"गजानन माधव 'मुक्तिबोध'": अवतरणों में अंतर
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|जन्म= [[13 नवंबर]] [[1917]] | |जन्म= [[13 नवंबर]] [[1917]] | ||
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| | |अभिभावक=श्री माधव मुक्तिबोध (पिता) | ||
|पति/पत्नी=श्रीमती शांता मुक्तिबोध | |पति/पत्नी=श्रीमती शांता मुक्तिबोध | ||
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|कर्म-क्षेत्र= | |कर्म-क्षेत्र=कवि, लेखक, समीक्षक | ||
|मुख्य रचनाएँ=चाँद का मुँह टेढ़ा है, भूरी-भूरी | |मुख्य रचनाएँ='''कविता संग्रह'''- [[चाँद का मुँह टेढ़ा है -गजानन माधव मुक्तिबोध|चाँद का मुँह टेढ़ा है]], [[भूरी भूरी खाक धूल -गजानन माधव मुक्तिबोध|भूरी भूरी खाक धूल]] '''कहानी संग्रह'''- [[काठ का सपना -गजानन माधव मुक्तिबोध|काठ का सपना]], [[विपात्र -गजानन माधव मुक्तिबोध|विपात्र]], [[सतह से उठता आदमी -गजानन माधव मुक्तिबोध|सतह से उठता आदमी]] '''आलोचना'''- कामायनी : एक पुनर्विचार, नई कविता का आत्मसंघर्ष, नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र, समीक्षा की समस्याएँ, [[एक साहित्यिक की डायरी -गजानन माधव मुक्तिबोध|एक साहित्यिक की डायरी]] '''रचनावली'''- मुक्तिबोध रचनावली (6 खंडों में) | ||
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|भाषा=[[हिन्दी]] | |भाषा=[[हिन्दी]] | ||
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|शिक्षा= | |शिक्षा=एम. ए. | ||
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|अन्य जानकारी= | |अन्य जानकारी=[[हिन्दी साहित्य]] में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है। | ||
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गजानन माधव मुक्तिबोध (जन्म | | style="width:19em; float:right;"| | ||
<div style="border:thin solid #a7d7f9; margin:10px; padding:5px;"> | |||
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! गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनाएँ | |||
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<div style="height: 250px; overflow:auto; overflow-x: hidden; width:99%"> | |||
{{गजानन माधव मुक्तिबोध की रचनाएँ}} | |||
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'''गजानन माधव 'मुक्तिबोध'''' ([[अंग्रेज़ी]]: ''Gajanan Madhav Muktibodh'', जन्म: [[13 नवंबर]], [[1917]] - मृत्यु: [[11 सितंबर]], [[1964]]) की प्रसिद्धि प्रगतिशील [[कवि]] के रूप में है। मुक्तिबोध [[हिन्दी साहित्य]] की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व थे। हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है। <blockquote>मुक्तिबोध हिन्दी संसार की एक घटना बन गए। कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आँखें मूंद लेना असम्भव था। उनका एकनिष्ठ संघर्ष, उनकी अटूट सच्चाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावनाओं के केंद्रीय मंच पर सामने आए और सभी ने उनके कवि होने को नई दृष्टि से देखा। कैसा जीवन था वह और ऐसे उसका अंत क्यों हुआ। और वह समुचित ख्याति से अब तक वंचित क्यों रहा? यह तल्ख टिप्पणी [[शमशेर बहादुर सिंह]] की है जो उन्होंने बड़े बेबाक ढंग से हिंदी जगत् के साहित्यकारों की निस्संगता पर कही है।<ref name="फाल्गुन विश्व">{{cite web |url=http://falgun-vishwa.blogspot.in/2010/11/blog-post_1310.html |title=मुक्तिबोध की कविता- मध्यवर्गीय संघर्ष और विषमताओं की ताकत का आख्यान |accessmonthday= 23 दिसम्बर|accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=फाल्गुन विश्व |language=हिन्दी }}</ref></blockquote> | |||
==जन्म और शिक्षा== | ==जन्म और शिक्षा== | ||
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' का जन्म [[13 नवंबर]], [[1917]] को श्यौपुर ([[ग्वालियर]]) में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा [[उज्जैन]] में हुई। मुक्तिबोध जी के पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला प्रायः होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध जी की | गजानन माधव 'मुक्तिबोध' का जन्म [[13 नवंबर]], [[1917]] को श्यौपुर ([[ग्वालियर]]) में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा [[उज्जैन]] में हुई। मुक्तिबोध जी के पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला प्रायः होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध जी की पढ़ाई में बाधा पड़ती रहती थी। [[इन्दौर]] के होल्कर से सन् [[1938]] में बी.ए. करके उज्जैन के माडर्न स्कूल में अध्यापक हो गए।<ref name="sbd">{{cite web |url=http://www.hindikunj.com/2009/01/blog-post_28.html |title=हिन्दीकुंज |accessmonthday=[[12 नवंबर]] |accessyear=[[2010]] |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=हिन्दी कुँज |language=[[हिन्दी]]}}</ref> इनका एक सहपाठी था शान्ताराम, जो गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो गया था। गजानन उसी के साथ रात को शहर की घुमक्कड़ी को निकल जाते। बीड़ी का चस्का शायद तभी से लगा। | ||
==परिवार== | ==परिवार== | ||
इनके पिता माधव मुक्तिबोध भी बहुत शुस्ता फ़सीह उर्दू बोलते थे। ये कई स्थानों में थानेदार रह कर उज्जैन में इन्स्पैक्टर के पद से रिटायर हुए। मुक्तिबोध की माँ [[बुन्देलखण्ड]] की | इनके पिता माधव मुक्तिबोध भी बहुत शुस्ता फ़सीह [[उर्दू]] बोलते थे। ये कई स्थानों में थानेदार रह कर [[उज्जैन]] में इन्स्पैक्टर के पद से रिटायर हुए। मुक्तिबोध की माँ [[बुन्देलखण्ड]] की थीं, ईसागढ़ के एक किसान परिवार की। गजानन चार भाई हैं। इनसे छोटे शरतचन्द्र मराठी के प्रतिष्ठित कवि हैं। पारिवारिक असहमति और विरोध के बावजूद [[1939]] में शांता के साथ प्रेम-विवाह किया।[[चित्र:Gajanan-Madhav-Muktibodh-statue.jpg|thumb|left|'मुक्तिबोध' प्रतिमा]] | ||
==आरंभिक जीवन== | |||
== | मुक्तिबोध जी ने छोटी आयु में बडनगर के मिडिल स्कूल में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। सन् [[1940]] में मुक्तिबोध शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में अध्यापक हो गए। इसके बाद [[उज्जैन]], [[कलकत्ता]], [[इंदौर]], [[बम्बई]], [[बंगलौर]], [[बनारस]] तथा [[जबलपुर]] आदि जगहों पर नौकरी की। सन् [[1942]] के आंदोलन में जब यह शारदा शिक्षा सदन बंद हो गया, तो यह शीराज़ा बिखर गया। मुक्तिबोध उज्जैन चले गये। भिन्न-भिन्न नौकरियाँ कीं- मास्टरी से [[वायुसेना]], [[पत्रकारिता]] से पार्टी तक। [[नागपुर]] [[1948]] में आये। सूचना तथा प्रकाशन विभाग, [[आकाशवाणी]] एवं 'नया ख़ून' में काम किया। अंत में कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी। अंतत: [[1958]] से दिग्विजय महाविद्यालय, राजनाँदगाँव में प्राध्यापक हुए। उन्होंने लिखा है कि:- | ||
