित [।] नस्ति एदिशं दनं यदिशं ध्रमदनं ध्रमसंस्तवे ध्रंमसंविभगों ध्रमसम्बन्धों [।] तत्र एतं दसभटकनं संमपटिपति मतपितुषु सुश्रूष मित्रसंस्तुतञतिकनं श्रमणब्रहमनं
| |
| | देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-जैसा धर्मदान, धर्म-संस्तव (धर्म-आचरण), धर्म संविभाग (धर्म का लेनदेन) वा धर्मसम्बन्ध है, ऐसा [और कोई] दान नहीं है। उसमें यह होता है-दास (और) भृत्य (नौकर) के प्रति सम्यक बर्त्ताव; माता-पिता की शुश्रूषा, मित्रों, संस्तुतों (प्रशंसितों या परिचितों), सम्बन्धियों, श्रमणों (और) ब्राह्मणों को
| |
| |-
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| | 2.
| |
| | दनं प्रणनं अनंरभो [।] एतं वतवों पितुन पि पुत्रेन पि भ्रतुन पि समिकेन पि मित्रसंस्तुतेन अव प्रटिवेशियेन इमं सधु इमं कटवों [।] सो तथ करंतं इअलोकं च अरेधेति परत्र च अनतं पुंञं प्रसवति
| |
| | दान (तथा) प्राणियों का अनालंभ ( न मानना)। पिता, पुत्र, भ्राता, स्वामी, मित्र, संस्तुत (प्रशंसित), सम्बन्धी, यहाँ तक कि पड़ोसी से भी यह कहा जाना चाहिए-" यह उत्तम [है] यह कर्त्तव्य [है] ।" ऐसा करता हुआ वह [मनुष्य] इहलोक को सिद्ध करता है और उस धर्म-दान से अन्यत्र (परलोक में) अनंत पुण्य को उत्पन्न करता है।
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| |-
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| | 3.
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| | तेन ध्रंमदनेन[।]
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| |-
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| |}
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| ==शाहबाजगढ़ी शिलालेख==
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| {| class="bharattable-purple"
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| |+ शाहबाजगढ़ी शिलालेख
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| |-
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| |-
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| | 1.
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| | अतिक्रत्नंअंतंर देवनंप्रिय विहरयत्र नम निक्रमिषु [।] अत्र म्रुगय अञनि च हेदिशानि अभिरमनि अभवसु [1] सो देवनंप्रियों प्रियद्रसि रजर दशवषभिसितों सतो निक्रमि सबोधिं [1] तेन्द ध्रमयत्रयं [1] अत्र इयं होति [:-] श्रमण ब्रमणन द्रशने हिरञपटिविधने च जनपदस जनस द्रशनं ध्रमनुशास्ति [च] ध्रमपरिपुछ च तपोपयं [।] एष भुये रति होति देवनंप्रियस प्रियद्रशिस रञो भगि अंञि [।]
| |
| | बहुत काल बीत गया, देवों के प्रिय (राजा) विहार (यात्रा) के लिए निकलते थे। यहाँ (इसमें) मृगया और इसी प्रकार के अन्य अभिराम (आमोद-प्रमोद) होते थे। देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस वर्षों से अभिषिक्त होकर ज्ब संबोधि (बोधगया, सम्यकज्ञान) को निकला (प्राप्त हुआ) यह धर्मयात्रा (चली)। यहाँ (इसमें) तब से यह होता है-
| |
| *श्रमणों और ब्राह्मणों के दर्शन और (उन्हें) दान;<br/>
| |
| *वृद्धों (स्थाविरों) के दर्शन और (उन्हें) हिरण्य-प्रतिविधान (धन का वितरण):<br/>
| |
| *जनपद के जनों के दर्शन, धर्मानुशासन और तदुपयोगी धर्मपरिपृच्छा (धर्म की पूछताछ)। देवों के प्रिय प्रियदर्शी राजा को इस रति (अभिराम, आनन्द) होता है।
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| |-
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| |}
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| |
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| |
| ==कालसी== | | ==कालसी== |
| *कालसी<ref>इस अभिलेख की केवल आरम्भिक पंक्तियाँ ही सभी संस्करणों में पायी जाती हैं।</ref> | | *कालसी<ref>इस अभिलेख की केवल आरम्भिक पंक्तियाँ ही सभी संस्करणों में पायी जाती हैं।</ref> |
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| |} | | |} |
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| |
|
| ==मानसेरा का शिलालेख== | | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== |
| {| class="bharattable-purple"
| | <references/> |
| |+ मानसेरा का शिलालेख
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| ! क्रमांक
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| ! शिलालेख
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| ! अनुवाद
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| |-
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| | 1.
