"सिंहगढ़ दुर्ग": अवतरणों में अंतर
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यह प्रसिद्ध क़िला [[महाराष्ट्र]] के प्रख्यात दुर्गों में से एक था। यह [[पूना]] से लगभग 17 मील दूर नैऋत्य कोण में स्थित है और समुद्रतट से प्रायः 4300 फ़ुट ऊँची पहाड़ी पर बसा हुआ है। इसका पहला नाम '''कोंडाणा''' था जो सम्भवतः इसी नाम के निकटवर्ती ग्राम के कारण हुआ था। दन्तकथाओं के अनुसार यहाँ पर प्राचीन काल में 'कौंडिन्य' अथवा 'श्रृंगी ऋषि' का आश्रम था। | यह प्रसिद्ध क़िला [[महाराष्ट्र]] के प्रख्यात दुर्गों में से एक था। यह [[पूना]] से लगभग 17 मील दूर नैऋत्य कोण में स्थित है और समुद्रतट से प्रायः 4300 फ़ुट ऊँची पहाड़ी पर बसा हुआ है। इसका पहला नाम '''कोंडाणा''' था जो सम्भवतः इसी नाम के निकटवर्ती ग्राम के कारण हुआ था। दन्तकथाओं के अनुसार यहाँ पर प्राचीन काल में 'कौंडिन्य' अथवा 'श्रृंगी ऋषि' का आश्रम था। | ||
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07:31, 7 नवम्बर 2017 के समय का अवतरण
यह प्रसिद्ध क़िला महाराष्ट्र के प्रख्यात दुर्गों में से एक था। यह पूना से लगभग 17 मील दूर नैऋत्य कोण में स्थित है और समुद्रतट से प्रायः 4300 फ़ुट ऊँची पहाड़ी पर बसा हुआ है। इसका पहला नाम कोंडाणा था जो सम्भवतः इसी नाम के निकटवर्ती ग्राम के कारण हुआ था। दन्तकथाओं के अनुसार यहाँ पर प्राचीन काल में 'कौंडिन्य' अथवा 'श्रृंगी ऋषि' का आश्रम था।
शिवाजी का अधिकार
इतिहासकारों का विचार है कि महाराष्ट्र के यादवों या शिलाहार नरेशों में से किसी ने कोंडाणा के क़िले को बनवाया होगा। मुहम्मद तुग़लक़ के समय में यह 'नागनायक' नामक राजा के अधिकार में था। इसने तुग़लक़ का आठ मास तक सामना किया था। इसके पश्चात् अहमदनगर के संस्थापक मलिक अहमद का यहाँ पर क़ब्ज़ा रहा और तत्पश्चात् बीजापुर के सुल्तान का भी। छत्रपति शिवाजी ने इस क़िले को बीजापुर से छीन लिया था। शायस्ता ख़ाँ को परास्त करने की योजनाएँ शिवाजी ने इस क़िले में रहते हुए ही बनाई थीं और 1664 ई. में सूरत की लूट की पश्चात् वे यहीं पर आकर रहने लगे थे। अपने पिता शाहूजी की मृत्यु के पश्चात् उनका अन्तिम संस्कार भी यहीं पर किया गया था।
युद्ध
1665 ई. में राजा जयसिंह की मध्यस्थता द्वारा शिवाजी ने औरंगज़ेब से सन्धि करके यह क़िला मुग़ल सम्राट को कुछ अन्य क़िलों के साथ दे दिया पर औरंगज़ेब की धूर्तता के कारण यह सन्धि अधिक न चल सकी और शिवाजी ने अपने सभी क़िलों को वापस ले लेने की योजना बनाई। उनकी माता जीजाबाई ने भी कोंडाणा के क़िले को ले लेने के लिए शिवाजी को बहुत उत्साहित किया। 1670 ई. में शिवाजी के बाल मित्र माबला सरदार तानाजी मालुसरे अंधेरी रात में 300 माबालियों को लेकर क़िले पर चढ़ गए और उन्होंने उसे मुग़लों से छीन लिया।
इस युद्ध में वे क़िले के संरक्षक उदयभानु राठौड़ के साथ लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुए। मराठा सैनिकों ने अलाव जलाकर शिवाजी को विजय की सूचना दी। शिवाजी ने यहाँ पर पहुँचकर इसी अवसर पर यह प्रसिद्ध शब्द कहे थे कि गढ़आला सिंह गेला अर्थात 'गढ़ तो मिला किन्तु सिंह (तानाजी) चला गया।' उसी दिन से 'गोंडाणा' का नाम सिंहगढ़ हो गया।
विजय का वर्णन
सिंहगढ़ की विजय का वर्णन कविवर भूषण ने इस प्रकार किया है:-
"साहितनै सिवसाहि निसा में निसंक लियो गढ़ सिंह सोहानी,
राठिवरों को संहार भयौ,
लरि के सरदार गिरयो उदैभानौ,
भूषन यों घमसान भौ भूतल घेरत लोथिन मानों मसानौ,
ऊँचे सुछज्ज छटा उचटी प्रगटी परभा परभात की मानों।"
इस छन्द में शिवाजी को सूचना देने के लिए ऊँचे स्थानों पर बनी फूस की झोपड़ियों में आग लगा कर प्रकाश करने का भी वर्णन है।
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