मुक्तिबोध जी ने छोटी आयु में | <poem>नौकरियाँ पकड़ता और छोड़ता रहा। | ||
[[कलकत्ता]], [[इंदौर]], [[बम्बई]], [[बंगलौर]], [[बनारस]] तथा [[जबलपुर]] आदि जगहों पर | शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और ग़ैर सरकारी नौकरियाँ। | ||
<poem> | |||
शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और | |||
निम्न-मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवादारू, जन्म-मौत में उलझा रहा।</poem> | निम्न-मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवादारू, जन्म-मौत में उलझा रहा।</poem> | ||
====सहपाठी मित्र==== | |||
गजानन के सहपाठी मित्रों में रोमानी कल्पना के कवि वीरेन्द्र कुमार जैन और प्रभागचन्द्र शर्मा, अनन्तर 'कर्मवीर' में सहकारी सम्पादक और उस समय के एक अच्छे, योग्य कवि थे। कविता की ओर रमाशंकर शुक्ल 'हृदय' ने गजानन को काफ़ी प्रोत्साहित किया था। 'कर्मवीर' में उन की कविताएँ छप रही थीं। [[माखन लाल चतुर्वेदी|माखनलाल]] और [[महादेवी वर्मा|महादेवी]] की रहस्यात्मक शैली मालवा के तरुण हृदयों को आकृष्ट किये हुए थी, मगर मुक्तिबोध दॉस्तॉयवस्की, फ़्लाबेअर और गोर्की में भी कम खोये हुए नहीं रहते थे।[[चित्र:Muktibodh-with-wife.jpg|thumb|left|मुक्तिबोध अपनी पत्नी श्रीमती शांता के साथ]] | |||
== | ==पत्रिका सम्पादन== | ||
[[आगरा]] से नेमिचन्द्र जैन शुजालपुर पहुँच गए थे। [[प्रभाकर माचवे]] भी अक्सर आ जाते। 'तार-सप्तक' की मूल परिकल्पना भी यहीं बनी। सन् [[1943]] में [[अज्ञेय]] के सम्पादन में 'तार-सप्तक' का प्रकाशन हुआ। जिसकी शुरुआत मुक्तिबोध की कविताओं से होती है। [[उज्जैन]] से सन् [[1945]] के लगभग मुक्तिबोध [[बनारस]] गये और [[त्रिलोचन शास्त्री]] के साथ 'हंस' के सम्पादन में शामिल हुए। वहाँ सम्पादन से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे; साठ रुपये वेतन था। उनका [[काशी]] प्रवास बहुत सुखद नहीं रहा। भारतभूषण अग्रवाल और नेमिचन्द्र जैन ने उन्हें [[कलकत्ता]] बुलाया। पर अध्यापकी या सम्पादकी का कहीं कोई डौल नहीं जमा। हार कर मुक्तिबोध सन् [[1946]]-[[1947]] में [[जबलपुर]] चले गये। वहाँ 'हितकारिणी हाई स्कूल' में वह अध्यापक हो गये। और फिर [[नागपुर]] जा निकले। नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था, किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर। 'नया ख़ून' साप्ताहिक में वे नियमित रूप से लिखते रहे। साम्प्रदायिक दंगे ज़ोरों से शुरू हो गये थे। उस ज़माने में वह दैनिक 'जय-हिन्द' में भी कुछ काम करते थे। रात की ड्यूटी दे कर कर्फ़्यू के सन्नाटे में वह घर लौटते। | |||
[[आगरा]] से नेमिचन्द्र जैन शुजालपुर पहुँच गए थे। प्रभाकर माचवे भी अक्सर आ जाते। 'तार-सप्तक' की मूल परिकल्पना भी यहीं बनी। सन् [[1943]] में अज्ञेय के सम्पादन में 'तार-सप्तक' का प्रकाशन हुआ। जिसकी शुरुआत मुक्तिबोध की कविताओं से होती है। उज्जैन से सन् 1945 के लगभग मुक्तिबोध बनारस गये और त्रिलोचन शास्त्री के साथ 'हंस' के सम्पादन में शामिल हुए। वहाँ सम्पादन से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे; साठ रुपये वेतन था। उनका काशी प्रवास बहुत सुखद नहीं रहा। भारतभूषण अग्रवाल और नेमिचन्द्र जैन ने उन्हें कलकत्ता बुलाया। पर अध्यापकी या सम्पादकी का कहीं कोई डौल नहीं जमा। हार कर मुक्तिबोध सन् [[1946]]-[[1947]] में जबलपुर चले गये। वहाँ हितकारिणी हाई स्कूल में वह अध्यापक हो गये। और फिर [[नागपुर]] जा निकले। नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था, किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर। 'नया ख़ून' साप्ताहिक में वे नियमित रूप से लिखते रहे। साम्प्रदायिक दंगे ज़ोरों से शुरू हो गये थे। उस ज़माने में वह दैनिक 'जय-हिन्द' में भी कुछ काम करते थे। रात की ड्यूटी दे कर कर्फ़्यू के सन्नाटे में वह घर लौटते। | |||
====तार-सप्तक==== | ====तार-सप्तक==== | ||
शुजालपुर और उज्जैन ने सबसे मूल्यांकन चीज़ जो हिन्दी को दी वह 'तार-सप्तक' है। इसकी मूल परिकल्पना प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन की थी। नाम 'तार-सप्तक' प्रभाकर माचवे का सुझाया हुआ था। भारतभूषण अग्रवाल तब नेमि जी के बड़े गहरे मित्र थे। अत: उनका सम्पर्क भी शुजालपुर और मुक्तिबोध से हो गया। आरम्भ में प्रभागचन्द्र शर्मा और वीरेन्द्र कुमार जैन भी इस सप्तक-योजना के स्वर थे। अज्ञेय जी से सम्पर्क बढ़ने पर योजना को कार्य रूप में सम्पन्न करने के लिए उसमें सम्पादन का भार उन पर डाल दिया गया। | शुजालपुर और उज्जैन ने सबसे मूल्यांकन चीज़ जो [[हिन्दी]] को दी वह 'तार-सप्तक' है। इसकी मूल परिकल्पना प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन की थी। नाम 'तार-सप्तक' [[प्रभाकर माचवे]] का सुझाया हुआ था। भारतभूषण अग्रवाल तब नेमि जी के बड़े गहरे मित्र थे। अत: उनका सम्पर्क भी शुजालपुर और मुक्तिबोध से हो गया। आरम्भ में प्रभागचन्द्र शर्मा और वीरेन्द्र कुमार जैन भी इस सप्तक-योजना के स्वर थे। [[अज्ञेय]] जी से सम्पर्क बढ़ने पर योजना को कार्य रूप में सम्पन्न करने के लिए उसमें सम्पादन का भार उन पर डाल दिया गया। नेमिचन्द्र और भारतभूषण जब [[कलकत्ता]] (अब [[कोलकाता]]) में थे, योजना ने अन्तिम रूप ले लिया। अज्ञेय भी ने डॉ. [[रामविलास शर्मा]] और [[गिरिजाकुमार माथुर]] के नाम सुझाये। सात की सीमा निश्चित होने के कारण नामावली में परिवर्तन अनिवार्य था। [[1943]] में जब यह ऐतिहासिक संग्रह प्रकाशित हुआ, उसने एक लम्बे विवाद को जन्म दिया, जो किसी न किसी संदर्भ या अर्थ में अब भी जारी है। उस संग्रह में मुक्तिबोध का योग उस समय सब से प्रोढ़ चाहे न हो, मगर शायद सबसे मौलिक था। दुरूह होते हुए बौद्धिक, बौद्धिक होते हुए भी रोमानी।<br /> | ||
[[चित्र:Gajanan-muktibodh-manuscript.jpg|thumb|left|मुक्तिबोध द्वारा हस्तलिखित कविता]] | |||
बीसवीं सदी की [[हिंदी]] कविता का सबसे बेचैन, सबसे तड़पता हुआ और सबसे ईमानदार स्वर है गजानन माधव मुक्तिबोध। मुक्तिबोध की कविता जटिल है। भगवान सिंह ने उनकी कविता की जटिलता का बयान इस तरह किया है, ‘वे सरस नहीं हैं, सुखद नहीं हैं। वे हमें झकझोर देती हैं, गुदगुदाती नहीं। वे मात्र अर्थग्रहण की मांग नहीं करतीं, आचरण की भी मांग करती हैं। तारसप्तक में मुक्तिबोध ने स्वयं कहा है, ‘मेरी कविताएँ अपना पथ खोजते बेचैन मन की अभिव्यक्ति हैं। उनका सत्य और मूल्य उसी जीव-स्थिति में छिपा है।<ref name="फाल्गुन विश्व"/>{{दाँयाबक्सा|पाठ="नई कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है, जो छायावाद में [[सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'|निराला]] की थी। निराला के समान ही मुक्तिबोध ने भी अपनी युग के सामान्य काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा की चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन हो सका।"|विचारक=[[नामवर सिंह]]}} | |||
