"पंचशिख जनक चर्चा": अवतरणों में अंतर

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
No edit summary
छो (Text replacement - " महान " to " महान् ")
 
पंक्ति 1: पंक्ति 1:
'''पंचशिख जनक चर्चा''' का उपदेशात्मक रहस्य [[शांतिपर्व महाभारत|महाभारत शांतिपर्व]] के अनुसार पितामह [[भीष्म]] ने बताया था। [[मिथिला]] के राजा [[जनक]] ब्रह्म प्राप्ति के लिए सदैव ज्ञान चर्चा में संलग्न रहते थे। उनके प्रासाद में लगभग एक सौ शिक्षक धर्मोपदेशक इस विषय पर बातें करते रहते थे। उन्होंने [[वेद|वेदों]] का अध्ययन किया था। वे [[आत्मा]] के चरित्र, मृत्यु के पश्चात् काया के [[पंचभूत|पंचभूतों]] में विसर्जन और [[पुनर्जन्म]] की धारणा के बारे में धर्मोपदेशकों की धारणाओं से संतुष्ट और सहमत नहीं थे।
'''पंचशिख जनक चर्चा''' का उपदेशात्मक रहस्य [[शांतिपर्व महाभारत|महाभारत शांतिपर्व]] के अनुसार पितामह [[भीष्म]] ने बताया था। [[मिथिला]] के राजा [[जनक]] ब्रह्म प्राप्ति के लिए सदैव ज्ञान चर्चा में संलग्न रहते थे। उनके प्रासाद में लगभग एक सौ शिक्षक धर्मोपदेशक इस विषय पर बातें करते रहते थे। उन्होंने [[वेद|वेदों]] का अध्ययन किया था। वे [[आत्मा]] के चरित्र, मृत्यु के पश्चात् काया के [[पंचभूत|पंचभूतों]] में विसर्जन और [[पुनर्जन्म]] की धारणा के बारे में धर्मोपदेशकों की धारणाओं से संतुष्ट और सहमत नहीं थे।
==कथा==
==कथा==
एक बार [[पृथ्वी]] परिभ्रमण करते समय [[पंचशिख (ऋषि)|पंचशिख कापिलेय]] मिथिला पधारे। वे एक महान [[ऋषि]] और प्रजापति थे, जिन्हें लोक 'सांख्य कपिल' के नाम से जानता है। उसके अनुसार वे आसुरी के दीर्घ जीवी प्रथम शिष्य थे। उन्होंने एक सहस्र वर्ष तक पंचस्त्रोत्र नामक 'मानस यज्ञ' को सम्पन्न किया था। वे पांचरात्र में पूर्णतया पारंगत थे। यह वह [[यज्ञ]] था, जिससे [[विष्णु]] प्रसन्न होते हैं। [[आत्मा]] को पांच आवरण ढकते हैं। वे दूर हट जाते हैं। वे आसुरी [[ब्राह्मण]] के शिष्य बने। अत: उनकी ब्राह्मणी पत्नी मिथिला ने उन्हें पुत्रवत् स्वीकार किया और अपने स्तनों से [[दुग्ध]] का पान कराया।
एक बार [[पृथ्वी]] परिभ्रमण करते समय [[पंचशिख (ऋषि)|पंचशिख कापिलेय]] मिथिला पधारे। वे एक महान् [[ऋषि]] और प्रजापति थे, जिन्हें लोक 'सांख्य कपिल' के नाम से जानता है। उसके अनुसार वे आसुरी के दीर्घ जीवी प्रथम शिष्य थे। उन्होंने एक सहस्र वर्ष तक पंचस्त्रोत्र नामक 'मानस यज्ञ' को सम्पन्न किया था। वे पांचरात्र में पूर्णतया पारंगत थे। यह वह [[यज्ञ]] था, जिससे [[विष्णु]] प्रसन्न होते हैं। [[आत्मा]] को पांच आवरण ढकते हैं। वे दूर हट जाते हैं। वे आसुरी [[ब्राह्मण]] के शिष्य बने। अत: उनकी ब्राह्मणी पत्नी मिथिला ने उन्हें पुत्रवत् स्वीकार किया और अपने स्तनों से [[दुग्ध]] का पान कराया।