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| | देवनंप्रिय प्रियद्रशि रज एवं अह [।] कलणं दुकरं [।] ये अदिकरे कयणसे से दुकरं करोति [।] तं मय वहु कयणे कटे [।] तं मअ पुत्र
| |
| | देवों का प्रिय प्रियदर्शी राजा इस प्रकार कहता है-कल्याण दुष्कर है। जो कल्याण का आदिकर्ता है, वह दुष्कर [कार्य] करता है। सो मेरे द्वारा बहुत कल्याण किया गया है।
| |
| |-
| |
| | 2.
| |
| | नतरे [च] परं तेन ये अपतिये में अवकपं तथं अनुवटिशति से सुकट कषित [।] ये चु अत्र देश पि हपेशति से दुकट कषति [I]
| |
| | इसलिए जो मेरे पुत्र और पौत्र हैं तथा आगे उनके द्वारा जो मेरे अपत्य (लड़के, वंशज) होंगे [वे] यावत्कल्प (कल्पांत तक) वैसा अनुसरण करेंगे, तब वे सुकृत (पुण्य) करेंगे। किंतु जो इसमें जो (यहाँ) [एक] देश (अंश) को भी हानि पहुँचायेगा, वह दुष्कृत (पाप) करेगा।
| |
| |-
| |
| | 3.
| |
| | पपे हि नम सुपदरे व [I] से अतिक्रंत अंतरं न भुतप्रुव ध्रममहमत्र नम [I] से त्रेडशवषभिसितेन मय ध्रममहमत्र कट [I] से सवप्रषडेषु
| |
| | पाप वस्तुत: सहज में फैलनेवाला (सुकर) है। बहुत काल बीत गया, पहले धर्ममहामात्र नहीं होते थे। सो तेरह वर्षों से अभिषिक्त मुझ द्वारा धर्ममहामात्र (नियुक्त) किये गये।
| |
| |-
| |
| | 4.
| |
| | वपुट ध्रमधिथनये च ध्रमवध्रिय हिदसुखये च ध्रमयुत योन - कंबोज - गधरन रठिकपितिनिकन ये व पि अञे अपरत [I] भटमये-
| |
| | वे सब पाषण्डों (पंथों) पर धर्माधिष्ठान और धर्मवृद्धि के लिए नियुक्त हैं। (वे) यवनों, कांबोजों, गांधारों, राष्ट्रिकों एवं पितिनिकों के बीच तथा अन्य भी जो अपरांत (के रहनेवाले) हैं उनके बीच धर्मायुक्तों या धर्मयुक्तों (धर्म विभाग के राजकर्मचारियों अथवा 'धर्म' के अनुसार आचरण करने वालों) के हित (और) सुख के लिए [नियुक्त हैं]
| |
| |-
| |
| | 5.
| |
| | षु ब्रमणिम्येषु अन्धेषु वुध्रषु- हिदसुखये ध्रमयुत अपलिबोधये वियपुट ते [।] बधनबधस पटिविधनये अपलिबोधसे मोछये च इयं
| |
| | वे भृत्यों (वेतनभोगी नौकरों), आर्यों (स्वामियों), ब्रह्मणों, इभ्यों (गृहपतियों, वैश्यों), अनाथों और वृद्ध (बड़ों) के बीच धर्मयुक्तों के हितसुख एवं अपरिबाधा के लिए नियुक्त हैं। वे बन्धनबद्धों (कैदियों) के प्रतिविधान (अर्थसाहाय्य, अपील) के लिए, अपरिबाधा के लिए एवं मोक्ष के लिए नियुक्त हैं, यदि वे [बन्धनबद्ध मनुष्य] अनुबद्धप्रजावान (अनुब्रद्धप्रज) (संतानों में अनुरक्त, संतानों वाले), कृताभिकार (विपत्तिग्रस्त) अथवा महल्लक (वयोवृद्ध) हों। वे यहाँ (पाटलिपुत्र में) और अब बाहरी नगरों में मेरे भ्राताओं के, [मेरी] बहनों (भागिनियों) के
| |
| |-
| |
| | 6.
| |
| | अनुबध प्रजवति कट्रभिकर ति व महल के ति व वियप्रट ते [।] हिदं बहिरेषु च नगरेषु सव्रेषु ओरोधनेषु भतन च स्पसुन च
| |
| | और अन्य जो [मेरे] सम्बन्धी हों उनके अवरोधनों (अंत:पुरों) पर सर्वत्र नियुक्त हैं। वे धर्महामात्र सर्वत्र मेरे विजित में (समस्त पृथ्वी पर) धर्मयुक्तों पर, यह निश्चय करने के लिए कि [मनुष्य] धर्मनिश्रित हैं अथवा धर्माधिष्ठित हैं अथवा दानसंयुक्त हैं, नियुक्त हैं।
| |
| |-
| |
| | 7.
| |
| | येव पि अञे ञतिके सव्रत्र वियपट [।] ए इयं ध्रमनिशितो ति व ध्रमधिथने ति व दनसंयुते ति व सव्रत विजितसि मअ ध्रमयुतसि विपुट ते
| |
| | इस अर्थ से यह धर्मलिपि लिखवायी गयी [कि वह] चिरस्थित (चिरस्थायिनी) हो और मेरी प्रजा (उसका) वैसा अनुवर्तन (अनुसरण) करे।
| |
| | |
| |-
| |
| | 8.
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| | ध्रममहमत्र [।] एतये अथ्रये अयि ध्रमदिपि लिखित चिर-ठितिक होतु तथ च प्रज अनुवटतु [।]
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