==लेखक संघ== | ==लेखक संघ== | ||
[[उज्जैन]] में मुक्तिबोध ने मध्य भारत प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली। इसकी विशिष्ट सभाओं में भाग लेने के लिए वह बाहर से [[रामविलास शर्मा|डॉ. रामविलास शर्मा]], [[अमृतराय]] आदि साहित्यिक विचारकों को बुलाते थे। उन्होंने सन् [[1944]] के अन्त में [[इन्दौर]] में फ़ासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन का आयोजन किया, जो [[राहुल सांकृत्यायन|राहुल जी]] की अध्यक्षता में हुई। लेखकों के दायित्व पर मुक्तिबोध ने स्वयं भी एक निबन्ध उस पर पढ़ा था। मुक्तिबोध नवोदित प्रतिभावों का निरन्तर उत्साह बढ़ाते रहते और उन्हें आगे लाते। हरिनारायण व्यास, श्याम परमार, जगदीश वोरा आदि उन के प्रभाव में थे। मुक्तिबोध ने मज़दूरों से वास्तविक सम्पर्क स्थापित किया और उनसे घुलमिल कर रहे। अक्सर कष्ट में पड़े साथियों और साहित्यिक बन्धुओं के लिए दौड़-धूप करते। मसलन 'नटवर' जी के लिए उन की दौड़-धूप की, बात चलती है तो, लोग याद करते हैं। | |||
उज्जैन में मुक्तिबोध ने मध्य भारत प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली। इसकी विशिष्ट सभाओं में भाग लेने के लिए वह बाहर से डॉ. रामविलास शर्मा, [[अमृतराय]] आदि साहित्यिक विचारकों को बुलाते थे। उन्होंने सन् 1944 के अन्त में इन्दौर में फ़ासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन का आयोजन किया, जो राहुल जी की अध्यक्षता में हुई। लेखकों के दायित्व पर मुक्तिबोध ने स्वयं भी एक निबन्ध उस पर पढ़ा था। | ==प्रगतिशील कवि== | ||
[[चित्र:Gajanan-muktibodh-gallery.jpg|thumb|मुक्तिबोध स्मारक]] | |||
मुक्तिबोध नवोदित प्रतिभावों का निरन्तर उत्साह बढ़ाते रहते और उन्हें आगे लाते। हरिनारायण व्यास, श्याम परमार, जगदीश वोरा आदि उन के प्रभाव में थे। मुक्तिबोध ने | मुक्तिबोध मूलत: [[कवि]] हैं। उनकी आलोचना उनके कवि व्यक्तित्व से ही नि:सृत और परिभाषित है। वही उसकी शक्ति और सीमा है। उन्होंने एक ओर प्रगतिवाद के कठमुल्लेपन को उभार कर सामने रखा, तो दूसरी ओर नयी कविता की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों का पर्दाफ़ाश किया। यहाँ उनकी आलोचना दृष्टि का पैनापन और मौलिकता असन्दिग्ध है। उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा में तेजस्विता है। [[जयशंकर प्रसाद]], [[शमशेर बहादुर सिंह|शमशेर]], [[कुँवर नारायण]] जैसे कवियों की उन्होंने जो आलोचना की है, उसमें पर्याप्त विचारोत्तेजकता है और विरोधी दृष्टि रखने वाले भी उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। काव्य की सृजन प्रक्रिया पर उनका निबन्ध महत्त्वपूर्ण है। ख़ासकर फैण्टेसी का जैसा विवेचन उन्होंने किया है, वह अत्यन्त गहन और तात्विक है। उन्होंने नयी कविता का अपना शास्त्र ही गढ़ डाला है। पर वे निरे शास्त्रीय आलोचक नहीं हैं। उनकी कविता की ही तरह उनकी आलोचना में भी वही चरमता है, ईमान और अनुभव की वही पारदर्शिता है, जो प्रथम श्रेणी के लेखकों में पाई जाती है। उन्होंने अपनी आलोचना द्वारा ऐसे अनेक तथ्यों को उद्घाटित किया है, जिन पर साधारणत: ध्यान नहीं दिया जाता रहा। 'जड़ीभूत सौन्दर्याभरुचि' तथा 'व्यक्ति के अन्त:करण के संस्कार में उसके परिवार का योगदान' उदाहरण के रूप में गिनाए जा सकते हैं। [[नामवर सिंह|डॉ. नामवर सिंह जी]] के शब्दों में - "नई कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है ,जो छायावाद में निराला की थी। निराला के समान ही मुक्तिबोध ने भी अपनी युग के सामान्य काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा की चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन हो सका।" | ||
==कृतियाँ== | ==कृतियाँ== | ||
सन् [[1954]] में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया, जिसके फलस्वरूप | [[चित्र:Muktibodh2.gif|thumb|मुक्तिबोध]] | ||
* | मुक्तिबोध [[हिंदी]] के अतिविशिष्ट रचनाकार हैं। उन्हें उम्र ज़रूर कम मिली, पर [[कविता]], [[कहानी]] और [[आलोचना (साहित्य)|आलोचना]] में उन्होंने युग बदल देने वाला काम किया। पहली बार वह व्यवस्थित रूप में ‘[[अज्ञेय, सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन|अज्ञेय]]’ द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ में अपनी कविताओं के साथ उपस्थित हुए। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था कि उनके जीवनकाल में उनकी कविता की कोई किताब नहीं प्रकाशित हो पाई। उनके जीवित रहते उनकी सिर्फ़ एक किताब छपी, यह थी ‘[[एक साहित्यिक की डायरी -गजानन माधव मुक्तिबोध|एक साहित्यिक की डायरी]]।’ इसके बावज़ूद बाद में वे ऐसे विलक्षण रचनाकार साबित हुए जिनके लिखे की गूँज परवर्ती कविता, विचार, आलोचना या कहानी सबमें बढ़ती ही चली गई। सन् [[1954]] में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से [[हिन्दी]] में एम. ए. किया, जिसके फलस्वरूप राजनाँदगाँव के दिग्विजय कॉलेज में नियुक्त हुए। उनकी कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृतियाँ यहीं लिखी गईं। उनकी कृतियों के नाम इस प्रकार है:-<ref>{{cite web |url=http://www.hindisamay.com/writer/%E0%A4%97%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%B5-%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%A7.cspx?id=1205&name=%E0%A4%97%E0%A4%9C%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A4%A8-%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A7%E0%A4%B5-%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%A7 |title=गजानन माधव मुक्तिबोध |accessmonthday=26 अक्टूबर |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=हिन्दी समय |language=हिंदी }}</ref> | ||
* | {| class="bharattable-pink" | ||
* | |-valign="top" | ||
* | ! कहानी | ||
* | ! colspan="2"| कविताएँ | ||
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== | | | ||
मुक्तिबोध | * [[अँधेरे में (कहानी) -गजानन माधव मुक्तिबोध|अँधेरे में]] | ||
* [[क्लॉड ईथरली -गजानन माधव मुक्तिबोध|क्लॉड ईथरली]] | |||
* [[काठ का सपना (कहानी) -गजानन माधव मुक्तिबोध|काठ का सपना]] | |||
== | * [[जंक्शन -गजानन माधव मुक्तिबोध|जंक्शन ]] | ||
* [[पक्षी और दीमक -गजानन माधव मुक्तिबोध|पक्षी और दीमक]] | |||
* [[प्रश्न -गजानन माधव मुक्तिबोध|प्रश्न]] | |||
* [[ब्रह्मराक्षस का शिष्य -गजानन माधव मुक्तिबोध|ब्रह्मराक्षस का शिष्य]] | |||
* [[लेखन -गजानन माधव मुक्तिबोध|लेखन]] | |||
* [[विपात्र (कहानी) -गजानन माधव मुक्तिबोध|विपात्र]] | |||
* [[सौंदर्य के उपासक -गजानन माधव मुक्तिबोध|सौन्दर्य के उपासक]] | |||