ऐसा भीष्म ने कहा जैसा कि उन्हें मार्कंडेय और सनत कुमारों ने बताया था। पंचशिख के पधारने पर [[जनक]] ने अपने सौ धर्मोपदेशकों को त्याग कर कापिलेय पर ध्यान केन्द्रित किया, जिन्होंने '[[सांख्य दर्शन]]' की बातें जनक को बताईं। ...‘ज्ञान से ही अविद्या नष्ट होती है। अस्तित्त्व का विनाश इसी में निहित है।’ यह रहस्य सुनकर जनक गदगद और आश्चर्यचकित हुए। उनकी मृत्यु के पश्चात् अस्तित्त्व या विनाश की ज्ञान चर्चा चलती रही। तब [[मिथिला]] नरेश ने पूरी नगरी को [[अग्नि]] में स्वाहा होते देखा। तब वे बोले इस अग्निदाह में मेरा कुछ भी अग्नि को स्वाहा नहीं हो रहा। इस प्रकार जनक ने अपने तमाम विषादों से मुक्ति पाई। इस अमृत वचन को जो भी श्रवण करेगा, उसको अवश्य ही मोक्ष की प्राप्ति होगी।<ref>[[महाभारत]], [[शांतिपर्व महाभारत|शांतिपर्व]], अध्याय 219</ref>
ऐसा भीष्म ने कहा जैसा कि उन्हें मार्कंडेय और सनत कुमारों ने बताया था। पंचशिख के पधारने पर [[जनक]] ने अपने सौ धर्मोपदेशकों को त्याग कर कापिलेय पर ध्यान केन्द्रित किया, जिन्होंने '[[सांख्य दर्शन]]' की बातें जनक को बताईं। ...‘ज्ञान से ही अविद्या नष्ट होती है। अस्तित्त्व का विनाश इसी में निहित है।’ यह रहस्य सुनकर जनक गदगद और आश्चर्यचकित हुए। उनकी मृत्यु के पश्चात् अस्तित्त्व या विनाश की ज्ञान चर्चा चलती रही। तब [[मिथिला]] नरेश ने पूरी नगरी को [[अग्नि]] में स्वाहा होते देखा। तब वे बोले इस अग्निदाह में मेरा कुछ भी अग्नि को स्वाहा नहीं हो रहा। इस प्रकार जनक ने अपने तमाम विषादों से मुक्ति पाई। इस अमृत वचन को जो भी श्रवण करेगा, उसको अवश्य ही मोक्ष की प्राप्ति होगी।<ref>[[महाभारत]], [[शांतिपर्व महाभारत|शांतिपर्व]], अध्याय 219</ref>

14:15, 30 जून 2017 के समय का अवतरण

पंचशिख जनक चर्चा का उपदेशात्मक रहस्य महाभारत शांतिपर्व के अनुसार पितामह भीष्म ने बताया था। मिथिला के राजा जनक ब्रह्म प्राप्ति के लिए सदैव ज्ञान चर्चा में संलग्न रहते थे। उनके प्रासाद में लगभग एक सौ शिक्षक धर्मोपदेशक इस विषय पर बातें करते रहते थे। उन्होंने वेदों का अध्ययन किया था। वे आत्मा के चरित्र, मृत्यु के पश्चात् काया के पंचभूतों में विसर्जन और पुनर्जन्म की धारणा के बारे में धर्मोपदेशकों की धारणाओं से संतुष्ट और सहमत नहीं थे।

कथा

एक बार पृथ्वी परिभ्रमण करते समय पंचशिख कापिलेय मिथिला पधारे। वे एक महान् ऋषि और प्रजापति थे, जिन्हें लोक 'सांख्य कपिल' के नाम से जानता है। उसके अनुसार वे आसुरी के दीर्घ जीवी प्रथम शिष्य थे। उन्होंने एक सहस्र वर्ष तक पंचस्त्रोत्र नामक 'मानस यज्ञ' को सम्पन्न किया था। वे पांचरात्र में पूर्णतया पारंगत थे। यह वह यज्ञ था, जिससे विष्णु प्रसन्न होते हैं। आत्मा को पांच आवरण ढकते हैं। वे दूर हट जाते हैं। वे आसुरी ब्राह्मण के शिष्य बने। अत: उनकी ब्राह्मणी पत्नी मिथिला ने उन्हें पुत्रवत् स्वीकार किया और अपने स्तनों से दुग्ध का पान कराया।

ऐसा भीष्म ने कहा जैसा कि उन्हें मार्कंडेय और सनत कुमारों ने बताया था। पंचशिख के पधारने पर जनक ने अपने सौ धर्मोपदेशकों को त्याग कर कापिलेय पर ध्यान केन्द्रित किया, जिन्होंने 'सांख्य दर्शन' की बातें जनक को बताईं। ...‘ज्ञान से ही अविद्या नष्ट होती है। अस्तित्त्व का विनाश इसी में निहित है।’ यह रहस्य सुनकर जनक गदगद और आश्चर्यचकित हुए। उनकी मृत्यु के पश्चात् अस्तित्त्व या विनाश की ज्ञान चर्चा चलती रही। तब मिथिला नरेश ने पूरी नगरी को अग्नि में स्वाहा होते देखा। तब वे बोले इस अग्निदाह में मेरा कुछ भी अग्नि को स्वाहा नहीं हो रहा। इस प्रकार जनक ने अपने तमाम विषादों से मुक्ति पाई। इस अमृत वचन को जो भी श्रवण करेगा, उसको अवश्य ही मोक्ष की प्राप्ति होगी।[1]


इन्हें भी देखें: पंचशिख (बहुविकल्पी)


पन्ने की प्रगति अवस्था
आधार
प्रारम्भिक
माध्यमिक
पूर्णता
शोध

टीका टिप्पणी और संदर्भ

भारतीय संस्कृति कोश, भाग-2 |प्रकाशक: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, नई दिल्ली-110002 |संपादन: प्रोफ़ेसर देवेन्द्र मिश्र |पृष्ठ संख्या: 461 |

संबंधित लेख