| | |||
* [[अँधेरे में (कविता) -गजानन माधव मुक्तिबोध|अँधेरे में]] | |||
* [[एक अंत:कथा -गजानन माधव मुक्तिबोध|एक अंतःकथा]] | |||
* [[एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन -गजानन माधव मुक्तिबोध|एक भूतपूर्व विद्रोही का आत्म-कथन]] | |||
* [[एक स्वप्न कथा -गजानन माधव मुक्तिबोध|एक स्वप्न कथा]] | |||
* [[चाँद का मुँह टेढ़ा है (कविता) -गजानन माधव मुक्तिबोध|चाँद का मुँह टेढ़ा है]] | |||
* [[जब प्रश्न चिह्न बौखला उठे -गजानन माधव मुक्तिबोध|जब प्रश्न चिह्न बौखला उठे]] | |||
* [[दिमागी गुहांधकार का औरांग उटांग -गजानन माधव मुक्तिबोध|दिमागी गुहांधकार का औरांग उटांग]] | |||
* [[ब्रह्मराक्षस -गजानन माधव मुक्तिबोध|ब्रह्मराक्षस]] | |||
== | * [[भूल-ग़लती -गजानन माधव मुक्तिबोध|भूल-ग़लती]] | ||
* [[मैं उनका ही होता -गजानन माधव मुक्तिबोध|मैं उनका ही होता]] | |||
| | |||
* [[मैं तुम लोगों से दूर हूँ -गजानन माधव मुक्तिबोध|मैं तुम लोगों से दूर हूँ]] | |||
* [[मुझे क़दम-क़दम पर -गजानन माधव मुक्तिबोध|मुझे क़दम-क़दम पर]] | |||
* [[मुझे पुकारती हुई पुकार -गजानन माधव मुक्तिबोध|मुझे पुकारती हुई पुकार]] | |||
* [[मुझे मालूम नहीं -गजानन माधव मुक्तिबोध|मुझे मालूम नहीं]] | |||
* [[मुझे याद आते हैं -गजानन माधव मुक्तिबोध|मुझे याद आते हैं]] | |||
* [[मेरे लोग -गजानन माधव मुक्तिबोध|मेरे लोग]] | |||
* [[शून्य -गजानन माधव मुक्तिबोध|शून्य]] | |||
* [[जब दुपहरी ज़िंदगी पर -गजानन माधव मुक्तिबोध|जब दुपहरी ज़िंदगी पर (अप्रकाशित कविता)]] | |||
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|+ गजानन माधव 'मुक्तिबोध' की पुस्तकें | |||
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[[चित्र:Ek-Sahityik-Ki-Diary.jpg|x150px|border|एक साहित्यिक की डायरी|link=एक साहित्यिक की डायरी -गजानन माधव मुक्तिबोध]] | |||
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[[चित्र:Kath-Ka-Sapna.jpg|x150px|border|काठ का सपना|link=काठ का सपना -गजानन माधव मुक्तिबोध]] | |||
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[[चित्र:Chaand-Ka-Munh-Terha-Hai.jpg|x150px|border|चाँद का मुँह टेढ़ा है|link=चाँद का मुँह टेढ़ा है -गजानन माधव मुक्तिबोध]] | |||
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[[चित्र:Bhuri-Bhuri-Khak-Dhool.jpg|x150px|border|भूरी भूरी खाक धूल|link=भूरी भूरी खाक धूल -गजानन माधव मुक्तिबोध]] | |||
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[[चित्र:Vipatra.jpg|x150px|border|विपात्र|link=विपात्र -गजानन माधव मुक्तिबोध]] | |||
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[[चित्र:Satah-se-Uthta-Aadmi.jpg|x150px|border|सतह से उठता आदमी|link=सतह से उठता आदमी -गजानन माधव मुक्तिबोध]] | |||
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==साहित्यिक परिचय== | |||
[[चित्र:Gajanan-muktibodh-monument-2.jpg|thumb|मुक्तिबोध स्मारक]] | |||
मुक्तिबोध को अपने जीवन काल में न तो बहुत पहचान मिली और न ही उनका कोई भी कविता संग्रह प्रकाशित हो सका। लेकिन उनकी असमय मृत्यु के बाद अचानक ही मुक्तिबोध [[हिंदी साहित्य]] के परिदृश्य पर छा गये। सबसे पहले उनकी कवितायें [[अज्ञेय, सच्चिदानंद हीरानन्द वात्स्यायन|अज्ञेय]] द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ ([[1943]]) में प्रकाशित हुई थीं। मुक्तिबोध ने [[कहानी]], [[कविता]], [[उपन्यास]], [[आलोचना (साहित्य)|आलोचना]] आदि विधाओं में लिखा और हर क्षेत्र में उनका हस्तक्षेप अलग से महसूस किया जा सकता है। उन्हें प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता आदि साहित्यिक आंदोलनों के साथ जोड़कर देखा जाता है। ‘[[अँधेरे में (कविता) -गजानन माधव मुक्तिबोध|अँधेरे में]]’ और ‘[[ब्रह्मराक्षस -गजानन माधव मुक्तिबोध|ब्रह्मराक्षस]]’ मुक्तिबोध की सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचनायें मानी जाती हैं। ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता में कवि ने ‘ब्रह्मराक्षस’ के मिथक के जरिये बुद्धिजीवी वर्ग के द्वंद्व और आम जनता से उसके अलगाव की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया है। इस कविता के संदेश को यदि एक पंक्ति में व्यक्त करना हो तो कहा जा सकता है कि ‘अच्छे व बुरे के संघर्ष से भी उग्रतर / अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर’। लगभग इन्हीं आशयों की कहानी ‘[[ब्रह्मराक्षस का शिष्य -गजानन माधव मुक्तिबोध|ब्रह्मराक्षस का शिष्य]]’ भी उन्होंने लिखी।<br /> | |||
कहा जा सकता है कि ये कविताएँ निराला की संवेदनशीलता और [[कबीर]] के अक्खड़पन का अद्भुत सम्मिश्रण हैं। मुक्तिबोध की रचनाएँ सृजन का विस्फोट हैं। वे सजग चित्रकार की भाँति दुनिया का सुंदरतम उकेरना चाहते हैं। वे चाहते हैं उजली-उजली इबारत, मगर अंधेरे बार-बार उनकी राह रोक लेते हैं। अंधेरे के चक्रव्यूह में घिरे वे अभिमन्यू की तरह अकेले ही जूझते हैं, अनवरत लगातार। यह युद्ध कभी खत्म नहीं होता, चलता ही रहता है उनके भीतर। वे लड़ते हैं आजीवन क्योंकि उन्हें लगता है कि उन जैसों के हाथ में सच की विरासत है, जिसे उन्हें आने वाले समय को, पीढ़ी को ज्यों का त्यों सौंपना है। | |||
{{दाँयाबक्सा|पाठ=मुक्तिबोध हिन्दी संसार की एक घटना बन गए। कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आँखें मूंद लेना असम्भव था। उनका एकनिष्ठ संघर्ष, उनकी अटूट सच्चाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावनाओं के केंद्रीय मंच पर सामने आए और सभी ने उनके कवि होने को नई दृष्टि से देखा। कैसा जीवन था वह और ऐसे उसका अंत क्यों हुआ। और वह समुचित ख्याति से अब तक वंचित क्यों रहा?|विचारक=[[शमशेर बहादुर सिंह]]}} | |||
<poem> | |||
‘वे आते होंगे लोग.... | |||
अरे जिनके हाथों में तुम्हें सौंपने ही होंगे | |||
ये मौन उपेक्षित रत्न | |||
मात्र तब तक | |||
केवल तब तक | |||
तुम छिपा चलो धुरिमान उन्हें तम गुहा तले | |||
ओ संवेदन मय ज्ञान नाग | |||
कुन्डली मार तुम दबा रखो | |||
फूटती रश्मियाँ।‘ | |||
'वे आते ही होंए लो | |||
जिन्हें तुम दोगे देना ही होगा पूरा हिसाब | |||
अपना सबका, मन का, जन का'<ref name="फाल्गुन विश्व"/></poem> | |||
====अँधेरे में==== | |||
{{Main|अँधेरे में (कविता) -गजानन माधव मुक्तिबोध}} | |||
‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की अंतिम कविता है और शायद सबसे महत्वपूर्ण भी। इस कविता में सत्ता और बौद्धक वर्ग के बीच गठजोड़, उनके बेनकाब होने, सत्ता द्वारा लोगों पर दमन, पुराने के ध्वंस पर नये के सृजन, इतिहास के बारे में नयी अंतर्दृष्टि आदि देखने को मिलती है। ‘अँधेरे में’ स्वतंत्रता के बाद के [[भारत]] के दो दशकों का अख्यान नहीं है, उसमें हमारा संपूर्ण अतीत मुखरित होता सुना जा सकता है। शायद यही वजह है कि मुक्तिबोध को ‘सभ्यता समीक्षा’ शब्द बहुत प्रिय है। वे वर्तमान की घटनाओं को महज़ एक असंबद्ध घटना की तरह नहीं बल्कि उसके पीछे की पूरी कार्यकारण श्रृंखला के बतौर समझने की कोशिश करते हैं। जब वे इस प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं, तो उनकी कवितायें लंबी होती चली जाती है। उन्होंने खुद भी लिखा है कि उनकी जो भी कवितायें छोटी हैं, वे छोटी नहीं बल्कि अधूरी हैं। | |||
==गद्य लेखन== | |||
[[चित्र:Muktibodh-Rachanawali.jpg|thumb|left|मुक्तिबोध रचनावली]] | |||
मुक्तिबोध ने कविताओं के अलावा कहानियां भी लिखीं। उनकी कहानियां भी कविताओं का ही विस्तार और कई बार उनका पूर्वाभ्यास लगती हैं। कहानियों में भी वही जटिलता और संश्लिष्ट बिंबों वाली भाषा मौजूद है, जो उनकी कविताओं की विशिष्टता है। मुक्तिबोध ने [[हिंदी]] आलोचना में भी महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ पुस्तक के जरिये कामायनी पर चली आ रही तमाम बहसों को एक नये स्तर तक उठा दिया। उन्होंने [[कामायनी]] को एक विशाल फैंटेसी के रूप में पढ़ने की कोशिश की, जिसमें ढहते हुए सामंती मूल्यों की छाया स्पष्ट देखी जा सकती है। [[रामधारी सिंह दिनकर]] की पुस्तक ‘[[उर्वशी -रामधारी सिंह दिनकर|उर्वशी]]’ पर चली बहस में उनका हस्तक्षेप बहुत कारगर था, जिसमें उन्होंने ‘उर्वशी’ को व्यर्थ में महिमामंडित करने का तीखा प्रतिवाद किया। मुक्तिबोध ने [[भक्ति आंदोलन]] का भी नये सिरे से मूल्यांकन किया और स्थापित किया कि यह मूलत: निचली जातियों का शोषक जातियों के ख़िलाफ़ विद्रोह था। बाद में शोषक जातियों ने इस आंदोलन पर नियंत्रण हासिल कर लिया और भक्ति आंदोलन पूरी तरह बिखर गया। उन्होंने साहित्य की रचना प्रक्रिया के बारे में भी महत्वपूर्ण लेखन किया। रचना-प्रक्रिया के संदर्भ में ‘कला का तीसरा क्षण’ [[हिन्दी साहित्य]] की बड़ी उपलब्धि है।<ref name="sahapedia">{{cite web |url=http://sahapedia.org/%E0%A4%AE%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%A4%E0%A4%BF%E0%A4%AC%E0%A5%8B%E0%A4%A7/ |title=मुक्तिबोध |accessmonthday=27 अक्टूबर |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format= |publisher=सहपीडिया |language=हिंदी }} </ref> | |||
==गोत्रहीन कवि== | |||
मुक्तिबोध गोत्रहीन कवि हैं। [[हिन्दी]] में उनका कोई पूर्वज नहीं खोजा जा सकता। असल में उनके पूर्वज तोल्सतोय, दोस्तोवस्की, [[गोर्की]] इत्यादि रूसी उपन्यासकार थे। ऐसा कोई कवि पहले नहीं हुआ जिसकी प्रेरणा [[कविता]] के अलावा [[उपन्यास|उपन्यासों]] से आई हो। मुक्तिबोध के बाद भी किसी ने उस तरह के शिल्प में उतनी कविता लिखने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि उन जैसा लिखना वैसे भी संभव नहीं था। इस तरह अपने समय के अंधेरे को पहचानने की चेष्टा करना, अपने समय के अंधेरे को टटोलना और उस अंधेरे में अपनी हिस्सेदारी, अपनी शिरकत को, आत्म-निर्ममता को स्वीकार करना, मुक्तिबोध से सीखा जा सकता है। बीसवीं सदी के महान् भारतीय लेखकों में मुक्तिबोध का नाम हमेशा रहेगा।<ref>{{cite web |url=http://www.bbc.co.uk/hindi/india/2014/09/140911_muktibodh_ashok_vajpeyi_rns |title= मुक्तिबोधः 'एक गोत्रहीन कवि'|accessmonthday=25 दिसम्बर |accessyear=2014 |last=वाजपेयी |first=अशोक |authorlink= |format= |publisher=बीबीसी हिन्दी |language=हिन्दी }}</ref> | |||
==निधन== | ==निधन== | ||
[[चित्र:Gajanan-muktibodh-monument.jpg|thumb|मुक्तिबोध स्मारक]] | |||
मुक्तिबोध की रुचि अध्ययन-अध्यापन, [[पत्रकारिता]], समसामयिक राजनीतिक एवं साहित्य के विषयों पर लेखन में थी। [[1942]] के आसपास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके और शुजालपुर में रहते हुए उनकी वामपंथी चेतना मजबूत हुई। आजीवन ग़रीबी से लड़ते हुए और रोगों का मुकाबला करते हुए [[11 सितम्बर]], [[1964]] को [[नई दिल्ली]] में मुक्तिबोध की मृत्यु हो गयी। | |||
==मुक्तिबोध स्मारक== | |||
11 सितंबर, 1964 को अपनी मृत्य से पहले तक मुक्तिबोध अपने निवास स्थान पर रहे जिसे अब मुक्तिबोध स्मारक बना दिया गया है। मुक्तिबोध स्मारक में स्थित उनका एक तैलचित्र भी मौजूद है। यहाँ से रानीसागर का नज़ारा दिखता है। मुक्तिबोध स्मारक में स्थित चक्करदार सीढ़ियां भी हैं, जिनके बिंब उनकी कविताओं में कई बार आए हैं।<ref>{{cite web |url=http://www.amarujala.com/photo-gallery/samachar/national/gajanan-muktibodh-gallery/ |title=गजानन माधव मुक्तिबोध जहां रहते थे...|accessmonthday=26 अक्टूबर |accessyear=2014 |last= |first= |authorlink= |format=एच.टी.एम.एल |publisher=अमर उजाला |language=[[हिन्दी]]}}</ref>कुछ विद्वान् मुक्तिबोध को मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित बताते हैं, तो कुछ उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताते हैं। [[रामविलास शर्मा|डॉ. रामविलास शर्मा]] ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताते हुए उनकी कविताओं को खारिज किया है, लेकिन मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन के छिन्न-भिन्न होने के बाद भी प्रगतिशील मूल्यों पर खड़े रहे। आधुनिकतावाद और व्यक्तिवाद के जरिये समाज की चिंता को साहित्य से परे धकेलने की कोशिशों का उन्होंने विरोध किया। मुक्तिबोध के बाद के कवियों पर उनका व्यापक असर है। अनेक विश्वविद्यालयों में मुक्तिबोध की कविताओं व आलोचना पर शोध कार्य हुए हैं और हो रहे हैं। निर्देशक [[मणि कौल]] ने उनकी कहानी ‘सहत से उठता आदमी’ पर एक फ़िल्म का निर्माण किया। [[2004]] में मुक्तिबोध, [[पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी]] और बलदेव मिश्र की स्मृति में राजनांदगांव में एक स्मारक का निर्माण किया गया।<ref name="sahapedia"/> | |||
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==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ==टीका टिप्पणी और संदर्भ== | ||
<references/> | <references/> | ||
==बाहरी कड़ियाँ== | ==बाहरी कड़ियाँ== | ||
*[http://www.hindikunj.com/2010/04/muktibodh-poems.html नाश देवता - गजानन माधव "मुक्तिबोध"] | *[http://www.hindikunj.com/2010/04/muktibodh-poems.html नाश देवता - गजानन माधव "मुक्तिबोध"] | ||
*[http://www.brandbihar.com/hindi/literature/kavya/gajananmadhav_muktibodh.html गजानन माधव मुक्तिबोध-कविता] | *[http://www.brandbihar.com/hindi/literature/kavya/gajananmadhav_muktibodh.html गजानन माधव मुक्तिबोध-कविता] | ||
*[http://anahadnaad.wordpress.com/2009/11/16/muktibodh-andhere-mein-1/ अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध] | *[http://anahadnaad.wordpress.com/2009/11/16/muktibodh-andhere-mein-1/ अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध] | ||
*[http:// | *[http://www.hindikunj.com/2010/05/mahendra-bhatnagar_21.html#.VEz1KmcqIhB मुक्तिबोध की याद (2) - महेंद्र भटनागर ] | ||
*[http://www.deshkaal.com/details.aspx?nid=1511200919583927 मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद का अतिक्रमण किया है] | |||
*[http://www.livehindustan.com/news/desh/mustread/article1-gajanan-madhav-muktibodh-ashok-vajpayee-andhere-mein-writer-muktibodh-smiriti-332-332-449627.html मुक्तिबोध स्मृति-1 : एक दोपहर ‘अंधेरे में’] | |||
*[http://raj-bhasha-hindi.blogspot.in/2011/11/7.html मुक्तिबोध की कविताएं] | |||
*[http://falgun-vishwa.blogspot.in/2010/11/blog-post_1310.html मुक्तिबोध की कविता- मध्यवर्गीय संघर्ष और विषमताओं की ताकत का आख्यान] | |||
==संबंधित लेख== | ==संबंधित लेख== | ||
{{भारत के कवि}} | {{गजानन माधव मुक्तिबोध की कृतियाँ}}{{भारत के कवि}} | ||
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14:28, 6 जुलाई 2017 के समय का अवतरण
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गजानन माधव 'मुक्तिबोध' (अंग्रेज़ी: Gajanan Madhav Muktibodh, जन्म: 13 नवंबर, 1917 - मृत्यु: 11 सितंबर, 1964) की प्रसिद्धि प्रगतिशील कवि के रूप में है। मुक्तिबोध हिन्दी साहित्य की स्वातंत्र्योत्तर प्रगतिशील काव्यधारा के शीर्ष व्यक्तित्व थे। हिन्दी साहित्य में सर्वाधिक चर्चा के केन्द्र में रहने वाले मुक्तिबोध कहानीकार भी थे और समीक्षक भी। उन्हें प्रगतिशील कविता और नयी कविता के बीच का एक सेतु भी माना जाता है।
मुक्तिबोध हिन्दी संसार की एक घटना बन गए। कुछ ऐसी घटना जिसकी ओर से आँखें मूंद लेना असम्भव था। उनका एकनिष्ठ संघर्ष, उनकी अटूट सच्चाई, उनका पूरा जीवन, सभी एक साथ हमारी भावनाओं के केंद्रीय मंच पर सामने आए और सभी ने उनके कवि होने को नई दृष्टि से देखा। कैसा जीवन था वह और ऐसे उसका अंत क्यों हुआ। और वह समुचित ख्याति से अब तक वंचित क्यों रहा? यह तल्ख टिप्पणी शमशेर बहादुर सिंह की है जो उन्होंने बड़े बेबाक ढंग से हिंदी जगत् के साहित्यकारों की निस्संगता पर कही है।[1]
जन्म और शिक्षा
गजानन माधव 'मुक्तिबोध' का जन्म 13 नवंबर, 1917 को श्यौपुर (ग्वालियर) में हुआ था। इनकी आरम्भिक शिक्षा उज्जैन में हुई। मुक्तिबोध जी के पिता पुलिस विभाग के इंस्पेक्टर थे और उनका तबादला प्रायः होता रहता था। इसीलिए मुक्तिबोध जी की पढ़ाई में बाधा पड़ती रहती थी। इन्दौर के होल्कर से सन् 1938 में बी.ए. करके उज्जैन के माडर्न स्कूल में अध्यापक हो गए।[2] इनका एक सहपाठी था शान्ताराम, जो गश्त की ड्यूटी पर तैनात हो गया था। गजानन उसी के साथ रात को शहर की घुमक्कड़ी को निकल जाते। बीड़ी का चस्का शायद तभी से लगा।
परिवार
इनके पिता माधव मुक्तिबोध भी बहुत शुस्ता फ़सीह उर्दू बोलते थे। ये कई स्थानों में थानेदार रह कर उज्जैन में इन्स्पैक्टर के पद से रिटायर हुए। मुक्तिबोध की माँ बुन्देलखण्ड की थीं, ईसागढ़ के एक किसान परिवार की। गजानन चार भाई हैं। इनसे छोटे शरतचन्द्र मराठी के प्रतिष्ठित कवि हैं। पारिवारिक असहमति और विरोध के बावजूद 1939 में शांता के साथ प्रेम-विवाह किया।
आरंभिक जीवन
मुक्तिबोध जी ने छोटी आयु में बडनगर के मिडिल स्कूल में अध्यापन कार्य प्रारम्भ किया। सन् 1940 में मुक्तिबोध शुजालपुर के शारदा शिक्षा सदन में अध्यापक हो गए। इसके बाद उज्जैन, कलकत्ता, इंदौर, बम्बई, बंगलौर, बनारस तथा जबलपुर आदि जगहों पर नौकरी की। सन् 1942 के आंदोलन में जब यह शारदा शिक्षा सदन बंद हो गया, तो यह शीराज़ा बिखर गया। मुक्तिबोध उज्जैन चले गये। भिन्न-भिन्न नौकरियाँ कीं- मास्टरी से वायुसेना, पत्रकारिता से पार्टी तक। नागपुर 1948 में आये। सूचना तथा प्रकाशन विभाग, आकाशवाणी एवं 'नया ख़ून' में काम किया। अंत में कुछ माह तक पाठ्य पुस्तकें भी लिखी। अंतत: 1958 से दिग्विजय महाविद्यालय, राजनाँदगाँव में प्राध्यापक हुए। उन्होंने लिखा है कि:-
नौकरियाँ पकड़ता और छोड़ता रहा।
शिक्षक, पत्रकार, पुनः शिक्षक, सरकारी और ग़ैर सरकारी नौकरियाँ।
निम्न-मध्यवर्गीय जीवन, बाल-बच्चे, दवादारू, जन्म-मौत में उलझा रहा।
सहपाठी मित्र
गजानन के सहपाठी मित्रों में रोमानी कल्पना के कवि वीरेन्द्र कुमार जैन और प्रभागचन्द्र शर्मा, अनन्तर 'कर्मवीर' में सहकारी सम्पादक और उस समय के एक अच्छे, योग्य कवि थे। कविता की ओर रमाशंकर शुक्ल 'हृदय' ने गजानन को काफ़ी प्रोत्साहित किया था। 'कर्मवीर' में उन की कविताएँ छप रही थीं। माखनलाल और महादेवी की रहस्यात्मक शैली मालवा के तरुण हृदयों को आकृष्ट किये हुए थी, मगर मुक्तिबोध दॉस्तॉयवस्की, फ़्लाबेअर और गोर्की में भी कम खोये हुए नहीं रहते थे।
पत्रिका सम्पादन
आगरा से नेमिचन्द्र जैन शुजालपुर पहुँच गए थे। प्रभाकर माचवे भी अक्सर आ जाते। 'तार-सप्तक' की मूल परिकल्पना भी यहीं बनी। सन् 1943 में अज्ञेय के सम्पादन में 'तार-सप्तक' का प्रकाशन हुआ। जिसकी शुरुआत मुक्तिबोध की कविताओं से होती है। उज्जैन से सन् 1945 के लगभग मुक्तिबोध बनारस गये और त्रिलोचन शास्त्री के साथ 'हंस' के सम्पादन में शामिल हुए। वहाँ सम्पादन से लेकर डिस्पैचर तक का काम वह करते थे; साठ रुपये वेतन था। उनका काशी प्रवास बहुत सुखद नहीं रहा। भारतभूषण अग्रवाल और नेमिचन्द्र जैन ने उन्हें कलकत्ता बुलाया। पर अध्यापकी या सम्पादकी का कहीं कोई डौल नहीं जमा। हार कर मुक्तिबोध सन् 1946-1947 में जबलपुर चले गये। वहाँ 'हितकारिणी हाई स्कूल' में वह अध्यापक हो गये। और फिर नागपुर जा निकले। नागपुर का समय बीहड़ संघर्ष का समय था, किन्तु रचना की दृष्टि से अत्यन्त उर्वर। 'नया ख़ून' साप्ताहिक में वे नियमित रूप से लिखते रहे। साम्प्रदायिक दंगे ज़ोरों से शुरू हो गये थे। उस ज़माने में वह दैनिक 'जय-हिन्द' में भी कुछ काम करते थे। रात की ड्यूटी दे कर कर्फ़्यू के सन्नाटे में वह घर लौटते।
तार-सप्तक
शुजालपुर और उज्जैन ने सबसे मूल्यांकन चीज़ जो हिन्दी को दी वह 'तार-सप्तक' है। इसकी मूल परिकल्पना प्रभाकर माचवे और नेमिचन्द्र जैन की थी। नाम 'तार-सप्तक' प्रभाकर माचवे का सुझाया हुआ था। भारतभूषण अग्रवाल तब नेमि जी के बड़े गहरे मित्र थे। अत: उनका सम्पर्क भी शुजालपुर और मुक्तिबोध से हो गया। आरम्भ में प्रभागचन्द्र शर्मा और वीरेन्द्र कुमार जैन भी इस सप्तक-योजना के स्वर थे। अज्ञेय जी से सम्पर्क बढ़ने पर योजना को कार्य रूप में सम्पन्न करने के लिए उसमें सम्पादन का भार उन पर डाल दिया गया। नेमिचन्द्र और भारतभूषण जब कलकत्ता (अब कोलकाता) में थे, योजना ने अन्तिम रूप ले लिया। अज्ञेय भी ने डॉ. रामविलास शर्मा और गिरिजाकुमार माथुर के नाम सुझाये। सात की सीमा निश्चित होने के कारण नामावली में परिवर्तन अनिवार्य था। 1943 में जब यह ऐतिहासिक संग्रह प्रकाशित हुआ, उसने एक लम्बे विवाद को जन्म दिया, जो किसी न किसी संदर्भ या अर्थ में अब भी जारी है। उस संग्रह में मुक्तिबोध का योग उस समय सब से प्रोढ़ चाहे न हो, मगर शायद सबसे मौलिक था। दुरूह होते हुए बौद्धिक, बौद्धिक होते हुए भी रोमानी।
बीसवीं सदी की हिंदी कविता का सबसे बेचैन, सबसे तड़पता हुआ और सबसे ईमानदार स्वर है गजानन माधव मुक्तिबोध। मुक्तिबोध की कविता जटिल है। भगवान सिंह ने उनकी कविता की जटिलता का बयान इस तरह किया है, ‘वे सरस नहीं हैं, सुखद नहीं हैं। वे हमें झकझोर देती हैं, गुदगुदाती नहीं। वे मात्र अर्थग्रहण की मांग नहीं करतीं, आचरण की भी मांग करती हैं। तारसप्तक में मुक्तिबोध ने स्वयं कहा है, ‘मेरी कविताएँ अपना पथ खोजते बेचैन मन की अभिव्यक्ति हैं। उनका सत्य और मूल्य उसी जीव-स्थिति में छिपा है।[1]
"नई कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है, जो छायावाद में निराला की थी। निराला के समान ही मुक्तिबोध ने भी अपनी युग के सामान्य काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा की चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन हो सका।"
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लेखक संघ
उज्जैन में मुक्तिबोध ने मध्य भारत प्रगतिशील लेखक संघ की बुनियाद डाली। इसकी विशिष्ट सभाओं में भाग लेने के लिए वह बाहर से डॉ. रामविलास शर्मा, अमृतराय आदि साहित्यिक विचारकों को बुलाते थे। उन्होंने सन् 1944 के अन्त में इन्दौर में फ़ासिस्ट विरोधी लेखक सम्मेलन का आयोजन किया, जो राहुल जी की अध्यक्षता में हुई। लेखकों के दायित्व पर मुक्तिबोध ने स्वयं भी एक निबन्ध उस पर पढ़ा था। मुक्तिबोध नवोदित प्रतिभावों का निरन्तर उत्साह बढ़ाते रहते और उन्हें आगे लाते। हरिनारायण व्यास, श्याम परमार, जगदीश वोरा आदि उन के प्रभाव में थे। मुक्तिबोध ने मज़दूरों से वास्तविक सम्पर्क स्थापित किया और उनसे घुलमिल कर रहे। अक्सर कष्ट में पड़े साथियों और साहित्यिक बन्धुओं के लिए दौड़-धूप करते। मसलन 'नटवर' जी के लिए उन की दौड़-धूप की, बात चलती है तो, लोग याद करते हैं।
प्रगतिशील कवि
मुक्तिबोध मूलत: कवि हैं। उनकी आलोचना उनके कवि व्यक्तित्व से ही नि:सृत और परिभाषित है। वही उसकी शक्ति और सीमा है। उन्होंने एक ओर प्रगतिवाद के कठमुल्लेपन को उभार कर सामने रखा, तो दूसरी ओर नयी कविता की ह्रासोन्मुखी प्रवृत्तियों का पर्दाफ़ाश किया। यहाँ उनकी आलोचना दृष्टि का पैनापन और मौलिकता असन्दिग्ध है। उनकी सैद्धान्तिक और व्यावहारिक समीक्षा में तेजस्विता है। जयशंकर प्रसाद, शमशेर, कुँवर नारायण जैसे कवियों की उन्होंने जो आलोचना की है, उसमें पर्याप्त विचारोत्तेजकता है और विरोधी दृष्टि रखने वाले भी उनसे बहुत कुछ सीख सकते हैं। काव्य की सृजन प्रक्रिया पर उनका निबन्ध महत्त्वपूर्ण है। ख़ासकर फैण्टेसी का जैसा विवेचन उन्होंने किया है, वह अत्यन्त गहन और तात्विक है। उन्होंने नयी कविता का अपना शास्त्र ही गढ़ डाला है। पर वे निरे शास्त्रीय आलोचक नहीं हैं। उनकी कविता की ही तरह उनकी आलोचना में भी वही चरमता है, ईमान और अनुभव की वही पारदर्शिता है, जो प्रथम श्रेणी के लेखकों में पाई जाती है। उन्होंने अपनी आलोचना द्वारा ऐसे अनेक तथ्यों को उद्घाटित किया है, जिन पर साधारणत: ध्यान नहीं दिया जाता रहा। 'जड़ीभूत सौन्दर्याभरुचि' तथा 'व्यक्ति के अन्त:करण के संस्कार में उसके परिवार का योगदान' उदाहरण के रूप में गिनाए जा सकते हैं। डॉ. नामवर सिंह जी के शब्दों में - "नई कविता में मुक्तिबोध की जगह वही है ,जो छायावाद में निराला की थी। निराला के समान ही मुक्तिबोध ने भी अपनी युग के सामान्य काव्य-मूल्यों को प्रतिफलित करने के साथ ही उनकी सीमा की चुनौती देकर उस सर्जनात्मक विशिष्टता को चरितार्थ किया, जिससे समकालीन काव्य का सही मूल्यांकन हो सका।"
कृतियाँ
मुक्तिबोध हिंदी के अतिविशिष्ट रचनाकार हैं। उन्हें उम्र ज़रूर कम मिली, पर कविता, कहानी और आलोचना में उन्होंने युग बदल देने वाला काम किया। पहली बार वह व्यवस्थित रूप में ‘अज्ञेय’ द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ में अपनी कविताओं के साथ उपस्थित हुए। यह बेहद दुर्भाग्यपूर्ण था कि उनके जीवनकाल में उनकी कविता की कोई किताब नहीं प्रकाशित हो पाई। उनके जीवित रहते उनकी सिर्फ़ एक किताब छपी, यह थी ‘एक साहित्यिक की डायरी।’ इसके बावज़ूद बाद में वे ऐसे विलक्षण रचनाकार साबित हुए जिनके लिखे की गूँज परवर्ती कविता, विचार, आलोचना या कहानी सबमें बढ़ती ही चली गई। सन् 1954 में उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से हिन्दी में एम. ए. किया, जिसके फलस्वरूप राजनाँदगाँव के दिग्विजय कॉलेज में नियुक्त हुए। उनकी कुछ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृतियाँ यहीं लिखी गईं। उनकी कृतियों के नाम इस प्रकार है:-[3]
कहानी | कविताएँ | |
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साहित्यिक परिचय
मुक्तिबोध को अपने जीवन काल में न तो बहुत पहचान मिली और न ही उनका कोई भी कविता संग्रह प्रकाशित हो सका। लेकिन उनकी असमय मृत्यु के बाद अचानक ही मुक्तिबोध हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर छा गये। सबसे पहले उनकी कवितायें अज्ञेय द्वारा संपादित ‘तार सप्तक’ (1943) में प्रकाशित हुई थीं। मुक्तिबोध ने कहानी, कविता, उपन्यास, आलोचना आदि विधाओं में लिखा और हर क्षेत्र में उनका हस्तक्षेप अलग से महसूस किया जा सकता है। उन्हें प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, नयी कविता आदि साहित्यिक आंदोलनों के साथ जोड़कर देखा जाता है। ‘अँधेरे में’ और ‘ब्रह्मराक्षस’ मुक्तिबोध की सर्वाधिक महत्वपूर्ण रचनायें मानी जाती हैं। ‘ब्रह्मराक्षस’ कविता में कवि ने ‘ब्रह्मराक्षस’ के मिथक के जरिये बुद्धिजीवी वर्ग के द्वंद्व और आम जनता से उसके अलगाव की व्यथा का मार्मिक चित्रण किया है। इस कविता के संदेश को यदि एक पंक्ति में व्यक्त करना हो तो कहा जा सकता है कि ‘अच्छे व बुरे के संघर्ष से भी उग्रतर / अच्छे व उससे अधिक अच्छे बीच का संगर’। लगभग इन्हीं आशयों की कहानी ‘ब्रह्मराक्षस का शिष्य’ भी उन्होंने लिखी।
कहा जा सकता है कि ये कविताएँ निराला की संवेदनशीलता और कबीर के अक्खड़पन का अद्भुत सम्मिश्रण हैं। मुक्तिबोध की रचनाएँ सृजन का विस्फोट हैं। वे सजग चित्रकार की भाँति दुनिया का सुंदरतम उकेरना चाहते हैं। वे चाहते हैं उजली-उजली इबारत, मगर अंधेरे बार-बार उनकी राह रोक लेते हैं। अंधेरे के चक्रव्यूह में घिरे वे अभिमन्यू की तरह अकेले ही जूझते हैं, अनवरत लगातार। यह युद्ध कभी खत्म नहीं होता, चलता ही रहता है उनके भीतर। वे लड़ते हैं आजीवन क्योंकि उन्हें लगता है कि उन जैसों के हाथ में सच की विरासत है, जिसे उन्हें आने वाले समय को, पीढ़ी को ज्यों का त्यों सौंपना है।
‘वे आते होंगे लोग....
अरे जिनके हाथों में तुम्हें सौंपने ही होंगे
ये मौन उपेक्षित रत्न
मात्र तब तक
केवल तब तक
तुम छिपा चलो धुरिमान उन्हें तम गुहा तले
ओ संवेदन मय ज्ञान नाग
कुन्डली मार तुम दबा रखो
फूटती रश्मियाँ।‘
'वे आते ही होंए लो
जिन्हें तुम दोगे देना ही होगा पूरा हिसाब
अपना सबका, मन का, जन का'[1]
अँधेरे में
‘अँधेरे में’ मुक्तिबोध की अंतिम कविता है और शायद सबसे महत्वपूर्ण भी। इस कविता में सत्ता और बौद्धक वर्ग के बीच गठजोड़, उनके बेनकाब होने, सत्ता द्वारा लोगों पर दमन, पुराने के ध्वंस पर नये के सृजन, इतिहास के बारे में नयी अंतर्दृष्टि आदि देखने को मिलती है। ‘अँधेरे में’ स्वतंत्रता के बाद के भारत के दो दशकों का अख्यान नहीं है, उसमें हमारा संपूर्ण अतीत मुखरित होता सुना जा सकता है। शायद यही वजह है कि मुक्तिबोध को ‘सभ्यता समीक्षा’ शब्द बहुत प्रिय है। वे वर्तमान की घटनाओं को महज़ एक असंबद्ध घटना की तरह नहीं बल्कि उसके पीछे की पूरी कार्यकारण श्रृंखला के बतौर समझने की कोशिश करते हैं। जब वे इस प्रक्रिया का अनुसरण करते हैं, तो उनकी कवितायें लंबी होती चली जाती है। उन्होंने खुद भी लिखा है कि उनकी जो भी कवितायें छोटी हैं, वे छोटी नहीं बल्कि अधूरी हैं।
गद्य लेखन
मुक्तिबोध ने कविताओं के अलावा कहानियां भी लिखीं। उनकी कहानियां भी कविताओं का ही विस्तार और कई बार उनका पूर्वाभ्यास लगती हैं। कहानियों में भी वही जटिलता और संश्लिष्ट बिंबों वाली भाषा मौजूद है, जो उनकी कविताओं की विशिष्टता है। मुक्तिबोध ने हिंदी आलोचना में भी महत्वपूर्ण योगदान किया। उन्होंने ‘कामायनी : एक पुनर्विचार’ पुस्तक के जरिये कामायनी पर चली आ रही तमाम बहसों को एक नये स्तर तक उठा दिया। उन्होंने कामायनी को एक विशाल फैंटेसी के रूप में पढ़ने की कोशिश की, जिसमें ढहते हुए सामंती मूल्यों की छाया स्पष्ट देखी जा सकती है। रामधारी सिंह दिनकर की पुस्तक ‘उर्वशी’ पर चली बहस में उनका हस्तक्षेप बहुत कारगर था, जिसमें उन्होंने ‘उर्वशी’ को व्यर्थ में महिमामंडित करने का तीखा प्रतिवाद किया। मुक्तिबोध ने भक्ति आंदोलन का भी नये सिरे से मूल्यांकन किया और स्थापित किया कि यह मूलत: निचली जातियों का शोषक जातियों के ख़िलाफ़ विद्रोह था। बाद में शोषक जातियों ने इस आंदोलन पर नियंत्रण हासिल कर लिया और भक्ति आंदोलन पूरी तरह बिखर गया। उन्होंने साहित्य की रचना प्रक्रिया के बारे में भी महत्वपूर्ण लेखन किया। रचना-प्रक्रिया के संदर्भ में ‘कला का तीसरा क्षण’ हिन्दी साहित्य की बड़ी उपलब्धि है।[4]
गोत्रहीन कवि
मुक्तिबोध गोत्रहीन कवि हैं। हिन्दी में उनका कोई पूर्वज नहीं खोजा जा सकता। असल में उनके पूर्वज तोल्सतोय, दोस्तोवस्की, गोर्की इत्यादि रूसी उपन्यासकार थे। ऐसा कोई कवि पहले नहीं हुआ जिसकी प्रेरणा कविता के अलावा उपन्यासों से आई हो। मुक्तिबोध के बाद भी किसी ने उस तरह के शिल्प में उतनी कविता लिखने की हिम्मत नहीं की, क्योंकि उन जैसा लिखना वैसे भी संभव नहीं था। इस तरह अपने समय के अंधेरे को पहचानने की चेष्टा करना, अपने समय के अंधेरे को टटोलना और उस अंधेरे में अपनी हिस्सेदारी, अपनी शिरकत को, आत्म-निर्ममता को स्वीकार करना, मुक्तिबोध से सीखा जा सकता है। बीसवीं सदी के महान् भारतीय लेखकों में मुक्तिबोध का नाम हमेशा रहेगा।[5]
निधन
मुक्तिबोध की रुचि अध्ययन-अध्यापन, पत्रकारिता, समसामयिक राजनीतिक एवं साहित्य के विषयों पर लेखन में थी। 1942 के आसपास वे वामपंथी विचारधारा की ओर झुके और शुजालपुर में रहते हुए उनकी वामपंथी चेतना मजबूत हुई। आजीवन ग़रीबी से लड़ते हुए और रोगों का मुकाबला करते हुए 11 सितम्बर, 1964 को नई दिल्ली में मुक्तिबोध की मृत्यु हो गयी।
मुक्तिबोध स्मारक
11 सितंबर, 1964 को अपनी मृत्य से पहले तक मुक्तिबोध अपने निवास स्थान पर रहे जिसे अब मुक्तिबोध स्मारक बना दिया गया है। मुक्तिबोध स्मारक में स्थित उनका एक तैलचित्र भी मौजूद है। यहाँ से रानीसागर का नज़ारा दिखता है। मुक्तिबोध स्मारक में स्थित चक्करदार सीढ़ियां भी हैं, जिनके बिंब उनकी कविताओं में कई बार आए हैं।[6]कुछ विद्वान् मुक्तिबोध को मार्क्सवादी और समाजवादी विचारों से प्रभावित बताते हैं, तो कुछ उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताते हैं। डॉ. रामविलास शर्मा ने उन्हें अस्तित्ववाद से प्रभावित बताते हुए उनकी कविताओं को खारिज किया है, लेकिन मुक्तिबोध प्रगतिशील आंदोलन के छिन्न-भिन्न होने के बाद भी प्रगतिशील मूल्यों पर खड़े रहे। आधुनिकतावाद और व्यक्तिवाद के जरिये समाज की चिंता को साहित्य से परे धकेलने की कोशिशों का उन्होंने विरोध किया। मुक्तिबोध के बाद के कवियों पर उनका व्यापक असर है। अनेक विश्वविद्यालयों में मुक्तिबोध की कविताओं व आलोचना पर शोध कार्य हुए हैं और हो रहे हैं। निर्देशक मणि कौल ने उनकी कहानी ‘सहत से उठता आदमी’ पर एक फ़िल्म का निर्माण किया। 2004 में मुक्तिबोध, पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी और बलदेव मिश्र की स्मृति में राजनांदगांव में एक स्मारक का निर्माण किया गया।[4]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 मुक्तिबोध की कविता- मध्यवर्गीय संघर्ष और विषमताओं की ताकत का आख्यान (हिन्दी) फाल्गुन विश्व। अभिगमन तिथि: 23 दिसम्बर, 2014।
- ↑ हिन्दीकुंज (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) हिन्दी कुँज। अभिगमन तिथि: 12 नवंबर, 2010।
- ↑ गजानन माधव मुक्तिबोध (हिंदी) हिन्दी समय। अभिगमन तिथि: 26 अक्टूबर, 2014।
- ↑ 4.0 4.1 मुक्तिबोध (हिंदी) सहपीडिया। अभिगमन तिथि: 27 अक्टूबर, 2014।
- ↑ वाजपेयी, अशोक। मुक्तिबोधः 'एक गोत्रहीन कवि' (हिन्दी) बीबीसी हिन्दी। अभिगमन तिथि: 25 दिसम्बर, 2014।
- ↑ गजानन माधव मुक्तिबोध जहां रहते थे... (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल) अमर उजाला। अभिगमन तिथि: 26 अक्टूबर, 2014।
बाहरी कड़ियाँ
- नाश देवता - गजानन माधव "मुक्तिबोध"
- गजानन माधव मुक्तिबोध-कविता
- अंधेरे में / गजानन माधव मुक्तिबोध
- मुक्तिबोध की याद (2) - महेंद्र भटनागर
- मुक्तिबोध ने मार्क्सवाद का अतिक्रमण किया है
- मुक्तिबोध स्मृति-1 : एक दोपहर ‘अंधेरे में’
- मुक्तिबोध की कविताएं
- मुक्तिबोध की कविता- मध्यवर्गीय संघर्ष और विषमताओं की ताकत का आख्यान
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